Here is an essay on the ‘Social Development of an Individual’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Social Development of an Individual’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. सामाजिक विकास का सम्प्रत्यय-कसौटियाँ एवं अवस्थाएँ (Concept of Social Development: Criteria and Stages):

मानव जन्मकाल के समय न तो सामाजिक प्राणी होता है और न ही असामाजिक । समाज के सम्पर्क में आने के पश्चात् उसमें सामाजिक असामाजिक होने के तत्वों का समायोजन होता है । वह समाज के लोगों के सम्पर्क में आने के पश्चात् ही क्रोध, प्रेम, भय, आवेग, संवेग, शर्म, अपराध, रुचि, क्षमता आदि चीजों को समझ पाता है ।

वह समाज के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करेगा आगे चलकर उसके विकास में किस प्रकार समाज उसका सहयोग देगा यह बाते धीरे-धीरे विकसित होती हैं ।

सामाजिक विकास का अर्थ वास्तव में सामाजिक सम्बन्धों में परिपक्वता प्राप्त करने से होता है, नए-नए व्यक्तियों का सम्पर्क नवीन कानून नियम शर्तें लोकाचार रूढ़ियाँ प्रथाएँ परम्पराएँ आदि से सम्बन्धित व्यवहार भी नया ही होता है, जो कि दूसरों के सम्पर्क एवं सहयोग के बिना असम्भव है ।

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मानव की मूल प्रवृत्ति है, कि वह समूह में रहना चाहता है । वह छोटे-छोटे समूहों के रूप में अपने वातावरण का तानाबाना बुनता है और उसमें एक-दूसरे से व्यवहार की प्रक्रिया को अपनाता है । व्यवहार की सामाजिक क्रियाएँ कुछ सहज एवं कुछ जटिल होती हैं तथापि प्राणी अपने व्यवहारों को स्व: निर्देशित करना सीख जाता है ।

जब शिशु जन्म लेता है, तब न तो वह सामाजिक होता है, न असामाजिक वरन् वह समाज के प्रति उदासीन होता है । जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, वैसे-वैसे वह सामाजिक से गुणों सुशोभित होता जाता है और कुछ वर्षों के पश्चात् वह सामाजिक प्राणी कहलाने लगता है ।

शिशु सामाजिक गुणों को सामाजिक विकास की अवस्थाओं के अनुसार स्वीकार करता है । शुरू में उसमें सामाजिक विकास तीव्र होता है, फिर इस विकास में कमी होने लगती है फिर मद गति से विकास होता है, फिर सामाजिक विकास में प्रतिगमन दिखाई देता है अन्त में यह विकास मंद गति से चलता है ।

स्वस्थ खूबसूरत व मानसिक गुणों से परिपूर्ण शिशु के लिए यह आवश्यक होता है कि उसमें पर्याप्त मात्रा में सामाजिक मूल्य व गुण मौजूद होने चाहिए ।

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सामाजिक विकास की परिभाषाएँ (Definitions of Social Development):

सामाजिक विकास की परिभाषा देते हुए चाइल्ड का कथन है कि, ”सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है ।” इसी सम्बन्ध में हरलॉक कहते हैं, ”सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है, जिसके द्वारा सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार किया जा सकता है ।”

Essay # 2. शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Infant Stage):

बालक जब जन्म लेता है, तब से उस काल तक वह दूसरे बच्चों में कोई रुचि नहीं लेता है, जब तक उसकी समस्त जरूरतों की पुष्टि सामान्य तौर से होती रहती है । लगभग दो माह की आयु होने तक शिशु वातावरण की केवल अधिक तीव्र उत्तेजनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करता है ।

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इस विषय में कोच का विचार है, कि तीन माह की आयु तक शिशु का श्रवण सिस्टम इतना विकसित हो जाता है, कि वह विभिन्न ध्वनियों में अन्तर जानने लगता है, तथा उसकी आखों का नियन्त्रण इतना हो जाता है कि वह व्यक्तियों तथा वस्तुओं की गतियों का निरीक्षण करने लगता है ।

