Here is an essay on the ‘Mughal Empire’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Mughal Empire’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. जहाँगीर (Jahangir):
अकबर का सबसे बड़ा बेटा जहाँगीर बिना किसी कठिनाई के तख्त पर बैठा क्योंकि उसके सभी छोटे भाई अकबर के जीवनकाल में ही अत्यधिक शराबनोशी के कारण मर चुके थे । लेकिन जहाँगीर के तख्त पर बैठने के कुछ ही समय बाद उसके सबसे बड़े बेटे खुसरो ने विद्रोह कर दिया । सत्ता के लिए पिता-पुत्र में खींचतान उन दिनों कोई असामान्य बात नहीं थी ।
स्वयं जहाँगीर ने अपने पिता के खिलाफ विद्रोह किया था और साम्राज्य को कुछ समय तक अस्तव्यस्त रखा था । लेकिन खुसरो का विद्रोह बहुत दिनों तक नहीं चला । लाहौर के पास एक लड़ाई में जहाँगीर ने उसे हरा दिया । कुछ ही समय बाद उसे गिरफ्तार करके कैद में डाल दिया गया ।
जहाँगीर ने मेवाड़ के साथ टकराव को समाप्त किया जो चार दशकों से चला आ रहा था । उसे दकन में मलिक अंबर के साथ भी टकराना पड़ा जो अकबर के बंदोबस्त को मानने के लिए तैयार न था । पूर्व में भी टकराव था । हालांकि अकबर ने इस क्षेत्र में अफगानों की कमर तोड़ दी थी पर पूर्वी बंगाल के विभिन्न भागों में अफगान सरदार अभी भी शक्तिशाली थे ।
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उन्हें अनेक हिंदू राजाओं का समर्थन प्राप्त था, मसलन जैसोर, कामरूप (पूर्वी असम) कछार आदि के राजाओं का । अपने शासन के अंतिम दिनों में अकबर ने बंगाल के सूबेदार राजा मानसिंह को दरबार में वापस बुला लिया था और उसके वहाँ न होने पर अफगान सरदार उस्मान खान और दूसरों को बगावत का अवसर मिल गया था ।
जहाँगीर ने कुछ समय के लिए राजा मानसिंह को फिर वहाँ भेजा लेकिन स्थिति बिगड़ती ही गई । 1608 में जहाँगीर ने प्रसिद्ध सूफी संत शेख सलीम चिश्ती के पोते इस्लाम खान को बंगाल में नियुक्त किया । शेख सलीम मुगलों के संरक्षक संत थे ।
आयु में कम होते हुए भी इस्लाम खान ने उत्साह और दूरदृष्टि के साथ स्थिति को सँभाला । उसने जैसोर के राजा समेत अनेक जमींदारों को अपनी ओर खींच लिया तथा विद्रोहियों से निबटने के लिए ढाका को अपना मुख्यालय बनाया जिसकी रणनीतिक स्थिति थी । क्षेत्र पर पूरा नियंत्रण रखने के लिए सूबे की राजधानी जल्द ही राजमहल की जगह ढाका को बना दिया गया और उसका तेजी से विकास होने लगा ।
इस्लाम खान ने पहले अपना ध्यान सोनारगाँव की विजय पर लगाया जो मूसा खान और उसके सहयोगियों के नियंत्रण में था और जिन्हें बारह भुइयों कहा जाता था । तीन वर्ष के अभियान के बाद सोनारगाँव हाथ में आ ही गया । जल्द ही मूसा खान ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे बंदी रूप में दरबार में भेज दिया गया ।
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फिर उस्मान खान की बारी आई और एक भयानक युद्ध में उसकी हार हुई । अब अफगान प्रतिरोध की कमर टूट गई और जल्द ही दूसरे विद्रोहियों ने समर्पण कर दिया । जैसोर और कामरूप के रजवाड़ों का अधिग्रहण कर लिया गया । इस तरह पूर्वी बंगाल में मुगल सत्ता ने जड़ें जमा लीं ।
अकबर की तरह जहाँगीर ने भी महसूस किया कि शक्ति नहीं बल्कि जनता की सदिच्छा के बल पर ही उसकी विजय स्थायी बन सकती है । इसलिए उसने पराजित अफगान सरदारों और उनके अनुयायियों के साथ नरमी और हमदर्दी का व्यवहार किया ।
कुछ समय बाद बंगाल के अनेक बंदी राजाओं और जमींदारों को छोड़ दिया गया और उन्हें बंगाल लौटने की अनुमति दे दी गई । मूसा खान तक को छोड़ दिया गया और उसकी जागीरें उसे लौटा दी गई । इस तरह लंबे समय के बाद बंगाल में शांति और समृद्धि की वापसी हुई ।
