Here is an essay on ‘Old Age and Its Problems’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Old Age and Its Problems’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. वृद्धावस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ (Meaning and Characteristics of Old Age):
वृद्धावस्था का वास्तविक काल मानसिक रूप से कब प्रारम्भ होता है यह एक संदेहात्मक प्रश्न है, क्योंकि व्यक्ति की आत्म-शक्ति से इसका गहन सम्बन्ध होता है । अनेक बार व्यक्ति अवस्था उम्र से पूर्व से वृद्ध दिखाई देने लगता है या अनेक बार व्यक्ति अपनी अधिक उम्र होने के पश्चात् भी चुस्त-दुरुस्त दिखाई पड़ता है ।
अत: निश्चित तौर पर इस अवस्था के विषय में कुछ भी कहने से उत्तम होगा कि सामान्यतया यह अवस्था 60 वर्ष से शुरू होकर जीवन के अन्तिम काल तक की अवस्था के रूप में जानी जाती है । इस अवस्था में व्यक्ति में शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार से क्षीणता उत्पन हो जाती है, उसे नयी-नयी चुनौतियों के रूप में अनेक परिस्थितियों से सामना करना पड़ता है ।
उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य में गिरावट (Feeling of Health) सेवानिवृत्ति (Retirement), आमदनी में कमी (Less Income), पारिवारिक जिम्मेदारियाँ (Responsibility) आदि सम्मिलित हैं ।
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मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए अनेक अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया है, कि वृद्ध महिलाओं के विधवा हो जाने के बाद उन्हें अकेलापन अति कष्टदायी हो जाता है, तथा इस विषम परिस्थिति में समायोजन से सम्बन्धित अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।
इस अवस्था में लैंगिक अभिरुचि (Sexual Interest) में भी कमी हो जाती है, साथ ही पेशीय क्षमताओं (Motor Abilities) में भी परिवर्तन होने लगता है । वृद्धों में शारीरिक ह्रास (Physical Deterioration) के साथ-साथ मानसिक ह्रास (Mental Deterioration) भी होने लगता है ।
इस अवस्था में वैयक्तिक विभिन्नता (Individual Difference) भी पाया जाता है । इस अवस्था की एक विशेषता यह भी होती है, कि इसमें एक व्यक्ति के उच्चतर बौद्धिक स्तर (Higher Intellectual Level) में निम्नतर बौद्धिक स्तर की तुलना में कम ह्रास होता है ।
वृद्धावस्था की अभिरुचियाँ (Interest) भी भिन्नता लिए होती हैं । इनकी व्यक्तिगत अभिरुचि (Personal Interest) में स्वयं की अभिरुचि (Self Interest), प्रकरण (Appearance) में अभिरुचि, पहनने से सम्बन्धित रुचि तथा रुपये-पैसों में अभिरुचि प्रमुख रूप से होती है ।
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वृद्ध लोगों की सामाजिक अभिरुचियाँ (Social Interest) भी कुछ विशिष्ट प्रकार के हो जाते हैं, जिनमें सामाजिक आबन्ध (Social Engagement) की कमी प्रधान होती है, जिसमें मुख्यत: चार बिन्दुओं पर चर्चा की जाती है:
(i) अन्य व्यक्तियों के साथ कम-से-कम आवेष्टन (Involvement) दिखलाना ।
(ii) मानसिक क्षमताओं (Psychological Capacities) का अधिक उपयोग ।
(iii) विभिन्न प्रकार की सामाजिक भूमिकाओं (Social Roles) में कमी ।
