Here is an essay on ‘Emotions’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Emotions’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Emotions
Essay Contents:
- संवेग का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definition of Emotions)
- संवेगों का स्वरूप (Nature of Emotions)
- संवेगों के आधार (Basis of Emotions)
- संवेगावस्था में स्नायु संस्थान का कार्य (Role of Nervous System in Emotion Stage)
- संवेगों में शारीरिक परिवर्तनों का महत्व (Importance of Physical Changes in Emotion)
- संवेगों के स्थायीभाव (Sentiments of Emotion)
- संवेगों का विकास – शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक (Development from Infancy to Adulthood)
- सकारात्मक संवेग (Positive Emotions)
- बाल संवेगों को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Children’s Emotions)
- नवजात शिशु के संवेग या संवेगात्मक विकास (Emotional Development of an Infant)
- बाल संवेगों की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Children’s Emotion)
Essay # 1. संवेग का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definition of Emotions):
संवेग शब्द का अंग्रेजी रूपान्तरण ‘एमोशन’ (Emotion) है । एमोशन शब्द लैटिन भाषा के एमोवेअर (Emovere) शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ हिला देना या उत्तेजित कर देना है । संवेग मनुष्य को झकझोर देता है । उदाहरण के लिए, आप किसी क्रोधित व्यक्ति को देखिये ।
ADVERTISEMENTS:
उसकी मुट्ठियाँ भिंच जाती हैं, दाँत किटकिटाने लगते हैं, माथे पर सलवटें पड़ जाती हैं, उसका पूरा शरीर उत्तेजित-सा प्रतीत होता है । संवेग मनुष्य को हिलाकर रख देता है । मनुष्य का सन्तुलन संवेग की अवस्था में बिगड़ जाता है, जिस कारण व्यक्ति की बुद्धि उचित प्रकार से कार्य नहीं कर पाती ।
परन्तु इससे यह आवश्यक नहीं कि संवेग काम में बाधक हों । जहाँ संवेग मनुष्य जीवन में कठिनाइयाँ लाता है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति को संवेग से अच्छे कार्य करने में अभिप्रेरणा भी मिलती है । कभी-कभी प्रेम के वशीभूत होकर कुछ युवक अपना भविष्य खराब कर लेते हैं, तो बहुत-से युवक प्रेम की अभिप्रेरणा से उन्नति का शिखर प्राप्त कर लेते हैं ।
यह बात बिल्कुल ठीक है, कि ठण्डे दिमाग से जो कार्य किया जाता है, उसमें मार्ग भ्रष्ट होने का भय बहुत कम होता है । वास्तव में संवेग जीव की शक्ति को उत्तेजित करते हैं और आपातकाल में उसकी बडी सहायता करते हैं । संवेग की अवस्था में मनुष्य ऐसे कार्य करता है जो वह सामान्य अवस्था में नहीं कर सकता ।
लेकिन कभी-कभी संवेग के कारण जीव एकदम स्तम्भित हो जाता है और सामान्य क्रियाएँ भी नहीं कर सकता । कुछ मनोवैज्ञानिकों का मानना है, कि संवेग और प्रेरणा में कोई अन्तर नही है । परन्तु व्यक्ति अपने अनुभव द्वारा यह ज्ञात कर सकता है, कि इन दोनों में कितना अन्तर है?
ADVERTISEMENTS:
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने शारीरिक क्रियाओं तथा संवेगों में अन्तर नहीं किया है । इन सब मतों का विवेचन यथास्थान किया जायेगा, तभी संवेग का वास्तविक अर्थ भी स्पष्ट होगा ।
संवेग की परिभाषा निम्न शब्दों में दी जा सकती है:
पी.वी.यंग के क थनानुसार, ”संवेग सम्पूर्ण व्यक्ति में तीव्र उद्वेग या उपद्रव की अवस्था है, जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है और जिसमें व्यवहार चेतन अनुभव तथा अंतरावयवीय कार्य सन्निहित रहते हैं ।”
वुडवर्थ ने लिखा है कि, ”प्रत्येक संवेग एक अनुभूति होती है, तथा प्रत्येक संवेग उसी समय एक गत्यात्मक तत्परता (Motor Set) होता है ।”
