Read this essay in Hindi to learn about the impact of British rule on India.
इंग्लैंड की ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ ने ई॰स॰ १७५७ से १८५६ के बीच लगभग संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार कर लिया । अपनी सत्ता को दृढ़ बनाने हेतु अंग्रेजों ने यहाँ नई शासन व्यवस्था प्रारंभ की ।
दोहरी शासन व्यवस्था:
ई॰स॰ ९७६५ में राबर्ट क्लाइव ने बंगाल में दोहरी शासन व्यवस्था की नींव रखी । राजस्व वसूली का कार्य कंपनी ने अपने हाथ में रखा तथा कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व बंगाल के नवाब को
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सौंपा । इसी को ‘दोहरी शासन व्यवस्था’ कहते हैं । दोहरी शासन व्यवस्था के दुष्प्रभाव कालांतर में दिखाई देने लगे ।
सामान्य जनता से कर के रूप में वसूला गया धन कंपनी के अधिकारियों की जेब में जाने लगा । भारत में चलनेवाले व्यापार का एकाधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी को दिया गया था । फलस्वरूप इंग्लैंड की व्यापारिक कंपनियाँ ईस्ट इंडिया कंपनी से ईर्ष्या करती थीं । इस कारण ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा चलाए जा रहे भारतीय प्रशासन की आलोचना होने लगी । फलत: कंपनी के प्रशासन पर नियंत्रण रखने हेतु इंग्लैंड की पार्लियामेंट ने कुछ महत्वपूर्ण कानून बनाए ।
पार्लियामेंट दवारा बनाए गए कानून:
ई॰स॰ १७७३ के रेग्यूलेटिंग एक्ट के अनुसार बंगाल के गवर्नर को ‘गवर्नर जनरल’ पद दिया गया । उसे मुंबई और चेन्नई (मद्रास) प्रांत की नीतियों पर नियंत्रण रखने का अधिकार प्राप्त हुआ । उसकी सहायता करने के लिए चार सदस्यीय समिति का गठन किया गया ।
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ई॰स॰ १७८४ में पिट का भारत कानून पारित हुआ । भारत के प्रशासन पर पार्लियामेंट अपना नियंत्रण रख सके; इसके लिए स्थायी रूप में नियामक मंडल का गठन किया गया । इस मंडल को भारतीय प्रशासन से संबंधित आदेश कंपनी को देने का अधिकार दिया गया था ।
ई॰स॰ १८१३, १८३३ और १८५३ में पार्लियामेंट ने कंपनी के प्रशासन में परिवर्तन करने हेतु कानून पारित किए । इस प्रकार कंपनी के भारतीय प्रशासन पर अंग्रेजी शासन का अप्रत्यक्ष नियंत्रण प्रारंभ हुआ । अंग्रेजी सत्ता के पीछे-पीछे नई प्रशासकीय व्यवस्था भारत में प्रचलित हुई । प्रशासकीय सेवाएं, सेना, पुलिस विभाग और न्याय संस्था अंग्रेजों के भारतीय प्रशासन के प्रमुख आधार स्तंभ थे ।
प्रशासकीय सेवाएँ:
अंग्रेजों को भारत में अपनी सत्ता को दृढ़ क्वने के लिए नौकरशाही की आवश्यक्ता थी । इस नौकरशाही को लार्ड कार्नवालिस ने आरंभ किया । प्रशासकीय सेवाएँ अंग्रेजी शासन का महत्वपूर्ण अंग बनीं । कार्नवालिस ने नियम बनाया कि कंपनी के अधिकारी निजी व्यापार न करें । इसके लिए उसने अधिकारियों के वेतन में वृद्धि की ।
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प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से अंग्रेजों के अधीनस्थ प्रदेशों को विभिन्न जिलों में बाँटा गया । जिलाधिकारी जिले का प्रमुख होता था । उसपर राजस्व इक्टठा करना, न्याय प्रदान करना, कानून एवं सुव्यवस्था को बनाए रखना जैसे दायित्व थे । इंडियन सिविल सर्विसेस (आई॰सी॰एस॰) की प्रतियोगिता परीक्षाओं द्वारा इन अधिकारीयों की नियुक्तियाँ की जाने लगीं ।
सेना और पुलिस विभाग:
अंग्रेजों के अधीनस्थ प्रदेशों का संरक्षण करना, नए प्रदेशों को जीतना और भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध होनेवाले विद्रोह को विफल बनाना आदि सेना के कार्य थे । देश में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने का दायित्व पुलिस विभाग पर था ।
न्याय प्रणाली:
इंग्लैंड की न्याय प्रणाली पर आधारित न्याय व्यवस्था भारत में प्रचलित की गई । प्रत्येक जिले में दीवानी मुकदमों के लिए दीवानी न्यायालयों और आपराधिक मुकदमों के लिए फौजदारी न्यायालयों की स्थापना की गई । उनके निर्णयों के पुनरावलोकन के लिए उच्च न्यायालयों कई स्थापना की गई ।
