Read this article in Hindi to learn about the foreign policy of Mughals during medieval period in India.
तीन शक्तिशाली साम्राज्यों (उज़बेक, ईरान और तुर्की) के उदय के साथ और काबुल एवं कंदहार पर मुगलों के नियंत्रण में विस्तार के बाद किस तरह मुगल मध्य और पश्चिमी एशिया के राजनीतिक और कूटनीतिक संघर्षों में और भी गहरा दखल देने लगे । व्यापार के लिए सीमाओं के खुल जाने के बाद मुगल इस क्षेत्र में भारत के व्यापार को बढ़ाने में भी दिलचस्पी लेने लगे ।
अभी तक कायदा रहा है कि मुगल साम्राज्य को शेष एशिया से लगभग अलग रखकर प्रस्तुत किया जाता था । मुगलों के काल में एक सुस्पष्ट विदेश नीति के विकास से पता चलता है कि भारत में एक मजबूत केंद्रीय सत्ता की स्थापना के बाद राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्यों से मध्य और पश्चिमी एशिया की शक्तियों के साथ उसका संपर्क में आना स्वाभाविक था ।
समरकंद से और खुरासान समेत उसके आसपास के क्षेत्रों से बाबर और दूसरे तैमूरी शाहजादों के निष्कासन के लिए जिम्मेदार होने के कारण उज़बेक मुगलों के स्वाभाविक शत्रु थे । साथ ही उज़बेकों को सफवियों को बढ़ती शक्ति से भी टकराना पड़ा जो खुरासान के दावेदार थे ।
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खुरासान का पठार ईरान और मध्य एशिया को जोड़ता है तथा चीन और भारत जाने वाले मार्ग इसी से गुजरते हैं । इसलिए उज़बेकों के खिलाफ सफवियों और मुगलों का आपस में हाथ मिलाना स्वाभाविक था विशेषकर इसलिए कि कंदहार छोड़कर उनके बीच कोई सीमा-विवाद नहीं था ।
उज़बेकों ने ईरान के सफ़वी शासकों के साथ जो सुन्नियों का निर्मम दमन करते थे अपने पंथगत मतभेदों से लाभ उठाने का प्रयास किया । उज़बेक और मुगल शासक दोनों ही सुन्नी थे ।
लेकिन मुगल इतने विशाल हृदय थे कि वे पंथगत मतभेदों में नहीं फँसे । एक शिया शक्ति से अर्थात ईरान से मुगलों के गंठबंधन से चिढ़कर उज़बेकों ने कभी-कभी पेशावर और काबुल के बीच के उत्तर-पश्चिम सीमा पर रहने वाले कट्टर अफगान और कभी बलूच कबायलियों को मुगलों के खिलाफ भड़काया ।
इस समय पश्चिम एशिया में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य उस्मानी तुर्कों का था । ये अपने पहले शासक उस्मान (मृत्यु: 1326) के नाम पर उस्मानी तुर्क कहे जाते थे । उन्होंने एशिया माइनर को और पूर्वी यूरोप को रौंद डाला था तथा 1529 में सीरिया, मिस्र और अरब को जीत लिया था ।
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काहिरा में बैठे नाममात्र के खलीफा से उन्होंने ‘रूम के सुल्तान’ की पदवी हासिल की थी । आगे चलकर उन्होंने बादशाह-ए-इस्लाम का भी खिताब अपना लिया । ईरान में एक शिया शक्ति के उदय ने उस्मानी सुल्तानों को अपने पूर्वी बाजू की तरफ के खतरे के प्रति सजग कर दिया कि सफवियों के उदय से उनके अपने क्षेत्रों में शिया मत को बढ़ावा मिलेगा ।