ADVERTISEMENTS:
जेम्स ड़ेवर के अनुसार, ”संवेग जीव की एक जटिल अवस्था है, जिसमें श्वास लेना, नाड़ी गति, ग्रन्थि का कार्य इत्यादि व्यापक शारीरिक परिवर्तन तथा मानसिक दशा में तीव्र अनुभूति के साथ उत्तेजना अथवा विक्षुब्धता की अवस्था तथा एक निश्चित प्रकार का व्यवहार करने की साधारण प्रवृत्ति देखी जाती है ।”
इस प्रकार यह स्पष्ट है, कि संवेग में निम्न पाँच तत्व पाये जाते हैं:
(i) एक परिस्थिति का उत्पन्न होना,
(ii) जीव द्वारा उस परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण,
(iii) उस परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया के रूप में व्यक्ति का उत्तेजित होना,
(iv) जीव द्वारा उस उत्तेजित अवस्था में सचेतन रूप से अनुभव किया जाना,
(v) अनुभव के फलस्वरूप उसमें संवेगात्मक व्यवहार दिखलाई पड़ना ।
Essay # 2. संवेगों का स्वरूप (Nature of Emotions):
संवेगों का मनुष्य के जीवन में बहुत महत्च है । मनुष्य के बहुत-से कार्यों के अभिप्रेरक संवेग हैं । जान हथेली पर रखकर युद्धस्थल में लड़ने वीरता और शौर्य के कार्य करने में मनुष्य की बुद्धि अथवा विचारों से नहीं बल्कि संवेगों से ही अभिप्रेरणा मिलती है ।
संवेग के बिना जीवन नीरस होता है । व्यक्ति को परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया करने की अभिप्रेरणा भी संवेग द्वारा प्राप्त होती है । यह सभी के अनुभव की बात है, कि सवेगात्मक अवस्था में शक्ति संचालन (Mobilization) बढ़ जाता है । क्रोध या उत्साह आने पर मनुष्य ऐसे साहसिक कार्य कर बैठता है, जो सामान्य मानसिक दशा में कभी नहीं कर सकता ।
प्रेम की संवेगात्मक अवस्था में व्यक्ति प्रेमपात्र के लिए इतने महान त्यागकर गुजरता है, जिनको वह साधारण दशा में कभी नहीं कर सकता । वात्सल्य का संवेग माँ-बाप से बालकों के लिए बड़े से बड़े त्याग करा लेता है ।
संवेगावस्था में कुछ व्यक्ति थोड़े समय के लिए अपनी बुद्धि पर से नियन्त्रण खो देते हैं । नियन्त्रण खो देने के कारण व्यक्ति कुछ उचित काम करता है, तो कुछ अनुचित काम करता है । क्रोध आने पर व्यक्ति अनुचित काम कर बैठता है । संवेगावस्था अत्यधिक प्रबल होने पर व्यक्ति की दशा पागल जैसी हो जाती है ।
उस समय उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता । वह बुरा काम भी उसी तरह कर सकता है, जिस तरह अच्छा काम कर सकता है । इस प्रकार मानव जहाँ कुछ संवेगों से ऊँचाइयों तक पहुँचता है, वहीं कुछ अन्य संवेगों के कारण वह पशु के स्तर पर पहुँच जाता है ।
Essay # 3. संवेगों के आधार (Basis of Emotions):
संवेग एक मनोशारीरिक उत्तेजना की दशा है, यह संवेग की परिभाषा से स्पष्ट होता है ।
अतएव इसके मुख्य तीन आधार हैं:
(a) संज्ञानात्मक आधार (Cognitive Basis),
(b) शारीरिक आधार (Physical Basis) तथा,
(c) सांस्कृतिक आधार (Cultural Basic) |
प्रत्येक आधार के अन्तर्गत कुछ सिद्धान्तों की स्थापना भी की गई है, उन्हीं के अनुसार उनकी व्याख्या हुई है ।
(i) संवेगों के संज्ञानात्मक आधार (Cognitive Basis of Emotion):
संवेग व्यक्ति के संज्ञान पर निर्भर करता है । जब प्राणी किसी संवेग पैदा करने वाले उद्दीपक को देखता है, तब आँख में तन्त्रिका-आवेग (Nerve-Impulse) पैदा होता है, जो ज्ञानवाही तन्त्रिका (Sensory Nerves) के द्वारा प्रमस्तिष्क (Cortex) के महत्वपूर्ण भाग में जाता है ।
परिणामस्वरूप, हमें उस उद्दीपन का संवेदन तथा प्रत्यक्षण होता है, जो संज्ञान कहलाता है । इस संज्ञान के अनुसार ही उद्दीपन सम्बन्धी संवेग महसूस होते हैं ।
इस सिद्धान्त के अनुसार संवेग दो वर्गों में विभक्त हैं- शारीरिक उत्तेजना (Biological Excitation) और सज्ञानात्मक लेबेल (Cognitive Level) । जब कोई प्राणी किसी बाहरी उद्दीपन के द्वारा उद्वेलित होता है, जब उसे उद्वेलन का आभास (Awareness) संवेग की अनुभूति पैदा करता है । तत्पश्चात् प्राणी ब्राह्य वातावरण का अवलोकन करता है ।
