Here is an essay on the ‘National Movements in India’ for class 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essay on ‘National Movements in India’ especially written for school and college students in Hindi language.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना थी । लेकिन इसकी स्थापना एक अथवा दो दिन या एक अथवा दो वर्ष में नहीं हो गई । वरन इसके पीछे एक दीर्घ और चिन्तनशील इतिहास था । भारत के भिन्न-भिन्न भागों में स्थानीय व प्रांतीय स्तर पर विभिन्न आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कई राजनीतिक व सामाजिक संस्थाएं स्थापित हुई थीं ।
जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
1851 ई॰ – कलकत्ता में ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’
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1852 ई॰ – बम्बई में ‘बम्बई एसोसिएशन’
1852 ई॰ – मद्रास में ‘मद्रास नेटिव एसोसिएशन’
इन सभी एसोसिएशनों के सदस्य अधिकतर भारतीय समाज के उच्च वर्गों के लोग थे । ये एसोसिएशन मुख्यत: अपने-अपने प्रांतों में काम करती थी । बाद में ऐसे कई संगठन बने जो इन एसोसिएशनों की अपेक्षा जनता का अधिक प्रतिनिधित्व करते थे ।
ऐसे कुछ संगठन थे:
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1870 ई॰ – ‘पुणे सार्वजनिक सभा’
1876 ई॰ – ‘इंडिया एसोसिएशन’
1884 ई॰ – मद्रास महाजन सभा
1885 ई॰ – बाम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन
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एक लम्बे समय से यह आवश्यकता महसूस की जा रही थी कि भारतीय अभिमत का प्रतिनिधित्व करने वाला एक अखिल भारतीय संगठन होना चाहिए । सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कलकत्ता में इंडियन एसोसिएशन की स्थापना करके इस दिशा में कुछ कदम भी उठाए थे ।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इंडियन सिविल सर्विस में चुने गए थे । वे पहले भारतीय नेता थे, जिन्होंने दिसम्बर 1883 ई॰ में कलकत्ता में आयोजित अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन में देश के सभी भागों के लोगों को एकत्र किया ।
उन्होंने दिसम्बर 1885 ई॰ में कलकत्ता में एक और राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया । उसी बीच कुछ अन्य नेताओं ने एक अखिल भारतीय सम्मेलन दिसम्बर 1885 ई॰ में बुलाया ।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस:
देश के सभी प्रांतों से आए 72 प्रतिनिधियों का बम्बई में 1885 ई॰ में 28 से 30 दिसम्बर तक एक सम्मेलन हुआ । इस सम्मेलन में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई । सम्मेलन की अध्यक्षता व्योमेशचन्द्र बनर्जी ने की । कांग्रेस की स्थापना में एक अवकाश प्राप्त ब्रिटिश अफसर ए॰ओ॰ ह्यूम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
उन्होंने देश भर के प्रसिद्ध नेताओं से संपर्क स्थापित कर उनका सहयोग प्राप्त किया । बम्बई के गोकुलदास तेजपाल, संस्कृत कॉलेज में आयोजित कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में अनेक महत्वपूर्ण नेता सम्मिलित हुए । अधिवेशन में जिन समस्याओं पर विचार-विमर्श हुआ उनका सम्बन्ध धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के भेदभावों से अलग सभी भारतीयों से था ।
उदारवादी कांग्रेस व कार्यप्रणाली 1885-1905:
अपनी स्थापना के आरम्भिक वर्षों में कांग्रेस ने नरम नीतियाँ अपनाईं । इसके प्रथम अध्यक्ष डब्ल्यू॰ सी॰ बनर्जी के अनुसार कांग्रेस का उद्देश्य ‘राष्ट्रीय प्रगति के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं को आपस में परिचित कराना और भारत की जनता को साझे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए एकजुट करना था ।’
कांग्रेस की आरंभिक माँगे थीं:
1. प्रांतीय और केन्द्रीय विधायी परिषदों में भारतीयों का प्रतिनिधित्व ।
