Here is an essay on ‘Human Development’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Human Development’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. विकास की परिभाषा (Definition of Human Development):
विकास के परिपेक्ष में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं:
डॉ. वी. के. अग्रवाल लिखते हैं:
”बाल मनोविज्ञान गर्भकालीन अवस्था से परिपक्व होने की अवस्था तक के व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं समस्या समाधान नैतिक तर्कवितर्क व्यवहार मत एव रुचियाँ, अभिरुचियाँ, अभिवृत्तियाँ एवं सृजनात्मकता आदि से सम्बन्धित विकास का वैज्ञानिक अध्ययन है । एक विकासात्मक अवस्था से दूसरी विकासात्मक अवस्था में पदार्पण करते समय कौन-कौन से विशिष्ट परिवर्तन होते हैं? वे परिवर्तन कब क्यों और कैसे होते हैं ? उनके क्या कारण हैं ? उनकी अन्तर्निहित क्रियाएँ या यात्रिकी क्या-क्या हैं ? यह सार्वभौमिक या व्यक्तिगत है, आदि का सम्बन्ध भी आज के आधुनिक विकास से होता है ।”
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भूसेन एवं उनके साथियों के अनुसार:
”वर्तमान समय में विकास के अनेक अध्ययनों का सम्बन्ध आयु प्रवृत्ति से सम्बन्धित है । आयु प्रवृत्ति सम्बन्धी यह अध्ययन विशेष रूप से समाधान समस्या नैतिक तर्क चिन्तन व्यवहार मत अभिवृत्तियाँ आदि क्षेत्रों में किये जाते हैं । विकास के सन्दर्भ में सबसे अधिक शोध अध्ययन अन्तर्निहित प्रक्रियाओं एवं यांत्रिकी पर हो रहे हैं, अर्थात् यह जानने का प्रयास किया जा रहा है, कि विकास परिवर्तन किन कारणों से एवं किस प्रकार हो रहे हैं?”
हरलॉक के शब्दों में:
”आज विकास मे मुख्यत: मानव के रूप व्यवहार रुचियों एवं लक्ष्यों में होने वाले उन विशिष्ट परिवर्तनों की खोज पर बल दिया जाता है, जो उसकी एक विकासात्मक अवस्था से दूसरी विकासात्मक अवस्था में पदार्पण करते समय होते हैं । विकास में साथ-ही-साथ यह खोज करने का प्रयास किया जाता है कि यह परिवर्तन कब होते हैं? इसके क्या कारण हैं तथा यह वैयक्तिक हैं, अथवा सार्वभौमिक ?”
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उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है, कि विकास क्रमिक सम्बद्धतापूर्ण परिवर्तनों की प्रगतिपूर्ण शृंखला के रूप में कार्य करता है । प्रगतिपूर्ण का अभिप्राय है, कि परिवर्तन दिशात्मक होते हैं, तथा ये पृष्ठोन्मुख की अपेक्षा अग्रोन्मुख होते हैं ।
उदाहरणार्थ एक नवजात शिशु प्रारम्भ में बैठना चलना बात करना या अन्य क्रियाओं की समझ नहीं रखता किन्तु उत्तरोत्तर विकास के अन्तर्गत सभी क्रियाएँ करना सीख लेता है । अत: कहा जा सकता है, कि इन क्रियाओं में प्रगतिपूर्ण परिवर्तन एक-दूसरे से सम्बन्धित एवं क्रमबद्ध होते हैं ।
मानव विकास की प्रक्रिया को सतत् प्रक्रिया के अन्तर्गत स्थान दिया गया है । एक मानव अपनी जन्मावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था व वृद्धावस्था तक विभिन प्रकार की परिस्थितियों से होकर गुजरता है, उसे इन परिस्थितियों के द्वारा अनेक प्रकार के अनुभवों की सीख मिलती है ।
वह खान-पान आचार-विचार व्यवहार एवं वेश-परिवेश आदि से जुड़े पहलुओं की समझ रखना शुरू कर देता है । इन समस्त पक्षों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए मनोवैज्ञानिकों के मानव विकास सम्बन्धी अध्ययन के उपागमों का उल्लेख किया है, कि किस प्रकार शिशु अवस्था के मापन किये जाते हैं?
