Read this essay in Hindi to learn about the establishment of Delhi sultanate in India during thirteenth century.

Essay # 1. ममलूक सुल्तान:

तुर्को ने पंजाब और मूल्तान की विजय के बाद गंगा की वादी में अपने पैर पसारे तथा बिहार और बंगाल के कुछ भागों को जीत लिया । उसके बाद लगभग सौ वर्षों तक दिल्ली सल्तनत जैसा कि इन आक्रांताओं द्वारा शासित राज्यों को कहा जाता था विदेशी आक्रमणों तुर्क नेताओं के आपसी टकरावों, सत्ता से वंचित और अधीन राजपूत राजाओं और सरदारों द्वारा अपनी स्वतंत्रता को वापस पाने और हो सके तो तुर्को को बाहर निकालने के प्रयासों से अपनी रक्षा करती रही ।

तुर्क शासक इन कठिनाइयों पर विजय पाने में सफल रहे और सदी के अंत तक इस स्थिति में पहुंच गए कि वे मालवा और गुजरात में अपने शासन का विस्तार कर सकें तथा दकन और दक्षिण भारत में प्रवेश कर सकें । इस तरह उत्तर भारत में तुर्क शासन की स्थापना का प्रभाव सौ वर्षों के अंदर पूरे भारत में महसूस किया जाने लगा । तुर्क शासन की स्थापना के फलस्वरूप समाज, प्रशासन और सांस्कृतिक जीवन में दूरगामी परिवर्तन आए ।

Essay # 2. शक्तिशाली राजतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष:

मुईजुद्‌दीन (मुहम्मद गौरी) की जगह (1206 में) उसके तुर्क गुलाम कुतबुद्‌दीन ऐबक ने ली जिसने तराई की जंग के बाद भारत में तुर्क सजनत के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । मुईजुद्‌दीन का एक और गुलाम यलदूज गजनी में तख्त पर बैठा । गजनी के सुल्तान के रूप में यलदूज दिल्ली पर भी हुकूमत का दावा करता था । पर इसे ऐबक ने जो लाहौर से शासन कर रहा था, स्वीकार नहीं किया और इसी समय से सल्तनत ने गजनी से अपना संबंध तोड़ लिया ।

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यह एक प्रकार से अच्छा ही हुआ, क्योंकि इससे भारत मध्य एशिया की राजनीति में खींचे जाने से बचा रहा । इसके कारण दिल्ली सल्तनत ने भी बाहर के देशों पर निर्भर हुए बगैर अपनी स्वतंत्र कार्यशैली विकसित की ।

Essay # 3. मंगोल और उत्तर-पश्चिम सीमा की समस्या:

अपनी प्राकृतिक सीमाओं के कारण भारत अपने इतिहास में अधिकांश समय तक बाहरी हमलों से सुरक्षित रहा । भारत असुरक्षित था तो केवल उत्तर-पश्चिम में । हूणों, शकों आदि पहले के आक्रांताओं की तरह तुर्क भी इस क्षेत्र के पहाड़ी दर्रो के रास्ते ही भारत में आए और यहाँ उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित किया ।

इन पर्वतों का आकार-विस्तार ऐसा था कि किसी आक्रांता को पंजाब और सिंध की उपजाऊ वादियों तक पहुंचने से रोकने के लिए काबुल से गजनी और कंदहार तक के क्षेत्र को नियंत्रित करना आवश्यक था । हिंदूकुश से घिरे इस क्षेत्र पर नियंत्रण इसलिए महत्वपूर्ण था कि यह मध्य एशियाई दस्तों के आगमन का मुख्य मार्ग था ।

पश्चिम एशिया की अस्थिर दशा के कारण दिल्ली सल्तनत इन सीमाओं तक नहीं पहुँच सकी जिधर से भारत के लिए बराबर खतरा बना रहता था । ख्वारज्मी साम्राज्य के उदय के कारण काबुल, कंदहार और गजनी पर गौरियों का नियंत्रण समाप्त हो गया और ख्वारज्मी साम्राज्य की सीमा सिंध नदी तक आ गई ।