इस प्रक्रिया को चरम तक ले जाते हुए अफगान अब मुगल अमीर वर्ग में शामिल किए जाने लगे । जहाँगीरी दौर का प्रमुख अफगान कुलीन खान-ए-जहाँ लोदी था जिसने दकन में यशस्वी कार्य किए ।
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1622 तक जहाँगीर मलिक अंबर को झुकने पर विवश कर चुका था मेवाड़ के साथ लंबे समय से चल रहे संघर्ष को मिटा चुका था और बंगाल को शांत कर चुका था । जहाँगीर अभी भी अपेक्षाकृत कम आयु (51 वर्ष) का था और ऐसा प्रतीत होता था कि आगे शांति का एक लंबा दौर आने वाला है ।
लेकिन दो घटनाक्रमों के कारण स्थिति बुनियादी तौर पर बदल गई । इनमें से एक थी कंदहार पर ईरान की विजय जिससे मुगलों की प्रतिष्ठा को धक्का लगा । दूसरी जहाँगीर के गिरते स्वास्थ्य से संबंधित थी जिसके कारण शाहजादों के बीच उत्तराधिकारियों का प्रच्छन्न संघर्ष खुलकर सामने आ गया और अमीर भी सत्ता के लिए जोड़-तोड़ करने लगे । इन घटनाक्रमों के कारण ही नूरजहाँ राजनीतिक रंगमंच पर सामने ।
Essay # 2. नूरजहाँ (Noorjahan):
नूरजहाँ के जीवन शेर अफगन नामक एक ईरानी से उसका विवाह बंगाल के मुगल सूबेदार के साथ टकराव में शेर अफगन की मृत्यु जहाँगीर के एक बुजुर्ग संबंधी के यहाँ आगरा में नूरजहाँ का निवास और चार साल बाद जहाँगीर से उसके विवाह (1611) की कहानी इतनी जानी-पहचानी है कि इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है ।
गंभीर इतिहासकार यह नहीं मानते कि उसके पहले पति की मृत्यु के लिए जहाँगीर जिम्मेदार था । मीना बाजार में उससे जहाँगीर की अकस्मात भेंट में और उसके साथ विवाह करने में कुछ भी असामान्य नहीं हैं । नूरजहाँ का परिवार एक प्रतिष्ठित परिवार था और उसके पिता एतमादुद्दौला को जहाँगीर ने अपने शासन के पहले वर्ष में ही संयुक्त दीवान बनाया था ।
खुसरो के विद्रोह में उसके एक बेटे के लिप्त होने के कारण लगे संक्षिप्त ग्रहण के बाद एतमादुद्दौला को उसका पद लौटा दिया गया था । इस पद पर परखे जाने और जहाँगीर से नूरजहाँ का विवाह होने के बाद उसे ऊपर उठाकर प्रमुख दीवान बना दिया गया । परिवार के दूसरे सदस्यों को भी इस संबंध से लाभ पहुँचा और उनके मनसब बढ़ा दिए गए ।
एतमादुद्दौला योग्य, समर्थ और निष्ठावान साबित हुआ और दस वर्ष बाद अपनी मृत्यु के समय तक राज्य के मामलों में उसका अच्छा-खासा प्रभाव रहा । नूरजहाँ का भाई आसफ खान भी पढ़ा-लिखा और योग्य व्यक्ति था ।
उसे खान-ए-सामाँ बना दिया गया; यह पद उन्हीं अमीरों को दिया जाता था जिन पर बादशाह को पूरा भरोसा होता था । उसने अपनी बेटी का विवाह खुर्रम (शाहजहाँ) से किया जो खुसरो की बगावत और कैद के बाद अपने पिता का प्रिय बन चुका था ।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि अपने पिता और भाई के साथ तथा खुर्रम से मिलकर नूरजहाँ ने एक गिरोह बना लिया था जिसने जहाँगीर को इस तरह नियंत्रण में कर लिया था कि इस गिरोह के समर्थन और सहयोग के बिना कोई भी अपने सरकारी जीवन में आगे नहीं बढ़ सकता था ।
इससे दरबार दो गुटों-नूरजहाँ का ‘गिरोह’ और उसके विरोधियों-में बँट गया । यह भी तर्क दिया जाता है कि नूरजहाँ की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण अंतत: शाहजहाँ और उसके बीच दरार पड़ गई जिसके कारण शाहजहाँ ने 1622 में अपने पिता से विद्रोह कर दिया क्योंकि उसे लगता था कि जहाँगीर पूरी तरह नूरजहाँ के प्रभाव में है । मगर कुछ अन्य इतिहासकार इस मत से सहमत नहीं हैं ।
उनका कहना है कि 1622 में अपने स्वास्थ्य के बिगड़ने तक सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक निर्णय जहाँगीर स्वयं लेता था जैसा कि उसकी आत्मकथा से स्पष्ट है । इस काल में नूरजहाँ की राजनीतिक भूमिका ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है । उसके नाम से सिक्के जारी किए गए थे और उसे बादशाह बेगम की पदवी दी गई थी ।
