Read this essay in Hindi to learn about the changes that happened from eighth to eighteenth century between India and rest of the World.
भारत और विश्व में आठवीं से अठारहवीं सदी तक के एक हजार वर्षो में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आए । यूरोप और एशिया में भी नई सामाजिक और राजनीतिक संरचनाएँ पैदा हुई । इन नई संरचनाओं ने लोगों के सोचने और जीने के ढंग पर गहरा प्रभाव डाला ।
इन परिवर्तनों का प्रभाव भारत पर भी पड़ा क्योंकि भूमध्य सागर के इर्द-गिर्द के देशों तथा इस क्षेत्र में पैदा होनेवाले विशाल साम्राज्यों के साथ जिनमें रोमन और फारसी साम्राज्य भी शामिल थे, भारत के बहुत पुराने व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे ।
यूरोप:
यूरोप में छठी सदी की तीसरी चौथाई तक शक्तिशाली रोमन साम्राज्य, जिसने यूरोप और भूमध्यसागरीय क्षेत्र को एक किया था, दो भागों में बँट चुका था । पश्चिमी भाग को, जिसकी राजधानी रोम थी, रूस और जर्मनी की तरफ से आनेवाले स्लाव और जर्मन कबीलों ने रौंद डाला ।
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ये कबीले अनेक खेपों में आए तथा पुराने रोमन साम्राज्य के इलाकों को तहस-नहस करने और लूटने में इन्होंने बहुत बड़ी भूमिका निभाई । लेकिन आगे चलकर ये कबीले यूरोप के विभिन्न भागों में बस गए जिससे वहाँ की आबादी के चरित्र तथा भाषा और शासन के ढर्रों में गंभीर परिवर्तन आए । आधुनिक यूरोपीय राष्ट्रों में से अनेक की बुनियाद स्थानीय जनता के साथ इन कबीलों के मिश्रण के कारण इसी काल में पड़ी ।
प्राचीन रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग की राजधानी बैजंतीन या कुस्तुंतुनिया में थी । इस साम्राज्य को बैजंतीनी साम्राज्य कहा जाता था । इसमें पूर्वी यूरोप का अधिकांश भाग तथा साथ ही आधुनिक तुर्की, सीरिया और मिस्र समेत उत्तरी अफ्रीका शामिल थे । इसने रोमन साम्राज्य की अनेक परंपराओं को जारी रखा, जैसे एक शक्तिशाली राजतंत्र और अत्यंत केंद्रीकृत प्रशासन को ।
लेकिन धार्मिक विश्वास और कर्मकांडों में पश्चिम के कैथलिक चर्च से, जिसका मुख्यालय रोम में था, इसके अनेक मतभेद थे । पूर्व के चर्च को यूनानी आर्थोडाक्स चर्च कहा जाता था । रूस ने यूनानी आर्थोडाक्स चर्च और बैजंतीनी शासकों के प्रयासों के कारण ही ईसाइयत को अपनाया ।
बैजंतीनी साम्राज्य एक विशाल और फलता-फूलता साम्राज्य था, जिसने पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद भी एशिया के साथ व्यापार जारी रखा । उसने शासन और संस्कृति की जो परंपराएँ पैदा कीं उनमें से अधिकांश को बाद में अरबों ने तब अपनाया जब उन्होंने सीरिया और मिस्र को जीत लिया ।
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बैजंतीनी साम्राज्य ने यूनानी-रोम सभ्यता और अरब जगत के बीच एक पुल का भी काम किया और आगे चलकर पश्चिम में यूनानी ज्ञान-विज्ञान के पुनरुत्थान में सहायता पहुँचाई । आखिर पंद्रहवीं सदी के मध्य में जब कुस्तुंतुनिया को तुर्कों ने जीत लिया तो इसका पतन हो गया ।