कानून संबंधी समानता:
भारत में पहले विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग कानून थे । न्यायदान करते समय जाति के आधार पर भेद-भाव किया जाता था । लार्ड मेकाले के अधीन गठित की गई ‘विधि समिति’ ने कानून की नियमावली बनाई और संपूर्ण भारत में समान कानून लागू किया । न्यायव्यवस्था के संबंध में अंग्रेजों ने यह सिद्धांत प्रचलित किया कि कानून की दृष्टि में सभी समान हैं ।
इस प्रणाली में भी कुछ दोष थे जैसे- यूरोपीय लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए स्वतंत्र न्यायालय और भिन्न कानून बनाए गए थे । सामान्य लोग नए कानून समझ नहीं पाते थे । सामान्य लोगों के लिए न्याय पाना खर्चीली बात थी । मुकदमे कई वर्षो तक चलते रहते थे ।
अंग्रेजों की आर्थिक नीतियाँ:
प्राचीन समय से भारत पर आक्रमण होते रहे । कई आक्रमणकारी भारत में स्थायी रूप में बस गए । वे भारतीय संस्कृति में घुलमिल गए । यद्यपि उन्होने यहाँ अपने राज्य स्थापित किए । फिर भी उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था में मौलिक परिवर्तन नहीं किए थे परंतु अंग्रेजों के बारे में ऐसा नहीं था ।
इंग्लैंड आधुनिक राष्ट्र था । वहाँ औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप पूँजीवादी अर्थव्यवस्था प्रचलित हुई थी । उन्होंने इस व्यवस्था का पोषण करनेवाली अर्थव्यवस्था को भारत में प्रचलित किया । इससे अंग्रेजों को लाभ हुआ परंतु भारतीयों का आर्थिक शोषण प्रारंभ हुआ ।
भू राजस्व नीति:
अंग्रेजों के शासन से पूर्व हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर थी । कृषि एवं अन्य व्यवसायों द्वारा गाँव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी । भू राजस्व राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था । अंग्रेजी शासन के पूर्व लगान का निर्धारण फसलों के अनुसार किया जाता था ।
फसल अच्छी न होने पर लगान में छूट दी जाती थी । भू राजस्व प्रमुखत: अनाज के रूप में लिया जाता था । लगान अदा करने में विलंब होने पर भी किसानों से उनकी भूमि छीनकर नहीं ली जाती थी । अपनी आय को बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने भूमि की भू राजस्व प्रणाली में परिवर्तन किए । अंग्रेजों ने भूमि मापन के आधार पर क्षेत्रफलानुसार लगान का निर्धारण किया । यह कड़ाई कर दी गई कि लगान निर्धारित समय पर एवं नकद राशि के रूप में अदा करें ।
नियम यह भी बनाया गया था कि समय के भीतर लगान अदा न करने पर किसानों की भूमि जब्त कर ली जाएगी । राजस्व इकट्ठा करने की अंग्रेजों की पद्धति भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग थी । सभी जगह किसानों का शोषण होता था ।
भू-राजस्व की नई नीति के परिणाम:
भू राजस्व की नई नीति के ग्रामीण जनजीवन पर अनिष्टकारक परिणाम हुए । लगान अदा करने के लिए किसान जो भी दाम मिले उस दाम पर अनाज बेचने लगे । व्यापारी और बिचौलिए उचित दामों से भी कम दामों पर किसानों का माल खरीदने लगे ।
समय आने पर किसानों को लगान अदा करने हेतु अपने खेत साहूकार के पास गिरवी रखकर ऋण लेना पड़ता था । इसके फलस्वरूप किसान ऋण के बोझ से लदते गए । ऋण न चुकाने पर उन्हें अपने खेत बेचने पड़ते थे । शासन, जमींदार, साहूकार, व्यापारी आदि सभी किसानों का शोषण करते थे ।
कृषि का व्यापारीकरण:
किसान पहले मुख्य रूप से अनाज पैदा करते थे । इस अनाज का उपयोग वे घरेलू और गाँव की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए करते थे । अब अंग्रेजी शासन किसानों को कपास, नील, तमाखू, चाय आदि व्यापारिक फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहन देने लगे । अनाज की उपज लेने के बदले व्यापारिक फसलें उगाने पर बल दिया जाने लगा । इस प्रक्रिया को ‘कृषि का व्यापारीकरण’ कहते हैं ।
अकाल:
ई॰स॰ १८६० से १९०० के बीच भारत में भीषण अकाल पड़ा था परंतु अंग्रेज शासकों ने न तो अकाल निवारण के लिए पर्याप्त उपाय किए और न ही जलपूर्ति योजनाओं पर विशेष व्यय किया ।