तब अपने शारीरिक उद्वेलन के चेतन का व्याख्यान करता है । इस सिद्धांत के अनुसार शारीरिक उद्वेलन के चेतन का व्याख्यान करना जरूरी होता है; जैसे जब प्राणी किसी व्यक्ति को देखकर हर्षित होता है; तो उसमें शारीरिक उद्वेलन की उत्तेजना भी होती है, तथा खुशी की मानसिक अनुभूति भी तत्पश्चात् हम उस परिस्थिति का अवलोकन करते हैं जिसमें वह व्यक्ति हमारे सम्मुख उपस्थित हुआ है जिसमें प्राणी अपने संवेगात्मक अनुभव (हर्ष) तथा शारीरिक उत्तेजना का व्याख्यान कर सके ।
विशेष तौर से किसी दूसरे व्यक्ति को संवेगात्मक स्थिति में देखते समय हम इसी तरह अपने प्रत्यक्षण के चेतन का व्याख्यान करते हैं । इस प्रकार संवेग के सम्बन्ध में दो बार संज्ञान होता है- पहले बाहरी उद्दीपन का प्रत्यक्षण या संज्ञान संवेग उत्पन्न करता है, तथा दूसरी बार परिस्थिति का सज्ञान उत्पन्न संवेग की व्याख्या करता है ।
(ii) संवेगों के सांस्कृतिक आधार (Cultural Basis of Emotion):
संवेगों पर हुए शोध यह दर्शाते हैं, कि संवेग की उत्पत्ति तथा अभिव्यक्ति (Expression) संस्कृति पर भी निर्भर करती है । जिस संस्कृति के अन्तर्गत साँप की पूजा की जाती है तथा जहाँ व्यक्ति बचपन से साँपों के साथ रहते और खेलते हैं वहाँ उन्हें साँपो से डर नहीं लगता ।
दूसरी ओर जिस संस्कृति में बचपन से यह बताया जाता है, कि साँप अत्यधिक जहरीला होता है तथा उसके काटने से प्राणी की मृत्यु भी हो जाती है, उसमें साँप लोगों के लिए डर पैदा करने वाला उद्दीपन बन जाता है । शोध यह भी दर्शाते हैं कि संवेग की अभिव्यक्तियाँ या प्रतिक्रियाएँ भी किसी हद तक संस्कृतिजन्य होती हैं ।
जिस संस्कृति के अन्तर्गत मुका संवेगात्मक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित किया जाता है, वहाँ प्राणी खुशी में अत्यधिक खुश होकर हँसते हैं तथा दु:खद स्थिति में जोर-जोर से चिल्लाकर रोते हैं, दूसरी ओर आज के आधुनिक युग में शिक्षित तथा विकसित संस्कृति में दु:ख और सुख दोनों ही परिस्थितियों में लोग संयत रूप से अपनी सवेग अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं ।
अतएव यह कहा जा सकता है, कि किसी हद तक संवेगात्मक अनुभव का विकास और उसकी अभिव्यक्ति का ढंग संस्कृति पर आधारित होता है ।
Essay # 4. संवेगावस्था में स्नायु संस्थान का कार्य (Role of Nervous System in Emotion Stage):
संवेगावस्था में शारीरिक परिवर्तन का विवरण स्वतन्त्र स्नायु-संस्थान के विवरण के बिना पूरा नहीं होगा ।
सामान्यत: स्वतन्त्र स्नायु संस्थान में तीन भाग होते हैं:
(1) ऊर्ध्व,
(2) महा और
(3) निम्न ।
यहाँ पर हम अगर तीनों की जानकारी अलग-अलग प्राप्त करें तो अच्छा होगा:
(1) ऊर्ध्व भाग (Upper Part):
ऊर्ध्व भाग मस्तिष्क के तने से निकलता है । यह आमाशय की ग्रथियों को पाचक रस के स्राव के लिए और आमाशय की दीवार को मन्थन क्रिया के लिए उत्तेजित करता है । यह हृदय के स्पन्दन को मन्द कर देता है । इस प्रकार यह क्रिया में सहायता करता है ।
(2) मध्य भाग (Middle Part):
मध्य भाग रक्तचाप को तीव्र कर देता है तथा हृदय की धड़कन को बढ़ा देता है तथा आमाशय की क्रिया को रोक देता है । इस प्रकार इसका प्रभाव ऊर्ध्व भाग के विपरीत होता है ।
(3) निम्न भाग (Lower Part):
यह भाग सुषुम्ना के निचले भाग से निकलता है । यह उत्पादन सम्बन्धी तथा मल विसर्जन सम्बन्धी अंगों को प्रभावित करता है । स्वतन्त्र स्नायु संस्थान का केन्द्र अन्तर्मस्तिष्क के एक भाग हाइपोथैलेमस में होता है । यह संवेग की क्रिया को अत्यधिक प्रभावित करता है ।
