Read this essay in Hindi to learn about the various religious movements that happened during eighth to twelfth century (Medieval Period) in India.

हिन्दू धर्म का पुनरूत्थान और प्रसार तथा बौद्ध और जैन धर्मो का निरंतर पतन इस काल की विशेषताएँ हैं । न सिर्फ बौद्धिक स्तर पर बौद्ध और जैन धर्मों के आचार-विचार को चुनौती दी गई बल्कि कभी-कभी तो जैन-बौद्ध भिक्षुओं का दमन भी किया गया ।

परंपरा के अनुसार मदुरै के पांड्‌य राजा ने शंबांडर नामक एक शैव प्रचारक के कहने पर बड़ी संख्या में जैन भिक्षुओं को मरवा डाला । ऐसे भी कुछ उदाहरण हैं, जब बौद्ध विहार और जैन मंदिर हथिया लिए गए । उदाहरण के लिए पुरी का मंदिर कभी एक बौद्ध मंदिर था ।

कुतब मीनार के पास का मंदिर कभी एक जैन मंदिर था पर बाद में उसे एक विष्णु मंदिर बना दिया गया । हमें नहीं पता कि ऐसी घटनाएँ कितनी व्यापक थी, लेकिन अगर ये घटनाएँ कभी-कभार ही होती थीं तो भी उनको उचित नहीं ठहराया जा सकता ।

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लेकिन वे मूर्ति और मंदिर-विनाश के किसी धार्मिक दर्शन का अग नहीं थीं जैसा कि आरंभिक अरब और बाद के तुर्क हमलावरों के बारे में कहा जा सकता है । इस काल में बौद्ध धर्म धीरे-धीरे पूर्वी भारत तक सिमट कर रह गया । पाल शासक बौद्ध धर्म के संरक्षक थे । दसवीं सदी के बाद पालों के पतन से इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म को भारी आघात लगा ।

लेकिन बौद्ध धर्म के आंतरिक विकासक्रम अधिक क्षति पहुँचाने वाले थे । बुद्ध ने एक व्यावहारिक दर्शन की शिक्षा दी थी जिसमें पुरोहित वर्ग का या ईश्वर संबंधी कल्पनाओं का स्थान नहीं था । अब बुद्ध की उपासना में काफी तामझाम पैदा हो गया । यह विश्वास मजबूत हुआ कि जादुई शब्दों (मंत्र) का उच्चारण करके और विभिन्न प्रकार के तांत्रिक कर्म करके एक उपासक अपनी इच्छा पूरी कर सकता है ।

उनका यह विश्वास भी था कि इन तौर-तरीकों से तथा विभिन्न प्रकार के निग्रह और गुप्त क्रियाओं के द्वारा वे पराप्राकृतिक शक्तियाँ पा सकते है, जैसे हवा में उड़ने, अदृश्य हो जाने, दूर की वस्तुओ को देख लेने आदि की शक्तियाँ । मनुष्य इस ढंग से प्रकृति पर नियंत्रण पाने के लिए हमेशा से तड़पता रहा है ।

किंतु तड़प भरी ऐसी अनेक इच्छाएं आधुनिक विज्ञान के विकास के सहारे ही पूरी हुई हैं । अनेक हिंदू योगियों ने भी इन तौर-तरीकों को अपनाया । उनमें सबसे प्रसिद्ध हुए गोरखनाथ । गोरखनाथ के अनुयायी नाथपंथी कहलाते थे और एक समय तो वे पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय थे । इनमें से अनेक योगी निचली जातियों के थे ।

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उन्होंने जातिप्रथा की भर्त्सना की और उन विशेषाधिकारों की भी जिनका दावा ब्राह्मण किया करते थे । उन्होंने जिस मार्ग पर चलने का उपदेश दिया वह जाति-भेदों से परे सभी के लिए खुला हुआ था । ये प्रथाएँ तत्र से एकाकार हो गई जो देवी माँ की उपासना पर आधारित था । तंत्र जो धीरे-धीरे पूरे भारत में फैल गया, बौद्ध धर्म के कुछ पक्षों तथा हिंदू विचारों और विश्वासों का मिलनस्थल था ।

जैन धर्म लोकप्रिय बना रहा खासकर व्यापारी समुदायों में । गुजरात के चालुक्य शासक जैन धर्म के संरक्षक थे । इसी काल में कुछ अत्यंत शानदार जैन मंदिरों का निर्माण हुआ जैसे आबू पर्वत के दिलवाड़ा मंदिर का । मालवा के परमार राजाओं ने भी जैन संतों की अनेक विशाल मूर्तियाँ बनवाईं और महावीर की भी जिनको भगवान रूप में पूजा जाने लगा ।

