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भारत में यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियों का आगमन:

15वीं शताब्दी के यूरोप में घटित हुई कुछ प्रमुख घटनाओं, कुस्तुनतुनिया पर तुर्कों का अधिकार, पुनर्जागरण आन्दोलन, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक क्रांति तथा भौगोलिक खोजों के प्रति आकर्षण ने भारत एवं पूर्व के देशों के प्रति यूरोपीय लोगों में एक नया आकर्षण उत्पन्न किया । यूरोप में हुई व्यापारिक एवं औद्योगिक क्रांति ने वहाँ के व्यापारियों को नया बाजार तलाशने के लिए विवश कर दिया ।

पूर्व के लिए नवीन मार्गों की खोज का बीड़ा कोलम्बस, वास्को डिगामा जैसे प्रसिद्ध नाविकों ने उठाया । कोलम्बस 1492 में अमेरिका, बार्थोलोमियो डाईज 1487 ई॰ में आशा अन्तरीप तथा वास्को डि गामा 1498 ई॰ में भारत के पश्चिमी समुद्री तट कालीकट पहुंचा । कालीकट के राजा जामोरिन ने उसका स्वागत किया ।

भारत में पुर्तगालियों का आगमन:

1498 ई॰ में वास्को डिगामा के भारत आगमन ने यूरोपीय व्यापारियों के लिए भारत का द्वार खोल दिया । यूरोपीय व्यापारियों का भारत के राजा-महाराजाओं ने भिन्न-भिन्न कारणों से स्वागत किया । भारत में व्यापार के लिए सर्वप्रथम पुर्तगाली व्यापारी आए ।

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वास्को डिगामा के भारत आगमन से दोनों देशों के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नये युग का आरंभ हुआ । 1500 ई॰ में 13 जहाजों के बेड़े के साथ पेड्रो अल्वरेज केब्रल भारत पहुंचा । पुर्तगाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बंदरगाहों पर व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं ।

काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए उन्होंने 1503 ई॰ में कोचीन में पहले दुर्ग की स्थापना की । 1505 ई॰ में पुर्तगाल की सरकार ने फ्रांसिस्को द अल्मेडा को भारत में प्रथम पुर्तगाली वायसराय बनाकर भेजा । 1509 ई॰ में उसने पुर्तगाली सेना के बल पर दीव पर अधिकार कर लिया ।

1509 ई॰ में पुर्तगाली वायसराय अलबुकर्क ने बीजापुर के शासक यूसुफ आदिल शाह से गोवा को छीन लिया । धीरे-धीरे पुर्तगालियों ने दमन, साल्सेट, बेसीन, मुम्बई, हुगली तथा सेन्ट टॉम पर भी अधिकार कर लिया । इस प्रकार 1515 ई॰ तक पुर्तगाली व्यापारी भारत के साथ न केवल व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त कर चुके थे वरन् उन्होंने समुद्र तटीय क्षेत्रों पर अधिकार करके प्रशासन करना भी आरंभ कर दिया था ।

भारत में डचों का आगमन:

डच हालैण्ड के निवासी थे । भारत से व्यापार करने के लिए हालैण्ड में 1602 ई॰ में डच ईस्ट इन्डिया कम्पनी की स्थापना की गई । भारत में व्यापार पर अधिकार को लेकर डच व पुर्तगालियों के मध्य सैनिक संघर्ष हुए जिसमें पुर्तगाली शक्ति कमजोर हुई ।

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डचों ने शीघ्र गुजरात में कोरोमंडल समुद्र तट, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित की । उन्होंने अपना पहला कारखाना मछलीपट्टम में खोला । डचों ने भारत के साथ मुख्यत: मसालों, नील, कच्चे रेशम, शीशा, चावल एवं अफीम का व्यापार किया । डचों की प्रमुख फैक्ट्री पुलीकट में थी, जहाँ वह स्वर्ण मुद्रा ‘पगोडा’ को ढालते थे ।

अंग्रेज ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत आगमन से डच कम्पनी के व्यापार को धक्का लगा । 1759 ई॰ में अंग्रेजों तथा डचों के मध्य वेदरा का युद्ध हुआ जिसमें डच पराजित हुए और उनकी शक्ति एवं व्यापार को अत्यधिक धक्का लगा । धीरे-धीरे डच ईस्ट इन्डिया कम्पनी की शक्ति भारत से समाप्त हो गई ।

भारत में अंग्रेजों का आगमन:

अन्य यूरोपीय जातियों की भांति अंग्रेज भी भारत के साथ व्यापार के इच्छुक थे । इंग्लैण्ड के प्रमुख पूंजीपतियों द्वारा 31 दिसम्बर 1600 को ईस्ट इन्डिया कम्पनी की स्थापना की गई । इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने उसे 15 वर्षों के लिए एक चार्टर द्वारा व्यापारिक एकाधिकार प्रदान किया । 1608 में कैप्टन हॉकिन्स के नेतृत्व में प्रथम अंग्रेजी जहाजी बेड़ा भारत पहुंचा । उस समय मुगल सम्राट जहाँगीर का शासन था ।

भारत में फ्रांसीसियों का आगमन:

1664 ई॰ में फ्रांस में भारत के साथ व्यापार करने के लिए ‘द इंद ओरिएंताल’ नामक कम्पनी का निर्माण किया गया । फ्रांसिस केरन के नेतृत्व में 1667 में फ्रांसीसियों का एक दल भारत के लिए रवाना हुआ और 1668 ई॰ में सूरत में प्रथम फ्रांसीसी कोठी की स्थापना की गई ।