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लग रहा था कि ख्वारज्मी शासकों और कुतबुद्‌दीन ऐबक के उत्तराधिकारियों के बीच उत्तर भारत के स्वामित्व के लिए संघर्ष बस शुरू ही होने वाला है । पर तभी एक और बड़ा खतरा सामने आ गया । यह था मंगोल मुखिया चंगेज खान का आगमन जो स्वयं को गर्व के साथ ‘खुदा का कहर’ कहा करता था ।

मंगोलों ने 1218 में ख्वारज्मी साम्राज्य पर हमला किया । उन्होंने जक्सार्टिस (सीर दरिया) से कैस्पियन सागर तक और गजनी से ईरान तक फलते-फूलते नगरों को बरबाद कर दिया और देहातों को रौंद डाला । अनेक तुर्क सैनिक मंगोलों से जा मिले । मंगोलों ने जानबूझकर आतंक का उपयोग युद्ध के साधन के रूप में किया ।

कभी कोई नगर समर्पण नहीं करता या प्रतिरोध करने के बाद हार जाता था तो तमाम सैनिकों और उनके बहुत सारे सरदारों का कत्ल कर दिया जाता था तथा उनकी स्त्रियों और बच्चों को बतौर गुलाम बेच दिया जाता था । असैनिक नागरिकों तक को नहीं बख्तघ जाता था । दस्तकारों को मंगोल सेना की सेवा के लिए चुन लिया जाता था जबकि दूसरे तदुरुस्त व्यक्तियों को अन्य नगरों के खिलाफ मुहिम के दौरान मेहनत के कामों में लगा दिया जाता था ।

इन सबके कारण उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक जीवन को गहरा धक्का लगता था । लेकिन कालांतर में मंगोलों ने इस क्षेत्र में शांति और कानून-व्यवस्था की स्थापना की तथा चीन से लैकर भूमध्य सागर के तट तक के व्यापार मार्ग सुरिक्षत हो गए । इससे पुनरूत्थान की प्रक्रिया भी शुरू हो गई ।

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लेकिन ईरान, तूरान और ईराक को अपनी पिछली समृद्धि प्राप्त करने में अनेक पीढ़ियों का समय लग गया । इस बीच मंगोल हमलों ने दिल्ली सल्तनत पर भी गंभीर प्रभाव छोड़े । अनेक शाहजादे, बड़ी संख्या में विद्वान, धर्मशास्त्री बुद्धिजीवी और प्रमुख परिवारों के लोग भागकर दिल्ली आ गए ।

इस क्षेत्र में बचा अकेला मुस्लिम राज्य होने के नाते दिल्ली सल्तनत अब इस्लाम का केंद्र बन गई । इस तरह नए शासकों के विभिन्न भागों के बीच एकता के अकेले बंधन के रूप में इस्लाम पर जोर दिया जाने लगा । इसका मतलब यह भी रहा कि अपने वतन से कट चुके और कुमुक पाने से वंचित हो चुके तुर्क आक्रमणकारी अब स्वयं को जल्द से जल्द भारतीय परिस्थितियों के अनुसार ढालने के लिए मजबूर हो गए ।

मंगोलों से भारत को खतरा 1221 में पैदा हुआ । ख्वारज्मी शासक की हार के बाद युवराज जलालुद्‌दीन भागा और चंगेज खान ने उसका पीछा किया । सिंधु नदी के किनारे जलालुद्‌दीन बहादुरी से लड़ा और हारने के बाद उसने नदी में घोड़े को उतार दिया और नदी पार करके भारत चला आया । हालांकि चंगेज तीन महीने तक सिंधु नदी के किनारे मँडराता रहा पर उसने नदी पार करके भारत न आने का फैसला किया ।

