Here is an essay on the ‘Self and Identity’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Self and Identity’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. आत्म एवं पहचान (Self and Identity):

आत्म एवं पहचान का सन्दर्भ हमारे चारों ओर के पर्यावरण वे जुडाव रखता है । मानव अपनी बाल्यावस्था से जैसे-जैसे बाहर आता है, अर्थात् बड़ा होता है उसके आत्म का विकास होता जाता है । वह अपने चारों ओर के वातावरण के प्रति जागरुक होने लगता है ।

यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि मानव के आत्म अवधारणा का सन्दर्भ सदैव उसके माता-पिता अभिभावक गरुजन शिक्षक मित्रगण आदि से सम्बन्धित होता है । वह प्रतिक्रिया, अन्त:क्रिया आदि करता है, उसे अनुभव होते हैं और ये अनुभव उसको अर्थ प्रदान करते हैं और यही अनुभव उसके आत्म का आधार बनते हैं जिसके कारण उसकी आत्म प्रतिबिम्बित प्रतिमाएँ बनती हैं ।

आत्म-अवधारणा व्यक्ति की पहचान का पक्ष प्रस्तुत करती है, तो आत्मप्रतिबिम्ब प्रतिमाएँ व्यक्ति के आत्म-सम्मान (Self-Esteem), आत्म-सक्षमता (Self Efficiency) तथा आत्म नियमन (Self Regulation) आदि के विषय में प्रस्तुतीकरण देती है । इनकी हम अध्याय के अग्र भाग में चर्चा करेंगे आत्म-ज्ञान और दूसरे लोगों के बारे में जो हमारे अनुभव होते हैं, उन्हीं आधारों पर आत्म की संरचना में परिवर्तन सम्भव होता है ।

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यदि आप उपर्युक्त प्रयास को पूरा कर लेने के बाद उन वाक्यों की सूची का अपने दूसरे मित्रों से आदान-प्रदान कर लें तो आप इस बात का अनुभव अवश्य कर सकते है, कि किस प्रकार तादात्मीकरण की वस्तुस्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है ?

आत्म एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी अध्ययन न केवल यह जान लेने में कि अमुक कौन है वरन् स्वयं का परिचय तथा अन्य व्यक्तियों से हमारी समानताएँ आदि को समझाने में सहायता करता है ।

आत्म एवं व्यक्तित्व का ज्ञान दूसरों के व्यवहार, उनके संस्कार, तौर-तरीके आदि के आधार पर भी समझा जा सकता है, जो हमारे एवं आपके अस्तित्व का निर्धारण करते हैं तथा ऐसे तरीकों की ओर इंगित करते हैं जिसमें हमारे अनुभव संगठित एवं व्यावहारिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं ।

प्राय: आपने यह देखा होगा कि कुछ परिस्थितियों में आप दूसरों से भिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया एवं व्यवहार करते हैं, अथवा अपने व दूसरों के व्यवहारों का मूल्यांकन करते हैं, ऐसा इसलिए होता है कि व्यक्ति का अपना आत्म एवं समाज के अन्य व्यक्तियों के आत्म में कुछ भिन्न विशेषीकरण होता है ।

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इसको व्यक्तिगत अनन्यता एवं सामाजिक अनन्यता के अन्तर्गत समझा जा सकता है:

1. व्यक्तिगत अनन्यता (Personal Identity):

व्यक्तिगत अनन्यता से अर्थ व्यक्ति के उन गुणों से है, जो उसे दूसरों से अलग करते हैं । जब कोई व्यक्ति अपने नाम (जैसे-मेरा नाम अनमोल अथवा राघव है) अथवा अपनी विशेषताओं (जैसे- मैं ईमानदार एवं मेहनती हूँ) अथवा अपनी क्षमताओं (जैसे – मैं कलाकार अथवा गायक हूँ) अथवा अपने विश्वासों (जैसे – मैं ईश्वर अथवा नियति में विश्वास रखता हूँ) का वर्णन करता/करती हूँ तो वह अपनी व्यक्तिगत अनन्यता को प्रदर्शित करता/करती है ।