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इसके बाद 1669 में मछलीपट्टनम में, 1673 में पुडुचेरी में एवं 1690-92 में बंगाल के चन्द्रनगर में फ्रांसीसी कम्पनी ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं । फ्रांसीसी कम्पनी ने पुडुचेरी में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फोर्टलुई किले का निर्माण करवाया ।

1740 तक कम्पनी का एकमात्र उद्देश्य भारत से व्यापारिक लाभ प्राप्त करना था किन्तु 1740 के बाद कम्पनी ने भारत की राजनीतिक परिस्थितियों से लाभ उठाने का निश्चय किया । फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए । डूप्ले के प्रयासों ने ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ संघर्ष को जन्म दिया जिसमें फ्रांसीसी पराजित हुए और उन्हें भारत के साथ अपने व्यापार को धीरे-धीरे समेटना पड़ा ।

मुगल साम्राज्य का पतन और अंग्रेजों द्वारा इसका लाभ उठाना:

जिस मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने 1526 में की थी, जिसे अकबर ने अपने कार्यों द्वारा शक्ति प्रतिष्ठा तथा स्थायित्व प्रदान किया था उसका औरंगजेब की मृत्यु के बाद पतन प्रारंभ हो गया । मुगल साम्राज्य की गद्‌दी प्राप्त करने के लिए उत्तराधिकारियों में संघर्ष होने लगे ।

गद्‌दी के दावेदार साम्राज्य के सरदारों के सहयोग से गद्‌दी प्राप्त करने लगे । परिणामस्वरूप मुगल शासकों को अपने समर्थक सरदारों एवं अमीरों की गलत बातों को भी मानना पड़ा । परवर्ती मुगल शासक एक प्रकार से कठपुतली शासक बनकर रह गए । वे साम्राज्य के विघटन को नहीं रोक सके ।

इस काल में पतनशील मुगल साम्राज्य के प्रान्तों में बँगाल, हैदराबाद, अवध, पंजाब, भरतपुर, पूना से लेकर ग्वालियर तक मराठा सरदारों के राज्य मैसूर कर्नाटक आदि अनेक स्वतंत्र राज्य खडे हो गए । इन राज्यों ने मुगल साम्राज्य के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया । ईरान के शासक नादिरशाह और अफगान शासक अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के पतन को अवश्यम्भावी बना दिया । इस स्थिति का लाभ अंग्रेजों द्वारा उठाया गया ।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भारत के साथ व्यापार और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का प्रारंभ:

31 दिसम्बर 1600 ई॰ को ब्रिटेन की महारानी एलीजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत एवं पूर्वी देशों के साथ व्यापार के लिए 15 वर्ष के लिए एक अधिकार-पत्र (चार्टर) दिया । कम्पनी को अधिकार-पत्र द्वारा युद्ध एवं सन्धि करने कानून बनाने तथा कम्पनी के एकाधिकारों पर चोट करने वालों को दण्डित करने का अधिकार भी दिया गया था ।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी ब्रिटेन के कुछ पूंजीपतियों द्वारा साझा व्यापार के लिए बनाई गई थी । कम्पनी का प्रमुख उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा अर्जित करना था । अंग्रेजों की दृष्टि में मुनाफा अर्जित करते समय उचित अथवा अनुचित तरीकों का उपयोग करना गलत नहीं था ।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यापार-वाणिज्य के बहाने लूटमार करना भी उचित था । व्यापार तथा लूटमार के तरीकों से कम्पनी मालामाल हो गई । कम्पनी व्यापार पर पकड़ स्थापित करने के साथ-साथ राजनैतिक लक्ष्य को लेकर भी चल रही थी ।

भारत की राजनैतिक कमजोरियों का अनुमान उनको हो चुका था । अंग्रेजो को लगता था कि व्यापार से अधिक लाभ राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने में है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शीघ्र ही उन्होंने प्रयास आरंभ कर दिए ।

भारत में कम्पनी के व्यापार का विस्तार:

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत के साथ व्यापार तो प्रारंभ कर दिया गया मगर भारत में कम्पनी को कोठी (व्यापारिक बस्ती) स्थापित करने में सफलता नहीं मिल रही थी । जहाँगीर ने 1613 ई॰ में कम्पनी को सूरत में कोठी स्थापित करने की अनुज्ञा प्रदान कर दी ।

इसके बाद कम्पनी ने सर टामस रो को इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम के दूत के रूप में मुगल दरबार में भेजा । सर टामस रो 1615 से 1619 ई॰ तक मुगल दरबार में रहा । उसने जहाँगीर से मुगल साम्राज्य के विभिन्न भागों में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित करने की अनुज्ञा प्राप्त कर ली । शीघ्र ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत, आगरा, अहमदाबाद और भड़ौच में व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कर लीं ।

1668 ई॰ में इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीना के साथ हुआ । विवाह में दहेज के रूप में मुम्बई (बम्बई) मिला । 10 पौण्ड वार्षिक लगान पर मुम्बई ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया गया । 1687 ई॰ में कम्पनी द्वारा सूरत के स्थान पर मुम्बई को पश्चिमी तट की कोठियों का मुख्यालय बना लिया गया ।