महत्वपूर्ण अमीर घटनाओं की जानकारी देने और बादशाह के सामने अपनी बात कहलवाने के लिए नूरजहाँ के पास आया करते थे । शाही घराने पर उसका प्रभुत्व था और उसने फारसी परंपराओं पर आधारित नए फैशन चलाए थे । उसकी स्थिति के कारण दरबार में फ़ारसी कला और संस्कृति को भारी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई ।
नूरजहाँ जहाँगीर की स्थायी संगिनी थी तथा शिकार पर भी उसके साथ जाती थी क्योंकि वह एक अच्छी घुड़सवार और पक्की निशानेबाज थी । इसलिए वह जहाँगीर को प्रभावित कर सकती थी तथा बादशाह से अपनी सिफारिश कराने के लिए अनेक व्यक्ति उससे संपर्क करते थे ।
मुगल शासन में पहले कोई स्त्री इतनी महत्वपूर्ण स्थिति तक नहीं पहुँची थी । पर नूरजहाँ के गिरोह या नूरजहाँ पर जहाँगीर निर्भर नहीं था जिसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि उन अमीरों को भी सामान्य प्रोन्नति मिली जो इस गिरोह के चहेते नहीं थे । शाहजहाँ का उदय नूरजहाँ की हिमायत के कारण नहीं उसके निजी गुणों और कारनामों के कारण हुआ था ।
शाहजहाँ की अपनी महत्वाकाक्षाएँ थीं जिनसे जहाँगीर बेखबर नहीं था । जो भो हो उन दिनों कोई शासक किसी अमीर या राजकुमार को इतना शक्तिशाली बनने देने का जोखिम नहीं उठाता था कि वह उसकी सत्ता को चुनौती देने लगे । जहाँगीर और शाहजहाँ के टकराव का बुनियादी कारण यही था ।
Essay # 3. शाहजहाँ का विद्रोह (Rebellion of Shah Jahan):
विद्रोह का तात्कालिक कारण शाहजहाँ का कंदहार जाने से इंकार था जिसे ईरानियों ने घेर रखा था । शाहजहाँ को डर था कि यह अभियान लंबा और कठिन होगा और दरबार से उसकी अनुपस्थिति में उसके खिलाफ षड़यंत्र रचे जाएँगे । इसलिए उसने अनेक माँगे पेश की जैसे दकन के अनुभवी युद्ध नायकों समेत सेना पर पूरा नियंत्रण पंजाब पर पूरा वर्चस्व अनेक महत्वपूर्ण किलों पर नियंत्रण आदि ।
उसके इस रवैये से जहाँगीर आग बबूला हो उठा । शाहजादा विद्रोह करने की सोच रहा है इस बात का भरोसा करके जहाँगीर ने उसे कठोर पत्र लिखे और दंडमूलक कदम उठाए जिसके कारण स्थिति और बिगड़ी तथा खुला संबंधविच्छेद हुआ । मांडू से जहाँ वह ठहरा हुआ था शाहजहाँ एकाएक आगरा की ओर वहाँ के खजाने पर कब्जा करने के उद्देश्य से बढ़ा ।
शाहजहाँ को दकनी सेना का और वहाँ नियुक्त सभी अमीरों का पूरा-पूरा समर्थन प्राप्त था । गुजरात और मालवा ने उसकी तरफदारी का ऐलान कर दिया था तथा उसे अपने श्वसुर आसफ खान का और दरबार के अनेक महत्वपूर्ण अमीरों का समर्थन प्राप्त था ।
लेकिन दिल्ली के पास हुई लड़ाई में महाबत खान के नेतृत्व वाली सेना ने शाहजहाँ को मात दे दी । मेवाड़ के दस्ते के शौर्यपूर्ण रवैये के कारण वह पूरी हार से बच गया । शाहजहाँ से गुजरात छीनने के लिए एक और सेना भेजी गई । शाहजहाँ का पीछा करके उसे मुगल क्षेत्रों से बाहर भगा दिया गया और उसे पिछले शत्रुओं यानी दकनी राजाओं के यहाँ शरण लेने पर बाध्य होना पड़ा ।
लेकिन वह दकन पार करके उड़ीसा में जा पहुँचा वहाँ के सूबेदार को अकस्मात आक्रमण करके हरा दिया और जल्द ही बंगाल और बिहार उसके नियंत्रण में आ गए । महाबत खान की सेवा फिर ली गई । उसने जोरदार कदम उठाए और शाहजहाँ को फिर दकन में शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया ।
इस बार उसने मलिक अंबर के साथ गंठजोड़ कर लिया जो एक बार फिर मुगलों से युद्धरत था । जल्द ही शाहजहाँ ने जहाँगीर को क्षमा प्रार्थना के लिए पत्र लिखे । जहाँगीर को भी लगा कि अपने सबसे योग्य और पराक्रमी बेटे को क्षमा करके उससे सुलह करने का समय यही है ।