तुर्क सुल्तानों ने 1514 में एक मशहूर लड़ाई में शाह ईरान को हराया । बगदाद पर तथा उत्तरी ईरान में इरवान के आसपास के क्षेत्रों पर भी नियंत्रण के लिए ईरान से उस्मानियों का टकराव हुआ । धीरे-धीरे उन्होंने अरब के तटीय क्षेत्रों पर भी नियंत्रण कर लिया तथा फारस की खाड़ी और भारतीय समुद्र से पुर्तगालियों को निकालने की कोशिश की ।
पश्चिम से उस्मानी खतरे ने ईरानियों को मुगलों से मित्रता के लिए मजबूर कर दिया खासकर तब जबकि पूरब में उनका सामना एक हमलावर उजबेक शक्ति से था । मुगलों ने ईरानियों के खिलाफ एक त्रिपक्षीय उस्मानी-मुगल-उजबेक गँठजोड़ के उजबेक प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि इससे एशिया में शक्ति-संतुलन बिगड़ता और उजबेक शक्ति का सामना करने के लिए वे अकेले रह जाते ।
ईरान के साथ गँठजोड़ मध्य एशिया से व्यापार को बढ़ावा देने में भी सहायक था । अगर मुगलों के पास कुछ अधिक मजबूत नौसेना होती तो हो सकता है वे तुर्की से और गहरा संबंध बनाते जो स्वयं एक नौसैनिक शक्ति था और भूमध्य सागर में यूरोपीय शक्तियों की नौसेनाओं के साथ संघर्षरत था ।
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पर मौजूदा स्थिति में मुगल तुर्की के साथ घनिष्ठ संबंध बनाना नहीं चाहते थे क्योंकि तुर्की का सुल्तान खलीफा के उत्तराधिकारी के रूप में अपनी श्रेष्ठता का दावा कर रहा था जिसे वे मानने के लिए तैयार न थे । ये ही कुछ बातें थीं जिन्होंने मुगलों की विदेश नीति को निर्धारित किया ।
अकबर और उज़बेक:
1510 के सफवियों के हाथों उजबेक सरदार शैबानी खान की शिकस्त के बाद बाबर को थोड़े समय के लिए समरकंद वापस मिला । हालांकि उजबेकों के हाथों ईरानियों की करारी शिकस्त के बाद बाबर को यह नगर छोड़ना पड़ा पर शाह ईरान से उसे मिली सहायता ने मुगलों और सफवियों के बीच दोस्ती की एक परंपरा कायम की ।
बाद में सफवी सुल्तान शाह तहमास्प से हुमायूँ ने भी सहायता पाई जब शेरशाह द्वारा भारत से निकाले जाने के बाद उसने उसके दरबार में शरण माँगी । 1510 के दशकों में अदचाह खान उजबेक के अंतर्गत उजबेकों की क्षेत्रीय शक्ति तेजी से बड़ी ।
1572-73 में अब्दुल्लाह खान उजबेक ने बल्स पर कब्जा कर लिया जो बदखघें के साथ मुगलों और उजबेकों के बीच एक तरह का तटस्थ क्षेत्र था । 1577 में अब्दुल्लाह खान ने ईरान के बँटवारे के प्रस्ताव के साथ अकबर के पास एक दूत भेजा ।
शाह तहमास्प की मृत्यु (1576) के बाद ईरान अराजकता और अव्यवस्था के दौर से गुजर रहा था । अब्दुल्लाह खान का आग्रह था कि अकबर ‘भारत से सेना लेकर ईरान पर चढ़ाई कर दे ताकि संयुक्त प्रयासों से वे ईराक खुरासान और फारस को जदीदियों (शियों) से मुक्त करा सकें ।’
पंथिक संकीर्णता की इस दुहाई से अकबर प्रभावित नहीं हुआ । बेचैन उजबेकों को उनके ही दायरे में रखने के लिए एक मजबूत ईरान अनिवार्य था । साथ ही अकबर की उजबेकों से उलझने की कोई इच्छा नहीं थी बशर्ते वे काबुल या भारतीय क्षेत्रों के लिए खतरा न बनें । यही अकबर की विदेश नीति का केंद्र था ।
अब्दुल्लाह उजबेक ने उस्मानी सुल्तान से भी संपर्क किया और ईरान के खिलाफ सुन्नी शक्तियों के त्रिपक्षीय समझौते का प्रस्ताव रखा । अब्दुल्लाह खान की पेशकश के जवाब में अकबर ने अब्दुल्लाह उजबेक के पास अपना दूत भेजा जिसमें कहा गया था कि विधान और धर्म संबंधी भेदों को विजय का पर्याप्त आधार नहीं माना जा सकता ।
