Read this essay in Hindi to learn about the various theories used for understanding emotions of an individual.

Essay # 1. जेम्स लॉज सिद्धान्त (James Lodge Theory):

सन् 1885 में डेनमार्क के दैहिक मनोवैज्ञानिक लॉज ने अपना स्वतन्त्र रूप से संवेग विषय सिद्धान्त प्रस्तुत किया तथा सन् 1884 में प्रसिद्ध अमेरिकन मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स (William James) ने अपना संवेग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया ।

जेम्स एवं लॉज ने संयुक्त रूप से 1880 के लगभग अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । चूंकि उनके निष्कर्ष एक-दूसरे से मेल रखते थे, इसलिए इसे एक ही सिद्धान्त जेम्सलॉज सिद्धान्त का नाम दिया गया ।

अपनी पुस्तक ‘Psychology’ में जेम्स ने अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार है कि ”मेरा सिद्धान्त यह है, कि शारीरिक परिवर्तन उद्दीपक प्रत्यक्ष के तुरन्त बाद होते हैं और जैसे ये परिवर्तन घटित होते हैं उसी रूप में उनकी अनुभूति संवेग है । सामान्य लोक बुद्धि कहती है, कि हम अपनी सम्पत्ति खोते हैं हमें शोक होता है हम रोते हैं । जब हम रीछ को देखते हैं, भयभीत होते हैं और भागते हैं । हम प्रतिद्वन्दी से अपमानित होते हैं, क्रोधित होते हैं और आक्रमण करते हैं । इससे अधिक तर्कसंगत कथन यह है कि हमें शोक होता है क्योंकि हम रोते हैं । हम क्रोधित होते हैं, क्योंकि हम आक्रमण करते हैं हम भयभीत होते हैं क्योंकि हम काँपते हैं ।”

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इसी प्रकार लॉज ने भी शारीरिक क्रियाओं को ही संवेग का कारण माना है । लॉज लिखते हैं, ”हमारे हर्षो और विषादों के लिए हमारे आनन्दों और व्यवस्थाओं के लिए हमारे मानसिक जीवन के सम्पूर्ण संवेगात्मक पहलू के लिए वाहिनी पेशी संस्थान उत्तरदायी है ।”

इस प्रकार जेम्स लॉज के सिद्धान्त के अनुसार पहले परिस्थिति का प्रत्यक्ष होने से शरीर में कई प्रकार के आन्तरिक परिवर्तन होते हैं और इन परिवर्तनों के ज्ञान से संवेग का अनुभव होता है । अत: इस प्रकार यह स्पष्ट है, कि संवेग शारीरिक संवेदनाओं का प्रतिमान (Pattern of Organic Sensation) है ।

बाहरी उत्तेजना एक या दो से अधिक इन्द्रियों को उत्तेजित करती है । उत्तेजना की संवेदना ज्ञानात्मक स्नायु प्रवाह से वृहद् मस्तिष्क तक पहुँचती है । जिससे उतेजना विशेष का ज्ञान होता है । इसके बाद स्नायु-प्रवाह माँसपेशियाँ तथा जठर में आ जाता है ।

माँसपेशियों तथा जठर के उत्तेजित हो जाने से उनके अन्दर से ज्ञानात्मक स्नायुप्रवाह द्वारा उत्तेजना के मस्तिष्क तक पहुंचने से संवेग की अनुभूति होती है ।

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इस प्रक्रिया को निम्न चित्र द्वारा समझा जा सकता है:

जेम्स लॉज के सिद्धान्त के पक्ष में युक्तियाँ निम्नलिखित हैं:

(i) आंगिक अभिव्यक्ति से रहित किसी संवेग की कल्पना नहीं की जा सकती है । जेम्स के अनुसार, ”यदि हम किसी संवेग की कल्पना करें और तब अपनी चेतना से उसकी शारीरिक अनुभूतियों के सब लक्षणों को हटाने की चेष्टा करें तो हम कोई ऐसी वस्तु नहीं पाते जिससे संवेग बन सके तथा जो कुछ भी बाकी बचता है । यह केवल बौद्धिक प्रत्यक्ष की अनुभूति शून्य तटस्थ अवस्था है ।”

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संवेग विशेष का अनुभव करने के लिए उसके अनुरूप शारीरिक आसन (Bodily Posture) का होना आवश्यक है । इसके बिना संवेग का अनुभव नहीं किया जा सकता ।

(ii) वस्तु का प्रत्यक्ष संवेग के जाग्रत किये गये बिना तुरन्त आगिक परिवर्तन उत्पन्न करता है । जेम्स के शब्दों में ”यदि हम जंगल में एक काली चलती-फिरती आकृति देखें तो खतरे के किसी स्पष्ट विचार के उत्पन्न होने से पहले ही हृदय की धड़कन तुरन्त रुक जाती है और हम हाँफने लगते हैं ।” यहाँ वस्तु के प्रत्यक्ष और आगिक क्रियाओं के बीच कोई संवेग नहीं है ।