भारत के पूर्वी तट पर भी कम्पनी द्वारा मछलीपट्‌टम, मद्रास (चेन्नई), बंगाल, हरिहरपुर, बालासोर, हुगली, पटना और कासिम बाजार में कोठियाँ स्थापित कर ली गईं । भारत के पश्चिमी एवं पूर्वी भागों में कम्पनी के व्यापार में आशाजनक वृद्धि हुई । कम्पनी द्वारा मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता में किले बनवा लिए गए और वहाँ पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध कर लिए गए ।

1717 ई॰ में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा मुगल सम्राट फर्रूखसियर से अनेक महत्वपूर्ण व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त कर ली गई । जॉन सरमन तथा विलियम हैमिल्टन सम्राट से मिले । मुगल सम्राट गम्भीर रोग से पीड़ित थे । विलियम हैमिल्टन की सहायता से सम्राट रोग मुक्त हो गया ।

प्रसन्ना होकर सम्राट ने कम्पनी को तीन फरमानों द्वारा अनेक सुविधाएं प्रदान कर दी । 3000 रूपये वार्षिक के बदले कम्पनी को बंगाल में बिना किसी कर के व्यापार करने के अधिकार मिल गए । कम्पनी को कलकत्ता के आस-पास के क्षेत्रों को किराए पर लेने की अनुमति मिल गई ।

हैदराबाद प्रान्त में कम्पनी की सभी देनदारी समाप्त कर दी गई । कम्पनी द्वारा मुम्बई में टंकित सिक्कों का समस्त मुगल साम्राज्य में प्रचलन हो गया । इस प्रकार भारत में कम्पनी के व्यापार एवं प्रभुत्व में व्यापक वृद्धि हुई ।

आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिस्पर्धा और कर्नाटक युद्ध:

आंग्ल-फ्रांसीसी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा शीघ्र ही युद्ध में परिवर्तित हो गई । दोनों के बीच लडे गए युद्धों का अध्ययन करने से पूर्व उनकी शक्ति और साधनों पर एक दृष्टि डालना उचित होगा । ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक गैर-सरकारी संस्था थी, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी पर सरकारी प्रभुत्व था ।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने व्यापार एवं शक्ति के विस्तार तथा निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र थी, जबकि फ्रांसीसी कम्पनी समस्त निर्णयों के लिए फ्रांस की सरकार पर निर्भर थी । ब्रिटिश कम्पनी के अधिकारी और कर्मचारी पूर्ण परिश्रम तथा लगन से कार्य करते थे, जबकि फ्रांसीसी कर्मचारियों के बारे में ऐसा नहीं था ।

सरकारी संरक्षण के कारण फ्रांसीसी कम्पनी में स्वाभाविक व्यापारिक गतिशीलता तथा कार्यशीलता का अभाव था । ब्रिटिश कम्पनी का व्यापार विस्तृत था, उसका मुनाफा तथा शक्ति एवं साधन फ्रांसीसियों की तुलना में अधिक थे । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रभुत्व क्षेत्र भी अधिक थे ।

फ्रांसीसी कम्पनी की एक मात्र महत्वपूर्ण व्यापारिक बस्ती पाण्डिचेरी थी जबकि ब्रिटिश कम्पनी के पास अनेक प्रमुख बस्तियों थी । इन परिस्थितियों में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी और फ्रांसीसी कम्पनी अपने-अपने व्यापार एवं प्रभुत्व क्षेत्र में वृद्धि के लिए प्रयास कर रहीं थी । दोनों के कार्य क्षेत्र पश्चिमी एवं पूर्वी भारत थे । दोनों के स्वार्थ एक जैसे थे, अत: पारस्परिक प्रतिस्पर्धा का परिणाम युद्ध ही था ।

कर्नाटक युद्ध और परिणाम:

अधिक मुनाफा अर्जित करने और राजनीतिक प्रभुत्व में वृद्धि के लिए ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी और फ्रांसीसी कम्पनी प्रयत्नशील थीं । दोनों एक दूसरे को मात देने के लिए कम से कम मूल्य पर भारतीय माल क्रय करने का प्रयास करती थी । दोनों ही बाजार पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी ।

दोनों अधिक बाजार तथा सुविधाएं प्राप्त करने के लिए भारतीय राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगी । व्यापार पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राजनीतिक सत्ता स्थापित करने का सपना भी देखने लगी ।

फ्रांसीसी कम्पनी का प्रधान कार्यालय दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट पर पाण्डिचेरी में था जबकि ब्रिटिश कम्पनी का प्रमुख केंद्र फोर्ट सेट जार्ज (मद्रास) में था जो पाण्डिचेरी से अधिक दूर नहीं था । दोनों कम्पनियों की महत्वाकाँक्षा में वृद्धि होती गई और परस्पर झड़प होने लगी । एक-दूसरे को समाप्त करने की होड़ में दोनों के बीच भारत में तीन युद्ध हुए जिन्हें इतिहास में कर्नाटक युद्धों के नाम से जाना जाता है ।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-1748):

कर्नाटक, मुगल साम्राज्य का एक सूबा रह चुका था, मगर अब स्वतंत्र हो चुका था । कर्नाटक की राजधानी अर्काट थी जो मद्रास और पाण्डिचेरी के बीच स्थित थी । यूरोपीय देश आस्ट्रिया में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर फ्रांस एवं ब्रिटेन के बीच 1744 ई॰ में यूरोप में युद्ध प्रारंभ हो गया ।

जिसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा । ब्रिटेन और फ्रांस की कम्पनियों के बीच भारत में भी तनातनी प्रारंभ हो गई । फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने कर्नाटक के नवाब अनवरूद्दीन को लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया । फ्रांसीसी सेना ने मद्रास स्थित ब्रिटिश किले पर अधिकार कर लिया ।

कर्नाटक के नवाब ने डूप्ले से किले की माँग की । किंतु डूप्ले ने किला कर्नाटक को सौंपने से इंकार कर दिया । फलत: दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें कर्नाटक को पराजय का सामना करना पड़ा । 1748 ई॰ में यूरोप में फ्रांस और ब्रिटेन के बीच समझौता हो गया परिणामस्वरूप भारत में भी दोनों के बीच शान्ति संधि हो गई । मद्रास का किला अंग्रेज कम्पनी को वापस कर दिया गया । यद्यपि दोनों के बीच शान्ति हो गई थी मगर इस युद्ध ने कुछ बातों को जन्म दिया ।

कर्नाटक की हार से यूरोपीय युद्ध प्रणाली की श्रेष्ठता सिद्ध हो गई । यूरोपीय कम्पनियों को यह बात समझ में आ गई कि भारतीय राज्यों की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप करके अपने प्रभुत्व में वृद्धि की जा सकती है । इस युद्ध ने दोनों कम्पनियों की पारस्परिक प्रतिद्वंदिता तथा ईर्ष्या-द्वेष में और अधिक वृद्धि कर दी ।

कर्नाटव का द्वितीय युद्ध (1748-1754 ई॰):

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं फ्रांसीसी कम्पनी के बीच हैदराबाद एवं कर्नाटक के उत्तराधिकार को लेकर 1748-1754 ई॰ के मध्य युद्ध हुआ । फ्रांसीसी कम्पनी ने हैदराबाद में मुजफ्फरजंग को और कर्नाटक में चांदा साहब को शासक बना दिया ।

जबकि ब्रिटिश कम्पनी कर्नाटक में मुहम्मद अली को और हैदराबाद में नासिर जंग को समर्थन दे रही थी । फलत: युद्ध प्रारंभ हो गया । नासिर जंग युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया । मुजफ्फर जंग ने युद्ध में सहायता देने के लिए फ्रांसीसी कम्पनी को 50,000 पौण्ड एवं 10,000 वार्षिक की एक जागीर दी । उधर क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने अर्काट का घेरा डाल दिया । चांदा साहब युद्ध में मारा गया । सम्पूर्ण कर्नाटक पर ब्रिटिश कम्पनी का अधिकार हो गया ।

इस प्रकार कर्नाटक में अंग्रेजों के और हैदराबाद में फ्रांसीसी कम्पनी के प्रभुत्व में वृद्धि हो गई । हैदराबाद की रक्षा के नाम पर फ्रांसीसी कम्पनी ने एक सेना वहाँ रख दी जिसका खर्च हैदराबाद को ही देना था । इस प्रकार भारतीय राज्यों से सेना का खर्च लेकर उनकी सुरक्षा के नाम पर उनके ऊपर नियंत्रण रखने का एक नया तरीका सामने आया ।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-1763 ई॰):

यूरोप में फ्रांस एवं ब्रिटेन के बीच सातवर्षीय युद्ध का प्रारंभ हो गया । फलत: भारत में भी उनके मध्य युद्ध प्रारंभ हो गया । जनवरी 1760 में वाण्डिवाश के युद्ध में फ्रांसीसी निर्णायक रूप से पराजित हुए । युद्ध में अंग्रेज कम्पनी को विजय मिली ।

कर्नाटक पर तो उनका अधिकार था ही हैदराबाद से भी फ्रांसीसियों को निकाल दिया गया । भारत में फ्रांसीसी कम्पनी के प्रभुत्व वाले समस्त क्षेत्र ब्रिटिश कम्पनी के हाथ में आ गए । इस प्रकार भारत में फ्रांसीसी कम्पनी की राजनीतिक प्रभुसत्ता प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा का अंत हो गया और ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सामने सम्पूर्ण भारत पर प्रभुसत्ता स्थापित करने का द्वार खुल गया ।

बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना:

अलीवर्दी खाँ 1740 ई॰ में बंगाल का नवाब बना । वह योग्य एवं कूटनीतिज्ञ शासक था । वह अंग्रेजों द्वारा की गई कलकत्ता की किलेबंदी को पसंद नहीं करता था । 1756 ई॰ में अलीवर्दी खाँ की मृत्यु हो गई । सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना । अलीवर्दी खाँ की बड़ी पुत्री घसीटी बेगम का पुत्र शौकतजंग स्वयं नवाब बनना चाहता था और उसे दीवान राजवल्लभ का सहयोग प्राप्त था ।

अलीवर्दी खाँ का बहनोई एवं सेनापति मीरजाफर भी नवाब बनने का सपना देख रहा था । ये सभी अंग्रेजों के संरक्षण में षड्‌यंत्रों को जन्म दे रहे थे । बंगाल का नवाब सिरजुद्दौला अंग्रेजों द्वारा की जा रही कलकता की किलेबंदी से अत्यधिक नाराज था ।

