भारत के पश्चिमी तट के कालिकत नामक स्थान पर वास्को-दी-गामा आ पहुंचा । इसके पश्चात सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तट पर अपनी सत्ता को दृढ़ बनाया । सत्रहवीं शताब्दी में डच, अंग्रेज और फ्रांसीसी व्यापारी भारत में आए । उस समय भारत में मुगलों की शक्तिशाली सत्ता अस्तित्व में थी ।
Essay # 1. यूरोपीय व्यापारियों के प्रारंभिक प्रयास:
प्रारंभ में यूरोपीय व्यापारी मुगल शासकों से अनुमति प्राप्त करके शांतिपूर्ण ढंग से व्यापार करते थे । व्यापारिक सुविधाओं के लिए पुर्तगाली, डच, अंग्रेज और फ्रांसीसी व्यापारियों ने भारत में अपने व्यापारिक केंद्र बनाए । इन स्थानों को ‘गोदाम’ कहते थे ।
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल सत्ता का पतन प्रारंभ हुआ । मुगल साम्राज्य के सूबेदार मनमाने ढंग से आचरण करने लगे । देश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गई । यूरोपीय व्यापारियों ने इसका लाभ उठाया ।
Essay # 2. अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष:
भारत में चल रहे व्यापार में एकाधिकार पाने के लिए विदेशी सत्ताओं में जबर्दस्त होड़ मची हुई थी । अठारहवीं शताब्दी में कर्नाटक के नवाब की गद्दी को लेकर भारतीय सत्ताधीशों के बीच विवाद प्रारंभ हुआ । फ्रांसीसी और अंग्रेज भांप गए कि कर्नाटक की राजनीति में प्रवेश पाने का यही सुनहरा अवसर है ।
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अत: गद्दी पाने के लिए लालायित एक प्रतियोगी को फ्रांसीसियों ने तथा उसके विरोधी प्रतियोगी को अंग्रेजों ने सैनिक सहायता दी । इस स्पर्धा के चलते अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच तीन युद्ध हुए । इन्हें ‘कर्नाटक युद्ध’ कहा जाता है । तीसरे युद्ध में अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को पराजित किया । फलस्वरूप अब भारत में अंग्रेजों के सम्मुख अन्य कोई प्रबल यूरोपीय सत्ता नहीं बची थी ।
Essay # 3. बंगाल में राजनीतिक घटनाएँ:
बंगाल में अंग्रेजी और फ्रांसीसी प्राप्त व्यापारिक सुविधाओं का दुरुपयोग करने लगे थे । बंगाल के नवाब सिराजुद्दौल्ला से अनुमति न लेते हुए अंग्रेजों ने अपने गोदामों के चारों ओर परकोटे बनवाए । परिणामस्वरूप सिराजुद्दौल्ला और अंग्रेजों के बीच विवाद शुरू हुआ ।
ई॰स॰ १७५७ में प्लासी में इन दोनों के बीच युद्ध हुआ । अंग्रेजों ने मीर जाफर को नवाब पद का लालच दिखाकर उसे अपने पक्ष में कर लिया । उसने अपने नेतृत्व में नवाब की सेना को युद्ध में उतारा ही नहीं । नवाब सिराजुद्दौल्ला को पीछे हटना पड़ा । इस प्रकार अंग्रेजों ने शस्त्र शक्ति का प्रयोग किए बिना कूटनीति से प्लासी के युद्ध में विजय पाई ।
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अंग्रेजों के समर्थन से मीर जाफर बंगाल का नवाब बना परंतु कालांतर में उसके द्वारा अंग्रेजों का विरोध किए जाने पर अंग्रेजों ने उसके दामाद मीर कासिम को बंगाल का नवाब बनाया । जब मीर कासिम ने अंग्रेजों के अवैध व्यापार की रोकथाम करने का प्रयास किया तो अंग्रेजों ने पुन: मीर जाफर को नवाब की गद्दी प्रदान की ।
बंगाल में चल रही अंग्रेजों की गतिविधियों पर अंकुशा लगाने के लिए अवध के नवाब शुजाउद्दौल्ला, मीर कासिम और मुगल शासक शाह आलम ने इकट्ठे होकर अभियान चलाया । ई॰स॰ १७६४ में बिहार में बक्सर नामक स्थान पर अंग्रेजों के साथ इन्होंने युद्ध किया ।
इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए । इस युद्ध के पश्चात इलाहाबाद की संधि हुई । इस संधि के अनुसार अंग्रेजों को बंगाल प्रांत का राजस्व वसूल करने का अधिकार प्राप्त हुआ । इसे ‘दीवानी अधिकार’ कहते है । इस तरह अंग्रेजों ने बंगाल में अंग्रेजी सत्ता की नींव रखी ।
Essay # 4. अंग्रेज और मैसूर के बीच संघर्ष:
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मैसूर शासक और अंग्रेजों के बीच चार बार युद्ध हुए । मैसूर के हैदर अली के पश्चात उसके पुत्र टीपू सुलतान ने अंग्रेजों के विरुद्ध प्रखरता से अभियान चलाया । ई॰स॰ १७९९ में श्रीरंगपटटण में हुए युद्ध में टीपू वीरगति को प्राप्त हुआ । फलस्वरूप मैसूर राज्य पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया ।