(iii) अंशिक अभिव्यक्तियों का निरोध करने से उनसे सम्बन्धित संवेग का भी निरोध हो जाता है । यदि संवेग को प्रकट न होने दिया जाये तो उसका अन्त हो जाता है । जब कोई व्यक्ति दु:ख के कारण रोता है तब उसका रोना बन्द करने या उसको हँसाने की चेष्टा की जाती है क्योंकि यह समझा जाता है कि रोने की क्रिया बन्द हो जाने से उसका दु:ख दूर हो जायेगा या हँसने से वह प्रसन्न हो जायेगा और बहुधा होता भी ऐसा ही है ।

(iv) कृत्रिम रूप से आगिक अभिव्यक्तियाँ उत्पन्न करने से सम्बन्धित संवेग भी उत्पन्न हो जाते हैं । जेम्स ने नाटक और सिनेमा के पात्रों का उदाहरण देते हुए कहा है, कि वे अभिनय करते समय क्रोध, शोक आदि संवेगों की आगिक अभिव्यक्ति करने से इन संवेगों का अनुभव करने लगते हैं । मद्य तथा अन्य उत्तेजक दवाओं के सेवन से विभिन्न अंशिक दशाओं के उत्पन्न होने से विभिन्न संवेगों का अनुभव होने लगता है ।

(v) कुछ आंगिक उपद्रव भी संवेग उत्पन्न करते हैं, जेम्स ने इसका उदाहरण देते हुए कहा भी है कि ”यकृत के रोग अवसाद और चिड़चिड़ाहट उत्पन्न करते है, स्नायुविक रोग निराशा और भय उत्पन्न करते हैं ।” जेम्स के अनुसार वस्तुशून्य संवेग (Objectless Emotions) शरीर की रुग्णावस्था से उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार जेम्स लॉज के सिद्धान्त मे संवेग और आगिक संवेदनाओं में अन्तर नहीं किया गया है । वार्ड (Ward) के शब्दों में इस सिद्धान्त में ”संवेग आंगिक संवेदनाओं के पुंज हैं और ये पुंज सवेग हैं, दोनों सहचारी मात्र नहीं हैं, बल्कि अभिन्न भी हैं ।”

Essay # 2. कैनन सिद्धान्त (Cannons Theory):

कैनन सिद्धान्त की व्याख्या:

कैनन सिद्धान्त अथवा कैनन वार्ड सिद्धान्त आपात सिद्धान्त या हाइपोथैलेमिक सिद्धान्त भी कहलाता है क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं में हाइपोथैलेमस का स्राव मुख्य रूप से काम आता है । कैनन तथा उसके अनुयायियों के प्रयोगों का वर्णन जेम्स लॉज के सिद्धान्त के विरुद्ध पीछे किया जा चुका है ।

इस सिद्धान्त के अनुसार बृहद् मस्तिष्क  संवेगात्मक प्रदर्शन का केन्द्र है । जिसके दो भाग हैं- हाइपोथैलेमस और थैलेमस । उत्तेजना संग्राहकों को प्रभावित करती है, जिससे स्नायुप्रवाह ज्ञानवाही नाड़ियों से होकर थैलेमस में पहुँचता है । थैलेमस इस स्नायुप्रवाह में संवेगात्मक गुण जोड़कर उसको वृहद् मस्तिष्क में भेज देता है, जिससे व्यक्ति विशेष में संवेग का अनुभव उत्पन्न होता है ।

स्नायु प्रवाह को वृहद् मस्तिष्क में भेजते समय थैलेमस उसके कुछ भाग को जठर तथा स्केलिटल माँसपेशियों की ओर मोड़ देता है । इससे इनकी क्रियाओं में परिवर्तन हो जाता है ।

जेस्त्र लॉज के सिद्धान्त से कैनन का सिद्धान्त अधिक उपयुक्त है । यह कथन बिच्छल सत्य है कि सवेग के नियन्त्रण में हाइपोथैलेमस का हाथ रहता है । इस सिद्धान्त को मानने से यह भी समझ में आ जाता है कि सुषुम्ना नाड़ी को काट देने अथवा जठर की मन्द प्रतिक्रियाओं से संवेग पर प्रभाव क्यों नहीं पड़ता और एड्रिनल सन्धि के स्राव का इचेक्यान देने से संवेग क्यों नहीं उत्पन्न होते परन्तु यह मत सीमित और एकांगी है, जैसा कि लैश्ले ने अपने प्रयोगों में दिखलाया है, कैनन सिद्धान्त के द्वारा संवेग के सभी पहलुओं की व्याख्या नहीं की जा सकती ।

वास्तव में संवेगों में हाइपोथैलेमस के अतिरिक्त स्नायु सस्थान के अन्य भागों का भी हाथ रहता है । उदाहरण के लिए; संवेगों की अभियोजनशीलता (Adjustability) में हाइपोथैलेमस की अपेक्षा बृहद् मस्तिष्क का अधिक भाग रहता है ।