2. सामाजिक अनन्यता (Social Identity):

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सामाजिक अनन्यता से अर्थ व्यक्ति के उन पक्षों से है, जो उसके किसी सामाजिक अथवा सांस्कृतिक समूह से सम्बन्ध रखते हैं । जब कोई व्यक्ति कहता है, कि वह एक हिन्दू है अथवा मुस्लिम है, ब्राह्मण है अथवा आदिवासी है, उत्तर भारतीय है अथवा दीक्षण भारतीय है, या इसी प्रकार का कोई अन्य वक्तव्य देता है, तो वह अपनी सामाजिक अनन्यता के बारे में जानकारी देता है ।

इस प्रकार के वर्णन उन तरीकों का विशेषीकरण करते हैं, जिनके आधार पर लोग व्यक्ति के रूप में स्वयं का मानसिक स्तर पर प्रतिरूपण करते हैं । अत: आत्म का अर्थ अपने सन्दर्भ में व्यक्ति के अनुभवों विचारों चिन्तन एवं भावनाओं की समग्रता से है । व्यक्ति के यही अनुभव एवं विचार व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर व्यक्ति के अस्तित्व को परिभाषित करते हैं ।

आत्मगत रूप में आत्म एवं वस्तुगत रूप में आत्म (Self in Selfness and Self in a Thing):

आत्मगत् रूप में व्यक्ति स्वय को दो रूपों में देखने का प्रयास करता है- प्रथम, जिसके अन्तर्गत आत्मबोध की संज्ञा होती है । द्वितीय, वह संज्ञा उसे वस्तुगत आत्म का बोध कराती है अर्थात् जिसके द्वारा उसने वह प्रयास किया है ।

आत्म को आत्मगत एवं वस्तुगत दोनों रूपों में समझा जा सकता है । जब हम यह कहते हैं कि, ”मैं जानता हूँ, कि मैं कौन हूँ” तो आप आत्म का वर्णन ‘जानने वाले’ के रूप में ही कर रहे हैं या फिर उस रूप में कर रहे हैं ‘जिसे जाना जा सकता है’ |

स्वयं को जानने की प्रक्रिया ही आत्मगत कहलाती है, जबकि वस्तुगत (परिणामी) रूप में आत्म प्रेक्षित होता है और जान लिये जाने वाले तथ्य के रूप में होता है ।

Essay # 2. आत्म के प्रकार (Kinds of Self):

आत्म को विभिन्न प्रकार एवं रूपों में जाना जाता है । आत्म के इन विभिन्न रूपों का निर्माण भौतिक एवं समाज-सांस्कृतिक पर्यावरणों द्वारा होने वाली अन्तर्क्रियाओं के परिणामस्वरूप ही सम्भव होता है ।

हम आत्मतत्व के मूलतत्व पर उस समय ध्यान आकर्षित करते हैं, जब एक नवजात शिशु भूखा होने पर दूध के लिए जोर-जोर से रोता है, जबकि बालक की यह चीख प्रतिवर्ष परिवर्तित होती है । आगे चलकर इस जागरूकता के विकास के रूप में कि ‘मैं भूखा हूँ’ परिवर्तित हो जाता है ।

सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण में यह जैविक आत्म स्वयं को बदल देता है । आप एक चॉकलेट के लिए भूख महसूस कर सकते हैं, जबकि एक एस्किमो ऐसा अनुभव नहीं कर सकता है ।

व्यक्तिगत आत्म एवं सामाजिक आत्म के बीच भेद (Difference between Personal Self and Social Self):

व्यक्तिगत आत्म (Personal Self):