Essay # 5. संवेगों में शारीरिक परिवर्तनों का महत्व (Importance of Physical Changes in Emotion):
संवेग में शारीरिक परिवर्तनों को ही सब कुछ नहीं माना जा सकता है और न ही उनकी अवहेलना की जा सकती है । इसी प्रकार मानसिक पक्ष की अवहेलना भी नहीं की जा सकती और उसे संवेग का सब कुछ भी नहीं कहा जा सकता । वास्तविकता यह है कि संवेग को समझने के लिए उसके दोनों पहलुओं को समझना होगा ।
इन दोनों ही पहलुओं में अभी नित्य नये प्रयोग हो रहे हैं । अत: इस समय संवेग के विषय में अन्तिम रूप से कुछ भी कहना कठिन है । सभी भागों के साथ उसके शारीरिक पहलू को भी ध्यान में रखना पड़ेगा । इस प्रकार समन्वयात्मक दृष्टिकोण से भी भविष्य में सवेग के विषय में पूरी तरह सन्तोषजनक सिद्धान्त निकाला जा सकता है ।
Essay # 6. संवेगों के स्थायीभाव (Sentiments of Emotion):
संस्कृति से स्थायी भाव का घनिष्ठ सम्बन्ध है । चूंकि प्रत्येक समाज में सामाजिक अनुकूलन (Social Adaption) बनाए रखने के लिए व्यक्ति में कुछ स्थायी भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया जाता है, अत: समान में स्थायी भाव का अत्यधिक महत्व है ।
इस सन्दर्भ में मैक्डूगल ने उचित ही लिखा है कि, ”व्यक्तियों और समाजों के चरित्र और आचार के लिए स्थायी भाव के विकार सबसे अधिक महत्च के हैं, वह भावात्मक और संकल्पनात्मक जीवन का संगठन है । स्थायी भावों के अभाव में हमारा जीवन क्रमहीन, अव्यवस्थित अथवा किसी भी प्रकार की समीचीनता अथवा निरन्तरता से हीन हो जायेगा और साथ ही साथ हमारे सामाजिक सम्बन्ध और आचार जो कि संवेगों और उनकी प्रवृत्तियों पर आधारित हैं; क्रमहीन, भविष्य कथन के अयोग्य और अस्थायी हो जायेंगे ।”
मनुष्य का सामाजिक आचार कुछ मूल्यों से परिचालित होता है । ये मूल्य उसके स्थायी भावों से सम्बन्धित होते हैं । अत: स्थायी भाव का मनुष्य के आचार में बड़ा महत्व होता है । स्थायी भावों के अभाव में यह मूल भी नहीं टिक सकते । प्रत्येक समाज में बाधित कार्यों और वस्तुओं के प्रति व्यक्तियों में अनुकूल स्थायी भाव उत्पन्न किये जाते हैं ।
अत: किम्बाल यंग ने ठीक ही लिखा है, ”स्थायी भाव सांस्कृतिक प्रतिबद्धता का परिणाम हैं । वे हमारे आधारभूत मूल्यों से निकट रूप में सम्बन्धित हो सकते हैं अथवा वे अपनी शक्ति और महत्व में अपेक्षाकृत परिवर्तनशील हो सकते हैं ।”
इस प्रकार भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक परिस्थितियों में मनुष्य में भिन्न-भिन्न स्थायी भाव विकसित होते हैं । किसी देश में राष्ट्रीय झण्डे, राष्ट्रीय गान आदि के लिए लोगों में जो स्थायी भाव दिखलाई पड़ता है । वह घुमन्तु लोगों में नहीं देखा जाता स्थायी भाव से लगे होने पर वस्तुओं का मूल्य उसके भौतिक मूल्य से एकदम अलग हो जाता है ।
इस प्रकार मनुष्यों के नैतिक सौन्दर्यात्मक भावात्मक तथा धार्मिक स्थायी भाव उनके सांस्कृतिक परिवेश से निश्चित हो जाते हैं । परिवेश बदलने पर ये भी बदल जाते हैं । वास्तव में संस्कृति से अनुकूलन करने में स्थायी भाव व्यक्ति के सहायक होते हैं ।
इसीलिए संस्कृति में परिवर्तन होने पर उनमें भी परिवर्तन हो जाता है । परन्तु फिर कुछ स्थायी भाव मनुष्य के विशेष स्वभाव के कारण भी हो सकते हैं । सांस्कृतिक परिवेश के प्रतिकूल होने पर इन स्थायी भावों को असामान्य समझा जाता है और व्यक्ति के उपचार की चेष्टा की जाती है । संस्कृति से अनुकूलन होने पर वे वांछित होते हैं, भले ही भिन्न संस्कृति में अवांछित समझे जायें ।
Essay # 7. संवेगों का विकास – शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक (Development from Infancy to Adulthood):