शुरुआत में शिशु मात्र वयस्क व्यक्तियों के प्रति ही प्रतिक्रिया करता है क्योंकि उस काल में वह केवल उन्हीं लोगों के सम्पर्क में आता है ।

3 माह की आयु तक वह मानवीय आवाज तथा मुस्कराहट के प्रति अनुक्रिया करने लगता है । इस अवस्था में लोगों की उपस्थिति में शांत रहता है, लेकिन जब वह अकेला होता है तब रोने लगता है । उस समय वह रोकर वयस्कों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है ।

शिशु को इसी प्रतिक्रियाओं के द्वारा उसकी सामाजिक विकास की उत्पत्ति होती है । इससे पहले, न तो वह सामाजिक होता है और न ही असामाजिक प्राणी क्योंकि वह न तो दूसरों की पहचानता है और न ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करता है जब वह तीन माह का होता है तब नजदीकी लोगों को जो उसके करीब होते हैं उनको पहचानने लगता है खासतौर से अपनी माँ को, क्योंकि वह ही सबसे नजदीक होती है ।

जब शिशु चार माह का होता है, उसे गोद में उठाने पर वह पूर्वानुमति समायोजन करने लगता है । वह बहुत से चेहरों में कुछ चेहरों को पहचानने लगता है । जो व्यक्ति उसे खिलाता है और उसे हँसाता है तब उसे देखकर वह मुस्कराने लगता है ।

बच्चे को जब पुकारा जाता है तब वह हँसकर अनुक्रिया को प्रकट करता है । इस अवस्था में बालक की सामाजिक उत्तेजनाओं के प्रति अनुक्रिया हँसकर रोकर प्रकट होती है । 5-6 माह की अवस्था में उसमें अपेक्षाकृत अधिक सामाजिक विकास हो जाता है ।

इस अवधि में क्रोध तथा मित्रता सम्बन्धी व्यवहार समझने लगता है । अपने परिवार के लोगों को अच्छी प्रकार पहचानने लगता है । वह अपरिचितों को देखकर डर जाता है । वह बिस्तर पर हाथपैर चलाकर दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है, विशेष ढंग से आवाजें निकालने लगता है ।

जब शिशु 8-9 माह का हो जाता है, तब वह चाबी सम्बन्धी ध्वनियों का अनुकरण करने लगता है । इसके साथ-साथ वह अपने से बड़े बच्चों व वयस्क व्यक्तियों की व्यवहार सम्बन्धी अभिव्यक्तियों का अनुकरण भी करने लगता है । 1 वर्ष का होने पर शिशु अपरिचितों को देखकर डर कर पीछे चल पडता है तथा रोने लगता है ।

4-5 माह का शिशु दूसरे शिशु को पहचानने लगता है । 6-8 माह का शिशु दूसरे शिशु से खेलने लगता है । वह दूसरे बच्चों को छूता है, मुस्कराता है तथा तरह-तरह की आवाजें निकालने लगता है । शिशु जब लगभग 1 वर्ष का हो जाता है, तब वह दूसरे बच्चों के बालों व कपड़ों को पकड़ता व नोचता है तथा दूसरे बच्चों को देखकर उनकी अभिव्यक्तियों का अनुकरण करने लगता है ।

वह उनकी भाषा का भी अनुकरण करने लगता है, जब बालक दो वर्ष का होता है तब उसका सामाजिक सम्बन्धों का तीव्र गति से विकास होने लगता है और लगभग डेढ वर्ष का बालक अपने साथ के बच्चों के साथ अपने विचारों का थोड़ा-बहुत आदानप्रदान करने की कोशिश करता है ।

इस आयु तक बच्चे सहयोगात्मक खेल भी प्रारम्भ कर देते हैं । इससे पहले यदि बच्चों का खिलौना किसी अन्य बने को दिया जाता है तब उनमें खिलौने के प्रति छीनाझपटी शुरू हो जाती है ।

0-1 वर्ष की आयु के बालक के कुछ विशिष्ट सामाजिक व्यवहार (Social behavior of 0-1 Age Children):

(i) अनुकरण (Initiation):