मक्का में हाजियों की कठिनाइयों के बारे में उसने कहा कि गुजरात की विजय के बाद हज (तीर्थ यात्रा) के लिए एक नया मार्ग खुल गया है । उसने ईरान के साथ पुरानी दोस्ती पर भी जोर दिया और सफवियों के बारे में अपमानजनक बातें कहने के लिए अब्दुल्लाह खान उजबेक को फटकारा ।
मध्य एशिया के मामलों में अकबर की बढ़ती रुचि का पता इस बात से चलता है कि उसने तैमूरी सुल्तान मिर्जा सुलेमान को दरबार में शरण दी जिसे बदखई से उसके पोते ने खदेड़ दिया था । अबुल-फजल कहते हैं कि खैबर दर्रे को पहियेदार सवारियों के लिए उपयुक्त बना दिया गया था और मुगलों के डर से बल्स के दरवाजे प्राय: बंद रखे जाते थे ।
बदख्शां पर हमला बचाने के लिए अब्दुल्लाह उजबेक ने अपने कारिंदे (एजेंट) जलाल के जरिए जो धर्म के मामले में कट्टर था उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के कबायलियों को भड़काया । स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि अकबर को अटक आना पड़ा । इन्हीं कार्रवाइयों के दौरान अकबर खैबर दर्रे की एक लड़ाई में अपने एक गहरे मित्र राजा बीरबल को खो बैठा ।
1585 में अब्दुल्लाह उजबेक ने अचानक बदख्शा पर अधिकार कर लिया । मिर्जा सुलेमान और उसके पोते दोनों ने अकबरी दरबार में शरण ली और उपयुक्त मनसब पाए । इस बीच अपने सौतेले भाई मिर्जा हकीम की मृत्यु (1585) के बाद अकबर ने काबुल को अपने साम्राज्य में समेट लिया । इस तरह मुगल और उजबेक सीमाएँ पास-पास आ गईं ।
अब्दुल्लाह खान ने अब एक और दूत भेजा जिसका अकबर ने सिंध किनारे अटक में स्वागत किया । सीमा के इतने पास अकबर की बराबर मौजूदगी ने अब्दुल्लाह उजबेक को बेचैन कर दिया था । इस बीच उजबेकों ने ईरान से खुरासान के वे अधिकांश हिस्से छीन लिए जिन पर उनकी लालची नजर थी ।
इस स्थिति में अकबर को सबसे अच्छी बात यही लगी कि वह उजबेक सरदार से समझौता कर ले । इसलिए उसने एक पत्र और एक मौखिक संदेश के साथ अपने एक कारिंदे को अब्दुल्लाह खान उजबेक के पास भेजा ।
लगता है एक समझौता भी हुआ जिसमें हिंदूकुश को दोनों के बीच की सीमा मान लिया गया । इसका मतलब यह था कि मुगलों ने बदख्शां और बल्स पर अपना दावा छोड़ दिया, जो 1585 तक तैमूरी राजाओं के शासन में थे । पर इसका मतलब यह भी था कि उजबेक काबुल और कंदहार पर दावा नहीं करेंगे ।
हालांकि किसी भी पक्ष ने अपना दावा औपचारिक रूप से नहीं छोड़ा फिर भी इस समझौते ने मुगलों को हिंदूकुश के रूप में एक रक्षणीय सीमा अवश्य दे दी । अकबर ने 1595 में कंदहार को जीतकर एक वैज्ञानिक और रक्षणीय सीमा स्थापित करने का अपना उद्देश्य पूरा किया ।
इसके अलावा स्थिति पर नजर रखने के लिए अकबर 1586 में ही लाहौर में आकर बैठा रहा । 1598 में अब्दुल्लाह खान उजबेक की मौत के बाद ही वह आगरा के लिए चला । अब्दुल्लाह की मौत के बाद उजबेक परस्पर युद्धरत रजवाड़ों में बँट गए और बहुत समय तक मुगलों के लिए खतरा नहीं बन सके ।