उसने अपना ध्यान ख्वारज्मी साम्राज्य के बाकी भागो को जीतने में लगाना बेहतर समझा । चंगेज अगर भारत पर आक्रमण का निर्णय करता तो क्या होता कहना कठिन है । भारत का तुर्क राज्य अभी भी बहुत कमजोर और असंगठित था । संभवत: भारत को इतने बड़े पैमाने पर मौत तबाही और बरबादी का नाच देखना पड़ता जो तुर्को के हाथों मिले कष्टों से बहुत अधिक होता ।

उन दिनों दिल्ली पर इल्तुतमिश का शासन था । उसने जलालुद्‌दीन की शरण की प्रार्थना को नम्रतापूर्वक ठुकरा दिया । जलालुद्‌दीन कुछ समय तक लाहौर और सतलुज नदी के बीच के क्षेत्र में रहा अर्थात सतलुज-आरी क्षेत्र में । इसके कारण मंगोलों ने इस क्षेत्र में अनेक हमले किए । सिंधु नदी भारत की अब पश्चिमी सीमा नहीं रह गई थी ।

लाहौर और मुलतान इल्तुतमिश तथा उसके विरोधी यल्दुज और कुबाचा के बीच झगड़े की जड़ बने हुए थे । लाहौर के लिए लड़कर यल्दुज और कुबाचा ने अपने को निढाल कर रखा था । अंतत: इल्तुतमिश लाहौर और मुलतान दोनों को जीतने में सफल रहा । इस तरह लाहौर और मुलतान को आधार बनाकर उसने मंगोलों के खिलाफ एक अच्छी-खासी मजबूत प्रतिरक्षा पंक्ति बना ली ।

1227 में चंगेज खान की मृत्यु के बाद शक्तिशाली मंगोल साम्राज्य उसके बेटों में बँट गया । इस दौर में बातू खान के नेतृत्व में मंगोलों ने रूस को रौंद डाला । 1240 तक मंगोल सिंधु नदी पार करके भारत में कोई अतिक्रमण करने से कतराते रहे । पर सिंधु नदी तब कोई सीमा नहीं रही जब मंगोलों ने उसके पूर्व में स्थित साल्टरेंज को अपने साम्राज्य में मिला लिया ।

इस काल में मंगोलों की सेनाएँ मुख्यत ईराक और सीरिया में फंसी रहीं । इससे दिल्ली के सुल्तानों को भारत में एक केंद्रीकृत राज्य और शक्तिशाली सेना का गठन करने का समय मिल गया । 1241 में हेरात, गौर, गजनी और तुखारिस्तान में मंगोल सेनाओं का कमानदार तायर बहादुर लाहौर के सामने था ।

दिल्ली से की गई कातर प्रार्थनाओं के बावजूद लाहौर के सूबेदार को कोई मदद नहीं मिली इसलिए लाहौर का सूबेदार नगर से भाग खड़ा हुआ । मंगोलों ने नगर को तहस-नहस करके लगभग जनविहीन कर दिया । 1245 में मंगोलों ने मुलतान पर हमला किया, पर बलबन के तेजी से आगे बढ़ने से ही स्थिति सँभल सकी ।

बलबन जब ईमादुद्‌दीन रेहान के नेतृत्व में संगठित अपने विरोधियों के पैदा किए हुए खतरे से निपटने में व्यस्त था, तब मंगोलों को लाहौर पर अधिकार करने का अवसर मिल गया । मुलतान के सूबेदार शेर खान समेत कुछ तुर्क कुलीनों ने तो मंगोलों से अपनी किस्मत ही जोड़ ली ।

हालाँकि बलबन ने जमकर मंगोलों का मुकाबला किया पर दिल्ली सल्तनत की सीमा धीरे-धीरे झेलम से पीछे हटकर व्यास तक जा पहुंची जो तब रावी और सतलुज के बीच बहती थी । बलबन ने मुलतान को वापस तो पा लिया पर उस पर मंगोलों का भारी दबाव बना रहा ।