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(iv) दैहिक क्रियाओं में कम से कम सहभागिता (Less Participation) ।
अध्ययनों के आधार पर यह भी निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि इस अवस्था में वृद्धों में धार्मिक विश्वास एवं प्रवृत्तियाँ सामान्य रूप से पहले की तुलना में अधिक दृढ़ हो जाता है । ऐसे व्यक्तियों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण निराशावादी हो जाता है, तथा जीवन के अन्तिम काल की ओर अधिक आर्कषण बढ़ जाता है ।
उपर्युक्त विषय में यह स्पष्ट होता है, कि वृद्धावस्था कुछ विशेष प्रकार की अवस्थाओं से जुड़ा होता है, जिसे वृद्धावस्था की विशेषताओं के रूप में समझा जा सकता है । वृद्धावस्था में होने वाली अनेक प्रकार की समस्याएं व उनसे जुड़े पहलू सामने आ जाते हैं, जिनसे सम्बन्धित समायोजन करना पड़ता है ।
जीवन के अन्तिम वर्षों में प्राथमिक वृद्धावस्था तथा गौण वृद्धावस्था दिखती है । प्राथमिक वृद्धावस्था का सम्बन्ध ऐसे परिवर्तन से है जो मात्र उस बढ़ने के साथ दिखती है । इसके विपरीत गौण वृद्धावस्था का सम्बन्ध बीमारी आदि कारक के कारण शरीर में आये परिवर्तन से होता है ।
लगभग 60 वर्ष की उम्र में व्यक्ति की संवेदी योग्यताओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन घटते हैं । लगभग 70 वर्ष की उम्र के बाद व्यक्तियों की दृष्टि तीलता में अचानक गिरावट आ जाती है तथा इनमें अन्धकार अनुकूलन और गति प्रत्यक्षीकरण की योग्यताओं में गिरावट आ जाती है, ऐसे ही श्रवण संवेदनशीलता में कमी आती है ।
लगभग 75 साल की आयु में स्वाद तथा गन्ध की योग्यता का ह्रास दिखने लगता है । बुढ़ापे में व्यक्ति का R.T. बढ़ जाता है । अच्छी जीवन शैली इन परिवर्तनों की शुरूआत को विलम्बित कर सकती है ।
लगभग 1980 तक यह माना जाता था कि बुद्धि प्रारम्भिक वयस्क काल तक बढ़ती है, इसके बाद लगभग 40 वर्ष की आयु तक स्थिर रहती है । 40 वर्ष बाद इसमें कमी आने लगती है । यह निष्कर्ष प्रधानत: Cross Sectional Research पर आधारित था ।
ऐसा उपागम अनेक परिसीमाओं से ग्रस्त होता है । कुछ मनोवैज्ञानिकों ने लम्बतत् उपागम का इस्तेमाल किया व पाया कि बुद्धि का निर्माण करने वाली कुछ योग्यताएँ व्यक्ति में जीवन भर बढ़ती जाती हैं तथा शेष लगभग 60 वर्ष के बाद कुछ गिरावट प्रदर्शित करती हैं ।
बुद्धि परीक्षणों पर निष्पादन में गिरावट R.T. में वृद्धि की वजह से हो सकती है, तथा इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला है, कि आयु बढ़ने पर बुद्धि में गिरावट आती है । Finkel ने यमज बच्चों में अध्ययन करके यह पाया कि वयस्क लोगों में बुद्धि स्थिर बनी रहती है, लेकिन लगभग 60 वर्ष के बाद इसमें मामूली-सी गिरावट आती है ।
कुछ अन्य मनोवैज्ञानिकों ने बताया कि 60 वर्ष के बाद इसमें मामूली सी गिरावट के लिए असंतुलित आहार औपचारिक शिक्षा का अभाव आदि उत्तरदायी होते हैं ।
Essay # 2. सामाजिक व संवेगात्मक परिवर्तन (Social and Emotional Changes during Old Age):