ईरान से संबंध और कंदहार का प्रश्न:
ईरान के खिलाफ शिया-विरोधी भावनाएँ भड़काने की उजबेक कोशिशों और सफवी शासकों की निर्मम नीतियों के प्रति मुगलों की नापसंदगी के बावजूद उजबेक शक्ति का डर सफवियों और मुगलों को साथ लाने वाला सबसे शक्तिशाली कारण था । दोनों के बीच परेशानी की अकेली जड़ कंदहार था जिस पर अधिकार के दावे रणनीतिक और आर्थिक आधारों पर भी किए जाते थे तथा भावना और प्रतिष्ठा के आधार पर भी ।
कंदहार तैमूरी साम्राज्य का अंग रह चुका था और बाबर के रिश्ते के भाई जो हेरात के शासक थे, उस पर 1507 में उजबेकों द्वारा बेदखल किए जाने तक शासन कर चुके थे । रणनीतिक दृष्टि से कंदहार काबुल की सुरक्षा के लिए अनिवार्य था ।
कंदहार का किला इस क्षेत्र के सबसे मजबूत किलों में गिना जाता था और उसमें पानी की अच्छी व्यवस्था थी । काबुल और हेरात जाने वाली सड़कों के संधि-स्थल पर स्थित कंदहार पूरे दक्षिणी अफगानिस्तान का केंद्र था और उसकी स्थिति बहुत रणनीतिक महत्व की थी ।
एक आधुनिक ब्रिटिश टीकाकार के अनुसार, ‘काबुल-गजनी-कंदहार रेखा एक रणनीतिक और तार्किक सीमारेखा की सूचक थी । काबुल और खैबर से परे प्रतिरक्षा की कोई प्राकृतिक सीमा नहीं थी । इसके अलावा कंदहार के नियंत्रण से अफगान और बलूच कबीलों को नियंत्रित करना और आसान हो जाता था ।’
अकबर की सिंध और बलूचिस्तान विजय के बाद मुगलों के लिए कंदहार का रणनीतिक और आर्थिक महत्व और बढ़ गया । कंदहार एक समृद्ध और उपजाऊ प्रति था तथा भारत और मध्य एशिया के बीच मनुष्यों और वस्तुओं की आवाजाही का केंद्र था ।
मध्य एशिया से कंदहार होते हुए मुलतान तक और फिर सिंधु नदी के रास्ते समुद्र तक के व्यापार का महत्व लगातार बढ़ता गया । कारण कि युद्धों और अतिरिक हलचल के कारण ईरान से जाने वाली सड़कें अकसर असुरक्षित होती थीं ।
अकबर इस मार्ग पर व्यापार को बढ़ावा देना चाहता था और अब्दुल्लाह खान उजबेक से उसने कहा कि यह मक्का में तीर्थ यात्री और माल भेजने का एक वैकल्पिक मार्ग है । इन सभी कारणों को ध्यान में रखें तो पता चलेगा कि कंदहार ईरान के लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना मुगलों के लिए था ।
ईरान के लिए कंदहार ‘प्रतिरक्षा व्यवस्था का एक अपरिहार्य गढ़ होने के बजाय निस्संदेह महत्वपूर्ण ही सही, एक बाहरी चौकी अधिक’ था । लेकिन आरंभिक चरण में कंदहार के विवाद से दोनों देशों के अच्छे संबंध प्रभावित नहीं हुए । कंदहार 1522 में बाबर के हाथों में आया जब उजबेक एक बार फिर खुरासान के लिए खतरा बने हुए थे ।
हुमायूँ की मृत्यु के बाद फैली अफरातफरी का लाभ उठाकर शाह तहमास्प ने कंदहार पर अधिकार कर लिया । उसे फिर से पाने का कोई प्रयास अकबर ने तब तक नहीं किया जब तक अब्दुल्लाह के नेतृत्व मे उजबेक ईरान और मुगलों के लिए फिर से खतरा नहीं बने ।
मुगलों की कंदहार-विजय अकबर और उजबेकों के बीच ईरानी साम्राज्य के बँटवारे के किसी समझौते का अंग नहीं थी जैसा कि कुछ आधुनिक इतिहासकारों का तर्क है । इसका उद्देश्य संभावित उजबेक आक्रमण के खिलाफ उत्तर-पश्चिम में एक व्यवहारिक सीमा-रेखा बनाना था क्योंकि खुरासान तब तक उजबेक निंयत्रण में जा चुका था और कंदहार फारस (ईरान) से कट चुका था ।