बंगाल में अंग्रेजों द्वारा बिना कर दिये व्यापार किया जा रहा था, जिससे राजकीय खजाने को नुकसान हो रहा था । अंग्रेज नवाब को उचित सम्मान एवं भेंट नहीं देते थे । अंग्रेजों द्वारा की जा रही उकसाने वाली कार्यवाही से नाराज होकर 4 जून 1756 ई॰ को नवाब ने कासिम बाजार की फैक्ट्री पर अधिकार कर लिया । अब वह कलकत्ता की तरफ बढ़ा । गवर्नर ड्रेक व्यापारियों, महिलाओं एवं बच्चों के साथ कलकत्ता से भाग गया । 22 जून 1756 ई॰ को कलकत्ता पर नवाब का अधिकार हो गया ।

अलीनगर की सन्धि:

कलकत्ता के पतन का समाचार सुनकर राबर्ट क्लाइव चेन्नई (मद्रास) से एक सेना लेकर बंगाल पहुंचा । जनवरी 1757 ई॰ में एक छोटी लड़ाई के बाद कलकत्ता पर क्लाइव का अधिकार हो गया । नवाब युद्ध में पराजित हुआ और अलीनगर की सन्धि द्वारा अंग्रेजों की समस्त माँगों को स्वीकार कर लिया ।

प्लासी का युद्ध (1757):

अलीनगर की सन्धि द्वारा अंग्रेजों को बंगाल में अनेक सुविधाएं मिल गईं थी तथापि वे समस्त बंगाल पर अधिकार करना चाहते थे । इसके लिए उन्होंने तैयारियाँ प्रारंभ कर दी । क्लाइव ने फ्रांसीसी बस्ती चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया और नवाब कुछ नहीं कर सका ।

नवाब के दुश्मनों को क्लाइव ने अपनी सुरक्षा में ले लिया । क्लाइव ने सेनापति मीरजाफर राय दुर्लभ जगत सेठ एवं अमीरचन्द के साथ एक गुप्त समझौता कर लिया जिसके अनुसार सिराजुद्दौला को हटाकर मीरजाफर, को बंगाल का नवाब बनाया जाना था । षड्‌यंत्र की रचना के बाद युद्ध का बहाना खोजा जाने लगा ।

नवाब पर अलीनगर की सन्धि भंग करने का आरोप लगाया गया । आरोप लगाते ही क्लाइव सेना सहित मुर्शिदाबाद के लिए चल पड़ा । 23 जून 1757 ई॰ को क्लाइव तथा नवाब की सेनाओं के बीच प्लासी के मैदान में युद्ध हुआ । नवाब के सेनापति मीरजाफर राय दुर्लभ तथा यारलतीफ खाँ चुपचाप युद्ध का नजारा देखते रहे । नवाब पराजित हुआ और उसे मीरजाफर के पुत्र मीरन ने मार डाला ।

सैनिक दृष्टि से प्लासी के युद्ध का कोई महत्व नहीं था मगर राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से इस युद्ध का अत्यधिक महत्व है । बंगाल का नया नवाब मीरजाफर अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया । बंगाल के राजनीतिक जीवन पर अंग्रेजों का ही अधिकार था । आर्थिक दृष्टि से प्लासी युद्ध के बाद बंगाल की लूट आरंभ हो गई ।

मीरजाफर ने लगभग 3 करोड़ रूपये अंग्रेजों को दिए । बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिला । कम्पनी को कलकत्ता के समीप 24 परगना की जमीदारी मिली । कलकत्ता में कम्पनी को सिक्के ढालने का अधिकार मिला । इस प्रकार प्लासी के युद्ध ने कम्पनी को बंगाल की सत्ता सौंप दी ।

बक्सर का युद्ध (1764):

प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल का नवाब मीरजाफर कम्पनी के लिए एक कठपुतली शासक के समान था । नवाब का खजाना कम्पनी और उसके कर्मचारियों को भेंट और रिश्वत देने में खाली हो गया । कम्पनी की माँग में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी । कम्पनी और उसके दलाल किसानों और दस्तकारों को लूट रहे थे ।

कम्पनी कम से कम मूल्य पर दस्तकारों को अपना सामान विक्रय करने के लिए विवश करती थी । इससे पहले कि नवाब मीरजाफर कोई कठोर निर्णय लेता कम्पनी ने उसे गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीरकासिम को बंगाल का नया नवाब बना दिया ।

मीरकासिम कम्पनी पर अपनी निर्भरता को कम करना चाहता था । उसने शक्ति संचय करना प्रारंभ कर दिया । उसने अंग्रेजों के वफादार अफसरों को नौकरी से हटा दिया । नया सैनिक संगठन खड़ा किया । व्यापारिक चुंगी सभी के लिए समाप्त कर दी । जिससे कम्पनी को नुकसान हुआ । परिणाम स्वरूप 1763 ई॰ में नवाब मीरकासिम और कम्पनी के मध्य हुए युद्ध में मीरकासिम पराजित हुआ । मीरकासिम भागकर अवध चला गया ।

अवध का नवाब शुजाउद्दौला भी अंग्रेजों से नाराज था । मुगल सम्राट शाहआलम भी दिल्ली से भागकर अवध में ही निवास कर रहा था । तीनों ने मिलकर बक्सर नामक स्थान पर 23 अक्टूबर, 1764 ई॰ को कम्पनी की सेनाओं के साथ युद्ध किया । मुगल सम्राट और दोनों नवाब युद्ध में पराजित हुए । 1765 ई॰ में शुजाउद्दौला तथा शाहआलम ने क्लाइव के साथ सन्धियाँ कर लीं ।

अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ इलाहाबाद की संधि:

अंग्रेजों ने अगस्त 1765 में अवध के नवाब के साथ इलाहाबाद में सन्धि की:

i. अवध के नवाब से 50 लाख रूपये युद्ध के हर्जाने के रूप में लेकर अंग्रेज उसे अवध का राज्य लौटा देंगे ।

ii. कड़ा और इलाहाबाद तथा उसके आसपास का क्षेत्र अवध से पृथक कर मुगल बादशाह शाहआलम को दिया जाएगा ।

iii. चुनार का दुर्ग अंग्रेजों को मिलेगा ।

iv. अंग्रेजों को अवध की सीमाओं के भीतर बिना कर दिए व्यापार की सुविधा मिलेगी ।

मुगल बादशाह शाहआलम के साथ संधि:

1. अवध से कड़ा व इलाहाबाद तथा उसके आसपास के क्षेत्र लेकर मुगल बादशाह को दिए गए ।

2. अंग्रेजों ने मुगल बादशाह को 26 लाख रुपये वार्षिक देना स्वीकार किया ।

3. इस सहायता के बदले मुगल बादशाह ने 12 अगस्त 1765 को एक फरमान द्वारा अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी का अधिकार दे दिया ।

इस प्रकार मुगल बादशाह अंग्रेजों का आश्रित हो गया और अवध उनका मित्र बन गया । अवध से मित्रता हो जाने के कारण कम्पनी को मराठों के आक्रमण का डर नहीं रहा । मीरजाफर को पुन: बंगाल का नवाब बना दिया गया ।

भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी की सत्ता का विस्तार:

बंगाल पर आधिपत्य जमाने के पश्चात अंग्रेजों ने दक्षिण की ओर दृष्टि डाली । दक्षिण भारत में उस समय मराठे, हैदराबाद का निजाम और मैसूर में हैदरअली ये तीन प्रमुख सत्ताएँ थीं । इन तीनों सत्ताओं को एकजुट होने से रोकना यह अंग्रेजों का ध्येय बन गया उन्होंने निजाम को मराठे व हैदरअली से बचाने का लालच दिखाकर और कुछ प्रादेशिक लाभ देकर अपनी ओर मिला लिया ।

अंग्रेज़-मैसूर संघर्ष:

मैसूर के वाडियार राजा दुर्बल हो चुके थे । उनके योग्य तथा कुशल सेनानायक हैदरअली ने राजा को पदच्युत करके सत्ता पर अधिकार कर लिया था । हैदरअली अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव के कारण शंकित था । सत्ता की प्रतिस्पर्द्धा में अंग्रेज तथा मैसूर के बीच सन 1767 से 1799 तक चार युद्ध लडे गए ।

प्रथम युद्ध वारेन हेस्टिंग्स के काल में हुआ । इसमें हैदरअली विजयी रहा और विवश होकर अंग्रेजों ने उससे संधि कर ली । संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेजों ने हैदरअली को आश्वासन दिया कि वे मैसूर पर मराठों द्वारा आक्रमण किए जाने की स्थिति में सहायता देंगे किन्तु अंग्रेजों ने इस आश्वासन को नहीं निभाया ।

इस कारण दूसरा मैसूर युद्ध शुरु हुआ जिसमें फ्रांसीसी कंपनी ने हैदरअली की सहायता की । इसी बीच हैदरअली की मृत्यु हो गई । उसके पुत्र टीपू सुल्लान ने युद्ध जारी रखा । अपनी स्थिति दुर्बल होती देख टीपू ने अंग्रेजों से संधि कर ली । टीपू, अंग्रेजों का कट्टर विरोधी था ।

उनसे मुकाबला करने के लिए उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित व सुसज्जित करने का प्रयास किया । टीपू के प्रयत्नों से अवगत होते ही अंग्रेजों ने तीसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध शुरु कर दिया । निजाम तथा मराठे अंग्रेजों से मिले हुए थे इस कारण टीपू अकेला लड़ता रहा । अंग्रेजों ने उसे पराजित कर दिया । संधि के अनुसार टीपू को अपने राज्य का महत्वपूर्ण भाग अंग्रेजों को सौंपना पड़ा ।

कुछ समय पश्चात टीपू ने एक बार पुन: अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने का प्रयत्न शुरु किया । उसने अपने दूत अरब, काबुल, कुस्तुनतुनिया, फ्रांस व मारिशस भेजकर सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया । उस समय कंपनी का गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली था । अपनी विस्तारवादी नीति के अन्तर्गत वेलेजली ने टीपू के विरुद्ध चौथा आंग्ल-मैसूर युद्ध छेड़ दिया । अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए टीपू वीरगति को प्राप्त हुआ और मैसूर पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया ।

अंग्रेज़-मराठा संघर्ष:

मुंबई अंग्रेजों के पश्चिम भारतीय व्यापार का केन्द्र था किन्तु उसके आसपास के प्रदेश पर मराठों की सत्ता थी । इस कारण से अंग्रेज वहाँ अपना अधिकार स्थापित नहीं कर पाए थे । मैसूर के पश्चात केवल मराठों की सत्ता अंग्रेजों के लिए एकमात्र चुनौती थी ।