इसमें एक ऐसा आभास होता है, जिसमें व्यक्ति मुख्य रूप से अपने बारे में ही सम्बद्ध होने का अनुभव करता है । जैसे कि अभी हम लोगों ने पढ़ा कि जैविक आवश्यकताएँ ‘जैविक आत्म’ को कैसे विकसित करती हैं ? अपितु शीघ्र ही बच्चे की उसके पर्यावरण में मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आवश्यकताएँ उसके व्यक्तिगत आत्म के रूप में उत्पन्न होने लगती हैं ।

किन्तु इन पंक्तियों में जीवन के उन पक्षो पर बल होता है, जो उस व्यक्ति से जुडी होती हैं; जैसे- व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व, व्यक्तिगत उपलब्धि व्यक्तिगत सुख-सुविधाएं आदि ।

सामाजिक आत्म (Social Self):

सामाजिक आत्म का स्पष्टीकरण प्राय: दूसरों के सम्बन्ध में होता है, जिसके अन्तर्गत सहयोग, एकता, सम्बन्धन, त्याग, समर्थन अथवा भागीदारी जैसे जीवन के प्रमुख पक्षों की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है । इस प्रकार आत्म परिवार और सामाजिक सम्बन्धों को महत्व देता है । अत: इस आत्म को पारिवारिक अथवा सम्बश्वात्मक आत्म (Relational Self) के रूप में भी जाना जाता है ।

Essay # 3. आत्म प्रतिबिम्बित प्रतिमाएँ (Self Mirror Images):

संसार के प्रत्येक भाग के मनोवैज्ञानिकों ने आत्म प्रतिमाओं के अध्ययन में अभिरुचि दर्शायी है । इन अध्ययनों के द्वारा व्यवहार के कुछ ऐसे पक्षों को दर्शाया गया है, जिनका सम्बन्ध आत्म से होता है जैसा कि हम पहले पढ़ चुके हैं कि प्रत्येक मनुष्य यह जानने का इच्छुक होता है कि हम कौन हैं और क्या बात हमको दूसरों से भिन्न बनाती है ?

हम अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक अनन्यताओं से जुड़े रहते हैं और ज्ञान से कि ये अनन्यताएँ आजीवन स्थिर रहेंगी, हम सुरक्षित अनुभव करते हैं । जिन कारणों से हम अपने आपका प्रत्यक्षण करते हैं और अपने गुणों और क्षमताओं के विषय में जो विचार रखते हैं, उसी को आत्म-संप्रत्यय या आत्म-धारणा (Self Concept) कहा जाता है ।

अति सामान्य स्तर पर अपने विषय में इस प्रकार की धारणा या तो सकारात्मक होती है या नकारात्मक । इससे अधिक विशिष्ट स्तर पर एक व्यक्ति अपनी शैक्षिक योग्यता हेतु अपने खेलकूद की बहादुरी के प्रति सकारात्मक धारणा रख सकता है या उसके लिए गणितीय कौशलों की अपेक्षा अपनी पठन-योग्यता के प्रति सकारात्मक आत्म-संप्रत्यय के बारे में जानकारी प्राप्त करना आसान नहीं होता है ।

यहाँ हम आत्म प्रतिबिम्बित प्रतिमाओं को निम्नवत् रूपों में समझने का प्रयास करेंगे:

1. आत्म-सम्मान (Self-Esteem):

आत्म-सम्मान हमारे आत्म का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । मानव के रूप में हम हमेशा ही अपने मूल्य अथवा मान और अपनी योग्यता के विषय में आकलन करते रहते हैं । मानव का अपने बारे में यह मूल्य-निर्णय ही आत्म-सम्मान (Self-Esteem) कहलाता है ।

कुछ लोगों में आत्म-सम्मान उच्चस्तरीय होता है, जबकि कुछ लोगों में आत्मसम्मान निम्नस्तरीय ही होता है, किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान का मूल्यांकन करने के लिए व्यक्ति के सम्मुख विभिन्न प्रकार के कथन प्रस्तुत किये जाते हैं, तत्पश्चात् उस व्यक्ति से पूछा जाता है कि प्रस्तुत किये गए कथन उसके सन्दर्भ में सही हैं यह बतायें ।

उदाहरणार्थ; किसी बालक/बालिका से यह पूछा जा सकता है कि, “मैं गृहकार्य करने में अच्छा हूँ” या “मुझे भिन्न-भिन्न प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए चुना जाता है” या “मेरे मित्रों द्वारा मुझे बहुत पसन्द किया जाता है” जैसे कथन उसके सन्दर्भ में कहीं तक सही हैं ?