जब शिशु जन्म लेता है, तब उसे न तो कोई ज्ञान होता है और न ही कोई निश्चित संवेगात्मक अनुभव किन्तु वाटसन (1924) ने नवजात शिशु के सामने आग, साँप इत्यादि उपस्थित किए तथा उन्हें कुछ ऊँचाई से नीचे गिराया । इन सभी घटनाओं के प्रति शिशुओं ने जो प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है, कि नवजात शिशुओं में भी भय, प्रेम और क्रोध के तीन मूलभूत संवेग पाए जाते हैं ।
किन्तु बाद के अध्ययनों और प्रयोगों से वाटसन के इस निष्कर्ष की पुष्टि नहीं होती है । उसी प्रकार शर्मन (Sherman) ने भी कई उद्दीपनों के जरिए नवजात शिशुओं की उत्तेजना को बढ़ाया तथा उनके चलचित्र लिये इसके पश्चात् उसने कुछ निर्णायकों को उन शिशुओं की प्रतिक्रियाओं के चलचित्र दिखाए ।
किन्तु सिर्फ चित्रों से किसी संवेग की परख या पहचान नहीं हो सकी । अतएव हम ब्रिजेज (Bridges) और दूसरे मनोवैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष को अधिक सही कह सकते हैं, कि जन्मजात शिशु को सिर्फ उत्तेजना (Excitement) का अनुभव होता है और जब वह धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है, तब उसमें विविध संवेग भी विकसित होने लगता है ।
ब्रिजेज ने दो वर्ष की आयु तक के बहुत से शिशुओं का प्रेक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला किस प्रकार बच्चों में दो वर्ष की आयु तक धीरे-धीरे विभिन्न संवेगों का विकास हो जाता है । अधिक स्पष्टीकरण हेतु ब्रिजेज द्वारा दी गई तालिका नीचे दी जा रही है ।
उक्त तालिका से यह स्पष्ट होता है, कि नवजात शिशु को किसी संवेग का नहीं अपितु सिर्फ सामान्य उत्तेजना का अनुभव होता है, किन्तु जब शिशु तीन महीने का होता है, तब उत्तेजना के अलावा उसे किसी प्रकार के कष्ट तथा सुख का अनुभव होने लगता है, सामान्य भाषा में जिसे बेचैनी (Distress) तथा प्रसन्नता (Delight) कहा जाता है । जब शिशु 6 महीने का होता है, तो उसमें बेचैनी, क्रोध, विरुचि (Disgust) तथा भय का विकास हो जाता है ।
इसी प्रकार, एक वर्ष की आयु होने पर बालक खुशी के साथ-साथ उल्लास (Elation) तथा स्नेह (Affection) का प्रदर्शन भी करने लगता है । एक से डेढ़ वर्ष की आयु के मध्य ईर्ष्या (Jealousy) का अनुभव करने लगता है । साथ ही वे दूसरे बच्चों तथा बड़ों के प्रति भिन्न प्रकार से स्नेह का प्रदर्शन करने लगते हैं ।
डेढ़ से दो वर्ष की आयु के भीतर बच्चों में हर्ष (Joy) विकसित हो जाता है । इसी प्रकार दो वर्ष की आयु होने तक बच्चों में मुख्य संवेग विकसित हो जाते हैं । किन्तु, इसका अभिप्राय यह नहीं है कि दो वर्ष की आयु के पश्चात् कोई संवेग विकसित नहीं होते हैं ।
अपितु, दूसरे कई संवेग बाद की आयु में विकसित होते हैं । यह भी सम्भव है कि दो वर्ष तक की आयु में भी कई बच्चों में संवेगों का विकास ठीक इसी रूप में न हो किन्तु कुछ मनोवैज्ञानिक संवेगों के इन कतिपय नामों को स्वीकृत नहीं कर सकते हैं, अर्थात् हमारा उद्देश्य यहाँ इतना ही स्पष्ट करना है कि नवजात शिशु सिर्फ उत्तेजना का अनुभव करता है तथा जैसे-जैसे आयु बढ़ती है उसमें विशिष्ट संवेगों का विकास होता है ।
संवेगों का विकास करने में दो प्रक्रियायें मुख्य भूमिका अदा करती हैं । वे हैं- परिपक्वन (Maturation) तथा सीखना (Learning) । परिपक्वन ऐसी प्रक्रिया है, जो जन्मजात तथा जैविक होती है । अतएव यह जीवनिर्माण काल से लेकर शरीर को परिपक्वता प्राप्त होने तक स्वत: स्वाभाविक रूप से चलती रहती है । इससे अलग सीखना एक उपार्जित (Acquired) प्रक्रिया है, जिसमें मनुष्य अभ्यास या परिश्रम के द्वारा व्यवहार या कौशल को अपनाता है तथा उसमें दक्षता प्राप्त करता है ।
Essay # 8. सकारात्मक संवेग (Positive Emotions):
सकारात्मक संवेग के अन्तर्गत व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पशु स्थान या वस्तु के प्रति आकर्षण (Attraction) का अनुभव करता है जब इस प्रकार के संवेगों का अनुभव होता है, तो इसकी अभिव्यक्ति सम्बन्धित उद्दीपन को पसन्द करने उसे पाने या अपने पास रखने अथवा उसकी सहायता करने में होती है ।