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इन अध्ययनउपागमों की सहायता से भिन्न-भिन्न आयु के स्तरो पर प्रारूपी विशेषताओं की एक तस्वीर भी प्रस्तुत की जा सकती है ।
Essay # 2. मानव विकास-प्रकृति एवं क्षेत्र (Human Development: Nature & Scope):
डार्विन के विकास सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी पर प्रारम्भ में अत्यन्त सरल एवं छोटे जीवों की उत्पत्ति हुई । सृष्टि का सबसे सरलतम जीव अमीबा के रूप में उत्पन्न हुआ जिसमें मात्र एक ही कोश होता है । धीरे-धीरे जटिल जीवों की उत्पत्ति हुई और क्रमश: उनका विकास हुआ ।
इस शृंखला में कीड़े-मकोड़े छोटे जीवजन्तु एवं विभिन प्रकार के पक्षियों व पशुओं का विकास हुआ तत्पश्चात् सर्वाधिक जटिल एवं विकसित प्राणी के रूप में मनुष्य का विकास हुआ । प्राचीन भारतीय ऋषियों ने मनुष्य का जीवनकाल एक सौ वर्षों तक माना और चार क्रमिक अवस्थाओं में विभाजित किया ।
एक सौ वर्षों की औसत आयु के अन्तर्गत बने के जन्म से लेकर मरण तक गर्भावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था के रूप में सम्पूर्ण जीवनकाल को बाँटा गया । इसमें गर्भावस्था से किशोरावस्था तक शारीरिक एवं मानसिक संवृद्धि (Growth) की अवस्थाएँ हैं ।
तत्पश्चात् युवावस्था लगभग 21 से 37 वर्षों तक शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं की ओर बढ़ती है, इसे स्थिरता की अवस्था भी कहते हैं । 37 वर्षों के बाद की आयु प्रौढावस्था एवं तत्पश्चात वृद्धावस्था में अनुभवों की प्राप्ति होती है, एवं पारिवारिक व सामाजिक उत्तरदायित्वों में वृद्धि होती है, तथा शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं में ह्रास होने लगता है ।
इस प्रकार जीवनपर्यन्त चलने वाली मानव विकास में संवृद्धि (Growth) तथा ह्रास (Decay) दोनों ही प्रकार की प्रक्रियाएँ सतत् रहती हैं ।
मानव विकास की प्रकृति के सन्दर्भ में कुछ विशेषताओं का उल्लेख निम्नवत् किया जा सकता है:
(i) मानव विकास गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त यानि आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है ।
(ii) मानव विकास में परिवर्तन की प्रक्रिया भी निरन्तर गतिशील रहती है ।
(iii) गर्भावस्था से किशोरावस्था तक विकासक्रम में शारीरिक संवेगात्मक एवं बौद्धिक क्षमताओं में संवर्द्धन (Growth) होता है ।
(iv) प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था में विभिन्न प्रकार से बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमताओं का ह्रास होता है तथा इसमें अनुभवों के आधार पर चिन्तन एवं निर्णयों में परिपक्वता उत्पन्न हो जाती है ।
(v) मानव विकास का कम कभी वृद्धि तो कभी ह्रास के रूप में निरन्तर चलता रहता है ।
(vi) मानव विकास के अन्तर्गत होने वाले परिवर्तन अत्यन्त क्रमबद्धशील होते हैं । इनके विषय में पूर्वकथन निश्चित होते हैं ।
Essay # 3. वृद्धि तथा विकास की मुख्य विशेषताएँ (Main Characteristics of Growth and Development):
वृद्धि की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(1) हरलॉक (1978) के अनुसार वृद्धि एक मात्रात्मक परिवर्तन है ।
(2) प्राणी में शारीरिक वृद्धि के साथ मानसिक वृद्धि भी होती है, जिसकी वजह से उसके सीखने स्मृति तर्क-वितर्क आदि की क्षमता भी बढ़ जाती है ।
(3) वृद्धि में जो परिवर्तन घटते हैं, वे सिर्फ शारीरिक ऊँचाई व भार के नहीं अपितु वे प्राणी के विभिन्न भागों आन्तरिक अंगों तथा मस्तिष्क के आकार और संरचना में भी होते हैं ।
(4) फ्रैंक (1964) के अनुसार, वृद्धि में परिवर्तन कोशिका गुणन के माध्यम से होते हैं ।
(5) वृद्धि केवल परिपक्वावस्था तक ही चलती है ।