पश्चिम में रोमन साम्राज्य के पतन के सदियों बाद तक पश्चिमी यूरोप में बड़े नगरों का लगभग कोई पता नहीं था तथा विदेशी और घरेलू व्यापार को भारी धक्का लगा । इसका एक कारण सोने का अभाव था रोम वाले सोना अफ्रीका से पाते थे और पूरब के साथ व्यापार के लिए उसका उपयोग करते थे ।
इतिहासकार एक लंबे समय से छठी से दसवीं सदी तक के काल को ‘अधकार युग’ कहते आए हैं । पर यह कृषि के प्रसार का काल भी था जिसने दसवीं सदी के बाद नगरीय जीवन के पुनरुत्थान और विदेशी व्यापार की वृद्धि का रास्ता तैयार किया ।
बारहवीं और चौदहवीं सदी के बीच पश्चिमी यूरोप एक बार फिर समृद्ध हो गया । विज्ञान और प्रौद्योगिकी की वृद्धि, नगरों का प्रसार, तथा इटली के पदुआ और मीलान जैसे अनेक नगरों में विश्वविद्यालयों की स्थापना इस काल की उल्लेखनीय विशेषताएँ थी । इन विश्वविद्यालयों ने उन नए ज्ञान-विज्ञान और नए विचारों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिन्होंने धीरे-धीरे पुनर्जागरण को तथा एक नए यूरोप को जन्म दिया ।
अरब दुनिया:
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सातवीं सदी के बाद इस्लाम के उदय ने पश्चिम एशिया और पड़ोसी क्षेत्रों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पक्षों पर गहरा प्रभाव डाला । एक प्रमुख तत्व आपस में लड़नेवाले अरब कबीलों का एकीकरण था जिसके फलस्वरूप एक शक्तिशाली साम्राज्य का जन्म हुआ ।
आरंभिक खलीफों द्वारा स्थापित अरब साम्राज्य में अरब के आलावा सीरिया, ईराक, ईरान, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका और स्पेन शामिल थे । अरब कबीलों के अंदरूनी मतभेदों और गुहयुद्धों के कारण आठवीं सदी के मध्य में दमिश्क में बैठा खलीफा सत्ता खो बैठा और अब्बासी नाम का एक नया वश सत्ता में आया ।
उसने नवस्थापित नगर बगदाद को अपनी राजधानी बनाया । अब्बासी स्वयं को पैगंबर मुहम्मद साहब के कबीले से संबंधित होने का दावा करते थे । लगभग 150 वर्षों तक अब्बासी साम्राज्य दुनिया के सबसे शक्तिशाली और फलते-फूलते साम्राज्यों में से एक रहा ।
उसके चरमकाल में उस क्षेत्र की सभ्यता के सभी केंद्र उसमें शामिल थे जैसे उत्तरी अफ्रीका के भाग मिस्र, सीरिया, ईरान और ईराक । अब्बासी खलीफा पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के कुछ सबसे उपजाऊ देशों को ही नियंत्रित नहीं करते थे बल्कि भूमध्यसागर क्षेत्र को भारत से जोड़ने वाले प्रमुख व्यापारिक मार्गो पर भी उनका नियंत्रण था ।
अब्बासियों ने इस क्षेत्र के व्यापारिक मार्गो को जो शांति और सुरक्षा प्रदान की, वह इस क्षेत्र की जनता की खुशहाली और अब्बासी दरबार की शानो-शौकत का एक महत्वपूर्ण कारण था । अरब पक्के सौदागर थे तथा इस काल में वे जल्द ही सबसे उद्यमी और धनी सौदागरों और समुद्री यात्रियों के रूप में मशहूर हो गए । सार्वजनिक और निजी दोनों प्रकार की शानदार इमारतों वाले अनेक नगर उभरकर सामने आए ।
इस काल में अरब नगरों के जीवनस्तर और सांस्कृतिक वातावरण का दुनिया में कोई सानी नहीं था । अरबों ने सोने के दीनार और चाँदी के दिरहम भी चलाए जो पूरी दुनिया में व्यापार की मुद्रा बन गए । यह सब अफ्रीकी सोने तक अरबों की पहुंच के कारण संभव हुआ ।