प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक नेटवर्क का हिस्सा होना चाहता है । इसमें दोस्त, पडोसी, रिश्तेदार आदि आते हैं । व्यक्ति प्रारम्भिक वयस्क काल में अनेक व्यक्तियों से अन्तर्क्रिया करता है । अनेक व्यक्तियों को दोस्त बनाता है, लेकिन जैसे-जैसे मध्य वयस्क काल में प्रवेश करता है, तो वह अपने सामाजिक नेटवर्क का दायरा कम कर लेता है ।
लगभग पचास वर्ष की आयु में व्यक्ति के पास दस व्यक्ति अपने रह जाते हैं तथा व्यक्ति उन्हीं के साथ जीवन भर का सम्बन्ध कायम रखता है, व्यक्ति समय की कमी महसूस करता है, इसलिए व्यक्ति सीमित साथियों को चुन लेता है । व्यक्ति बढ़ती आयु आने वाली सेवानिवृत्ति शारीरिक कमजोरी जैसे कारकों की वजह से दूसरे व्यक्तियों के साथ कम अन्तर्क्रिया करने लगते हैं ।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने एजिंग व संवेगात्मक अनुभवों के मध्य सम्बन्ध का पता लगाया । बड़ी उम्र वाले वयस्क भी छोटी आयु वाले वयस्कों की भांति धनी व तीव्र संवेगात्मक अनुभव करते हैं ।
आयु बढोत्तरी के साथ-साथ स्मृति के कुछ पहलुओं में गिरावट हेतु जैविक परिवर्तनों को दोषी माना जाता है । जब हम उस में बढते हैं, तो हमारे दिमाग का वजन 70 वर्ष तक 5 प्रतिशत, 80 वर्ष तक 10 प्रतिशत तथा 90 वर्ष तक 20 प्रतिशत घट जाता है ।
मस्तिष्क में अन्य क्षेत्रों की तुलना में Frontal Lobes में न्यूरॉन क्षति ज्यादा होती है । हाल में हुए शोधों से जानकारी, मिलती है कि आयु बढ़ने से हिपोकेम्पस में क्षति होती जाती है । ‘उम्र के बढ़ने से मस्तिष्क में कितनी क्षति होती है’ के दृष्टिकोण से लिंग भेद पाये जाते हैं ।
Gur etal. ने अपने अध्ययनों में पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मस्तिष्क में नकारात्मक परिवर्तन कम होते हैं । इसके लिए मादा काम हार्मोन को उत्तरदायी माना जा सकता है ।
मानसिक व्यायाम द्वारा उम्र बढ़ने से स्मृति में आने वाले नकारात्मक परिवर्तनों को विलम्बित किया जा सकता है । जो व्यक्ति अपने जीवन में चिन्तन तर्कणा आदि का लगातार इस्तेमाल करते रहते हैं, वे स्मृति में गिरावट को कुछ सीमा तक रोक सकते हैं ।
इस अध्याय में आपने विकासात्मक अवस्थाओं के अन्तर्गत विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन किया जिनमें गर्भावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था आदि की मुख्य रूप से चर्चा की गई । इन अवस्थाओं सम्बन्धी प्रक्रियाओं को अध्ययन के उपरान्त समझने की चेष्टा करें ।
इस प्रकार विकास का क्रम धीरे-धीरे वृद्धि की ओर चलता है । इसमें मनुष्य पारिवारिक, व्यक्तिगत, सामाजिक, सास्कृतिक, वैवाहिक एवं आर्थिक दृष्टिकोणों द्वारा अनेक प्रकार के अनुभवों से गुजरता है, क्रमिक वृद्धि में वह बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं युवावस्था आदि अवस्थाओं से बहुत कुछ सीखते हुए अपने जीवन का अहम् पड़ाव पार करने के लिए प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करता है ।
यह वह अवस्था होती है, जो मनुष्य को परिपक्वता के दायरे में खडा कर देती है । इस अवस्था में यह माना जाता है, कि उसके द्वारा लिये गये निर्णय उचित एवं संतोषजनक होंगे ।