अनेक भागों में बनवाए गए शानदार जैनालय यात्रियों के विश्रामस्थल का काम भी करते थे । दक्षिण भारत में जैन धर्म नवीं और दसवीं सदियों में अपने चरम पर पहुँचा । कर्नाटक के गंग शासक जैन धर्म के महान संरक्षक थे । इस काल में अनेक भागों में बहुत-से जैन बासडियों (मंदिरों) और महास्तंभों का निर्माण हुआ ।

श्रावण बैलगोला की विशाल मूर्ति इसी काल में स्थापित हुई । यह मूर्ति कोई 18 मीटर ऊँची है और ग्रेनाइट की चट्‌टान तराशकर बनाई गई है । इसमें संत को खड़ी मुद्रा में, कठोर विग्रह का पालन करते दिखाया गया है; पैर के पास उमड़-घुमड़ रहे साँपों का और बदन पर बन गई बांबियों का उन्हें कोई ध्यान नहीं है ।

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चार उपहारों (ज्ञान, भोजन, औषधि और आवास) के जैन सिद्धांत ने जैन धर्म को जनता के बीच लोकप्रिय बनाया । कालांतर में बढ़ती जड़ता और राजसी संरक्षण की समाप्ति के कारण जैन धर्म का पतन हुआ । हिंदू धर्म का पुनरूत्थान और प्रसार अनेक रूपों में हुआ ।

शिव और विष्णु अब प्रमुख देवता हो गए तथा उनकी श्रेष्ठता जतलाने के लिए अनेक मंदिर बनाए गए । इस प्रक्रिया में अनेक देता-देवता जिनमें हिंदू धर्म में शामिल की गई जनजातियों के देवी-देवता भी थे को उनके अधीन स्थान मिला या उनकी पत्नियाँ बना दी गई ।

पूर्वी भारत में देवताओं की पत्नियाँ स्वयं ही उपासना की प्रमुख पात्र बन गई जैसे बुद्ध की पत्नी तारा शिव की पत्नी दुर्गा या काली आदि । फिर भी शिव और विष्णु के संप्रदायों का उदय सांस्कृतिक समन्वय की एक प्रक्रिया के आगे बढ़ने का सूचक था ।

इस तरह समाज के बिखराव के काल में धर्म ने एक सकारात्मक भूमिका निभाई । परंतु धार्मिक पुनरूत्थान ने ब्राह्मणों की शक्ति और दंभ को भी बढ़ाया । इसके फलस्वरूप ऐसे लोक-आंदोलनों की एक शृंखला ही पैदा हो गई जो ब्राह्मणों को निशाना बनाते थे तथा मानव की समानता और स्वतंत्रता जैसे तत्वों पर जोर देते थे ।

उत्तर भारत में तंत्रवाद के विकास जिसमें किसी भी जाति का व्यक्ति शामिल हो सकता था । लेकिन दक्षिण भारत का भक्ति आंदोलन उससे कहीं बहुत अधिक महत्वपूर्ण और व्यापक था । भक्ति आंदोलन का नेतृत्व अनेक जनप्रिय संतों ने किया जो नयनार और आलवार कहलाते थे ।

इन संतों ने इंद्रियों के दमन को धर्म का मुख्य रूप मानना अस्वीकार किया । वे धर्म को रूखी औपचारिक उपासना का विषय न मानकर आराध्य और आराधक के बीच प्रेम पर आधारित एक जीवंत संबंध समझते थे । उनकी आराधना के प्रमुख पात्र शिव और विष्णु थे । वे मुख्यत: तमिल में बोलते-लिखते थे जिनको हर व्यक्ति समझता था । अपना प्रेम और समर्पण का संदेश लेकर ये संत जगह-जगह गए । कुछ का संबंध निचले वर्गो से था हालांकि उनमें से कम से कम एक तो ब्राह्मण था ही ।

अंदाल नामक एक स्त्री संत भी हुई है । वे लगभग सभी जातिगत असमानताओं को ठुकरात थे हालांकि उन्होंने अपने आप में जातिप्रथा का विरोध करने की कोशिश नहीं की । निचली जातियों को वैदिक अध्ययन और वैदिक उपासना से अलग रखा गया था । इन संतों ने जिस भक्तिमार्ग का उपदेश दिया वह हर एक के लिए खुला हुआ था चाहे उसकी जाति कुछ भी हो ।

भक्ति आंदोलन न केवल बौद्ध-जैन धर्मो के अनेक समर्थकों को हिंदू धर्म के दायरे में ले आया बल्कि उसने अनेक जनजातीय लोगों को भी आकर्षित किया । नाथ मुनि के नेतृत्व में अनेक आचार्यों ने आलवारों की शिक्षाओं को संकलित करके उन्हें व्यवस्थित रूप दिया और उन्हें वेदों के समकक्ष घोषित किया ।