अरबों ने दोहरी प्रविष्टियों वाले खातों का, उन्नत खातेदारी का तथा बड़े पैमाने पर लंबी-चौड़ी बैंकिग और ऋण व्यवस्था का आरंभ किया जिनमें विनिमय के बीजक (हुंडियाँ) भी शामिल थे । इस काल के सबसे मशहूर खलीफा अल-मामून और हारून-अल-रशीद थे । उनके दरबार और महल की शानो-शौकत तथा ज्ञान-विज्ञान में प्रवीण लोगों को उनसे मिलने वाला संरक्षण अनेक कथा-कहानियों के विषय बन गए ।
आरंभ में अरबों ने जिन प्राचीन सभ्यताओं को जीता था, उनके वैज्ञानिक ज्ञान और प्रशासनिक कौशल को आत्मसात करने की उन्होंने उल्लेखनीय क्षमता दिखाई । प्रशासन चलाने के लिए ईसाई व यहूदी जैसे गैर-मुसलमानों को तथा गैर-अरबों को भी नियुक्त करने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी खासकर ईरानियों को जिनमें से अनेक पारसी थे और बौद्ध भी ।
हालांकि अब्बासी खलीफा रूढ़िवादी मुसलमान थे, पर उन्होंने सभी दिशाओं में ज्ञान के दरवाजे खोल दिए बशर्ते वह ज्ञान इस्लाम के बुनियादी तत्त्वों को चुनौती न दे । खलीफा अल-मामून ने यूनानी, बैजंतीनी, ईरानी और भारतीय विभिन्न सभ्यताओं के ज्ञानग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद कराने के लिए बगदाद में एक बैत-उल-हिकमत (ज्ञान गृह) की स्थापना की ।
खलीफों की कायम की हुई मिसाल को कुलीनों ने भी अपनाया । बहुत कम समय में विभिन्न देशों के सभी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक ग्रंथ अरबी में उपलब्ध हो गए । यूरोपीय विद्वानों के एक समर्पित दल द्वारा हाल में किए गए अध्ययनों के फलस्वरूप अरबों पर यूनानी विज्ञान और दर्शनशास्त्र के प्रभाव के बारे में आज हम बहुत कुछ जानते हैं ।
हमें अब अरब दुनिया पर चीनी विज्ञान और दर्शनशास्त्र के प्रभाव का भी बेहतर ज्ञान है । कंपस, कागज, छपाई, बारूद यहाँ तक कि मामूली-सी इकपहिया ठेलागाड़ी भी इस काल में चीन से अरबों के माध्यम से ही यूरोप तक पहुँची । वेनिस के मशहूर यात्री मार्को पोलो ने चीन के बारे में और अधिक जानकारी हासिल करने तथा चीन-यूरोप व्यापार पर अरबों के एकाधिकार को तोड़ने के लिए ही चीन की यात्रा की थी ।
दुर्भाग्य से इस काल में अरब दुनिया के साथ भारत के आर्थिक एवं सांस्कृतिक संबंधों के बारे में तथा अरब दुनिया को भारत की वैज्ञानिक देन के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है । आठवीं सदी में अरबों द्वारा जीते जाने के बाद सिंध भारत और अरब दुनिया के बीच वैज्ञानिक-सास्कृतिक संबंधों का माध्यम बन गया ।
दशमलव प्रणाली, जो आधुनिक गणित का आधार है तथा जो भारत में पाँचवीं सदी मैं विकसित हुई थी इसी काल में अरब दुनिया में पहुँची । नवीं सदी में अरब गणितज्ञ उग्लख्वारिज्मी ने इसे अरब दुनिया में लोकप्रिय बनाया ।
एबेलार नाम के एक भिक्षु के जरिए यह ज्ञान बारहवीं सदी में यूरोप में पहुँचा जहाँ उसे अरब अंक-प्रणाली के नाम से जाना गया । खगोलशास्त्र और गणित से संबंधित अनेक भारतीय ग्रंथों के अरबी अनुवाद हुए । खगोलशास्त्र की सुप्रसिद्ध रचना सूर्य-सिद्धांत, जिसे आर्यभट्ट ने संशोधित और परिष्कृत किया था, इन ग्रंथों में एक थी ।