यदि बालक/बालिका यह बताता/बताती है, कि प्रस्तुत कथन उसके सन्दर्भ में सही हैं तो उसका आत्म-सम्मान उस दूसरे बालक/बालिका की तुलना में अत्यधिक होगा जो यह बताता/बताती है, कि यह कथन उस व्यक्ति के विषय में सही नहीं है ।

उपरोक्त अध्ययनों से यह जानकारी प्राप्त होती है, कि छ: से आठ वर्ष तक के बच्चों में आत्मसम्मान के चार क्षेत्रों में उत्पत्ति हो जाती है- सामाजिक क्षमता, शैक्षिक क्षमता, शारीरिक/खेलकूद सम्बन्धी क्षमता और शारीरिक रूप से जो आयु के बढने के साथ-साथ और अधिक श्रेष्ठ होता जाता है ।

अपनी स्थिर प्रवृतियों के अनुरूप अपने प्रति धारणा बनाने की क्षमता हमें अलग-अलग मूल्यांकनों को जोड़कर अपने बारे में एक सामान्य मनोवैज्ञानिक प्रतिमा निर्मित करने का अवसर देती है । इसी तथ्य को हम आत्म-सम्मान की भावना के रूप में जानते हैं ।

हमारे दैनिक जविन के व्यवहारों द्वारा आत्म-सम्मान अपना घनिष्ठ सम्बन्ध दर्शाता है । उदाहरणार्थ; जिन बच्चों में आत्म-सम्मान उच्च होता है, उनका निष्पादन विद्यालयों में निम्न आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में अधिक होता है और जिन छात्रों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है, उनको निम्न सामाजिक आत्म-सम्मान रखने वाले छात्रों की तुलना में सहपाठियों द्वारा अधिक पसन्द किया जाता है ।

दूसरी ओर जिनमें दुश्चिन्ता, अवसाद और समाजविरोधी व्यवहार पाया जाता है उन छात्रों में सभी क्षेत्रों में निम्न आत्म-सम्मान होता है । इन अध्ययनों से यह पता चलता है कि जो माता-पिता अपने बच्चों का पालन-पोषण अत्यधिक प्रेमपूर्वक करते हैं उन बालको में आत्मसम्मान भी उच्च ही विकसित होता है क्योंकि ऐसा होने पर बालक अपने आपको अत्यधिक सक्षम एवं योग्य समझता है ।

माता-पिता जिन बच्चों के सहायता न माँगने पर भी उनके निर्णय स्वयं लेते है उन बच्चों में आत्म-सम्मान का स्तर निम्न पाया जाता है ।

2. आत्म-सक्षमता (Self-Efficacy):

आत्म-सक्षमता हमारे आत्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष है । अनेक व्यक्ति इस बात में विश्वास रखते हैं, कि वे अपने जीवन के परिणामों को स्वयं नियन्त्रित कर सकते हैं जबकि इसके विपरीत कुछ व्यक्ति उनके जीवन के परिणाम नियति भाग्य अथवा अन्य स्थितिपरक कारकों के द्वारा नियन्त्रित होते हैं; जैसे-परीक्षा में उत्तीर्ण होना ।

यदि कोई व्यक्ति ऐसा विश्वास रखता है, कि उसकी योग्यता स्थिति विशेष की माँग के अनुसार है तो उसमें उच्च आत्म-सक्षमता की भावना उत्पन्न हो जाती है और उसके प्रयास में अभूतपूर्व वृद्धि भी हो जाती है । आत्म-सक्षमता की अवधारणा बंदूरा (Bandura) के सामाजिक अधिगम सिद्धान्त पर आधारित है ।