उसे समाज में सम्मान की स्थिति प्राप्त होनी शुरू हो जाती है तथा वह अपने व्यावसायिक जीवन की कड़ी को पूरा करते हुए वैवाहिक परिश्रम में समाहित करता है, संतानोत्पत्ति करता है, उनका पालनपोषण करता है और विवाह आदि जैसे सस्कारों की पूर्ति करता है और तब वह वयस्कावस्था या वृद्धावस्था के आरम्भिक काल में प्रवेश करता है ।
वृद्धावस्था क्या है ? इसकी कितनी अवस्थाएँ हैं ? इनकी समस्याएँ एवं चुनौतियाँक्या हैं ? इन सब प्रश्नों के समाधान के लिए आवश्यक है कि प्रौढ़ावस्था को समझ लिया जाए ।
Essay # 3. वृद्धावस्था एवं उसके दायित्व (Old Age and Its Responsibilities):
किशोरावस्था के पश्चात् मानव के जीवन में परिपक्वता आती है ।
इसकी भी दो अवस्थाएं हैं:
(a) आरम्भिक प्रौढ़ावस्था तथा
(b) रख उत्तर प्रौढ़ावस्था ।
लगभग 20 से 40 वर्षों की आयु आरम्भिक प्रौढ़ावस्था कही जाती है, जिसमें व्यक्ति युवावस्था की श्रेणी में आता है । यह अवस्था व्यक्ति के जीवन की निर्भरता से स्वावलम्बन तथा स्वतन्त्रता की अवस्था होती है ।
इसमें व्यक्ति मुख्य तौर से अपनी शिक्षा को समाप्त कर जीविका प्राप्त करना चाहता है, व्यवसाय का चयन करता है तथा व्यावसायिक जीवन में प्रवेश कर आर्थिक एवं सामाजिक रूप से स्वावलम्बी बनने की कोशिश करता है ।
पारिवारिक एवं सामाजिक रूप से वह नई भूमिकाओं तथा उत्तरदायित्वों का वहन करने की शुरुआत करता है । जीविका तथा धन प्राप्ति के अलावा प्रारम्भिक प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति एक और महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्व का वहन करता है ।
इस आयु में वह वैवाहिक जीवन में प्रवेश करके एक नये परिवार की शुरुआत करता है, इसमें पति-पत्नी में संवेगात्मक सम्बन्ध होते हैं, बाद में जब बच्चे होते हैं तब उन्हें माता-पिता का दायित्व निभाना पड़ता है ।
भारतीय संस्कृति में सभी परिवार एकल नहीं होते हैं । इस प्रकार, इस आयु के व्यक्तियों को अपने को श्रेष्ठ, समकक्ष तथा छोटे बच्चों के साथ अलग-अलग भूमिका निभाते हुए परिवार में सामंजस्य स्थापित करना होता है ।
स्पष्ट किया जा सकता है, यह एक गम्भीर पारिवारिक एवं सामाजिक अवस्था होती है, जिसमें व्यक्ति को बहुत ही उदारता के साथ परिवार को चलाने में योगदान करना होता है । इसके सफल होने पर ही पतिपत्नी एवं परिवार के अन्य सदस्यों की प्रसन्नता व सतोष निर्भर करता है ।
प्रौढ़ावस्था की एक गम्भीर समस्या तब पैदा होती है, जब पति-पत्नी में तलाक हो जाए या दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो जाये । ऐसी दशा में पति-पत्नी में से किसी एक को बच्चों की जिम्मेदारी लेनी पड़ती है । पति के न रहने पर पत्नी को ज्यादा गम्भीर समस्या से दो-चार होना पड़ता है ।
अधिकतर स्त्रियाँ आत्मनिर्भर नहीं होती वे अपने पति पर ही आथिक रूप से निर्भर रहती हैं । इसलिए, पति के न रहने पर या उसके अभाव में धनोपार्जन के लिए नौकरी या व्यवसाय करना तथा साथ-साथ परिवार एवं बच्चों का पालन-पोषण करना उनके लिए बहुत कठिन हो जाता है । ऐसी समस्य के बावजूद भी प्रौढावस्था जीवन में प्रगति तथा सफलता का अद्वितीय अवसर प्रदान करता है ।
उत्तर प्रौढ़ावस्था 40-60 वर्षों की आयु तक अथवा वृद्धावस्था के पूर्व तक की होती है, इसे अधेड़ अवस्था भी कहा जाता है । इस अवस्था में शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं में कमी को महसूस करने लगते हैं । आँख, कान, नाक आदि ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता में कमी आने लगती है ।