इसमें प्रमुख संवेग है- प्रेम (Love), स्नेह (Affection), श्रद्धा (Respect), हर्ष (Joy), उल्लास (Elation), सन्तोष, आभार आदि । इनमें से सिर्फ प्रेम एवं हर्ष तथा उल्लास को यहाँ वर्णित करेंगे ।
1. प्रेम (Love):
सकारात्मक संवेग में सबसे प्रमुख संवेग है प्रेम । जिस भी व्यक्ति को जिस व्यक्ति या वस्तु से प्रेम होता है उसके प्रति वह आकर्षण का अनुभव करता है । उसके प्रति अपनापन, सहानुभूति, उसकी रक्षा करने की इच्छा की भावना स्वयं परिलक्षित हो जाती है ।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रेम के दो रूप माने गए हैं- संकुचित प्रेम तथा उदात्त प्रेम । संकुचित प्रेम वस्तुओं तथा व्यक्तियों के मध्य होता है तथा यह प्रेम शरीरजन्य है । संप्रति, रिश्ते-नाते इन सबका सम्बन्ध व्यक्ति के शरीर तथा इन्द्रियों से होता है इनके प्रति आकषाग तथा अपना समझने की भावना को भारतीय चिन्तन में मोह और आसक्ति के नाम से जाना जाता है ।
जहाँ तक उदात्त प्रेम का सम्बन्ध है, यह प्रेम की व्यापकता (Expansion) का द्योतक है । आध्यात्मिक दृष्टि से व्यक्ति कोई नामधारी शरीर नहीं है, अपितु एक आत्मा है । जैसा कि हम सभी जानते हैं, कि सभी जीवों में आत्मा के रूप में एक ईश्वरीय शक्ति होती है । इस अभिप्राय में व्यक्ति का किन्हीं परिचित या अपरिचित लोगों स्थानों तथा प्रकृति से प्रेम उदात्त प्रेम का उदाहरण है ।
2. हर्ष तथा उल्लास (Joy and Elation):
सकारात्मक संवेग के अन्तर्गत हर्ष तथा उल्लास भी आते है, जिनमें व्यक्ति अपनी तीव्र खुशी को व्यक्त करता है । सामान्य तौर पर खुशी को हर्ष तथा तीव्र हर्ष को उल्लास कहा जाता है । शिशु की किलकारी, उसका हाथ-पाँव चलाना अथवा डगमग करते चलना देखकर माता-पिता को जो अद्भुत खुशी होती है, उसे हर्ष (Joy) कहा जाएगा ।
इसके विपरीत जब कोई खिलाड़ी किसी प्रतियोगिता में जीतता है, तो उसे तथा उसके मित्रों को उल्लास (तीव्र हर्ष) महसूस होता है । उल्लास को जोर से चिल्लाकर, उछल-कूदकर तथा एक-दूसरे से लिपटकर तथा चुम्बन लेकर व्यक्त किया जाता है ।
Essay # 9. बाल संवेगों को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Children’s Emotions):
बाल संवेगों की उत्पत्ति व विकास पर परिपक्वता एवं अधिगम का प्रभाव तो पड़ता ही है, लेकिन साथ ही अग्रलिखित कारक बालक के संवेगात्मक व्यवहार को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं:
(1) लिंग (Sex):
बालक तथा बालिकाओं के संवेगों में अन्तर पाया जाता है । कुछ संवेगों की तीव्रता बालकों में तथा कुछ संवेग बालिकाओं में अधिक तीव्र होती है । जैसे-बालकों में क्रोध का संवेग बालिकाओं की तुलना में अधिक होता है, जबकि भय व ईर्ष्या जैसे संवेग बालकों की अपेक्षा बालिकाओं में अधिक मात्रा में होता है ।
(2) माता-पिता का व्यवहार (Parents Behavior):
माता-पिता का व्यवहार भी संवेगों को प्रभावित करता है । माता-पिता के उपेक्षित व्यवहार से बालकों में क्रोध व आक्रामकता के संवेग अधिक विकसित होते हैं । इसी तरह माता-पिता का अत्यधिक लाड़-प्यार व संरक्षण देने पर बालक आश्रित प्रवृत्ति के कम चिन्ता करने वाले एवं क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं । माता-पिता जब कठोर व्यवहार अपने बच्चों से करते हैं तब वे अधिक भयभीत व दन्यू प्रवृत्ति के हो जाते हैं ।
(3) परिवार का आकार (Size of Family):
जहाँ परिवारों का आकार बड़ा होता है, वहाँ पर बालकों में संवेगों का विकास अपेक्षाकृत अधिक होता है, क्योंकि बड़े परिवारों के बने दूसरे बच्चों व व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं और उनके माध्यम अनेक संवेगों को करना सीख लेते हैं जबकि जहाँ परिवार छोटे होते हैं वहाँ बच्चों को ऐसे अवसर कम मिलते है ।