मुगलों की कंदहार-विजय के बावजूद ईरान और मुगलों के संबंध सौहार्दपूर्ण बने रहे । शाह अब्बास प्रथम (शासन 1588-1629) जो सफवी शासकों में शायद सबसे महान था मुगलों से अच्छे संबंध रखने में रुचि रखता था । उसके और जहाँगीर के बीच प्रतिनिधिमंडलों और दुर्लभ वस्तुओं समेत कीमती उपहारों का नियमित आदान-प्रदान चलता था ।
शाह अब्बास ने दकनी शासकों के साथ भी गहरे कूटनीतिक और व्यापारिक संबंध स्थापित किए पर जहाँगीर ने इस पर आपत्ति नहीं की । कोई पक्ष खतरा महसूस नहीं करता था और एक काल्पनिक चित्र में तो एक दरबारी चित्रकार ने जहाँगीर और शाह अब्बास को गले लगते दिखाया है जबकि दुनिया का गोला उनके पैरों के नीचे है ।
सांस्कृतिक स्तर पर भी इस काल में नूरजहाँ की सक्रिय सहायता से दोनों देश और करीब आए । पर यह गंठबंधन जहाँगीर से अधिक शाह अब्बास के लिए उपयोगी साबित हुआ क्योंकि अपने ‘भाई’ शाह अब्बास की दोस्ती के कारण सुरक्षा का एहसास करके जहाँगीर ने उजबेक सरदारों को दोस्त बनाने पर ध्यान नहीं दिया ।
1620 में शाह अब्बास ने कंदहार वापस दिए जाने की एक विनम्र प्रार्थना की और उस पर आकमण की तैयारियाँ करने लगा । जहाँगीर स्तब्ध रह गया, क्योंकि वह कूटनीतिक स्तर पर अलग-थलग था और सैनिक स्तर पर इसके लिए तैयार न था ।
कंदहार को बचाने के लिए जल्दी में तैयारियाँ की गई पर कूच करने से पहले राजकुमार शाहजहाँ ने असंभव माँगे रख दीं । इस कारण कंदहार (1622 में) ईरानियों के हाथों में चला गया । हालांकि जहाँगीर के पास कीमती उपहारों से लदा एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर शाह अब्बास ने कंदहार की हार की कड़वाहट को समाप्त करने का प्रयास किया और अविश्वसनीय बहाने गढ़े जिन्हें दिखावे के लिए जहाँगीर ने स्वीकार कर लिया पर जो सौहार्द ईरान के साथ मुगलों के संबंध की विशेषता था वह जाता रहा ।
शाह अब्बास की मृत्यु (1629) के बाद ईरान में उथल-पुथल मच गई । इसका लाभ उठाकर और दकन के मामलों से मुका होकर शाहजहाँ ने कंदहार के सूबेदार अली मदीन खान को (1638 में) मुगलों की तरफ खींच लिया ।
शाहजहाँ का बल्ख अभियान:
कंदहार पर अधिकार शाहजहाँ के लिए एक विशेष उद्देश्य की प्राप्ति का साधन भी था । शाहजहाँ काबुल पर बार-बार उजबेक हमलों तथा बलूच और अफगान कबीलों के साथ उनके षड़यंत्रों पर अधिक चिंतित था । तब तक बल्ख और बुखारा नजर मुहम्मद के नियंत्रण में आ चुके थे ।
नजर मुहम्मद और उसका बेटा अब्दुल अजीज महत्वाककांक्षी थे । काबुल और गजनी को पाने के लिए उन्होंने अफगान कबायलियों की मदद से अनेक आक्रमण किए । पर जल्द ही अब्दुल अजीज ने अपने पिता के खिलाफ विद्रोह कर दिया और सिर्फ बल्ख ही नजर मुहम्मद के पास रह गया ।
नजर मुहम्मद ने शाहजहाँ से मदद की गुहार की । ईरान की ओर से सुरक्षित महसूस करके शाहजहाँ ने तत्परता के साथ इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया । वह लाहौर से काबुल आया और नजर मुहम्मद की सहायता के लिए उसने शाहजादा मुराद की कमान में एक बड़ी सेना भेजी ।