Essay # 5. अंग्रेज और मराठा:
अंग्रेजों का पश्चिमी भारत का प्रमुख केंद्र मुंबई था । वे मुंबई के आसपास के प्रदेश को प्राप्त करने हेतु प्रयासरत थे परंतु इस प्रदेश पर मराठी का सशक्त नियंत्रण था । माधवराव पेशवा की मृत्यु के पश्चात रघुनाथराव के मन में पेशवा पद पाने का लोभ उत्पन्न हुआ ।
इसके लिए उसने अंग्रेजों से सहायता माँगी । इस रूप में मराठी की राजनीति में अंग्रेजों का हस्तक्षेप प्रारंभ हुआ । ई॰स॰ १७७४ से १८१८ के बीच मराठों और अंग्रेजों के बीच तीन बार युद्ध हुए । प्रथम युद्ध में मराठा सरदारों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के साथ युद्ध किया । इस कारण मराठा विजयी रहे । ई॰स॰ १७८२ में सालबाई की संधि हुई और अंग्रेज-मराठों का यह प्रथम युद्ध समाप्त हुआ ।
Essay # 6. सहायक संधि:
ई॰स॰ १७९८ में लार्ड वेलेजली गवर्नर के रूप में भारत आया । उसने संपूर्ण भारत पर अंग्रेजों का शासन स्थापित करने की नीति अपनाई थी । इसके लिए उसने भारतीय शासकों के साथ सहायक संधि स्थापित की । इस संधि के अनुसार भारतीय शासकों को अंग्रेजी सेना की सहायता देने का आश्वासन दिया गया था परंतु इसके लिए कुछ शर्तें रखी गई थी ।
इन शर्तों के अनुसार भारतीय शासक अपने राज्य में अंग्रेजी सेना रखें । इस सेना के व्यय के लिए नकद धन अथवा उतना ही आयवाला प्रदेश अपने शासन से अलग करके कंपनी को दें । यदि ये शासक अन्य सत्ताधीशों के साथ संबंध बनाना चाहें तो अंग्रेजों की मध्यस्थता से ही बनाएँ । अपने दरबार में अंग्रेजों का रेजीडेंट (प्रतिनिधि) रखें । भारत के कुछ शासक इस संधि को स्वीकार करके अपनी स्वतंत्रता खो बैठे ।
ई॰स॰ १८०२ में द्वितीय बाजीराव ने अंग्रेजों की सहायक संधि को स्वीकार किया । यह संधि ‘वसई की संधि’ के रूप में प्रसिद्ध है परंतु यह संधि कुछ मराठा सरदारों को स्वीकार नहीं थी । फलस्वरूप अंग्रेज और मराठी के बीच द्वितीय युद्ध हुआ ।
इस युद्ध में विजय पाने के पश्चात अंग्रेजों का मराठी प्रशासन में हस्तक्षेप बढ़ने लगा । इस हस्तक्षेप से त्रस्त होकर द्वितीय बाजीराव ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की । इस युद्ध में उसकी पराजय हुई और ई॰स॰ १८१८ में उसने आत्मसमर्पण किया ।
Essay # 7. सिंध पर अंग्रेजों का अधिकार:
भारत में अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने हेतु अंग्रेजों ने पश्चिमोत्तर सीमा पर अपना ध्यान केंद्रित किया । अंग्रेजों को यह भय था कि रूस अफगानिस्तान के रास्ते से भारत पर आक्रमण कर सकता है । अत: अंग्रेजों ने अफगानिस्तान में अपना प्रभाव स्थापित करने का निश्चय किया । अफगानिस्तान को जानेवाले मार्ग सिंध से होकर जाते थे । सिंध का महत्व अंग्रेजों के ध्यान में आया और ई॰स॰ १८४३ में उन्होंने सिंध को हड़प लिया ।
Essay # 8. सिख सत्ता की पराजय:
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में सिख राज्य सत्ता में था । रणजीत सिंह इस राज्य का शासक था । रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात उसका बेटा दलीप सिंह गद्दी पर बैठा । उसकी माँ जिंदन उसके नाम पर राज्य का प्रशासन चलाने लगी परंतु उसका सरदारों पर नियंत्रण नहीं रह गया था । इस अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने कुछ सिख सरदारों को अपने पक्ष में कर लिया ।
सिखों को लगने लगा कि अंग्रेज पंजाब पर आक्रमण करेंगे । फलस्वरूप उन्होंने अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया । सिख और अंग्रेजों के बीच हुए इस प्रथम युद्ध में सिखों की पराजय हुई परंतु अंग्रेजों ने दलीप सिंह को गद्दी से नहीं हटाया । आगे चलकर अंग्रेजों का पंजाब पर बढ़ता प्रभाव कतिपय स्वतंत्रता प्रेमी सिखों को त्रस्त करने लगा ।
मुलतान के अधिकारी मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया । हजारों सिख सैनिक अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में उतरे । द्वितीय युद्ध में भी सिखों की पराजय हुई । ई॰स॰ १८४९ में अंग्रेजों ने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया । इस प्रकार अंग्रेजों ने भारत के शासकों को निष्प्रभ करके अपना प्रभाव स्थापित किया ।