अनुकरण की क्रिया में शिशु पहले मुखाकृतियों, फिर हावभाव का, फिर भाषा व अन्त में सम्पूर्ण व्यवहार प्रतिमान का अनुसरण करना सीख लेता है । अनुकरण ही वह प्रक्रिया है, जिसकी मदद से शिशु आगे चलकर सामाजिक प्राणी कहलाता है ।

(ii) आश्रिता (Dependency):

जब शिशु अकेला होता है तब वह रोता है । जब माँ उसे गोद में उठा लेती है, तब वह उससे चिपट जाता है । उसका यह व्यवहार उसकी निर्भरता की ओर संकेत करता है । बालक की जितनी देखरेख की जाती है, उसमें आश्रितता का गुण उतना ही बढ़ता जाता है ।

(iii) ईर्ष्या (Jealousy):

शिशु में ईर्ष्या का भाव 9- 12 माह की आयु में उत्पल होता है । यह क्रिया शिशु में उस समय देखने को मिलती है, जब वह खिलौने के लिए एक दूसरे से छीना-छपटी करता है ।

(iv) सहयोग (Co-Operate):

जब शिशु दो वर्ष का होता है, तब दूसरे शिशु के प्रति उसमें सहयोग की भावना पैदा होती है, किन्तु दूसरे शिशुओं की अपेक्षा वयस्कों के प्रति उनमें अधिक सहयोग की इच्छा होती है ।

(v) शर्म (Shame):

शिशु के 1 वर्ष का होने पर शर्म के लक्षण उत्पल होने लगते हैं यह लक्षण तब देखने को मिलता है जब कोई अजनबी उसके सामने आता है ।

(vi) अवरोधी व्यवहार (Protesting Behavior):

लगभग 1 वर्ष की आयु से शिशु में अवरोधी व्यवहार आरम्भ हो जाता है । रोकर या अपने शरीर को कड़ा करके वह इस प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित करता है ।

2 से 5 वर्ष की आयु के बालक का सामाजिक विकास (Social Behavior of 2 to 5 Age Children’s):

सामाजिकता का विकास बालक में अचानक नहीं होता । यह प्रक्रिया निरन्तर चलने वाली होती है बालक को प्राप्त होने वाले सामाजिक अनुभवों के आधार पर सामाजिकता का विकास होता है ।

सामाजिक विकास का अर्थ है-बालक में इस प्रकार की योग्यताओं के विकास से होता है, जिनके द्वारा बालक समाज की अपेक्षाओं तथा आकांक्षाओं के अनुसार व्यवहार विकसित करता है, सामाजिक विकास में तीन प्रक्रियाएँ होती हैं, जो कि आपस में घनिष्ठता का सम्बन्ध रखती हैं । एक भी प्रक्रिया के विकास में बड़ी बाधा से सम्पूण सामाजिक विकास की प्रक्रिया बाधित होती हैं ।

यह प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं:

(i) ऐसे व्यवहार को सीखना जिसे समाज द्वारा स्वीकृति मिली हो ।

(ii) समाज द्वारा मान्य सामाजिक भूमिकाओं को अपनाना समाज के सदस्यों से एक विशिष्ट प्रकार के सामाजिक व्यवहार की आशा की जाती है । प्रत्येक में दोनों लिगों के लिए भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ निर्धारित की जाती हैं, व प्रत्येक सदस्य से आशा की जाती है, कि वह अपने लिए निर्धारित उपर्युक्त भूमिका का चुनाव करके उसे अपनायें । इसी प्रकार से विभिन व्यक्तियों से विभिन भूमिका की आशा की जाती है । जैसे- माता की भूमिका पिता की भूमिका बालक की भूमिका शिक्षक की भूमिका आदि ।

(iii) सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास करना जिसके आधार पर वे समाज के विभिन्न सदस्यों के प्रति अपेक्षित मैत्रीपूर्ण अभिवृत्तियों का विकास कर सकें ।

यद्यपि समाज के समस्त सदस्य इन सभी प्रक्रियाओं को पूरी तरह विकसित नहीं कर पाते हैं, फिर भी व्यक्ति कितनी अधिक मात्रा में इन प्रक्रियाओं का विकास कर पाता है, उसी के आहगर पर उसके सामाजिक विकास के स्तर तथा गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जाता है ।