यह सेना 50,000 घोड़ों तथा बंदूकचियों, अग्निबाणों और तोपचियों समेत 10,000 पैदल सिपाहियों पर तथा राजपूतों के एक दस्ते पर आधारित थी । यह फौज 1646 के मध्य में काबुल से चली । शाहजहाँ ने शाहजादा मुराद को खूब अच्छी तरह निर्देश दे रखा था कि नजर मुहम्मद के साथ वह नरमी से व्यवहार करे और अगर वह विनम्रता का परिचय दे और अधीनता मानने के लिए तैयार हो तो बल्ख उसे लौटा दे ।
इसके अलावा नजर मुहम्मद अगर समरकंद और बुखारा को फिर से पाने की इच्छा जताए तो शाहजादा उसे हर संभव सहायता दे । स्पष्ट है कि शाहजहाँ बुखारा में एक मित्र शासक को देखना चाहता था जो सहायता व समर्थन के लिए मुगलों की ओर देखे ।
लेकिन मुराद के उतावलेपन ने सारी योजना चौपट कर दी । उसने नजर मुहम्मद के निर्देशों की प्रतीक्षा किए बिना बल्स नगर की ओर कूच कर दिया और अपने लोगों को किला बल्ख में घुसने का आदेश दे दिया जहाँ नजर मुहम्मद रहता था । शाहजादे के इरादों से आश्वस्त न हो पाने के कारण नजर मुहम्मद वहाँ से भाग खड़ा हुआ ।
मुगल बल्ख पर अधिकार करने के लिए बाध्य हो गए और वहाँ की क्षुब्ध और क्रोधित जनता के विरोध के बाबजूद उन्हें अपना नियंत्रण बनाए रखना पड़ा । मुगलों के लिए नजर मुहम्मद का कोई विकल्प पाना भी आसान न था । नजर मुहम्मद के बेटे अब्दुल अजीज ने आक्सस-पार क्षेत्र में मुगलों के खिलाफ उजबेक कबीलों को भड़काया और आक्सस-पार 1,20,000 की सेना जमा कर ली ।
इस बीच शाहजादा मुराद को, जिसे घर की याद सता रही थी, शाहजादा औरगंजेब के द्वारा विस्थापित कर दिया गया । मुगलों ने आक्सस को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया क्योंकि उसे पार करना आसान था । इसके बदले उन्होंने रणनीतिक ठिकानों पर दस्ते बिठा दिए और मुख्य सेना को एक साथ रखा ताकि किसी घिरे हुए ठिकाने की ओर वे आसानी से कूच कर सकें ।
अब्दुल अजीज आक्सस-पार करके घुस आया पर मुगलों ने बल्स के दरवाजों से बाहर (1647 में) भागते उजबेकों को मात दी । बल्ख में मुगलों की विजय ने उजबेकों के साथ वार्ता का रास्ता तैयार कर दिया । अब्दुल अजीज के उजबेक समर्थक तितर-बितर हो गए और उसने अब मुगलों को संधि के इशारे भेजे ।
नजर मुहम्मद ईरान में शरण लिए हुए था । उसने अब अपना साम्राज्य वापस पाने के लिए मुगलों से संपर्क किया । सावधानी से विचार करने के बाद शाहजहाँ ने नजर मुहम्मद के पक्ष में निर्णय किया । लेकिन नजर मुहम्मद से कहा गया कि पहले वह शाहजादा औरंगजेब से क्षमा माँगे और उसके सामने सिर झुकाए ।
यह एक गलती थी क्योंकि ऐसा नहीं लगता था कि स्वाभिमानी उजबेक शासक इस तरह अपने आपको गिराएगा खासकर इसलिए कि उसे मालूम था कि बल्ख को लंबे समय तक अधिकार में रखना मुगलों के लिए असंभव है । नजर मुहम्मद स्वयं आकर सलाम बजाए इसकी व्यर्थ प्रतीक्षा करने के बाद अक्टूबर 1647 में मुगलों ने बल्ख छोड़ दिया क्योंकि सर्दी का मौसम तेजी से पास आ रहा था और बल्ख में रसद नहीं थी ।