इस समझौते के अंतर्गत शाहजहाँ के दो बेटों-दारा और औरंगजेब-को बंधक के तौर पर में दरबार में भेजा गया और शाहजहाँ को खर्च के लिए दकन का एक भाग आवंटित कर दिया गया । यह 1626 की बात है ।
Essay # 4. महाबत खान (Mahabat Khan):
शाहजहाँ के विद्रोह ने साम्राज्य को चार वर्षो तक अस्तव्यस्त रखा । इसके कारण कंदहार हाथ से निकल गया तथा दकनवालों को अकबर के काल के और बाद के अभियानों के दौरान मुगलों को सौंपे गए सभी इलाके वापस लेने का मौका मिल गया ।
इससे मुगल-साम्राज्य की एक बुनियादी कमजोरी भी स्पष्ट हुई कि एक सफल राजकुमार उस समय सत्ता को चुनौती देने का एक अलग केंद्र बन जाता था जब यह महसूस किया जाता था कि बादशाह सर्वोच्च सत्ता के अनुरूप व्यवहार करने में समर्थ नहीं है या इच्छुक नहीं है ।
शाहजहाँ का आरोप बराबर यही था कि जहाँगीर के बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण वास्तविक रूप से पूरी शक्ति नूरजहाँ बेगम के हाथों में चली गई है । इस आरोप को स्वीकार करना कठिन है क्योंकि शाहजहाँ का श्वसुर आसफ खान साम्राज्य का दीवान था । साथ ही बुरे स्वास्थ्य के बावजूद जहाँगीर मानसिक रूप से सजग था और उसकी सहमति के बिना कोई फैसला नहीं लिया जा सकता था ।
जहाँगीर की बीमारी ने यह खतरा भी पैदा कर दिया था कि सर्वोच्च सत्ता अपने हाथों में लेने के लिए कोई महत्वाकांक्षी अमीर स्थिति का फायदा उठाने का प्रयास कर सकता था । महाबत खान जिसने शाहजहाँ के विद्रोह से निबटने में एक अग्रणी भूमिका निभाई थी क्षुब्ध बैठा था क्योंकि शाहजादे का विद्रोह समाप्त होने के बाद दरबार में कुछ तत्व उसके पंख कतरने की कोशिश कर रहे थे ।
स्थिति स्पष्ट करने के लिए दरबार में बुलाए जाने पर महाबत खान राजपूतों के एक विश्वसनीय दल के साथ आया और जब शाही लश्कर काबुल जाते हुए झेलम को पार कर रहा था तभी मौका देरवकर उसने बादशाह को बंदी बना लिया । नूरजहाँ जिसे घेरा नहीं गया था नदी पार करके निकल भागी ।
महाबत खान पर एक हमला किया गया जो बुरी तरह नाकाम रहा । नूरजहाँ ने अब दूसरे उपाय का सहारा लिया । जहाँगीर के करीब रहने के लिए उसने महाबत खान के आगे-समर्पण कर दिया । महाबत खान कोई कूटनीतिज्ञ या प्रशासक नहीं एक सैनिक था ।
उसकी गलतियों से लाभ उठाकर और उसके राजपूत सैनिकों की बढ़ती अलोकप्रियता के कारण नूरजहाँ ने महाबत खान के समर्थक अधिकांश अमीरों को अपनी ओर कर लिया । अपनी नाजुक स्थिति को महसूस करके महाबत खान ने जहाँगीर को छोड़ दिया और खुद दरबार से भाग खड़ा हुआ । कुछ समय बाद महाबत खान दकन में शाहजहाँ से जा मिला जो वहाँ अपने समय की प्रतीक्षा कर रहा था ।
महाबत खान की हार नूरजहाँ की सबसे बड़ी जीत थी और इसका श्रेय उसके ठंडे दिमाग साहस और दूरदृष्टि को जाता था । लेकिन नृरुजहाँ की सफलता अस्थायी रही क्योंकि साल भर से कम समय में लाहौर से कुछ ही दूरी पर जहाँगीर ने (1627 में) दम तोड़ दिया ।
काइयाँ और चालाक आसफ खान जिसे जहाँगीर ने ‘वकील’ नियुक्त किया था और जो अपने दामाद शाहजहाँ की तख्तनशीनी के लिए सावधानी के साथ जमीन तैयार कर रहा था, अब खुलकर सामने आ गया । दीवान प्रमुख अमीरों और सेना के समर्थन से उसने नूरजहाँ को लगभग कैदी बनाकर रख दिया और शाहजहाँ को फौरन बुला भेजा । शाहजहाँ आगरा पहुँचा और भारी जश्न के बीच तख्त पर बैठा ।
इससे पहले शाहजहाँ के इशारे पर उसके गिरफ्तार भाई रिश्ते के चचेरे भाई आदि समेत उसके सभी प्रतिद्वंद्वी मौत के घाट उतारे जा चुके थे । इस मिसाल ने तथा इससे पहले बाप के खिलाफ बेटे के विद्रोह की मिसाल ने जिसे जहाँगीर ने कायम किया था और शाहजहाँ ने अपनाया था आगे चलकर मुगलिया खानदान के लिए बड़े दुखद परिणाम पैदा किए ।