Essay # 3. बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Childhood):

6-7 वर्ष से 11-12 वर्ष की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है । इस अवस्था में सामाजिक विकास के अन्तर्गत उन्हीं गुणों तथा विशेषताओं का विकास होता है, जिनकी शुरुआत बाल्यावस्था में हुई थी । इस आयु में बच्चे का शारीरिक मानसिक गत्यात्मक तथा भाषा आदि का विकास होने के कारण बच्चा खेल की तरफ अधिक आकर्षित होने लगता है ।

इस अवस्था में दूसरी बातों तथा क्रियाकलापों को भी अन्य बच्चों से सीखता है । इससे उनका सामाजिकता क्षेत्र बढ जाता है । उनका मन घर की अपेक्षा बाहर ज्यादा लगने लगता है । इस आयु में लड़कियों को घर के बाहर भेजना ज्यादा उचित नहीं समझा जाता बच्चों की यह आयु समूह आयु कही जाती है ।

इस काल में उनका विकास तेजी से होता है तथा किसी-न-किसी साथी समूह का सदस्य बन जाता है । जिस तरह से परिवार का प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर महत्वपूर्ण ढंग से पडता है, ठीक उसी तरह से साथी समूह का भी प्रभाव पड़ता है ।

यह साथी समूह बच्चों की सामाजिक अभिवृत्तियों के विकास को भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है । हेवीघर्स्ट साथी समूह के विषय में कहते हैं कि ”बालक कभी एक साथी समूह का सदस्य रहता है, तो कभी दूसरे का और कभी-कभी इन समूहों से मुका होकर स्वतन्त्र रूप से व्यवहार करता है । बालको का भिन्न-भिन्न साथी समूहों में शामिल होना उनकी मित्रता पर आधारित न होकर खेल की क्रियाओं या खेलों पर अधिक आधारित होता है । लगभग 8 वर्ष की उम्र तक बालक सामूहिक खेलों में अधिक रुचि लेता है ।”

Essay # 4. सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Social Development):

बालक का प्रत्येक आयु स्तर पर एक निश्चित मात्रा में सामाजिक विकास होता है । किस आयु स्तर पर बालक का कितना सामाजिक विकास होना चाहिए?

यह विभिन्न कारकों पर निर्भर होता है, जिनमें से प्रमुख कारक अग्रलिखित प्रकार से है:

(1) शारीरिक बनावट (Physical Structure):

सामाजिक विकास को सबसे ज्यादा शारीरिक बनावट प्रभावित करती है । जिन बालकों की शारीरिक बनावट आकर्षक होती है, उन्हें समाज में अच्छा स्थान मिलता है । आकर्षक बालकों से सभी मेल-जोल पसन्द करते हैं । इस प्रकार से इनका सामाजिक विकास दूसरे बच्चो की तुलना में शीघ्र व सामान्य ढंग से होता है, तो इनको सामाजिक परिस्थितियों में सीखने के अवसर भी अधिक प्राप्त होते हैं ।

(2) स्वास्थ्य (Health):

जो बच्चे स्वस्थ होते है, उनका सामाजिक विकास अस्वस्थ बच्चों की तुलना में ज्यादा होता है । स्वस्थ बच्चों को सामाजिक विकास के ढेर सारे अवसर प्राप्त होते हैं, जबकि अस्वस्थ बच्चों को कम अवसर प्राप्त होते हैं । धीरे-धीरे वह अन्तर्मुखी हो जाते हैं । इनमें सामाजिकता तथा सहयोग के गुणों का विकास नहीं हो पाता ।

(3) परिवार (Family):

परिवार के आकार एवं वहाँ के वातावरण से बालकों के सामाजिक विकास महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित होता है । छोटे परिवारों में बालकों को अधिक स्नेह व संरक्षण मिलता है जबकि बड़े परिवारों के बच्चे अन्य बच्चों के अनुकरण को करते हैं । उन बच्चों को अधिक स्नेह व संरक्षण भी नहीं मिल पाता है ।

