Here is an essay on the ‘Civil Disobedience Movement’ for class 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Civil Disobedience Movement’ especially written for school and college students in Hindi language.
लाहौर में हुए अधिवेशन में गांधीजी को सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारभ करने के अधिकार दिए गए । इस आंदोलन को शुरू करने से पूर्व गांधीजी ने सरकार के सम्मुख नमक पर लगाए गए कर को रद्द करना, नमक बनाने के सरकार के एकाधिकार को समाप्त करना और शराब पर प्रतिबंध लगाना आदि माँगे रखीं परंतु सरकार ने इन माँगों को ठुकरा दिया ।
अत: गांधीजी ने नमक पर लगे कानून को तोड़कर देशव्यापी सत्याग्रह करने का निश्चय किया । नमक जैसी जीवनावश्यक एवं प्रकृति से प्राप्त वस्तु पर कर लगाना अन्याय था । नमक आंदोलन तो एक प्रतीक था । वास्तव में सरकार के सभी अन्यायपूर्ण एवं अत्याचारी कानूनों को शांति के मार्ग पर चलकर तोड़ना, उसका व्यापक अर्थ था ।
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सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ-साथ शराब और विदेशी कपड़ों की दूकानों के सामने धरना देना, करबंदी आंदोलन करना जैसी बातों का समावेश सविनय अवज्ञा आंदोलन में था । अत: इस आंदोलन का स्वरूप व्यापक हो गया था ।
दांडी यात्रा:
गांधीजी ने गुजरात के दांडी गाँव में नमक आंदोलन आरंभ करने का निश्चय किया । १२ मार्च १९३० को वे अपने ७८ आंदोलनकारी सहयोगियों के साथ नमक आंदोलन करने के लिए साबरमती आश्रम से चल
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पड़े । उनके साथ सरोजिनी नायडू, मिठूबेन पेटीट थीं ।
साबरमती से दांडी की ३८५ कि॰मी॰ की यात्रा में असंख्य आंदोलनकारी उनसे आ मिले । ६ अप्रैल को गांधीजी ने दांडी के समुद्र तट पर नमक उठाकर नमक के कानून को तोड़ा । इसी के साथ संपूर्ण देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ हुआ ।
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पेशावर का सत्याग्रह:
पश्चिमोत्तर प्रांत में गांधीजी के निष्ठावान अनुयायी खान अब्दुल गफ्फार खान थे । वे सरहद गांधी के रूप में जाने जाते थे । उन्होंने खुदा-ए-खिदमतगार (ईश्वर के सेवक) संगठन की स्थापना की । २३ अप्रैल १९३० को उन्होंने पेशावर में सत्याग्रह शुरू किया । लगभग एक सप्ताह तक पेशावर सत्याग्रहियों के नियंत्रण में था ।
सरकार ने गढ़वाल पलटन को सत्याग्रहियों पर गोली चलाने का आदेश दिया परंतु गढ़वाल पलटन के अधिकारी चंद्रसिंह ठाकुर ने गोली चलाने से इनकार किया । परिणामस्वरूप सैनिकी न्यायालय ने उन्हें कठोर दंड दिया । गांधीजी के सत्याग्रह के कारण सरकार विवश हो गई । अंतत: ४ मई १९३० को सरकार ने गांधीजी को बंदी बनाया और दमन तंत्र प्रारंभ किया । गांधीजी को बंदी बनाए जाने का संपूर्ण भारत में निषेध किया गया ।
सोलापुर का सत्याग्रह:
सोलापुर में हुए सत्याग्रह में मिल श्रमिक अग्रसर थे । ६ मई १९३० को उन्होंने बंद रखा । पुलिस थानों, न्यायालयों, रेल स्थानकों, म्यूनिसिपल की इमारतों आदि पर हमले किए गए ।