अंग्रेज मराठों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर ढूँढ रहे थे । दुर्भाग्य से सन 1761 में अब्दाली के हाथों पानीपत के तृतीय युद्ध में पराजित होने पर मराठों की स्थिति कुछ दुर्बल हो गई थी । इसी समय योग्य पेशवा माधवराव

की मृत्यु हो जाने के कारण अल्पवयीन उत्तराधिकारी के विरुद्ध उसके चाचा रघुनाथराव ने पेशवा पद के लिए अपना दावा प्रस्तुत किया । नाना फडनवीस और मराठा सरदारों-भोंसले, गायकवाड़, सिंधिया और होल्कर ने इसका विरोध किया । रघुनाथराव ने अंग्रेजों से एक संधि करके उनसे सहायता ली ।

इस प्रकार से मराठों के मामलों में अंग्रेजों को प्रवेश करने का अवसर मिल गया । सन 1775 में अंग्रेज-मराठों के बीच पहला युद्ध शुरु हुआ । इस युद्ध में मराठा सरदार एक साथ होने के कारण युद्ध अनिर्णित रहा और आने वाले लगभग 20 वर्ष तक दोनों में शांति बनी रही ।

दूसरा अंग्रेज-मराठा युद्ध:

लार्ड वेलेजली के समय में लड़ा गया, जब तत्कालीन पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों की सहायक संधि स्वीकार कर ली । अंग्रेजों से सैनिक सहायता प्राप्त करने के बदले में पेशवा ने उनकी सभी शर्तें स्वीकार कीं । शक्तिशाली मराठा सरदारों, भोंसले तथा सिंधिया ने मराठा राज्य की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध सन 1803 में युद्ध छेड़ दिया ।

महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए किन्तु अंग्रेजी सेना के सामने वे टिक न सके । अंतत: दोनों सरदारों को अंग्रजों से अलग-अलग संधि करने पर विवश होना पड़ा । आरंभ में होल्कर इस युद्ध से अलग रहा था किन्तु उसने शीघ्र ही स्वतंत्र रूप से युद्ध शुरु कर दिया । राजस्थान के भरतपुर के राजा ने उसका साथ दिया । अंग्रेजों की सेना ने यद्यपि होल्कर को पराजित कर दिया; तथापि वे भरतपुर को नहीं जीत सके । अंत में अंग्रेजों ने उससे शांति संधि कर ली ।

तीसरा और अंतिम अंग्रेज-मराठा युद्ध:

सन 1817-1818 में लार्ड हेस्टिंग्ज के शासन काल में हुआ । पेशवा पूर्व में ही अंग्रेजों की सहायक संधि को स्वीकार कर चुका था किन्तु सन 1817 में ब्रिटिश रेजिडेंट ने उस पर नई सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला । साथ ही में पेशवा को बाध्य किया गया कि वह मराठा संघ का नेतृत्व छोड़ दे ।

पेशवा बाजीराव द्वितीय अंग्रेजों के निरंतर हस्तक्षेप से कुद्ध हो गया और उसने युद्ध शुरु कर दिया । भोंसले तथा होल्कर ने भी युद्ध की घोषणा कर दी । भिन्न-भिन्न लड़ाइयों में अंग्रेजों की सेना ने भोंसले होल्कर और पेशवा को पराजित किया ।

पेशवा के राज्य का एक भाग शिवाजी के वंशज को सतारा में दे दिया गया और शेष अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया । अन्य मराठा सरदारों – भोंसले, होल्कर, सिंधिया और गायकवाड़ की राजनैतिक और सैनिक शक्तियों में कटौती करके उनको अंग्रेजों के संरक्षण में राज्य करने का अधिकार मिला । इस प्रकार से मराठा शक्ति को नष्ट करके अंग्रेज भारत के प्रमुख सत्ताधीश बन गए ।

वेलेजली की सहायक सन्धि:

लार्ड वेलेजली को 1798 ई॰ में ब्रिटिश भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा गया । वेलेजली का लक्ष्य अधिक से अधिक साम्राज्य विस्तार करना था उसका उद्देश्य भारतीय राजे-नवाबों को ब्रिटिश झण्डे के नीचे लाना था ।

इसके लिए उसने युद्ध एवं सन्धि के द्वारा भारतीय राज्यों को कम्पनी के साथ जोड़ने का कार्य किया । युद्ध द्वारा मैसूर तथा मराठों को कम्पनी के अधीन लाया गया । लार्ड वेलेजली ने सहायक सन्धि के द्वारा भारत के अनेक राज्यों को कम्पनी के अधीन किया ।

सहायक सन्धि में निम्नलिखित बातें सम्मिलित थीं:

i. सहायक सन्धि अपनाने वाले भारतीय राज्य को अपनी सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी को अपने राज्य की सीमाओं में रखना होता था ।

ii. ब्रिटिश सेना के खर्च के लिए सन्धि स्वीकार करने वाले राज्य को एक निश्चित धन-राशि अथवा अपने राज्य का एक भू-भाग कम्पनी को देना होता था ।

iii. भारतीय शासक को अपने दरबार में एक अंग्रेज अफसर को भी रखना होता था जो भारतीय शासक के कार्यों में हस्तक्षेप किया करता था ।