परिवार के सदस्यों का सामाजिक व्यवहार जिस प्रकार का होता है, वैसा ही सामाजिक व्यवहार उस बालक का होता है । इसके अलावा सहयोग उत्तरदायित्व पक्षपात अपमान सम्मान आदि के बारे में बालक परिवार से ही सीखते हैं ।

(4) सामाजिक-आर्थिक स्तर (Social Economic Level):

परिवार के सामाजिक-आर्थिक स्तर का भी बालकों पर प्रभाव पड़ता है । जिस परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर उच्च होता है, वहाँ बालकों में आत्मविश्वास अधिक होता है, जबकि निम्न सामाजिक- आर्थिक स्तर वाले परिवारों के बच्चों में आत्मविश्वास कम होता है, जिसके कारण वे उत्तरदायित्वों को सँभालने में कठिनाई का अनुभव करते हैं । इस प्रकार स्पष्ट होता है, कि परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर भी बालकों के सामाजिक समायोजन को प्रभावित करता है ।

(5) विद्यालय (School):

किसी भी बालक के सामाजिक विकास में उसके शिक्षक व अन्य बालक अपना योगदान देते हैं । जब बालक अपनी आयु के बच्चों के साथ रहता है, तब वह उनसे बहुत कुछ सीख लेता है । साथ ही बड़े बालकों के सामाजिक अनुभवों तथा सामाजिक व्यवहारों से उसकी सामाजिक सूझ भी बढ़ती है ।

वह सामाजिक मूल्यों से परिचित होता है । उसमें सहयोग मित्रता उत्तरदायित्व तथा आत्मनिर्भरता के गुणों का समावेश होता है ।

(6) पड़ोस (Neighborhood):

पड़ोस से भी बालक का सामाजिक विकास होता है । पड़ोस का सामाजिक वातावरण एवं व्यवहार तथा सामाजिक कार्यक्रम भी सामाजिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं ।

(7) व्यक्तित्व (Personality):

बालक का व्यक्तित्व भी सामाजिक विकास का महत्वपूर्ण कारक है । सकारात्मक संवेगों से युका प्रतिभा का बालक सामाजिक परिस्थितियों के साथ सहज ही समायोजन स्थापित कर लेता है । इसके विपरीत, हीनता से युक्त व्यक्तित्व वाले बच्चों में समायोजन क्षमता का अभाव पाया जाता है ।

(8) संवेगात्मक विकास (Emotional Development):

जिन बच्चों में प्रसन्नता शान्त स्वभाव तथा बहिर्मुखी होने का गुण होता है । उन बच्चों के मित्रों की संख्या भी अधिक होती है । इस प्रकार से बालक का सामाजिक विकास भी अच्छी प्रकार से हो जाता है । इसके विपरीत चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव के बच्चों के साथी कम होते हैं जिसके कारण उनका सामाजिक विकास भी अपेक्षाकृत कम होता है ।

(9) मनोरंजन (Entertainment):

जिस परिवार में मनोरजन के साधन अधिक होते हैं, उस परिवार के बच्चों में समाज विरोधी के उत्पल होने की सम्भावना कम होती है क्योंकि एक ओर तो वह मित्रों तथा मनोरंजन में व्यस्त रहता है, दूसरी ओर उसका स्वभाव भी हँसमुख हो जाता है । इस प्रकार वह सामाजिक परिस्थितियों के साथ समायोजन करने में सफल रहता है ।

(10) सम्बर्द्धन अभिप्रेरक (Combined Motivation):

जिन बालकों का अधिकतर समय परिवार तथा अन्य बालकों के साथ व्यतीत होता है, उनमें सम्बर्द्धन अभिप्रेरणा अधिक मात्रा में पायी जाता है, जिससे उनमें सामाजिक विकास भी तीव्र गति से होता है । शैच्छर का मानना है, ”चिन्ता में सम्बर्द्धन अभिप्रेरणा की वृद्धि होती है तथा सम्बर्द्धन अभिप्रेरणा की अधिकता से बालकों के सामाजिक विकास की दर बढ़ जाती है ।”

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