(4) शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health):
शारीरिक स्वास्थ्य दुर्बलता के कई कारण होते हैं: जैसे – रोगग्रस्तता, निर्धनता, दुर्बल पाचन शक्ति, सन्तुलित भोजन का न मिलना । जब शरीर स्वस्थ नहीं होता तब बालक में क्रोध की वृद्धि होती है ।
(5) जन्म क्रम (Birth Order):
जिन बालकों का जन्म पहले होता है उन्हें माता-पिता का स्नेह व सरक्षण अधिक मिलता है । परिणामस्वरूप वे भी स्नेहयुक्त होते हैं लेकिन साथ ही उनका व्यवहार दच्छू होता है । बाद में माता-पिता उन पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते तो वे झगड़ालू प्रवृत्ति के हो जाते हैं ।
(6) व्यक्तित्व (Personality):
अध्ययनों के आधार पर जाना जाता है, कि जो बच्चे बहिर्मुखी होते हैं उनमें भय अधिक होता है तथा अन्तर्मुखी वाले बालकों में भय कम होता है । जिस प्रकार से जिन बच्चों में सुरक्षा की भावना अधिक होती है उनमें भय कम होता है । इसके विपरीत असुरक्षा की भावना वाले बच्चों में भय ज्यादा होता है ।
(7) बुद्धि (Intelligence):
बालक अपनी बुद्धि के द्वारा ही अपनी संवेगात्मक अभिव्यक्ति के सम्बन्ध में निर्णय लेते हैं । बुद्धि प्रखर होने पर बालक अपने संवेगों की अभिव्यक्ति समाज द्वारा मान्य तरीकों से करना शीघ्र ही सीख लेते हैं । अध्ययनों में पाया गया कि कम बुद्धि वाले कारकों में भय का संवेग कम तथा अधिक बुद्धि वाले बालकों में भय का संवेग अधिक होता है ।
(8) आत्म-विश्वास (Self-Confidence):
जिन बच्चों में आत्म-विश्वास मजबूत होता है, उनमें भय या चिन्ता की मात्रा कम होती है । जर्सील्ड का कथन है कि, ”कोई चीज जो बालक के आत्म-विश्वास को कम करे या उसके आत्मसम्मान या उसके कार्य, जिसे वह करना चाहता है या उद्देश्य जिसे वह महत्वपूर्ण समझता है से विचलित करे तो यह उसमें चिन्ता या भय की प्रवृत्ति में वृद्धि कर सकती है ।”
(9) सामाजिक वातावरण (Social Environment):
बालक जिस वातावरण में रहता है उसमें उसी प्रकार के संवेग विकसित होते हैं । जैसे – उसे प्रेमपूर्ण वातावरण मिलता है, तो उसमें भी स्नेह के सवेग की अधिकता होगी । सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत परिवार स्कूल एवं निकट निवास करने वाले व सम्पर्क में आने वाले लोगों को सम्मिलित किया जा सकता है ।
(10) सामाजिक व आर्थिक स्तर (Social and Economic Level):
उच्च सामाजिक आर्थिक स्तर वाले परिवार के बच्चों में भय अपेक्षाकृत कम होता है, जबकि निम्न सामाजि-आर्थिक स्तर वाले परिवार के बालकों में संवेगात्मक अस्थिरता देखने को मिलती है, जबकि उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले परिवार के बालकों में संवेगात्मक स्थिरता होती है ।
उपर्युक्त वार्णित कारकों के सहयोग से कुछ बालकों में संवेगात्मकता अधिक तथा बुाछ में कम मात्रा में पाई जाती है ।
Essay # 10. नवजात शिशु के संवेग या संवेगात्मक विकास (Emotional Development of an Infant):
नवजात शिशुओं के संवेगों के सम्बन्ध में जो अध्ययन किये गये हैं, वे कम हैं, लेकिन जो भी अध्ययन किये गये हैं, वे अधिक विस्तृत रूप में हैं । वाटसन का मानना है, कि शिशु के जन्म के समय या जन्म के कुछ ही समय पश्चात् 3 संवेग पाये जाते हैं ।
वाटसन का यह भी कथन है, कि यह संवेग कुछ विशिष्ट उद्दीपकों के द्वारा शिशुओं में उत्पन किये जा सकते हैं । वाटसन के द्वारा बताये गये तीन प्रमुख संवेग हैं- भय, क्रोध और प्रेम । वैकविन का विचार है, कि नवजात शिशुओं में संवेगात्मक अनुक्रियाएँ अधिक विकसित होती हैं ।