(6) वृद्धि योगात्मक व संवृद्धि दोनों तरह से होती है । उदाहरणार्थ – जब शिशु की आयु बढ़ जाती है तो उसका हृदय बढ़ता है, अस्थियाँ लम्बी, मोटी व सख्त हो जाती हैं, तथा शारीरिक वृद्धि में और ज्यादा भार लम्बाई तथा परिधि जुड़ती रहती है ।
(7) वृद्धि में जो परिवर्तन घटते हैं, वे सिर्फ रचनात्मक होते हैं ।
विकास की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(1) विकास उन परिवर्तनों से सम्बन्धित होता है, जो प्राणी की क्रियात्मक क्षमता में वृद्धि करते हैं, तथा उलत समायोजन की क्षमता को सम्भव बनाते हैं । इस प्रकार विकास के फलस्वरूप प्राणी में अनेक नई विशेषताएँ व क्षमताएँ आती हैं ।
(2) विकास प्रगतिपूर्ण शृंखला के रूप में घटित होता है ।
(3) विकास में जो क्रमिक परिवर्तन होते हैं, उनमें निरन्तरता प्रदर्शित होती है ।
(4) विकास में क्रमिक बदलाव किसी-न-किसी रूप में आपस मे जुड़े होते हैं ।
(5) विकास में वृद्धि व विभिन्नीकरण के द्वारा उत्पन भागों की क्रियामक इकाइयों में संगठन होता है । यह विभिन रचनाओं व कार्यों के एकीकरण की एक जटिल प्रक्रिया है ।
(6) विकास जीवनभर चलता रहता है ।
(7) विकास अपेक्षाकृत व्यापक संज्ञा है ।
(8) विकास में जो बदलाव होते है, उनका स्वरूप रचनात्मक तथा विनाशात्मक दोनों तरह का होता । उदाहरणार्थ- आयु बढ़ने के साथ-साथ बाल गिरते है, किन्तु उनके स्थान पर नये बाल उगते भी हें ।
(9) विकास में गुणात्मक तथा मात्रात्मक परिवर्तनों की गणना की जाती ।
(10) अनेक विकास परिवर्तनों की गति विभिन्न दशाओं में परिवर्तित होती रहती । यह गति गर्भकालीन दशा में अधिकतम तथा परिपक्वावस्था के पश्चात मन्द प्रदर्शित है ।
Essay # 4. मानव विकास में परिपक्वता एवं अधिगम की भूमिका (Role of Maturation and Learning in Human Development):
मानव एक छोटे से भूण के रूप में जन्म लेता है, तथा वृद्धि व विकास के द्वारा पैदा होकर शिशु बालक किशोर तथा वयस्क अवस्थाओं में विकसित होकर जीवन बिताता है । इस प्रकार ज्ञात होता है कि मानव व्यवहार के अध्ययन में अभिवृद्धि तथा विकास का स्थान कितना महत्वपूर्ण है ? अभिवृद्धि शब्द से अभिप्राय केवल आकार के बढ़ने से है ।
आकार के बढ़ने में या अभिवृद्धि में केवल शरीर की लम्बाई, चौड़ाई व भार ही नहीं बढ़ता, अपितु उसमें शरीर के भिन्न-भिन्न बाह्य अंगों यथा-हाथ,पैर,धड़,सिर आदि तथा आन्तरिक अंगों यथा – हृदय, मस्तिष्क आदि का बढ़ता भी आता है । इस वृद्धि के लिए ऊंचाई को गज, फिट, इंच में या मीटर अथवा सेन्टीमीटर में मापा जा सकता है ।
इसके विपरीत, विकास से अभिप्राय शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों के रूप तथा परस्पर सम्बन्ध में बदलाव से है । विकास के माध्यम से व्यवहार में परिपक्वता आती है । परिपक्वता से अभिप्राय उस वृद्धि या विकास से है, जो किसी अनर्जित व्यवहार में प्रदर्शित होने से पहले जरूरी होता है ।
उदाहरणार्थ – चलने में शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों के समायोजन की जरूरत होती है, किन्तु यह तब ही सम्भव है, जब बालक वृद्धि तथा विकास की एक विशिष्ट अवस्था में पहुँच चुका हो । इस परिपक्वता से पहले कितना चाहे जितनी भी मेहनत कर लें बालक को चलना नहीं सिखाया जा सकता ।
परिपक्वता की स्थिति में पहुँचने पर शिशु के शरीर के स्नायुतन्त्र व माँसपेशियाँ पर्याप्त रूप से अभिवृद्धि व विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के काम करने की परिपक्वता आ जाती है । शिशु भिन्न-भिन्न आयु में उठना, बैठना, चलना-फिरना, घिसटना, वस्तुओं को उठाना इत्यादि कार्य सीखता है ।
परिपक्वता केवल शारीरिक वृद्धि व विकास से ही सम्बन्धित नहीं है, परिपक्वता मस्तिष्क की भी होती है । जन्म से लेकर वयस्क आयु तक प्राणी के शरीर के भिन्न-भिन्न अंग तथा मस्तिष्क के स्नायु कोषों में निरन्तर वृद्धि व विकास होता रहता है ।