जेम्स लॉज एवं कैनन के सिद्धान्त को पूर्ण स्वीकृति न देते हुए लीपर ने भी एक सिद्धान्त का प्रस्तुतिकरण किया यहाँ इस सन्दर्भ में प्रेरणा सिद्धान्त एवं सक्रियकरण का सिद्धान्त समझ लेना अति उत्तम होगा ।

Essay # 3. प्रेरणा सिद्धान्त (Motivational Theory):

प्रेरणात्मक सिद्धान्त की व्याख्या:

अपने सिद्धान्त को आकस्मिक सिद्धान्त कहकर कैनन ने संवेग के अभियोजनात्मक तत्व पर जोर दिया है । परन्त लीपर (Leaper) ने प्रेरणात्मक सिद्धान्त उपस्थित करके संवेग को पूरी तरह प्रेरणात्मक बना दिया और प्रयोगों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि की इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक संवेग का एक विशेष लक्ष्य होता है जिससे संवेगात्मक क्रिया का संचालन और निर्देशन होता है ।

लीपर ने यह सिद्ध किया है, कि संवेग के समय के सभी शारीरिक परिवर्तन जीव के अभियोजन में सहायक होते है । श्वास गति, हृदय की धड़कन, रक्तचाप, पसीने का निकलना तथा जाठरिक परिवर्तन सभी जीव को आकस्मिक परिस्थिति से अभियोजन करने में सहायता देते हैं । सहानुभूतिक स्नायु-संस्थान के स्राव शरीर को कठिन परिश्रम के लिए प्रेरित करते हैं । परासहानुभूतिक क्रियाएँ शरीर के साधनों को सुरक्षित रखती हैं ।

प्रेरणात्मक सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Motivational Theory):

लीपर का यह प्रेरणात्मक सिद्धान्त कुछ हद तक सत्य अवश्य है, क्योंकि दैनिक अनुभव और व्यवहार में यह स्पष्ट जान पड़ता है कि संवेगात्मक क्रियाओं का लक्ष्य होता है और वे अभियोजन में सहायता करती है । उदाहरण के लिए साँप से भय उत्पन्न होने से हम भाग जाते हैं और इस प्रकार उसके दंश से बच जाते हैं ।

परन्तु यह संवेग की साधारण दशा में ही होता है, अत्यधिक भय की दशा में हम स्तम्भित हो जायेंगे और साँप हमें काट लेगा । इसी प्रकार अत्यधिक क्रोध आदि तीव्र संवेगावस्थाओं में व्यक्ति का परिस्थिति से अभियोजन सुधरने के स्थान पर और भी बिगड़ जाता है ।

मनोवैज्ञानिक ई.मीरा (E. Mira) ने भय के संवेग की छ: विकासात्मक दशाओं को दिखाकर संवेग के प्रेरणात्मक सिद्धान्त का खण्डन किया है । इस अध्ययन से जान पड़ता है, कि विकास की विभिन्न अवस्थाओं के साथ संवेग में निरोध (Inhibition) बढ़ता जाता है और उच्च नाड़ी केन्द्र की क्रियाएँ अवरुद्ध होती जाती हैं ।

अत: संवेग का प्रेरणात्मक सिद्धान्त सामान्य संवेगावस्था में तो कुछ सत्य प्रतीत होता है परन्तु संवेगावस्था में तीव्रता के बढ़ने के साथ वह ठीक नही जँचता क्योंकि इस दशा में संवेग की क्रियाएँ अभियोजनात्मक नही होतीं |

Essay # 4. सक्रियकरण सिद्धान्त (Activation Theory):

संवेग के विषय में सक्रिय करण सिद्धान्त नवीनतम सिद्धान्त है । यह सिद्धान्त उपरोक्त सभी सिद्धान्तों के महत्वपूर्ण पक्षों को स्वीकार करता है । जेम्स लॉज के संवेग सिद्धान्त के साथ यह संवेग में आंगिक अभिव्यक्तियों तथा शारीरिक परिवर्तन को आवश्यक मानता है ।

कैनन सिद्धान्त के साथ वह संवेग में हाइपोथैलेमस का महत्व स्वीकार करता है, प्रेरणात्मक सिद्धान्त के साथ वह संवेग में सहानुभूतिक नाड़ी मण्डल का महत्वपूर्ण योगदान स्वीकार करता है और संवेग को अभियोजन में सहायक मानता है । इस सक्रिय करण सिद्धान्त में अन्य सभी सिद्धान्तों का समन्वय किया गया है ।

मस्तिष्क तरंगों के अध्ययनों से सक्रिय करण सिद्धान्त को निकाला गया है । यह सिद्धान्त देह विज्ञान के अनुसन्धानों पर आधारित सक्रियकरण सिद्धान्त के अनुसार संवेग में जीव मस्तिष्क या शरीर के किसी विशेष भाग पर आधारित नहीं कहा जा सकता ।

मस्तिष्क के विभिन्न भागों की क्रियाओं के समन्वय के द्वारा ही संवेगात्मक व्यवहारों की व्याख्या की जा सकती है, संवेगात्मक व्यवहार को समझने के लिए मस्तिष्क के विभिन्न भागों की अन्तर्क्रियाओं को समझना आवश्यक है ।

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