यही स्थिति थी जिसका सामना बलबन को सुल्तान के रूप में करना पड़ा । बलबन ने बल-प्रयोग और कूटनीति दोनों की नीति अपनाई । उसने तबरहिंद, सुनाम और समाना के किलों की मरम्मत कराई और मंगोलों को व्यास नदी पार करने से रोकने के लिए एक भारी सेना लगा दी । कहते हैं कि उसने खासकर मंगोलों के खतरे का सामना करने के लिए एक बड़ी सेना बनाई और उसे विभिन्न छावनियों में रखा ।

वह स्वयं दिल्ली में रहा और सीमा पर अधिकाधिक चौकसी रखने के लिए दूर की मुहिमों पर नहीं गया । साथ ही उसने ईरान के मंगोल इल-खान हलाकू और आस-पास के शासकों के पास कूटनीतिक संदेश भी भेजे । हलाकू के दूत दिल्ली आए और बलबन ने बहुत इज्जत के साथ उनकी अगवानी की ।

बलबन चुपके-चुपके पजाब का एक बड़ा भाग मंगोलों के नियंत्रण में छोड़ने के लिए भी तैयार हो गया । मंगोलों ने भी अपनी तरफ से दिल्ली पर कोई आक्रमण नहीं किया । लेकिन सीमा-रेखा अनिश्चित बनी-रही और मंगोलों को काबू में रखने के लिए बलबन को लगभग हर साल उनके खिलाफ मुहिम चलानी पड़ती थी । उसने तबाह हो चुके लाहौर नगर को फिर से बसाया और 1270 में उसे दोबारा किलाबंद किया ।

वह मुलतान छीनने में भी सफल रहा और उसका स्वतंत्र प्रभार अपने सबसे बड़े बेटे शाहजादा महमूद को दे दिया । बलबन का युवराज शाहजादा महमूद मुलतान-व्यास सीमा-रेखा को सुरक्षित रखने के प्रयास में ही मंगोलों के खिलाफ एक सैनिक मुठभेड में मारा गया ।

हालांकि 1286 में बलबन की मृत्यु हो गई, पर उसके द्वारा की गई रणनीतिक और कूटनीतिक व्यवस्थाएँ आगे भी दिल्ली सल्तनत के काम आती रहीं । 1292 में हलाकू के एक पोते अबदुल्लाह ने डेढ़ लाख घुड़सवारों के साथ दिल्ली की ओर कूच किया । बलबन की सीमा-रेखा तबरहिंद, सुनाम आदि के पास जलालुद्‌दीन खलजी ने उसे रोक दिया ।

मंगोलों ने संधि की प्रार्थना की तथा 4000 मंगोल जो इस्लाम अपना चुके थे भारतीय शासकों की सेवा स्वीकार करके दिल्ली के पास बस गए । पंजाब को पार करके दिल्ली पर आक्रमण करने का मंगोलों का प्रयास मध्य एशियाई राजनीति में परिवर्तन का परिणाम था ।

ईरान के मंगोल इल-खान ने कुल मिलाकर दिल्ली के सुल्लानों के साथ दोस्ताना सबध बनाए रखा था । पूरब में उनके प्रतियोगी चगताई मंगोल थे जो आक्सस नदी पार के क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे । आक्सस-पार के शासक दावा खान ने ईरान के इल-खान पर भारी पड़ने में असमर्थ होने के कारण भारत-विजय का प्रयास किया ।

1297 के बाद उसने दिल्ली की रक्षा कर रहे किलो पर एक के बाद एक आक्रमण किए । 1299 में उसके बेटे कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में दो लाख मंगोलों की सेना दिल्ली-विजय के लिए पहुँची । मंगोलों ने पड़ोसी क्षेत्रों से दिल्ली का संपर्क काट दिया और नगर की अनेक गलियों तक में घुस आए ।