यातायात और संचार व्यवस्था में सुधार:
अंग्रेजों व्यापार में वृद्धि करने तथा उसके लिए आवश्यक प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने हेतु भारत में यातायात एवं संचार व्यवस्था की सुविधाएँ निर्मित की । उन्होंने कोलकाता और दिल्ली को जोड़नेवाले महामार्ग का निर्माण करवाया ।
ई॰स॰ १८५३ में मुंबई-ठाणे के बीच रेलगाड़ी चलने लगी । उसी वर्ष अंग्रेजों ने भारत में तार यंत्र द्वारा संदेश वहन की व्यवस्था को भी प्रारंभ किया । इस व्यवस्था द्वारा भारत के प्रमुख बड़े नगर और सैनिक केंद्र एक-दूसरे से जोड़े गए । इसी भांति अंग्रेजों ने डाक व्यवस्था भी प्रारंभ की ।
इन सभी सुधारों का भारत के सामाजिक जीवन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा । देश के विभिन्न भागों में रहनेवाले लोगों का एक-दूसरे से संपर्क बढ़ा । अत: उनमें एकता की भावना विकसित होने में सहायता मिली ।
भारत के प्राचीन उद्योग-धंधों का ह्रास:
भारत से इंग्लैंड जानेवाले माल पर अंग्रेज सरकार बहुत अधिक कर लगाती थी । इसके विपरीत इंग्लैंड से भारत आनेवाले माल पर अति अल्प कर लिया जाता था । इंग्लैंड से आनेवाला यह माल यंत्र उत्पादित
था । फलस्वरूप उसका उत्पादन कम लागत में बड़े पैमाने पर होता था । ऐसे सस्ते उत्पादन से होड़ लेना भारतीय कारीगरों के लिए कठिन हो गया । परिणामत: भारत के कुछ उद्योग-धंधे ठप्प हो गए और असंख्य कारीगर बेरोजगार हो गए ।
भारत में नए उद्योग-धंधों का विकास:
अंग्रेज सरकार का समर्थन, प्रबंधन और पूंजी आदि के अभाव में भारतीय उद्योजक बड़ी संख्या में आगे नहीं आ सके । फिर भी इन समस्याओं पर विजय पाते हुए कुछ भारतीय उद्योजक उद्योग स्थापित करने में सफल हुए ।
ई॰स॰ १८५३ में कावास जी नानाभाई ने मुंबई में पहली कपड़ा मिल आरंभ की । ई॰स॰ १८५५ में बंगाल के रिश्रा में पटसन की पहली मिल खुली । ई॰स॰ १९०७ में जमशेदपुर में जमशेदजी टाटा ने आयर्न एंड स्टील कंपनी नाम से इस्पात निर्माण का कारखाना खोला । भारत में कोयला, धातु, चीनी, सीमेंट और रासायनिक पदार्थों के उद्योग भी प्रारंभ हुए ।
सामाजिक और सांस्कृतिक परिणाम:
उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में जिस नए युग का आरंभ हुआ; वह मानवतावाद, प्रज्ञावाद, जनतंत्र, राष्ट्रवाद, उदारमतवाद जैसे मूल्यों पर आधारित था । पश्चिमी विश्व में हुए इन परिवर्तनों की प्रतिक्रिया का भारत में होना स्वाभाविक ही था । अंग्रेजों को प्रशासन चलाने के लिए भारतीय समाज को समझना आवश्यक था ।
इसके लिए उन्होंने यहाँ की परंपराओं, इतिहास, साहित्य, कला, संगीत तथा यहां के पशु-पक्षियों का भी अध्ययन करना प्रारंभ किया । ई॰स॰ १७८४ में अंग्रेज अधिकारी विलियम जोन्स ने कोलकाता में एशियाटिक सोसाईटी आफ बंगाल नाम की संस्था स्थापित की ।
जर्मन विचारक मेक्समूलर भारतीय धर्म, भाषा और इतिहास का विद्वान था । इन लोगों के कारण नवशिक्षित भारतीयों में यह बोध उत्पन्न होने लगा कि हमें भी अपने धर्म, इतिहास और अपनी परंपराओं का अध्ययन करना चाहिए ।
अंग्रेजों ने भारत में अनेक कानून बनाए । ई॰स॰ १८२९ में लार्ड बैंटिक ने सती प्रथा प्रतिबंधक कानून बनाया । ई॰स॰ १८५६ में लार्ड डलहौजी ने विधवा पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान करनेवाला कानून बनाया । ये कानून सुधार हेतु सहायक सिद्ध हुए ।
प्रशासन चलाने के लिए अंग्रेजों को अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों की आवस्थक्ता थी । लार्ड मेकाले द्वारा सुझाई गईं सिफारिशों के अनुसार ई॰स॰ १८३५ में भारत में पश्चिमी शिक्षा को प्रारंभ किया गया । नई शिक्षा द्वारा भारतीयों को नए पश्चिमी विचारों, आधुनिक सुधारों, विज्ञान और प्रौद्योगिकी से अवगत कराया गया । ई॰स॰ १८५७ में मुंबई, मद्रास (चेन्नई) और कोलकाता में विश्वविद्यालय स्थापित किए गए । परिचमी शिक्षा प्राप्त मध्य वर्ग ने भारतीय सामाजिक पुनर्जागरण आंदोलन का नेतृत्व किया ।