शाहजहाँ ने जो पौधा लगाया था उसके कड़वे फल उसे भी चखने पड़े । रही नूरजहाँ तो तख्त पर बैठने के बाद शाहजहाँ ने उसके खर्चे के लिए एक निश्चित राशि का बंदोबस्त कर दिया । 18 वर्ष बाद अपनी मृत्यु तक वह एकांत जीवन जीती रही और लाहौर में दफनाई गई ।
Essay # 5. जहाँगीर और शाहजहाँ के काल में राज्य (States in Jahangir and Shahjahan Period):
जहाँगीर और शाहजहाँ के काल में मुगल राज्य को भारी आंतरिक स्थायित्व प्राप्त हुआ । कट्टर मुस्लिम हलकों को थोड़ी बहुत आशा थी की जहाँगीर सत्ता में आएगा तो अकबर की उदार धार्मिक नीतियों को पलट देगा । पहले तो कट्टरपंथियों से खुलकर संपर्क बनाकर और उन्हें उपहार देकर जहाँगीर ने उनको प्रसन्न करने का प्रयास किया ।
संभवत: बागी शाहजादे खुसरो का स्वागत करने के आरोप में सम्मानित सिख गुरु अर्जुनदेव की घोर निंदा और उनको दी गई यंत्रणा भी इसी नीति का अंग थी । फिर भी जहाँगीर ने सभी धर्मों को सम्मान और स्वतंत्रता देने की अकबरी नीति की न सिर्फ प्रशंसा की बल्कि उसे जारी भी रखा ।
जैसा कि वह अपनी तुजुक में कहता है ‘उसकी विशाल सल्लनत में विभिन्न धर्मो के अनुयायियों के लिए स्थान है ।’ जहाँगीर सप्ताह का एक दिन सूर्य के लिए समर्पित करता था और एक दिन भोजन के लिए कोई पशु नहीं मारा जाता था । वह दीवाली होली दशहरा आदि विभिन्न हिंदू त्योहार भी मनाता था ।
नए मंदिर बनाने पर कोई रोक नहीं थी । जहाँगीर दरवेशों विभिन्न धर्मों के संतों से मिलने और उन्हें उपहार आदि देने में दिलचस्पी रखता था । उदाहरण के लिए उज्जैन के पास एक गुफा में रहने वाले और वेदांत पर अधिकार रखनेवाले नंगे फकीर जदरूप गोसाईं से वह कई बार मिला । हालांकि उसने पुष्कर में वराह की मूर्ति नष्ट कराई, पर वहाँ के ब्राह्मणों को दान भी दिए ।
शाहजहाँ ने जिसका दौर (1628-58) बहुमुखी गतिविधियों का दौर था, इस उदार नीति में फेरबदल किए । शाहजहाँ ने स्वयं को ‘इस्लाम का रक्षक’ करार दिया और इस नीति को दोहराया कि पुराने पूजास्थानों की मरम्मत तो की जा सकती है पर नए मंदिर नहीं बनाए जा सकते ।
इसलिए जहाँगीर के काल में बने अनेक मंदिर नष्ट कर दिए गए । मगर पुराने हिंदू मठों और मंदिरों के दान जारी रहे । अपने शासन के बाद वाले भाग में उसने अपने प्रिय पुत्र दारा के प्रभाव में एक अधिक उदार नीति अपनाई । इसमें वेदों समेत हिंदू धर्मग्रंथों का फारसी में अनुवाद फिर से आरंभ कराना भी शामिल था ।
Essay # 6. प्रशासन का विकास: मनसबदारी व्यवस्था और मुगल सेना (Development of Administration):
अकबर द्वारा विकसित प्रशासनतंत्र और राजस्व व्यवस्था को मामूली फेरबदल के साथ जहाँगीर और शाहजहाँ ने जारी रखा । फिर भी, मनसबदारी व्यवस्था के कार्यकलाप में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए । अकबर के काल में मनसबदार को अपने दस्ते के रखरखाव के लिए औसतन प्रति सवार 240 रुपए वार्षिक दिए जाते थे ।
जहाँगीर के काल में उसे घटाकर 200 रुपए वार्षिक कर दिया गया । विभिन्न आकस्मिक खर्चे पूरा करने के लिए मनसबदार को सवारों के कुल वेतन का 5 प्रतिशत अपने पास रखने की इजाजत थी । मुगल मिले-जुले दस्तों को वरीयता देते थे और उनमें ईरानी और तूरानी मुगलों भारतीय अफगानों और राजपूतों से निश्चित अनुपात में सैनिक भरती किए जाते थे ।
इसका उद्देश्य कबीलाई या नस्ली अलगाव की भावना को समाप्त करना था । लेकिन विशेष परिस्थितियों में मुगल या राजपूत मनसबदार को पूरी तरह मुगल या राजपूत सैनिकों की टुकड़ी बनाने की अनुमति थी ।
इस काल में अनेक दूसरे संशोधन भी किए गए । एक प्रवृत्ति जात का वेतन कम करने की थी । जहाँगीर ने ऐसी व्यवस्था आरंभ की जिसमें जात का मनसब बढ़ाए बिना चुनिंदा अमीरों को अधिक संख्या में सैनिक रखने की अनुमति दी जाए ।