यह व्यवस्था भारतीय राज्यों को सुरक्षा देने के नाम पर की गई थी, जबकि यह उनकी स्वतंत्रता का हनन करती थी । यह एक मकड़जाल था, जो इसको स्वीकार करता था वह सदैव के लिए ब्रिटिश जाल में फँस जाता था । सहायक सन्धि स्वीकार करने वाले भारतीय राज्यों में हैदराबाद और अवध प्रमुख थे । 1803 ई॰ में पेशवा ने और फिर सिन्धिया तथा भोंसले ने भी इस सन्धि को स्वीकार कर लिया ।

लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार:

लार्ड हेस्टिंग्स 1813 ई॰ में गवर्नर जनरल बनकर भारत आया । वह 1823 तक इस पद पर रहा, उसने नेपाल के साथ युद्ध करके उसे सुगौली की संधि करने के लिए मजबूर किया । मराठों को अंतिम रूप से पराजित कर उसने मराठा संघ को भंग कर दिया ।

लार्ड डलहौजी की विलय नीति:

भारतीय राज्यों को प्रत्यक्ष रूप से कम्पनी के अधीन करने के लिए गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने विलय नीति (हड़प नीति) का अनुसरण किया । सर्वप्रथम उसने भारतीय राजाओं द्वारा दत्तक पुत्र लेने की प्रथा पर रोक लगा दी ।

जो शासक बिना पुत्र के मर गए, उनके राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया । ऐसे राज्यों में झाँसी, नागपुर और सतारा प्रमुख थे । मैसूर और पंजाब के विस्तृत राज्यों को युद्ध द्वारा ब्रिटिश शासन का अंग बना लिया गया ।

1856 ई॰ में अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध को ब्रिटिश शासन का अंग बना लिया गया । 1757 ई॰ से 1857 ई॰ तक लगभग सम्पूर्ण भारत ब्रिटिश राज्य के अधीन आ चुका था । भारत को अपने अधीन करने के लिए कम्पनी शासन के द्वारा जो नीतियाँ अपनाई गई थीं उन्हीं के कारण विरोध की चिंगारियाँ भड़की और 1857 ई॰ का स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ ।

व्यापारिक एवं राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में अंग्रेजों की सफलता के कारण:

कर्नाटक युद्धों में मिली सफलता ने अंग्रेजों को व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में विजयी बना दिया और प्लासी तथा बक्सर के युद्धों ने अंग्रेज कम्पनी को भारतीय राजनैतिक सत्ता पर अधिकार दे दिया । प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे कौन से कारण थे ? जिन्होंने अल्पकाल में ही ब्रिटिश कम्पनी को भारत का भाग्य विधाता बना दिया ।

ब्रिटिश कम्पनी ने न केवल व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में फ्रांसीसी पुर्तगाली और डच कम्पनी को अपने रास्ते से हटाया वरन भारत की राजनैतिक सत्ता को प्राप्त करने का मार्ग साफ कर दिया । उन्होंने प्लासी और बक्सर के युद्धों में विजय प्राप्त करके बंगाल, बिहार, उड़ीसा, अवध के नवाब तथा मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को अपने आश्रित कर लिया ।

ब्रिटिश कम्पनी की विजय में भारत की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति भी जिम्मेदार थी । औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत में राजनीतिक बिखराव का दौर प्रारंभ हुआ । भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई जिनकी सैनिक शक्ति कम थी । राजा प्राय: विलासिता और अहंकार में डूबे रहते थे ।

उन्हें न तो अपने पड़ोसी राज्यों की गतिविधियों की चिंता थी और न ही अपनी प्रजा के दुखों की । उनकी सेनाएं कमजोर पथ भ्रष्ट और अनुशासनहीन थी । भारत की प्रमुख सैनिक शक्तियाँ अफगान, सिख, रुहेले, जाट, राजपूत आदि एक-दूसरे के विरोधी गुटों में सम्मिलित थे । नाम मात्र के मुगल सम्राट शक्तिहीन, वैभवहीन, कमजोर और साधनहीन थे । ब्रिटिश कम्पनी ने भारतीयों की इन्हीं दुर्बलताओं का फायदा उठाया और अपनी सफलताओं का मार्ग प्रशस्त किया ।

ब्रिटिश कम्पनी ने भारतीय राजाओं-नवाबों की राजनीतिक उदासीनता और आपसी प्रतिस्पर्धा का लाभ अपने पक्ष में उठाया । किसी एक राज्य को सैनिक और धन की सहायता देकर दूसरे को कमजोर किया । आगे चलकर दोनों पर ही अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया । फूट डालो और राज्य करो की नीति उनके लिए वरदान बन गई ।

अंग्रेजों की सफलता का कारण उनके हल्के और छोटे हथियार तथा प्रशिक्षित सेनाएं थीं । अंग्रेजों के पास एक अच्छा तोपखाना भी था जो उनकी विजय का कारण बना । 18वीं शताब्दी में भारत में राजनीतिक अराजकता, राजनीतिक बिखराव केंद्र का कमजोर होना आदि ऐसे तत्व थे जिन्होंने ब्रिटिश कम्पनी को सफलता प्रदान की ।

मराठे जिनसे अपेक्षा थी कि तत्कालीन अराजकता के दौर में राजनीतिक स्थिरता कायम कर पायेंगे आपसी संघर्ष में उलझे थे अत: वे अपेक्षा को पूरा नहीं कर सके । अंत में इतना कहा जा सकता है कि ब्रिटिश कम्पनी को मिली सफलता उनकी अपनी योग्यता में नहीं वरन भारत की राजनीतिक कमजोरियों में थी ।

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