याददाश्त व बुद्धि में कमी होने लगती है, लेकिन अनुभव के अहिगर पर प्रौढों में समस्या-समाधान की पर्याप्त शक्ति रहती है । प्रौढावस्था के अन्तिम वर्षो में व्यक्ति अपने व्यवसाय तथा जीविका के उच्चतम स्थान पर रहता है । इसलिए, वहपरिवार तथा अपने कार्य-परिस्थिति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।
साथ ही, बच्चों की उच्च शिक्षा तथा उनके विवाहव परिवार बसाने की जवाबदेही भी उत्तर प्रौढ़ावस्था में निभानी होती है । इस प्रकार, प्रौढ़ावस्था मानवजीवन की सर्वाधिक उत्तरदायित्चपूर्ण अवस्था होती है ।
चूंकि वयस्क अवस्था या प्रौढ़ावस्था की उत्पत्ति लैटिन शब्द (Adultus) से हुई है, जिसका वास्तविक अर्थ है पूरी शक्ति (Strength) एवं आकार (Size) तक की संवृद्धि (Growth) | इसलिए वयस्क या प्रौढ़ उस व्यक्ति को कहा जाता है, जिन्होंने अपनी संवृद्धि (Growth) को पूरा कर लिया हो ।
विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों ने वयस्कावस्था के तीन उपभाग (Subdivision) को बतलाया है:
(i) आरम्भिक वयस्कावस्था (Early Adulthood) 20 से 40 वर्ष ।
(ii) मध्य वयस्कावस्था (Middle Adulthood) 40 से 60 वर्ष ।
(iii) वृद्धावस्था (Old Age) 60 से अन्तिम काल तक ।
यहाँ प्रथम दो अवस्थाओं का अध्ययन निम्नवत् कर लेना उचित होगा:
(i) आरम्भिक वृद्धावस्था (Early Old Age)
अवस्था काल – 20 वर्ष से 40 वर्ष (वयस्क जीवन)
वैवाहिक स्थिति, निर्धारण काल (वैवाहिक समायोजन काल)
पारिवारिक सदस्यों का वृद्धि काल (संतानोत्पत्ति काल)
पूर्व पारिवारिक सदस्यों से प्राय: अलगाव-अवस्था
नूतन जीवन शैली (New Life Styles)
पति-पत्नी समायोजनावस्था (Husband-Wife Adjustment Stage)
लैंगिक समायोजन (Sexual Adjustment)
वित्तीय समायोजन (Financial Adjustment)
ससुराल पक्ष समायोजन (Ln-Law Adjustment)
अन्य पहलू (Other Aspects)
व्यावसायिक कठिनाइयाँ अथवा समस्याएँ (Economic Problem)
अर्थ असन्तुष्टि (Job Dissatisfaction)
बेरोजगारी (Unemployment)
न्यून बेरोजगारी (Under Employment)
(ii) मध्य वृद्धावस्था (Middle Old Age):
इसके सन्दर्भ में स्पष्टीकरण निम्नवत् दिया जा सकता है:
अवस्था काल:
60 वर्ष से अन्तिम अवस्था तक ।
दैहिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तन अवस्था (Physiological and Psychological Changes Stage)
भयावह अवधि (Dreaded Period):
(A) किम्मेल वर्गीकरण (Kimmel Classification):
(i) प्रथम संकटावस्था:
विकासात्मक संकट (Developmental Crisis)
”जब बालक आशाओं के अनुरूप खरे नहीं उतरते ।”
(ii) द्वितीय अवस्थ:
वृद्ध माँ-बाप के साथ समायोजन में कठिनाई ।
(iii) तृतीय अवस्था:
पति-पत्नी को एक-दूसरे से भविष्य में अलग हो जाने का भय ।
(B) मरमोर वर्गीकरण (Marmor Classification):
तनाव काल (Stress Stage):
(i) दैहिक तनाव (Somatic Stress):
दैहिक कमजोरियों के कारण होने वाला तनाव ।
(ii) आर्थिक तनाव (Economic Stress):
पारिवारिक एवं अन्य प्रकार के खर्चों की जिम्मेदारी ।