मंदिरों में इन आरंभिक संतों और उनकी रचनाओं की पूजा होने लगी तथा कर्मकांडों और अनुष्ठानों का एक नया ढाँचा खड़ा कर दिया गया । इनमें से अनेक का अनुकरण आज भी हो रहा है । बारहवीं सदी में पैदा होने वाला एक और लोक-आंदोलन लिंगायत या वीरशैव आंदोलन था ।

इसके संस्थापक बासव और उसका भतीजा चन्नबासव थे जो कर्नाटक के कलचूरी राजाओं के दरबार में थे । ये लिंगायत शिव के उपासक थे । उन्होंने जाति प्रथा का जोरदार विरोध किया तथा व्रत भोज तीर्थयात्रा और बलि को अस्वीकार कर दिया । सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने बाल-विवाह का विरोध किया तथा विधवाओं को पुनर्विवाह की छूट दी ।

इस तरह दक्षिण और उत्तर भारत दोनों में हिंदू धर्म का पुनरूत्थान और प्रसार दो रूपों में हुआ- एक ओर तो वेदों और वैदिक उपासना पर नए सिरे से जोर दिया गया और साथ में एक शक्तिशाली साहित्यिक और बौद्धिक आंदोलन का सिलसिला चल निकला । दूसरी ओर एक लोक-आंदोलन का सूत्रपात हुआ जो इस काल में उत्तर भारत में तंत्र और दक्षिण भारत में भक्ति पर आधारित था ।

तंत्र और भक्ति दोनों ही जातिगत असमानताओं को ठुकराते थे और दोनों के द्वार सबके लिए खुले हुए थे । बौद्धिक स्तर पर जैन-बौद्ध धर्मो को सबसे गंभीर चुनौती शंकर ने दी जिन्होंने हिंदू दर्शन को नए सिरे से प्रस्तुत किया ।

शकर का जन्म केरल में हुआ था, संभवत: नवीं सदी में । उनसे बहुत-सी कथाएँ जुड़ी हुई हैं । कहा जाता है कि जैनियों के दमन का शिकार होने के बाद उन्होंने उत्तर भारत की विजय-यात्रा की, जहाँ उन्होंने अपने विरोधियों को शास्त्रार्थो में हराया । यह विजय-यात्रा इस तरह पूरी हुई कि उनकी मदुरै-वापसी पर राजा ने उत्साह के साथ उनका स्वागत किया और जैनियों को दरबार से निकाल बाहर किया ।

शंकर के दर्शन को अद्वैतवाद कहा जाता है । शकर की राय में ब्रह्म और जगत एक हैं, उनका अंतर यथार्थ नहीं बल्कि आभासी है और अज्ञान की उपज है इसी का एक अंग माया है । ईश्वर के प्रति समर्पण मुक्ति का मार्ग है जो इस ज्ञान से पुष्ट होता है कि ब्रह्म और जगत के प्राणी एक हैं । शंकर ने वेदों को सच्चे ज्ञान का स्रोत ठहराया ।

शंकर के ज्ञानमार्ग पर कुछ ही लोग चल सकते थे । शंकर ने भक्ति मार्ग को अस्वीकार नहीं किया जिस पर चलकर भक्त प्रभु से एकाकार हो जाता है । पर इसके लिए ज्ञान के सहारे हृदय को शुद्ध करने की आवश्यकता थी । इसलिए यह जनता को प्रभावित नहीं कर सका ।

नाथ मुनि और उनके बाद के सभी आचार्य रूढ़िवादी ब्राह्मण थे । उनका तर्क था कि भक्ति का मार्ग केवल तीन द्विज वर्गो कें लिए खुला हुआ है और इसके लिए ब्राह्मणों द्वारा निर्धारित कर्मकांडों का सम्यक व्यवहार और धर्मग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है ।

ग्यारहवीं सदी में एक और प्रसिद्ध आचार्य रामानुज ने वेदों की परंपरा से भक्ति को जोड़ने की कोशिश की । उनका तर्क था कि मुक्ति के लिए प्रभु के ज्ञान से अधिक महत्व कृपा का है ।

रामानुज ने इस बात पर जोर दिया कि प्रपत्ति अर्थात प्रभु पर पूर्ण निर्भरता या उनके प्रति समर्पण का मार्ग शूद्रों और दलितों समेत सभी के लिए खुला हुआ है । इस तरह रामानुज ने भक्ति पर आधारित लोक आंदोलन और वेदों पर आधारित उच्चजातीय आंदोलन के बीच एक पुल बाँधने की कोशिश की ।

रामानुज द्वारा स्थापित परंपरा को अनेक विचारकों ने अपनाया जैसे माधवाचार्य (दसवीं सदी) ने और उत्तर भारत में रामानंद, वल्लभाचार्य और अन्य संतों ने । इस प्रकार अपने जनप्रिय रूप में भाव आंदोलन सोलहवीं सदी के आरंभ होते-होते तक हिंदू समाज के सभी हिस्सों को स्वीकृत हो गया ।

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