बंदूरा के प्रारम्भिक शोध इस बात को दर्शाते हैं, कि बने एवं वयस्क दूसरों का प्रेक्षण एवं अनुकरण कर व्यवहारों को सीखते हैं । लोगों के द्वारा अपनी निपुणता और उपलब्धि की प्रत्याशाओं तथा अपनी प्रभाविता के प्रति दृढ़ विश्वास से भी यह ज्ञात होता है, कि वे किस प्रकार के व्यवहारों में निपुण होंगे और विशेष व्यवहार को सम्पादित करने में कितना जोखिम उठायेंगे ?

आत्म-सक्षमता की तीव्र इच्छा लोगों को अपनी परिस्थितियों का चयन करने, उनको प्रभावपूर्ण बनाने तथा उनका निर्माण करने के लिए भी प्रेरित करती है । आत्म-सक्षमता की प्रबल भावना रखने वाले लोगों में डर का अनुभव भी कम होता है ।

आत्म-सक्षमता का विकास किया जाता है । यह देखा गया है, कि जिन लोगों में उच्च सक्षमता अधिक होती है, वे लोग मदिरा का सेवन न करने का निर्णय लेने के पश्चात् इस बात पर तुरन्त अमल कर लेते हैं ।

बच्चों के प्रारम्भिक वर्षों में सकारात्मक प्रतिरूपों या मॉडलों को प्रस्तुत कर हमारा समाज अपने सकारात्मक अनुभव हमारे माता-पिता आत्म-सक्षमता की प्रबल भावना को विकसित करने में सहायक हो सकते हैं, जो कि आत्म-नियमन की ओर इंगित होते हैं ।

3. आत्म-नियमन (Self-Regulation):

आत्म-नियमन (Self-Regulation) से अभिप्राय अपने व्यवहार को संगठित और जाँचने की योग्यता से है । जिन लोगों में बाहरी पर्यावरण की माँगों के अनुकूल अपने व्यवहार को परिवर्तित करने की क्षमता होती है, वे आत्म-परिवीक्षण में उच्च होते हैं । जीवन की बहुत-सी परिस्थितियों में स्थितिपरक दबावों के प्रति प्रतिरोध और खुद पर नियन्त्रण की जरूरत होती है ।

यह सम्भव है, कि जिसे हम ‘संकल्प शक्ति’ के रूप में जानते हैं, मानव रूप में हम जिस प्रकार भी चाहे अपने व्यवहार को नियन्त्रण में रख सकते हैं । प्राय: मनुष्य अपनी कुछ आवश्यकताओं की सन्तुष्टि को विलम्बित अथवा आस्थगित कर देते है ।

आत्म-नियन्त्रण (Self-Control), आवश्यकताओं के परितोषण को आस्थगित अथवा विलम्बित करने के व्यवहार को सीखना कहा जाता है । दीर्घावधि लक्ष्यों की प्राप्ति में आत्म-नियन्त्रण एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है ।

भारतीय सास्कृतिक परम्पराएँ हमें कुछ ऐसे प्रभावपूर्ण उपाय प्रदान करती हैं, जिनके द्वारा आत्म-नियन्त्रण विकसित होता है (उदाहरणार्थ – व्रत करना और सांसारिक वस्तुओं के प्रति त्याग का भाव रखना) । आत्म-नियन्त्रण हेतु विभिन्न मनोवैज्ञानिक तकनीके प्रदर्शित की गई हैं ।

अपने व्यवहार का प्रेक्षण (Observation of own Behaviour) एक तकनीक है, जिसके द्वारा आत्म के अनेक पक्षों को परिमार्जित, परिवर्तित अथवा सशक्त करने के लिए आवश्यक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं । आत्म-अनुदेश (Self-Instruction) एक दूसरी महत्वपूर्ण तकनीक है ।