यह दो- अस्पा और सिह-अस्पा व्यवस्था (शाब्दिक अर्थ दो या तीन घोड़ों वाले सवारों की व्यवस्था) थी । इसका मतलब यह था कि इस मनसब वाले मनसबदार को जितना उसके सवार मनसब से संकेत मिलता था उससे दोगुना सवार रखने और दोगुना सवार का वेतन मिलता था ।
इस तरह 3000 जात और 3000 सवार दो-अस्पा सिह-अस्पा मनसब वाले मनसबदार से 6000 सैनिक रखने की आशा की जाती थी । सामान्यत किसी मनसबदार को ऐसा सवार मनसब नहीं दिया जाता था जो उसके जात मनसब से अधिक हो ।
शाहजहाँ के काल के एक और संशोधन का उद्देश्य एक अमीर से जितने सवार रखने की अपेक्षा की जाती थी उसमें काफी कमी लाना था । इस तरह एक अमीर को अपने सवार मनसब के बस एक-तिहाई और कुछ परिस्थितियों में एक चौथाई सवार रखने की ही आशा की जाती थी ।
इस तरह 3000 जात, 3000 सवार मनसब वाले एक कुलीन को 1000 से अधिक सैनिक नहीं रखने पड़ते थे । लेकिन अगर उसका मनसब 3000 सवार दो-अस्पा सिह-अस्पा होता था तो यह संख्या दोगुनी कर दी जाती थी अर्थात उसे 2000 सैनिक रखने पड़ते थे ।
हालांकि मनसबदारों के वेतन रुपयों में बयान किए जाते थे पर आम तौर पर उन्हें नकद वेतन न देकर जागीरें दी जाती थी । मनसबदार जागीरों को वरीयता देते थे क्योंकि नकद अदायगी में देरी भी हो सकती थी और कभी-कभी बहुत झंझट उठाने पड़ते थे । इसके अलावा भूमि पर नियंत्रण सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान था ।
सावधानी से एक श्रेणीक्रम बनाकर और बारीकी से कामकाज के नियम तय करके मुगलों ने अमीर वर्ग को बुनियादी तौर पर नौकरशाही बना दिया । पर वे भूमि से उनका सामंती लगाव समाप्त न कर सके । जैसा यह मुगल अमीरों के लिए एक बहुत बड़ी दुविधा की स्थिति साबित हुई ।
जागीरें प्रदान करने के लिए राजस्व विभाग को एक रजिस्टर रखना पड़ता था जिसमें विभिन्न क्षेत्रों की आकलित जमा (राजस्व) का संकेत दिया जाता था । पर राशि रुपयों में न बतलाकर दामों में बतलाई जाती थी और आय की गणना 40 दाम प्रति रुपए की दर से तय की जाती थी । इस दस्तावेज को जमा-दामी अर्थात आय का दाम पर आधारित आकलन कहा जाता था ।
जब मनसबदारों की संख्या बढ़ती गई और अनेक कारणों से राज्य के वित्तीय संसाधनों पर दबाव पड़ने लगे तो उपरोक्त संशोधन भी अपर्याप्त लगने लगे । वेतन में चौरतरफा भारी कटौतियों से अमीरों में असंतोष पैदा होता और शासक शायद ही इसका जोखिम उठा सकते थे ।
इसलिए श्रेणीकरण की एक नई विधि अपनाकर उन सैनिकों और घोड़ों की संख्या और घटा दी गई जो एक अमीर को अपने सवार मनसब के कारण रखने पड़ते थे । मनसबदारों का वेतन माहवारी पैमाने पर तय किया गया- 10 माह, 8 माह, 6 माह या उससे भी कम-और उसी के अनुसार उनके लिए निर्धारित सवारों की संख्या में भी कमी कर दी गई ।
इस तरह जिस मनसबदार का दर्जा 3000 जात और 3000 सवार का होता था और जो उपर्युक्त एक-तिहाई के नियम के अनुसार 1000 सवार रखता था, उसे अकबर द्वारा स्थापित नियम खे अनुसार सामान्यत: 2200 घोड़े रखने पड़ते । लेकिन उसे 10 माह की श्रेणी रखने पर सिर्फ 1800 घोड़े, और 5 माह की श्रेणी रखने पर सिर्फ 1000 घोड़े रखने पड़ते । 5 माह से कम या 10 माह से अधिक का भत्ता शायद ही किसी को दिया जाता हो ।
जागीर की आय में कमी से इस मासिक पैमाने का कोई संबंध नहीं था । इसलिए कि मासिक पैमाना केवल जागीर नहीं नकद वेतन पानेवालों पर भी लागू किया गया । शाहजहाँ के काल में खेती की जमीन के क्षेत्रफल में वृद्धि हुई । नकदी फसलों का उत्पादन भी बढ़ा ।