यह पहला अवसर था जब दिल्ली पर अपना शासन स्थापित करने के लिए मंगोलों ने एक गंभीर अभियान चलाया । दिल्ली पर शासन कर रहे अलाउद्‌दीन खलजी ने दिल्ली के बाहर मंगोलों का मुकाबला करने का फैसला किया । अनेक झड़पों में भारतीय सेना ने अपना मोर्चा बनाए रखा हालांकि उनमें से एक झड़प में मशहूर सेनानायक जफर खान मारा गया ।

कुछ समय बाद भरपूर जंग का जोखिम न लेकर मंगोल सेना पीछे हट गई । 1303 में 1,20,000 की सेना लेकर मंगोल फिर आए । अलाउद्‌दीन खलजी, जो चित्तौड़ के खिलाफ राजपूताना में एक मुहिम पर था वापस भागा और दिल्ली के पास अपनी नई राजधानी सीरी में जमकर बैठ गया ।

दोनों सेनाएं दो माह तक आमने-सामने खेमा डाले पड़ी रहीं । इस काल में दिल्ली के नागरिकों को अनेक कष्ट उठाने पडे । झड़पें रोज होती थीं । अंत में बिना कुछ प्राप्त किए मंगोल फिर पीछे हट गए ।

दिल्ली पर हुए इन दो हमलों ने दिखा दिया कि दिल्ली के सुल्लान मंगोलों का सामना कर सकते थे यह एक ऐसी बात थी जो मध्य या पश्चिमी एशिया के शासक तब तक नहीं कर सके थे । साथ ही यह दिल्ली के सुल्तानों के लिए एक कड़ी चेतावनी भी थी । अलाउद्‌दीन खलजी ने अब एक बड़ी और कुशल सेना तैयार करने के लिए कदम उठाए और व्यास के पास के किलों की मरम्मत कराई ।

इस तरह उसने अगले साल आने वाले मंगोल आक्रमण को भारी नरसंहार के साथ विफल कर दिया । उसके अगले साल आक्सस-पार का मंगोल शासक दावा खान मर गया और उसकी मृत्यु के बाद अफरातफरी मच गई और गृहयुद्ध का दौर चल पड़ा । मंगोल अब दिल्ली के लिए खतरा नहीं रहे जब तक कि एक नए विजेता तैमूर ने मंगोलों को एकजुट नहीं किया ।

मंगोलों की अफरातफरी का फायदा उठाकर दिल्ली के सुलानों ने लाहौर को फिर से जीत लिया और आगे चलकर अपनी सीमा को सिंधु नदी तक बढ़ा ले गए । इस तरह पूरी तेरहवीं सदी में दिल्ली सल्तनत को उत्तर-पश्चिम से एक गंभीर खतरे का सामना करना पड़ा ।

हालाँकि मंगोलों ने लगभग पूरे पंजाब और कश्मीर पर धीरे-धीरे कब्जा कर लिया था तथा दिल्ली को भी खतरे में डाल दिया था फिर भी तुर्क शासकों की दृढ़ता शक्ति और कूटनीति के कारण यह खतरा टलता रहा और बाद में पंजाब भी वापस मिल गया । फिर भी मंगोलों ने दिल्ली सल्तनत के लिए जो गंभीर खतरे पैदा किए उनका सल्तनत की अतिरिक समस्याओं पर गंभीर प्रभाव पड़ा ।

आंतरिक विद्रोह तथा विजित क्षेत्रों में स्थायित्व प्रदान करने के लिए संघर्ष:

इलबरी तुर्कों के (जिनको कभी-कभी ममलूक या गुलाम सुल्तान कहते है) शासन के दौरान दिल्ली के सुल्तानों को शासक वर्ग के बीच व्याप्त अंदरूनी असंतोष और विदेशी आक्रमण का ही सामना नहीं करना पड़ा, बल्कि आंतरिक विद्रोहों से भी निबटना पड़ा ।