उनका मानना है, कि जो नवजात शिशु गर्भकालीन अवस्था को पूर्ण किये बगैर जन्म ले लेते हैं, उनमें भी समान प्रकार की संवेगात्मक अनुक्रिया पाई जाती हैं ।
प्रारम्भिक संवेगात्मक अनुक्रियाएँ (Primarily Emotional Responses):
जन्म के समय कोई संवेगात्मक व्यवहार निश्चित नहीं होता है । शिशु में एक साथ उत्तेजना की अवस्था पाई जाती है । वाटसन का मानना है, कि शिशु में भय की प्रतिक्रिया जन्म से ही होती है । शिशु आरम्भ में केवल दो ही वस्तुओं से डरता है ।
(a) अचानक तीव्र आवाज,
(b) सहारा छिन जाना ।
ब्रिजेज का मानना है, कि जन्म के समय केवल सामान्य उत्तेजना पायी जाती है । लगभग 3 महीने के बाद संवेगों की विभिन्नताएं प्रदर्शित होने लगती है । उनके संवेग में दुःख तथा प्रसन्नता अलग-अलग दिखाई देने लगती हैं ।
Essay # 11. बाल संवेगों की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Children’s Emotion):
1. नवजात शिशु के संवेग अत्यन्त तीव होते हैं (Intense Emotions):
शिशु अधिकतर छोटी-छोटी बातों पर अति तीव्र संवेगों का प्रदर्शन करते हैं । किशोरावस्था में भी इसी प्रकार की संवेगों की तीव्रता पाई जाती है । जो बातें बड़ों को अत्यन्त साधारण-सी लगती हैं, किशोर उन्हीं के प्रति तीव्र संवेगों का प्रदर्शन करते हैं ।
2. नवजात शिशु केसंवेग बार-बार प्रदर्शित-होते हैं:
शिशु अपने संवेगों को बार-बार प्रदर्शित करते हैं । लेकिन जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वह यह समझने लगता है, कि बार-बार संवेगों के प्रदर्शन के कारण सजा मिल सकती है । इसलिए धीरे-धीरे वह संवेगों पर नियन्त्रण रखना शुरू कर देता है ।
3. नवजात शिशु के संवेगों में परिवर्तनशीलता होती है:
शिशु एक क्षण में तीव्र क्रोध तथा दूसरे क्षाग क्रोध को भूलकर हँसने लगते हैं ।
संवेगों की परिवर्तनशीलता के निम्न तीन कारण होते हैं:
(a) संवेगों के प्रदर्शन द्वारा बालक अतिरिक्त शक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।
(b) बौद्धिक अपरिपक्वता के कारण वे परिस्थिति को सही तरह समझ नहीं पाते हैं ।
(c) उनके ध्यान का विस्तार अति सीमित होता है, इस कारण उनके अवधान का विचलन आसानी से हो जाता है ।
4. नवजात शिशु की प्रतिक्रियाओं में व्यक्तिता पाई जाती है:
नवजात शिशु के संवेग प्रदर्शन में पर्याप्त समानता पाई जाती है । लेकिन आयु तथा अनुभव की वृद्धि के साथ-साथ शिशु की संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ पर्याप्त व्यक्तिक हो जाती हैं ।
5. संवेगों के विकास को प्रभावित करने वाले तत्व:
जन्म के समय से ही संवेग किसी-न -किसी रूप में उपस्थित रहते हैं, लेकिन उनके विभिन स्वरूप विभिन्न कारकों के प्रभाव के फलस्वरूप प्रकट होते हैं ।
6. नवजात शिशु के संवेगों की शक्ति में परिवर्तन होता है:
जो संवेग शिशु द्वारा कुछ समय पहले अत्यन्त तीव्रता से प्रदर्शित किये जाते थे, उनकी तीव्रता आयु वृद्धि के साथ-साथ कम होती जाती है । लेकिन जो संवेग पहले अत्यन्त मन्द रूप से प्रदर्शित होते थे आयु बढ़ने के साथ वह अधिक तीव्र हो जाते हैं, यह परिवर्तन अंशत: प्रेरणा की शक्ति कम हो जाने के कारण, शिशु के बुद्धि बढ़ने के कारण, तथा अंशत: शिशु की रुचि तथा मूल्यों के परिवर्तन के कारण होते हैं ।
संवेगों के विकास पर परिपक्वता का प्रभाव:
जैसे-जैसे शिशु की आयु बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसकी बौद्धिक क्षमता का विकास भी बढ़ता है । परिपक्वता के कारण उसकी कल्पना शक्ति, समय तथा वस्तुओं को याद रखने की क्षमता में वृद्धि होती है । इनका प्रभाव संवेगात्मक व्यवहार पर भी पडता है । इस कारण जो उत्तेजनाएँ उसे किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं करती थीं, वही उसमें संवेगात्मक व्यवहार को उत्पन करने लगती हैं ।