जमा-दामी अर्थात जागीर की आय बड़ी । लेकिन यह वृद्धि मोटे तौर पर इस काल में हुई मूल्यवृद्धि के संगत रही । यहाँ यह बात कह दी जाए कि मुगल सेवा में लिए गए अधिकांश मराठों को 5 माह या इससे भी कम के आधार पर मनसब दिए गए थे । इस तरह जहाँ उन्हें सोपान में ऊँचा पद दिया गया वहीं घोड़ों और सवारों की वास्तविक संख्याएँ उनके मनसब से पता चलने वाली संख्याओं से काफी कम थीं ।
जैसा कि हमने देखा फालतू घोड़ों की संख्या एक समर्थ सवार सेना के लिए अनिवार्य थी । शाहजहाँ के काल में फालतू घोड़ों की संख्या में भारी कमी ने मुगल सवार सेना की दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला । मुगलों की मनसबदारी व्यवस्था एक पेचीदा व्यवस्था थी । उसका कारगर कार्यकलाप अनेक बातों पर निर्भर था ।
इनमें दाग की व्यवस्था और जागीरदारी व्यवस्था का सही काम करना भी शामिल था । दाग की व्यवस्था अगर ठीक से काम न करती तो राज्य के साथ धोखा होता था । अगर जमा-दामी दिखाने के लिए बढ़ाई जाती तो जागीरदार को वास्तविक देय वेतन नहीं मिलता था और वह असंतुष्ट हो जाता था या समुचित संख्या में सैनिक नहीं रखता था ।
कुल मिलाकर देखें तो शाहजहाँ के शासनकाल में मनसबदारी व्यवस्था ठीक-ठीक काम करती रही । कारण कि वह प्रशासन पर बहुत ध्यान देता था तथा अत्यंत समर्थ व्यक्तियों को वजीरों के रूप मे नियुक्त करता था ।
सरकारी सेवा के लिए सही व्यक्तियों का चयन सख्त अनुशासन और प्रोन्नतियों व पुरस्कारों की एक सुनिश्चित व्यवस्था ने मुगल अमीर वर्ग को एक निष्ठावान और कुल मिलाकर अत्यंत विश्वसनीय वर्ग बना दिया था जिसने अपने प्रशासनिक दायित्वों और कर्त्तव्यों का उचित निर्वाह किया तथा साम्राज्य की रक्षा और उसका विस्तार किया ।
Essay # 7. मुगल सेना (Mughal Forces):
घुड़सवार मुगल सेना के प्रमुख अंग थे और उनका एक विशाल भाग मनसबदार जुटाते थे । इन मनसबदारों के अलावा मुगल बादशाह भी कुछ विशेष प्रकार के सवार रखता था जो अहदी कहलाते थे । इन अहदियों को अभिजात सैनिक कहा गया है और वे अन्य सैनिकों से काफी अधिक वेतन पाते थे । वे बेहद भरोसेमंद सैनिक होते थे ।
वे सीधे बादशाह द्वारा भरती किए जाते थे और उनकी हाजिरी लेने के लिए अलग अधिकारी होते थे । एक अहदी के पास पाँच घोड़े भी हो सकते थे हालांकि कभी-कभी दो अहदी एक घोड़े से काम चलाते थे । अहदियों के कर्त्तव्य मिले-जुले होते थे ।
शाही दफ्तरों के अधिकांश किरानी, दरबारी चित्रकार और शाही कारखानों के कारीगर इस दस्ते में शामिल होते थे । इनमें से अनेक को सेवकों और शाही फरमान लाने-ले जानेवालों के रूप में नियुक्त किया जाता था ।
शाहजहाँ के समय में अहदियों की संख्या 7000 थी तथा अकसर उन्हें मोर्चे पर भेजा जाता था जहाँ सेना के विभिन्न भागों में वे अच्छी तरह बाँट दिए जाते थे । उनमें से अनेक कुशल बंदूकचियों और तीरंदाजों के रूप में काम करते थे । बादशाह अहदियों के अलावा शाही अंगरक्षकों वालाशाही और हथियारबंद महलरक्षकों का एक दल भी रखता था । ये लोग घुड़सवार होते थे पर किले और राजमहल में पैदल काम करते थे ।
पैदल सैनिकों (पियादगान) का एक विशाल मगर मिला-जुला समूह था । उनमें से अनेक तो बंदूकची थे और तीन से सात रुपए मासिक वेतन पाते थे । सही अर्थ में पैदल सेना ये ही थे । लेकिन पियादों में कुली, चाकर, संदेशवाहक, तलवारबाज, पहलवान और गुलाम भी शामिल होते थे ।
गुलामों की संख्या उतनी नहीं थी जितनी सल्तनत काल में थी । उन्हें बादशाह या किसी शाहजादे के द्वारा भोजन-वस्त्र दिया जाता था । कभी-कभी गुलाम अहदी का पद भी हासिल कर लेते थे । लेकिन पैदल सैनिकों की स्थिति आम तौर पर मामूली ही होती थी ।
मुगल बादशाहों के पास जंगी हाथियों का एक बड़ा दल भी होता था और एक सुसंगठित तोपखाना भी । तोपखाने के दो हिस्से होते थे । एक हिस्सा था भारी तोपों का । इनका प्रयोग किलों की रक्षा या किलों में दरार डालने के लिए होता था । ये अकसर भोंडी होती थीं और इन्हें लेकर चलना कठिन होता था ।