2. भारत में इंडियन सिविल सर्विस परीक्षाओं का आयोजन और इसके लिए अधिकतम आयु सीमा बढ़ाना ।
3. शिक्षा का प्रचार-प्रसार ।
4. भारत का औद्योगिक विकास ।
5. किसानों को कर्ज में राहत ।
6. हथियार कानून में संशोधन ।
दादा भाई नौरोजी, बदरूद्दीन तैयबजी, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, महादेव गोविंद रानाडे, गोपालकृष्ण गोखले, रहमतुल्ला सयानी, आनंद चाटलू, शंकरन नायर, रमेश चन्द्र दत्त जैसे कांग्रेस के नेताओं को विश्वास था जब भी ब्रिटिश सरकार को उनकी माँगों के औचित्य पर विश्वास हो जायेगा । वे माँगे मान ली जायेगी ।
बंगाल विभाजन 1905:
लार्ड कर्जन 1899 में भारत का वायसराय बनकर आया । उसका सबसे अविवेकपूर्ण कार्य बंगाल का विभाजन था । उस समय बंगाल प्रान्त में बंगाल, बिहार, असम तथा उड़ीसा सम्मिलित थे । कर्जन के समय बंगाल सहित भारत के अनेक भागों में क्रांतिकारियों एवं राष्ट्रवादी गतिविधियों में वृद्धि हो रही थी । इसके लिए उसने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई ।
बंगाल प्रान्त के पूर्वी भाग में मुस्लिमों की संख्या अधिक थी तथा पश्चिमी भाग में हिन्दुओं की संख्या अधिक थी । वह हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़कर राष्ट्रवादी आन्दोलन को कमजोर करना चाहता था । अत: उसने 1905 ई॰ में बंगाल का दो भागों में विभाजन कर दिया । इसका पूर्वी प्रान्त मुस्लिम बहुल बनाया गया और पश्चिमी भाग हिन्दू बहुल । इस विभाजन का घोर विरोध हुआ ।
कांग्रेस में उग्रवाद का उदय:
कांग्रेस अधिवेशनों में सरकार की आलोचना धीरे-धीरे बढ़ने लगी और उग्र माँगे रखी जाने लगीं ।कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में एक वक्ता ने कहा कि ‘प्रत्येक राष्ट्र को अपने भविष्य का निर्माता स्वयं होना चाहिए;
पर क्या हम अपना शासन स्वयं कर रहे हैं ? नहीं । क्या हम एक अप्राकृतिक अवस्था में नहीं रह रहे ? हाँ ।’
जब कांग्रेस में ऐसे विचार पनपने लगे तब सरकार उसकी विरोधी हो गई । बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में ‘गरमपंथ’ नामक नई प्रवृत्ति का विकास हुआ । इस नई प्रवृत्ति के प्रभाव के कारण राष्ट्रवाद आंदोलन ने सरकार से केवल प्रार्थना करने की परम्परा छोड़ दी ।
इन नई प्रवृत्तियों को उभारने वाले नेता थे- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय और विपिनचन्द्र पाल । भारतीय जन मानस में आत्मविश्वास और राष्ट्रीय गर्व की भावना जगाने के लिए उन्होंने देश के अतीत का चित्र गुणगान किया । उन्होंने कहा कि प्रशासन में सुधारों की माँग करना पर्याप्त नहीं है ।
भारतीय जनता का उद्देश्य होना चाहिए-स्वराज प्राप्त करना । तिलक ने प्रसिद्ध नारा दिया- ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा ।’ इसके लिए जनता में काम करना और राजनीतिक दोलनों में जनता को सहभागी बनाना जरूरी था । तिलक का ‘केसरी’ पत्र राष्ट्रवादियों के इस नए समूह का प्रवक्ता बना ।
इन राष्ट्रवादियों ने जनता को राजनीतिक दृष्टि से जागृत करने के लिए ‘गणपति’ और ‘शिवाजी’ उत्सवों को पुनर्जीवित किया । उन्होंने हड़तालों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार जैसे राजनीतिक आंदोलन के नए तरीके भी अपनाए । कांग्रेस ने अपने आरंभ के 20 वर्षों में व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए लोगों को एकजुट करने का काम किया ।
बाद के वर्षों में यह एकता अधिक मजबूत हुई और उद्देश्य अधिक स्पष्ट हो गए । आरंभ में जिस आंदोलन में समाज के केवल छोटे वर्ग सक्रिय थे, वह लाखों लोगों का एक ऐसा आंदोलन बन गया जिसका लक्ष्य था स्वतंत्रता प्राप्त करना ।
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906:
अंग्रेजों ने देश में एकता की भावना के विकास को नियंत्रित करने के लिए हर संभव प्रयास किए । अंग्रेज कहने लगे कि हिन्दू और मुसलमानों के हित एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है । यह घोषणा की गई कि अगर शिक्षित मुसलमान अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे, तो उन्हें सरकारी नौकरियाँ तथा अन्य विशेष सहायताओं से पुरस्कृत किया जायेगा ।
गरम दल के कुछ हिन्दू नेताओं ने राष्ट्रीयता के प्रचार के लिए धार्मिक विश्वासों वाले उत्सवों का उपयोग किया । इससे अंग्रेज-हिमायती मुसलमानों को यह कहने का मौका मिला कि राष्ट्रीय आंदोलन केवल हिन्दुओं का आन्दोलन है ।
सरकार ने साम्प्रदायिक राजनीति को जो बढ़ावा दिया उसका ज्ञान मुस्लिम लीग की स्थापना से पहले हुई घटनाओं से होता है । आगा खान के नेतृत्व में एक मुस्लिम शिष्टमण्डल अक्टूबर 1906 में शिमला में वायसराय मिंटों से मिला, जिसमें एक महत्वपूर्ण नेता, ढाका के, नवाब सली मुल्लाह थे । वायसराय ने इस शिष्टमण्डल का उत्साह बढ़ाया । अंग्रेजों का प्रोत्साहन प्राप्त कर इन नेताओं ने 30 दिसम्बर 1906 ई॰ को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की ।
लीग के उद्देश्य थे:
1. भारत के मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी की भावना जगाना और सरकार के कदमों के बारे में उनके मन में अगर कोई गलतफहमी पैदा हो तो उसे दूर करना ।
2. भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों और हितों की रक्षा की घोषणा करना तथा उनकी आशाओं और आकांक्षाओं को आदर के साथ सरकार के समक्ष रखना ।
3. लीग के दूसरे उद्देश्यों पर अडिग रहते हुए दूसरे समुदायों के प्रति किसी प्रकार के विरोध की भावना को रोकना ।
लीग द्वारा शासन के प्रति वफादारी की भावना जगाने के बाद भी अनेक मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होते रहे । मौलाना अबुल कलाम आजाद, मोहम्मद अली, हकीम अजमल खाँ और मजरूल जैसे कई मुस्लिम नेता प्रसिद्ध हुए । इन सभी नेताओं ने राष्ट्रीयता का प्रचार किया । मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अखबार ‘अल हिलाल’ की और मौलाना मोहम्मद अली ने अंग्रेजी में ‘कामरेड’ और ऊर्दु में ‘हमदर्द’ को प्रारंभ किया ।
कांग्रेस का विभाजन- 1907 सूरत अधिवेशन:
नरम दल और गरम दल के नेताओं के मतभेद बढ़ते जा रहे थे । 1906 ई॰ में दादाभाई नौरोजी की कुशलता के कारण दोनों दलों में संघर्ष होने से रूक गया था लेकिन 1907 ई॰ में सूरत अधिवेशन के अवसर पर दोनों में गंभीर मतभेद हो गया । इस वर्ष सभापति के लिए रासबिहारी बोस चुने गए; जबकि गरम दल वाले बाल गंगाधर तिलक को सभापति बनाना चाहते थे ।
इसी कारण दोनों में विवाद हो गया और तिलक तथा उनके साथी कांग्रेस से पृथक कर दिए गए । कांग्रेस से अलग होकर भी तिलक का सम्मान पूर्ववत रहा और वे निरंतर अपने संघर्षवादी विचारों का प्रचार करते रहे । 1907 में कांग्रेस का विभाजन हो गया ।
गरम दल वालों का अधिक दमन होने लगा । लाला लाजपतराय को गिरफ्तार करके 1907 ई॰ में बर्मा निष्कासित कर दिया गया और वर्ष के अंत में रिहा किया गया । 1908 ई॰ में तिलक को गिरफ्तार करके 6 वर्ष के लिए बर्मा निष्कासित कर दिया गया ।
गाँधीजी का राजनीति में प्रवेश:
भारतीय जनता के स्वतंत्रता के संघर्ष के इस नए दौर के महानतम नेता थे- मोहनदास करमचंद गाँधी । भारतीय राजनीति में उनका पदार्पण प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हुआ । आधुनिक भारत में गाँधीजी ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का करीब 30 वर्ष तक नेतृत्व किया । वे भारतीय जनता में महात्मा गाँधी के नाम से लोकप्रिय हुए ।
प्रारंभिक जीवन:
महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 ई॰ में गुजरात राज्य के पोरबन्दर नामक स्थान में हुआ । इंग्लैण्ड में अपना अध्ययन पूरा करने के बाद वे एक वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए । दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने वहाँ के अश्वेतों पर होने वाले गोरे शासकों के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष किया ।