(iii) मनोवैज्ञानिक तनाव (Psychological Stress):
पति-पत्नी दोनों में से किसी एक की मृत्यु अथवा बालकों का अलग हो जाना ।
(iv) सांस्कृतिक तनाव (Cultural Stress):
सांस्कृतिक समूह के लड़के-लड़कियों, उनकी शक्तियों एवं सफलताओं सम्बन्धी आवश्यकताओं पर अधिक जोर देना ।
आवश्यकता (Needs):
पर्याप्त सम्मान एवं सत्ता (Prestige and Power):
उपयुक्त दोनों अवस्थाओं के सन्दर्भ में आपने समझा होगा कि किस प्रकार ये अवस्थाएँ मनुष्य के जीवन में परिवर्तन एवं प्रभाव छोडते हैं ? ये परिवर्तन तथा प्रभाव आगे आने वाली वृद्धावस्था से न केवल सम्बन्धित होते हैं वरन् उससे उन पर अनेक प्रकार से अपनी छाप छोड़ते हैं ।
Essay # 4. वृद्धावस्था की समस्याएँ (Problems of Old Age):
मानव-जीवन की अन्तिम अवस्था के पड़ाव को वृद्धावस्था कहा जाता है । परम्परागत रूप से सेवा-निवृत्ति से शुरू होकर मृत्यु तक की अवधि का नाम है । लेकिन सेवानिवृत्ति की आयु विभिन्न नौकरियों में भिन्न होती है, साथ ही यह आयु भी ऊपर की ओर बढ़ती रही है ।
इस तरह वृद्धावस्था की शुरुआत कब से होती है, यह कहना कठिन है । फिर भी सामान्यतया 60 वर्ष से अधिक के आयु वर्ग को वृद्धावस्था कहा जाता है । यह आयु पारिवारिक दायित्वों से मुक्त होने की आयु है ।
वृद्धावस्था की कुछ मुख्य समस्याएं हैं:
(i) शारीरिक व मानसिक क्षमताओं की कमी,
(ii) शारीरिक अक्षमता,
(iii) आर्थिक समस्या एवं निर्भरता,
(iv) अकेलापन एवं असुरक्षा का अनुभव,
(v) परिवार के सदस्यों, विशेषकर सतानों द्वारा उपेक्षा व इससे उत्पन्न मानसिक क्लेश, तनाव,
(vi) मृत्यु का भय आदि ।
वृद्ध व्यक्ति अपनी कमजोरी के कारण तथा अस्वस्थता के कारण दूसरें लोगों पर आश्रित रहते हैं ।
अनेक संस्कृतियों में वृद्धावस्था को संतोषप्रद बनाने के अनेक उपाय किये गये हैं । संयुक्त राष्ट्र और अन्य विश्व संगठनों में समय-समय पर वृद्ध वर्ष के आयोजन तथा वरीय नागरिकों को विशेष सुविधाएँ देने की अनुशंसा की है । भारत में भी वृद्धावस्था पेंशन के साथ-साथ स्वास्थ्य और यात्रा सम्बन्धी विशेष सुविधाएँ वरीय नागरिकों को प्रदान की गई हैं ।
इसके साथ ही परिवारों में उन्हें प्रतिष्ठित स्थान दिलाने के प्रयास भी होते रहे हैं । बड़े शहरों में परिवार से अलग हुए वृद्धों के रहने व खाने-पीने के विशेष गहों और केन्द्रों के निर्माण किये गये हैं, लेकिन इनकी सख्या बहुत ही कम है ।
भारतीय समाज परिवारमूलक रहा है । इस प्रकार से वृद्धावस्था की समस्याओं का सही समाधान वृद्ध व्यक्तियों को परिवार में प्रतिष्ठित स्थान दिलाता है । भारतीय संस्कृति में माता-पिता को ईश्वर तुल्य माना जाता रहा है । इसलिए इनकी सेवा को धर्म माना गया है ।
इस भाव से व्रुद्ध व्यक्तियों की परिवार द्वारा देखरेख उनकी समस्याओं का सही समाधान होता है और उनके जीवन की सुखद परिणति होती है । वृद्ध व्यक्तियों को भी सकारात्मक भाव अपने व अपने परिवार के प्रति रखना चाहिए ।
हर धर्म आनन्द का मूरल स्रोत आध्यात्मिक जीवन को मानता है, जिसके लिए सबसे उपयुक्त अवस्था यही है । वृद्ध व्यक्ति अपने सहज प्रेम व विशाल अनुभवी को तथा ज्ञान को जितना बच्चों व अन्य लोगों के बीच बाँटता है, उनका जीवन उतना ही आनन्ददायक हो जाता है ।