इनमें से कुछ विद्रोहों के नेता वे महत्वाकांक्षी मुस्लिम सरदार थे जो स्वतंत्र होना चाहते थे । दूसरों के नेता राजपूत राजा और जमींदार थे जो अपने क्षेत्र से तुर्क आक्रमकों को बाहर निकालना चाहते थे या तुर्क शासकों की कठिनाइयों का लाभ उठाकर अपने कमजोर पड़ोसियों के क्षेत्र दबोच कर अपने को शक्तिशाली वनाना चाहते थे ।

इस तरह ये राजा और जमींदार तुर्को के खिलाफ ही नहीं आपस में भी लड़ रहे थे । विभिन्न आंतरिक विद्रोहों के चरित्र और उद्‌देश्य अलग-अलग थे । इसलिए सबको ‘हिंदू प्रतिरोध’ की श्रेणी में रख देना सही नहीं है ।

भारत एक विशाल देश था और भौगोलिक कारणों से एक केंद्र से पूरे देश पर शासन करना कठिन था । प्रांतों के सूबेदारों को काफी स्वायत्तता देनी पड़ती थी । इस बात ने और साथ में स्थानीय भावनाओं ने, जो हमेशा मजबूत होती थीं उन्हें दिल्ली के नियंत्रण को अस्वीकार करके स्वयं को स्वतंत्र घोषित करने के लिए प्रेरित किया ।

स्थानीय शासकों को दिल्ली सल्तनत के विरोधियों को जमा करने के लिए उन क्षेत्रीय भावनाओं का भरोसा रहता था जो सातवीं सदी और बारहवीं सदी के बीच और भी मजबूत हो चुकी थीं । दिल्ली के सुल्तानों के खिलाफ सभी विद्राहों की सूची यहाँ देने की आवश्यकता नहीं है ।

भारत का पूर्वी क्षेत्र जिसमें बंगाल और बिहार शामिल थे हमेशा दिल्ली का जुवा उतार फेंकने के लिए प्रयासरत रहे । खलजी सरदार मुहम्मद बिन बख्तियार खलजी राजा लक्ष्मण सेन को लखनौती से निकालने में सफल रहा । कुछ समय बाद इवाज नाम का एक व्यक्ति गयासुद्‌दीन सुल्तान की उपाधि धारण करके वहाँ स्वतंत्र रूप से राज्य करने लगा ।

इल्तुतमिश के उत्तर-पश्चिम में फँसे होने का फायदा उठाकर उसने बिहार में भी ‘अपना राज्य फैला लिया तथा जाजनगर (उड़ीसा), तिरहुत (उत्तरी बंगाल), बंग(पूर्वी बंगाल) और कामरूप (असम) के राजाओं से खिराज लेने लगा ।

इल्तुतमिश जब अपनी व्यस्तताओं से मुक्त हुआ तो 1225 में उसने इवाज़ के खिलाफ़ कूच किया । इवाज़ ने पहले तो उसकी अधीनता मान ली पर इल्तुतमिश के पीठ मोड़ते ही उसने फिर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी । तब इल्तुतमिश के एक बेटे ने जो अवध का सूबेदार था, इवाज़ को एक युद्ध में हराकर उसे मार डाला । लेकिन अफरातफरी का दौर जारी ही रहा, जब तक कि 1230 में इल्तुतमिश ने एक दूसरा अभियान नहीं चलाया ।

इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद बंगाल के सूबेदार अपनी सुविधा के अनुसार कभी स्वतंत्रता का दावा करते रहे और कभी दिल्ली की अधीनता मानते रहे । इस काल में बिहार सामान्यत: लखनौती के अधीन रहा । स्वतंत्र शासकों की तरह व्यवहार करने वाले सूबेदारों ने बिहार और अवध के बीच के क्षेत्रों को अपने अधीन करने का प्रयास किया, हालांकि उन्हें कुछ अधिक सफलता नहीं मिली ।