सोलापुर में मानों जनता का ही शासन स्थापित हो गया था । अंतत: सरकार को सेना बुलानी पड़ी । सोलापुर में सैनिक कानून लागू कर सरकार ने सोलापुर के आंदोलन को कुचल दिया । सत्याग्रह में प्रतिभागी होने के कारण मल्लाप्पा धनशेट्टी, श्रीकृष्ण सारडा, कुरबान हुसैन और जगनाथ शिंदे को फाँसी दी गई ।
धारासना का सत्याग्रह:
गांधीजी को बंदी बनाए जाने के पश्चात धारासना सत्याग्रह की बागडोर सरोजिनी नायडू के हाथ में आई । इस सत्याग्रह में नमक का कानून भंग करने हेतु निकलनेवाले सत्याग्रही लाठियों के प्रहार को शांतिपूर्वक सहन करते थे ।
उनके घावों पर उपचार करने के पश्चात दूसरा गुट कानून भंग करने के लिए आगे बढ़ता था । इस तरह यह सविनय अवज्ञा आंदोलन शांतिपूर्वक निरंतर चलता रहा । महाराष्ट्र में वड़ाला, मालवण, शिरोड़ा आदि स्थानों पर नमक आंदोलन हुआ ।
जहाँ नमकसार नहीं थे वहाँ लोगों ने जंगल के कानून को भंग करना प्रारंभ किया । महाराष्ट्र में बिलाशी, संगमनेर, कलवण, चिरनेर पुसद आदि स्थानों पर जंगल आंदोलन हुआ । इस आंदोलन में आदिवासी बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए थे ।
बाबू गेनू का बलिदान:
मुंबई में आंदोलनकारियों में बाबू गेनू नामक एक मजदूर सबसे आगे था । ट्रक को रोकने के लिए वह ट्रक के सामने लेट गया । पुलिस ने उसे चेतावनी दी इसके बावजूद वह अपने स्थान से नहीं हिला । अंतत: ट्रक उसे कुचलकर आगे बढ़ा । बाबू गेनू का बलिदान राष्ट्रीय आंदोलन के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ ।
महिलाओं का प्रतिभाग:
सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिलाएं बड़ी मात्रा में सम्मिलित हुई थीं । वे विदेशी वस्त्रों और शराब की दूकानों के सामने धरना देने में अग्रसर थीं । उन्होंने बड़े धैर्य के साथ पुलिस के अत्याचारों का सामना किया । इस आंदोलन में कस्तुरबा गांधी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अवंतिकाबाई गोखले, लीलावती मुंशी, हंसाबेन मेहता जैसी कई महिलाएं आगे थीं ।
प्रथम गोलमेच परिषद:
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने भारत के संविधान से संबंधित समस्याओं पर विचार विमर्श करने हेतु ई॰स॰ १९३० में लंदन में एक परिषद का आयोजन किया । इसे ‘गोलमेज परिषद’ कहते हैं । इस परिषद में विभिन्न राजनीतिक दलों और रियासतदारों ने अपने प्रतिनिधि भेजे थे परंतु इस परिषद में राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मिलित नहीं हुई ।
राष्ट्रीय कांग्रेस देश का प्रतिनिधि संगम था । उसे छोड़कर परिषद में की गई चर्चा अर्थहीन सिद्ध हुई । इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने यह आशा व्यक्त की कि चर्चा के दूसरे चरण में राष्ट्रीय कांग्रेस भाग लेगी । प्रधानमंत्री के किए गए आह्वान पर विचार कर वाइसराय ने गांधीजी एवं अन्य नेताओं को कारावास से मुक्त करवाया जिससे अनुकूल वातावरण में राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ चर्चा की जा सके ।
गांधी-इरविन समझौता:
महात्मा गांधी और वाइसराय इरविन के बीच समझौता हुआ । यह ‘गांधी-इरविन समझौता’ के रूप में प्रसिद्ध है । इस समझौते के अनुसार सरकार ने भारत द्वारा प्रस्तावित संविधान में जिस दायित्वपूर्ण शासन पद्धति की माँग की थी; उसे स्वीकार करने का आश्वासन दिया । फलस्वरूप राष्ट्रीय कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित किया और दूसरी गोलमेज परिषद की चर्चा में सम्मिलित होना स्वीकार किया ।