यह वापसी लगभग तबाही बन गई क्योंकि दुश्मन उजबेक दस्ते आसपास मँडराते रहते थे । वापसी के दौरान मुगलों को भारी हानि उठानी पड़ी पर औरंगजेब की दृढ़ता ने उन्हें विनाश से बचा लिया । शाहजहाँ के बल्ख अभियान को लेकर आधुनिक इतिहासकारों के बीच अच्छा-खासा विवाद रहा है । उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि शाहजहाँ तथाकथित ‘वैज्ञानिक रेखा’ अर्थात आमू दरिया (आक्सस) को मुगल सीमा बनाने का प्रयास नहीं कर रहा था ।
जैसा कि आमू दरिया का बचाव शायद ही संभव था । न ही शाहजहाँ मुगलों के ‘वतन’ समरकंद और फरगाना की विजय का इच्छुक था हालांकि मुगल बादशाह अकसर इसकी बातें किया करते थे । लगता है शाहजहाँ का उद्देश्य बल्ख और बदख्शा में, जो काबुल की सीमा पर स्थित थे मित्र शासकों को रखना था । इन क्षेत्रों पर 1585 तक तैमूरी राजाओं का ही राज्य था ।
उसे विश्वास था कि इससे गजनी के आसपास और खैबर दर्रे में रहने वाले अफगान कबीलों के असंतोष को नियंत्रित करने में उसे मदद मिलेगी । सैनिक दृष्टि से तो अभियान सफल रहा । मुगलों ने बल्ख जीत लिया था और उन्हें बाहर करने के उजबेक प्रयासों को नाकाम कर दिया गया था ।
इस क्षेत्र में भारतीय सेना की यह पहली महत्वपूर्ण विजय थी और शाहजहाँ के पास जश्न मनाने के पर्याप्त कारण थे । पर लंबे समय तक बल्ख को अपने प्रभाव में रखना मुगलों के बस से बाहर था । ईरानी शत्रुता और प्रतिकूल स्थानीय जनता के मुकाबले राजनीतिक दृष्टि से भी वैसा करना कठिन था । कुल मिलाकर बलव्र की मुहिम से मुगलों की प्रतिष्ठा कुछ समय के लिए अवश्य बड़ी पर उन्हें राजनीतिक लाभ कम ही मिला ।
अकबर ने बड़े जतन से जो काबुल-गजनी-कंदहार रक्षापंक्ति खड़ी की थी अगर शाहजहाँ उसी पर कायम रहता तो मुगलों को संभवत अधिक लाभ मिलता और धन-जन की अच्छी-खासी बचत होती । जो भी हो नजर मुहम्मद जब तक जीवित रहा, मुगलों का दोस्त बना रहा और दोनों के बीच दूतों का नियमित आदान-प्रदान चलता रहा ।
मुगल-ईरान संबंध: अंतिम चरण:
बल्ख में धक्का लगा तो काबुल क्षेत्र में उजबेक फिर दुश्मनी पर आमादा हो गए खैबर-गजनी क्षेत्र में अफगान कबायली फिर असंतोष से भर उठे तथा हौसला पाकर ईरानियों ने कंदहार पर हमला करके उसे फिर से जीत लिया (1649 ई.) | शाहजहा के स्वाभिमान को भारी चोट पहुँची और उसने कंदहार को वापस पाने के लिए अपने शाहजादों की कमान में एक-एक करके तीन बड़े अभियान भेजे ।
पहला अभियान 50,000 की सेना लेकर बल्स के नायक औरंगजेब ने चलाया । किले से बाहर मुगलों ने ईरानियों को हराया तो पर उनके दृढ़ विरोध के कारण उसे जीत नहीं सके । औरंगजेब ने तीन साल बाद एक दूसरी कोशिश की और वह भी नाकाम रही ।
सबसे बड़ा प्रयास अगले साल (1653 में) शाहजहाँ के प्रिय पुत्र दारा के नेतृत्व में हुआ । दारा ने अनेक बड़बोले दावे किए थे, पर किले के अंदर के लोगों को भूखों मारकर अपनी बड़ी सेना की सहायता से उनको समर्पण के लिए मजबूर करने में वह असफल रहा ।
साम्राज्य की सबसे बड़ी तोपों मे से दो तोपें खींचकर कंदहार लाई गई थीं । उनकी सहायता से भी उसने किला पाने का प्रयास किया पर उसका भी कोई परिणाम न निकला ।