दूसरा हिस्सा था हलकी तोपों का । ये बेहद गतिशील होती थीं और बादशाह जब भी चाहता था यह तोपखाना उसके साथ चलता था । मुगल अपने तोपखाने में सुधार के इच्छुक थे और आरंभ में तोपखाने में अनेक उस्मानी और पुर्तगाली भरती किए गए । औरंगजेब के समय तक मुगल तोपखाने में काफी सुधार आ चुका था और इस विभाग में विदेशियों को कठिनाई से ही नौकरी मिलती थी ।
बड़ी तोपें कभी-कभी बेहद बड़ी होती थीं और जैसा कि एक आधुनिक लेखक ने कहा है, ‘ये बड़ी तोपें नुकसान से अधिक शोर करती थीं दिन में उन्हें कुछ बार ही चलाया जा सकता था और यह भी संभव था कि वे फट जाएँ और तोप चलानेवालों की जान ले लें ।’
लेकिन फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने, जो शाहजहाँ के साथ लाहौर और कश्मीर गया था, हलकी तोपों को, जिन्हें ‘घुड़सवारों की तोपें’ कहा जाता था अत्यंत प्रभावकारी पाया । वह कहता है, ‘इसमें (तोपखाने में) पचास छोटी तोपें थी सभी पीतल की; हर तोप एक सुगढ़ और सुंदर ढंग से रंग-रौगन की गई गाड़ी पर रखी होती थी उसमें गोला-बारूद के दो बक्से होते थे, उन्हें दो सुंदर घोड़े खींचते थे और एक घोड़ा साथ में अतिरिक्त रखा जाता था ।’ तोपों या घुमाट तोपों को हाथियों और ऊँटों पर भी लादा जाता था ।
मुगल सेना की संख्या का अनुमान लगाना कठिन है । शाहजहाँ के समय मे इसमें दो लाख सवार थे जिनमें जिलों में मसलन फौजदारों के यहाँ, काम करनेवाले लोग शामिल नहीं थे । औरंगजेब के काल में यह संख्या 2,40,000 हो गई । गैर-लड़ाकू लोगों को निकाल दें तो पैदल सेना की संख्या शाहजहाँ के काल में 40,000 थी तथा औरंगजेब के काल में भी शायद इतनी ही रही ।
अपने काल के पड़ोसी पश्चिम या मध्य एशियाई राज्यों और यूरोपीय राज्यों की तुलना में मुगल सेना कितनी सक्षम थी, इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है । हालांकि बर्नियर जैसे अनेक यूरोपीय यात्रियों ने मुगल सेना की दक्षता पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ की हैं पर गंभीर विश्लेषण करने से पता चलता है कि उसकी टिप्पणियाँ वास्तव में मुगलों की पैदल सेना के बारे में थीं जिसके पास न प्रशिक्षण था न अनुशासन, जिसका संगठन और नेतृत्व घटिया था, और जो एक अव्यवस्थित ढोर के समान थे ।
यूरोप में पैदल सेना का विकास दूसरे ढंग से हुआ । फ्लिंट-गन या चकमक पत्थर से चालित बंदूकों के विकास के साथ पैदल सेना सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में एक भयानक लड़ाकू शक्ति बन गई और वह सवार सेना को भी पानी पिला सकती थी । इस बात को भारतीय शक्तियों ने अठारहवीं सदी में काफी बड़ी कीमत चुकाकर समझा ।
उजबेकों के खिलाफ बल्ख की लड़ाई में मुगलों ने जो कामयाबी हासिल की उससे पता चलता है कि खुली लड़ाई में मुगल सेना मध्य एशियाई और ईरानी सेनाओं से कम नहीं थी । लेकिन यूरोपवालों की तुलना में इन राज्यों की सेनाएँ पिछड़ी हुई थीं खासकर पैदल सेना और तोपखाना के मामले में ।
तोपखाने के सिलसिले में थोड़ा कमजोर होने के बावजूद मुगल औरंगजेब के समय तक एशियाई शक्तियों की बराबरी में आ चुके थे हालांकि यूरोप की समुद्री तोपों की बराबरी तक नहीं पहुँचे थे । तुर्की और ओमान सल्तनत को छोड़कर मुगल और एशियाई शक्तियाँ नौसेना के मामले में पिछड़ी थीं, विशेष रूप से सामुद्रिक युद्ध कौशल में ।
कुल मिलाकर सेना का और विशेषकर सवार सेना का गहरा संबंध जागीरदारी प्रथा से था जो स्वयं देश में प्रचलित सामंती भूमिसंबंधों की व्यवस्था पर आधारित थी । अत: एक की शक्ति और दक्षता दूसरे पर निर्भर होती थी ।