उसी दौरान उन्होंने अत्याचारों के खिलाफ लड़ने का अपना तरीका विकसित किया इसे ‘सत्याग्रह’ कहा जाता है । सत्याग्रह करने वाला व्यक्ति हर प्रकार के कष्ट तथा दण्ड भोगने तथा जेल जाने के लिए तैयार रहता था । अत्याचार के विरूद्ध यह बुनियादी तौर पर एक अहिंसात्मक आंदोलन था ।
चंपारण, अहमदाबाद और खेडा आंदोलन:
1917 ई॰ और 1918 ई॰ के आरंभ में गाँधीजी ने तीन संघर्षों चंपारण आंदोलन (बिहार) अहमदाबाद और खेडा आंदोलन (गुजरात) में नेतृत्व किया । ये संघर्ष स्थानीय आर्थिक माँगों से जोड़कर लडे गए । 19वीं सदी के आरंभ में गोरे बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध करा लिया ।
जिसके तहत किसानों को अपनी जमीन के एक हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था । इसे ‘तिनकठिया’ पद्धति कहते थे । अंग्रेज नील उगाने वाले भारतीय किसानों पर भारी अत्याचार करते थे । इन किसानों को अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए 1917 ई॰ में गाँधी जी चंपारण गए ।
वहाँ उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दिया गया किंतु गाँधी जी ने उसको नहीं माना । उन्होंने किसानों पर हुए अत्याचारों की जाँच के लिए और उसका अंत करने के लिए सरकार को मजबूर कर दिया । 1918 ई॰ में उन्होंने अहमदाबाद के कपड़ा मिल मजदूरों और खेडा के किसानों को न्याय दिलाया ।
अहमदाबाद के मिल मजदूर वेतन में वृद्धि की माँग कर रहे थे और खेडा के किसान फसल बरबाद हो जाने के कारण राजस्व वसूली रोक देने की माँग कर रहे थे । चंपारण, (बिहार) अहमदाबाद और खेडा (गुजरात) आंदोलन ने संघर्ष के गाँधीवादी तरीकों को आजमाने और गाँधीजी को देश की जनता के नजदीक आने का अवसर दिया ।
समाज सुधार:
सामाजिक सुधार को गाँधी जी ने राष्ट्रवादी आंदोलन का एक अभिन्न अंग बनाया । समाज सुधार के क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान छुआछूत की उस अमानवीय प्रथा के विरोध में अभियान चलाना था, जिसने लाखों भारतीयों को अत्यंत निम्न स्थिति में पहुंचा दिया था । उनका दूसरा योगदान कुटीर उद्योगों के क्षेत्र में था ।
चरखे को उन्होंने ग्रामीण जनता की मुक्ति का साधन बताया । लोगों में राष्ट्रवाद की भावना भरने के अलावा चरखे से लाखों लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया । गाँधीजी ने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया । वे साम्प्रदायिकता को राष्ट्र विरोधी और अमानवीय समझते थे । महात्मा गाँधी सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे ।
होमरूल आंदोलन:
श्रीमती ऐनीबेसेन्ट 1893 ई॰ में भारत आईं और थियोसोफिकल सोसाइटी से सम्बद्ध रहीं । तिलक 1914 ई॰ में बर्मा के निर्वासित जीवन से मुक्त हुए और पुन: कांग्रेस में शामिल हो गए । अप्रैल 1916 में बाल गंगाधर तिलक ने इन्डियन होमरूल लीग तथा ऐनीबीसेन्ट ने सितम्बर 1916 में होमरूल लीग की स्थापना की, जिसका लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत भारतीयों के लिए स्वशासन प्राप्ति था ।
इस आंदोलन के महत्व का उल्लेख करते हुए विपिनचन्द्र पाल ने लिखा है: ‘होमरूल आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने भावी राष्ट्रीय आंदोलन के लिए जुझारू योद्धा तैयार किए ।’ होमरूल आंदोलन सोसाइटी के पं. मोतीलाल नेहरू, चितरंजनदास, तेज बहादुर सप्रू, रामास्वामी अय्यर, मोहम्मद अली, भूलाभाई देसाई आदि सदस्य थे ।
दमन:
बालगंगाधर तिलक और ऐनीबेसेन्ट दोनों ने अपने-अपने तरीके से होमरूल आन्दोलन का जोरदार प्रचार किया । इन दोनों के भाषणों का लोगों पर चमत्कारिक प्रभाव पड़ा इससे ब्रिटिश सरकार बैचेन हो गई और उसने इन दोनों नेताओं के प्रभाव को रोकने के लिए दमनात्मक तरीके अपनाए । आन्दोलनकारियों का कठोरता से दमन किया ।