उन्होंने राधा (दक्षिण बंगाल), उड़ीसा और कामरूप (असम) में भी पाँव फैलाने का प्रयास किया । इस टकराव में उड़ीसा और असम के शासक काफी कुछ सीना ताने खड़े रहे । 1244 में उड़ीसा के राजा ने लखनौती के पास मुस्लिम सेनाओं को बुरी तरह हराया । उड़ीसा की राजधानी जाजनगर के खिलाफ मुस्लिम सेनाओं के बाद के प्रयास भी असफल रहे । इससे पता चलता है कि लखनौती के स्वतंत्र मुस्लिम शासक इतने शक्तिशाली नहीं थे कि पड़ोसी हिंदू क्षेत्रों को अपने अधीन ला पाते ।

बलबन के रूप में एक शक्तिशाली शासक के उदय होने के साथ दिल्ली सल्तनत बिहार और बंगाल पर फिर से अपना अधिकार जताने के लिए बेचैन हो उठी । दिल्ली के प्रति केवल औपचारिक निष्ठा अब काफी नहीं थी । तुगरिल ने बलबन की अधीनता स्वीकार कर ली थी किंतु फिर अपनी आजादी का ऐलान कर दिया था ।

बलबन ने उसे (1280 में) हराकर मार डाला । बलबन ने करिल के परिवार वालों और अनुयायियों को भी कठोर दंड दिए । तीन साल चली यह मुहिम वलबन की दूर-दराज की अकेली मुहिम थी । पर बंगाल पर दिल्ली का नियंत्रण लंबे समय तक नहीं चला ।

बलबन की मृत्यु के बाद उसके बेटे बुगरा खान ने, जिसे बंगाल का सूबेदार बनाया गया था, दिल्ली की गद्‌दी के लिए जान की बाजी लगाने की बजाए बंगाल पर स्वतंत्र रूप से शासन करना बेहतर समझा । इसलिए उसने स्वतंत्रता का दावा करके एक राजवंश की नींव डाली जो अगले 40 वर्षो तक बंगाल पर शासन करता रहा ।

इस तरह तेरहवीं सदी के एक बड़े भाग में बंगाल और बिहार दिल्ली के नियंत्रण से बाहर रहे । पंजाब का भी एक बड़ा भाग मंगोलों के अधीन हो चुका था । गंगा के दोआब तक में तुर्क शासन पूरी तरह सुरक्षित नहीं था । कटिहारिया राजपूत, जिनकी राजधानी गंगा के पार अहिछत्र में थी, अपने आप में एक बड़ी शक्ति थे ।

वे बदायूँ जिले पर आए दिन हमले करते रहते थे । आखिरकार सुल्तान बनने के बाद बलबन स्वयं एक बड़ी सेना लेकर चला जिसने बड़े पैमाने पर कत्लेआम और लूटमार किया । यह जिला लगभग पूरी तरह जनविहीन कर दिया गया । जंगल साफ कराए गए और सड़कें बनवाई गई ।

बरनी ने लिखा है कि उस समय के बाद बरन अमरोहा, सभल और कटिहार (आज का पश्चिमी उत्तर प्रेदश) के इक्ते सुरक्षित हो गए और उन्हें उपद्रवों से हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई । दिल्ली सल्तनत की दक्षिणी और पश्चिमी सीमाएँ भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं थीं ।

यहाँ दो समस्याएँ थीं । ऐबक के समय तुर्को ने किलों की एक पूरी संखला पर कब्जा कर लिया था जैसे तिजारा (अलवर,) बयाना, ग्वालियर, कालिंजर आदि । उन्होंने रणथंभौर, नागौर, अजमेर तथा जालौर के पास नडोल तक पूर्वी राजस्थान के अनेक भागों को रौंद दिया था ।