दूसरी गोलमेज परिषद:
इ॰स॰ १९३१ को दूसरी गोलमेज परिषद हुई । इस परिषद में राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में गांधीजी उपस्थित हुए । राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ-साथ सरकार ने विभिन्न जातियों जनजातियों, राजनीतिक दलों एवं रियासतदारों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया था ।
सरकार ने गोलमेज परिषद में अल्पसंख्यकों का प्रश्न उठाया । इस प्रश्न पर प्रतिनिधियों में मतभेद हुए; साथ ही संघ राज्य के संविधान स्वरूप के बारे में भी सभी में एकमत नहीं हो सका । गांधीजी ने सभी के विचारों में एकता लाने के प्रयास किए परंतु वे विफल हुए । अंतत: वे निराश होकर भारत लौट आए ।
तीसरी गोलमेज परिषद:
ई॰स॰ नवंबर १९३२ में तीसरी गोलमेज परिषद हुई परंतु राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस परिषद का बहिष्कार किया । परिणामस्वरूप यह परिषद भी अर्थहीन रही ।
पुणे समझोता:
डा॰ बाबासाहेब आंबेड़कर ने गोलमेज परिषदों में दलितों का प्रतिनिधित्व किया था । उन्होंने इन परिषदों में दलितों के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र की माँग की थी । दूसरी गोलमेज परिषद के बाद इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने जातीय न्याय की घोषणा की ।
इसके अनुसार दलितों के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र घोषित किया गया । जातीय न्याय के आधार पर किया गया हिंदू समाज का यह विभाजन गांधीजी को स्वीकार नहीं था । अत: उन्होंने इस जातीय न्याय के विरोध में येरवड़ा कारावास में अनशन प्रारंभ किया ।
राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने डा॰ बाबासाहेब आंबेड़कर से उनके द्वारा की गई माँगों पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की । डा. बाबासाहेब आंबेड़कर ने व्यापक राष्ट्र हित को ध्यान में रखकर इस प्रार्थना को स्वीकार किया । ई॰स॰ १९३२ में महात्मा गांधी और डा॰ बाबासाहेब आंबेड़कर के बीच पुणे में एक समझौता हुआ ।
इसे ‘पुणे समझौता’ कहते हैं । इस समझौते के अनुसार यह निश्चित हुआ कि स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के स्थान पर दलितों के लिए विधान मंडल में १४८ स्थान आरक्षित रखे जाएं । इसके पश्चात अंग्रेज सरकार ने इस समझौते को स्वीकार किया ।
सविनय अवज्ञा आंदोलन का दूसरा चरण:
द्वितीय गोलमेज परिषद से भारत लौट आने के बाद गांधीजी ने पुन: सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का निश्चय किया । सरकार ने तुरंत गांधीजी को बंदी बनाया । फलस्वरूप जनता में फिर से असंतोष व्याप्त हुआ । सरकार ने इस आंदोलन को संपूर्ण देश में अमानवीय ढंग से दबाने का और नागरिकों के अधिकारों को कुचलने का प्रयास किया गया ।
राष्ट्रीय कांग्रेस एवं उसके सहयोगी संगठनों को अवैध घोषित किया गया । सरकार ने उनके कार्यालय एवं कोष अपने अधिकार में ले लिये । साथ ही राष्ट्रीय समाचारपत्रों और लिखित सामग्री पर पैनी दृष्टि
रखी । अप्रैल १९३४ में गांधीजी ने यह आंदोलन स्थगित किया और सविनय अवज्ञा आंदोलन का ऐतिहासिक युग समाप्त हुआ ।