हम सदैव अपने आपको कुछ करने तथा इच्छित ढंग से व्यवहार करने के लिए अनुदेश देते हैं । ऐसे अनुदेश आत्म-नियमन में प्रभावपूर्ण होते हैं एवं आत्म-प्रबलन (Self-Reinforcement) एक तीसरी तकनीक है । ऐसे व्यवहारों को पुरस्कृत किया जाता है, जिनके परिणाम सुखद होते हैं ।

उदाहरणार्थ; यदि आपने अपनी परीक्षा में अच्छा निष्पादन किया है, तो आप अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने जा सकते हैं । ये तकनीकें प्रयोग में लाकर आत्म-नियमन और आत्म-नियन्त्रण के सन्दर्भ में अत्यन्त प्रभावी मानी गई हैं ।

Essay # 4. संस्कृति एवं आत्म (Culture and Self):

भारतीय संस्कृति में आत्म का विश्लेषण विभिन्न महत्वपूर्ण पक्षों को स्पष्ट करता है, जो पाश्चात्य संस्कृति में पाये जाने वाले पक्षों से पृथक् होते हैं । भारतीय और पाश्चात्य अवधारणाओं के बीच एक महत्वपूर्ण भेद इस बात को लेकर है कि आत्म और दूसरे अन्य समूहों के मध्य किस प्रकार तक सीमा निर्धारित की गई है ?

पाश्चात्य अवधारणा के अन्तर्गत यह सीमा रेखा अपेक्षाकृत स्थिर और दृढ़ प्रतीत होती है । इसके विपरीत दूसरी ओर भारतीय अवधारणा में आत्म और अन्य के बीच सीमा रेखा स्थिर न होकर परिवर्तनशील बताई गई है ? अत: इस प्रकार एक समय में व्यक्ति का आत्म अन्य ‘सब कुछ’ को अपने में अन्तर्निहित करता हुआ पूरे ब्रह्माण्ड में विलीन होता हुआ महसूस होता है ।

अपितु दूसरे समय में आत्म अन्य सबसे पूर्णतया विनिवर्तित होकर वैयक्तिक आत्म (उदाहरणार्थ; हमारी वैयक्तिक आवश्यकताएँ एवं लक्ष्य) पर केन्द्रित होता हुआ प्रतीत होता है । पाश्चात्य अवधारणा आत्म और दूसरे प्राणी और प्रकृति तथा आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ के बीच स्पष्ट विभाजन करती हुई प्रतीत होती है । भारतीय अवधारणा इस प्रकार कोई स्पष्ट विभाजन नहीं करती है ।

निम्न चित्र में इस सम्बन्ध को समझाने का प्रयास किया गया है:

पाश्चात्य संस्कृति में आत्म और समूह स्पष्टतया परिभाषित सीमा रेखाओं के साथ दो पूथक इकाइयों के रूप में स्वीकृत किये गये हैं । व्यक्ति समूह का सदस्य होने के साथ-साथ अपनी वैयक्तिकता बनाये रखता है, जबकि भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत आत्म को व्यक्ति के अपने समूह से अलग नहीं किया जाता है; बल्कि दोनों सामंजस्यपूर्ण सह अस्तित्व के साथ बने रहते हैं ।

दूसरी ओर पाश्चाल्प संस्कृति में दोनों के मध्य एक दूरी बनी रहती है । अत: विभिन्न पाश्चात्य संस्कृतियों का व्यक्तिवादी और विभिन्न एशियाई संस्कृतियों का सामूहिकतावादी संस्कृति के रूप में विशेषीकरण किया जाता है, जिनके द्वारा वहाँ का समाज अपना जीवन यापन करता है ।

उपर्युक्त व्याख्या में आपने आत्म-सम्प्रल्पय एवं आत्म-प्रतिबिम्बित प्रतिमा (Self Concept and Self Mirror Images) के विषय में अध्ययन किया ।

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