कंदहार में मुगलों की असफलता मुगल तोपखाने की कमजोरी की सूचक नहीं थी जैसा कि कुछ इतिहासकारों का कथन रहा है । एक दृढ संकल्प कमानदार के होने पर किला कंदहार ने अपनी शक्ति का परिचय दिया और मजबूत किलों के मुकाबले में मध्यकालीन तोपों की व्यर्थता का भी (दकन में भी मुगलों का यही अनुभव रहा ।)
तो भी यह तर्क दिया जा सकता है कि कदंहार से शाहजहाँ का लगाव यथार्थ पर आधारित न होकर भावात्मक था । उजबेक और सफवी, जब दोनों ही अधिकाधिक कमजोर पड़ते गए तो कंदहार का वह रणनीतिक महत्व नहीं रहा जो पहले था । कंदहार के हाथ से निकलने पर मुगल प्रतिष्ठा को इतना धक्का नहीं लगा जितना बार-बार के मुगल प्रयासों की असफलता से लगा ।
पर इसका भी अनावश्यक तूल नहीं दैना चाहिए क्योंकि औरंगजेब के काल में भी मुगल साम्राज्य शक्ति और प्रतिष्ठा के चरम शिखर पर रहा । यहाँ तक कि अभिमानी उस्मानी सुल्तान तक ने 1680 में सहायता माँगने के लिए औरंगजेब के पास एक दूतमंडल भेजा । औरंगजेब ने कंदहार के व्यर्थ के विवाद को जारी न रखने का फैसला किया और खामोशी से ईरान के साथ कूटनीतिक संबंध फिर जोड़ लिए ।
लेकिन 1668 में ईरान के सुल्तान शाह अब्बास द्वितीय ने मुगल दूत को अपमानित किया औरंगजेब के खिलाफ क्षुद्र बातें कही और हमले तक की धमकी दी । इसके बाद पजाब और काबुल में मुगल सरगर्मी बढ़ गई । पर कोई कार्रवाई हो इससे पहले ही शाह अब्बास चल बसा ।
उसके उत्तराधिकारी निकम्मे निकले और ईरान की ओर से भारतीय सीमा के लिए सभी खतरे तब तक के लिए टल गए, जब 50 वर्ष से अधिक समय बाद नादिरशाह नाम का एक नया शाह ईरान के तख्त पर नहीं बैठा । इस तरह कुल मिलाकर मुगल उत्तर-पश्चिम में एक वैज्ञानिक सीमारेखा बनाए रखने में सफल रहे जो हिंदूकुश पर आधारित थी और दूसरी ओर जिसका बाहरी गढ़ कंदहार था ।
इस तरह भारत की प्रतिरक्षा उनकी बुनियादी विदेश नीति का आधार थी । इस सीमारेखा की रक्षा को कूटनीतिक उपायों से और पुष्ट किया गया । कंदहार के प्रश्न पर अस्थायी धक्कों के बावजूद ईरान से मित्रता इस कूटनीति का मूलाधार थी । मुगलों द्वारा वतन को वापस पाने की जो इच्छा बार-बार व्यक्त की जाती थी वह वास्तव में एक कूटनीतिक चाल थी और इस पर कभी गंभीरता से अमल नहीं किया गया ।
मुगलों ने जो सैन्य और कूटनीतिक उपाय किए वे विदेशी आक्रमण से भारत को लंबे समय तक सुरक्षा प्रदान करने में बहुत हद तक सफल रहे । दूसरे, मुगल अपने समय के अग्रणी एशियाई राज्यों के साथ समानता के संबंधों पर जोर देते थे यहाँ तक कि सफवियों के साथ भी जो पैगबर से अपने संबंध के कारण एक विशेष स्थिति के दावेदार थे, और उस्मानी सुल्तानों के साथ भी जो पदशाह-इस्लाम की उपाधि धारण करके बगदाद के खलीफा के उत्तराधिकारी होने का दावा करते थे ।
तीसरे, मुगलों ने अपनी विदेश नीति का उपयोग भारत के व्यापारिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए किया । काबुल और कंदहार मध्य एशिया के साथ भारत के व्यापार के दो प्रवेशद्वार थे ।