इनमें से अधिकांश क्षेत्र कभी चौहान साम्राज्य के अंग थे और अभी भी चौहान परिवारों के शासन में थे । इस तरह उनके खिलाफ ऐबक की कार्रवाइयाँ चौहान साम्राज्य विरोधी अभियान का का थीं । लेकिन बाद के दौर में मालवा और गुजरात में आगे बढ़ना तो दूर तुर्को के लिए पूर्वी राजस्थान में अपने क्षेत्रों की रक्षा करना बल्कि दिल्ली और गंगा के दोआब की रक्षा करने वाली गढ़ियों पर अपना कब्जा बनाए रखना भी कठिन हो गया ।

उत्तर-पश्चिम में इल्तुतमिश की व्यस्तताओं का लाभ उठाकर राजपूत राजाओं ने कालिंजर, ग्वालियर और बयाना फिर से जीत लिए थे । रणथंभौर और जालौर समेत दूसरे अनेक रजवाड़ों ने तुर्को की अधिराजी (Suzerainty) को अस्वीकार कर दिया । 1226 के बाद इल्तुतमिश ने इन क्षेत्रों पर फिर से नियंत्रण के लिए कार्रवाइयाँ आरंभ कीं । उसने पहले रणथंभौर को हराया और उसके राजा को तुर्क अधिराजी मानने पर मजबूर किया ।

उसने जालौर पर भी अधिकार किया जो गुजरात के रास्ते में पड़ता था । लेकिन इल्तुतमिश की गुजरात और मालवा को अधीन बनाने की कोशिश नाकाम रही । गुजरात के चालुक्यों ने इल्तुतमिश के एक हमले का करारा जवाब दिया । मालवा के परमार भी तुर्को के लिए कुछ अधिक ही शक्तिशाली सिद्ध हुए ।

लेकिन इल्तुतमिश ने मालवा में एक धावा बोलकर उज्जैन और रायसीना को लूटा । उसके एक सिपहसालार ने बूँदी पर भी धावा बोला । पूरब में इल्तुतमिश ने बयाना और ग्वालियर को फिर से जीत लिया लेकिन बुंदेलखंड के राजपूतों के खिलाफ अधिक आगे नहीं बढ़ सका ।

इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद फैली अफ़रातफ़री में पूर्वी राजपूताना पर तुर्को का नियंत्रण फिर ढीला पड़ गया । अनेक राजपूत राजाओं ने तुर्क अधिराजी को ठुकरा दिया । ग्वालियर का किला भी तुर्कों के हाथों से निकल गया । भट्‌टी राजपूतों ने जिनका मेवात क्षेत्र पर वर्चस्व था बयाना को अलग-थलग कर दिया और दिल्ली के आसपास के इलाकों तक में लूटमार करने लगे ।

बलबन के रणथंभौर जीतने और गवालियर फिर से पाने के प्रयास असफल रहे । पर उसने बहुत निर्ममता के साथ मेवात को अपने अधीन बनाया जिसके कारण लगभग सौ वर्षा तक दिल्ली मेवाती लूटमार से सुरक्षित रही । अजमेर और नागौर दिल्ली सल्तनत के ही कठोर नियंत्रण में बने रहे ।

इस तरह अन्य व्यस्तताओं के बावजूद बलबन ने पूर्वी राजस्थान में तुर्क शासन को स्थायी बनाया । राजपूत राजाओ के अंतहीन आपसी झगड़ा ने भी तुर्को को सहायता पहुँचाई तथा उनके खिलाफ राजपूतों का कोई कारगर गठबंधन असंभव हो गया ।

एक शक्तिशाली राजतंत्र की स्थापना, मंगोल आक्रमणकारियों का पीछे धकेला जाना, गंगा के दोआब में दिल्ली सल्तनत के अधिकार का स्थायी बनाया जाना और पूर्वी राजस्थान पर नियंत्रण-इनके कारण दिल्ली सल्तनत के इतिहास में अगले चरण के लिए, अर्थात पश्चिम भारत और दकन में उसके प्रसार के लिए, रास्ता तैयार हुआ ।

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