चरक और सुश्रुत के आयुर्विज्ञान संबंधी ग्रंथों के भी अनुवाद हुए । भारतीय व्यापारी और सौदागर ईराक और ईरान के बाजारों में जाते रहे तथा बगदाद में खलीफा के दरबार में भारतीय चिकित्सकों और उस्ताद कारीगरों का स्वागत किया जाता रहा ।
संस्कृत के अनेक साहित्यिक ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया गया जैसे कलील वा दिम्मना (पंचतंत्र), जो पश्चिम में ईसप की कथाएँ (Aesop’s Fables) का आधार बन गए । अरब दुनिया पर भारतीय विज्ञान और दर्शन का तथा बाद के काल में भारत पर अरब विज्ञान के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन इन दिनों जारी है ।
दसवीं सदी के आरंभ तक अरब इस स्थिति में पहुँच गए थे कि वे विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं कोई योगदान कर सकें । इस काल में अरब दुनिया में ज्यामिती, बीजगणित, भूगोल, खगोलिकी, प्रकाशिकी, रसायन, चिकित्सा आदि के विकास ने उसे विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी बना दिया ।
अरब भूगोलशास्त्रियों की रचनाओं और मानचित्रों ने विश्व संबंधी ज्ञान को उन्नत बनाया । अरबों ने खुले समुद्र में यात्रा के लिए नए साधनों के विकास में भी मदद पहुँचाई । इन साधनों का पंद्रहवीं सदी तक उपयोग होता रहा । भारत और पड़ोसी देशों के बारे मैं अरब व्यापारियों के वृत्तांत हमारे लिए जानकारी के उपयोगी स्रोत हैं ।
दुनिया के कुछ सबसे समृद्ध पुस्तकालय तथा प्रमुख वैज्ञानिक प्रयोगशाएँ अरब दुनिया में इसी काल में स्थापित की गई । पर यह याद रखना जरूरी है कि इनमें से अनेक उपलब्धियाँ अरब से बाहर, खुरासान, मिस्र, स्पेन आदि के लोगों द्वारा किए गए कार्यों का परिणाम थीं । इसे अरब विज्ञान इसलिए कहा गया कि इस पूरे क्षेत्र में अरबी ही साहित्य और चिंतन की भाषा थी ।
अरब दुनिया में विभिन्न देशों के लोग स्वतंत्र रूप से जहाँ चाहे आ-जा-सकते थे, जहाँ चाहे काम कर सकते और बस सकते थे । वैज्ञानिकों और विद्वानों को प्राप्त उल्लेखनोय बौद्धिक और व्यक्तिगत स्वंतत्रता और उनको प्राप्त संरक्षण भी अरब विज्ञान एवं सभ्यता की उल्लेखनीय वृद्धि के महत्वपूर्ण कारण थे ।
ईसाई चर्च के कठोर रवैये के कारण यूरोप में उन दिनों ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं थी । भारत में भी शायद ऐसी ही स्थिति थी क्योंकि इस काल में अरब वैज्ञानिकों में से शायद ही कोई भारत में आया हो । भारतीय विज्ञान के विकास की गति भी धीमी रही ।
अंतत : इस क्षेत्र को प्रभावित करने वाले राजनीतिक और आर्थिक विकासक्रमों के कारण और उससे भी बढ़कर मुक्त चिंतन का गला घोंटने वाले रूढिवाद की वृद्धि के कारण बारहवीं सदी के बाद अरब ज्ञान-विज्ञान का पतन होने लगा । लेकिन स्पेन में चौदहवीं सदी तक इसका विकास जारी रहा ।
अफ्रीका:
अरबों ने हिंद महासागर, पश्चिम एशिया और भूमध्यसागर के व्यापार के साथ अफ्रीका के घनिष्ठतर संबंध कायम किए । अफ्रीका के पूर्वी तट के किनारे-किनारे मलिंदी और जंजीबार तक अरबों के प्रवास और व्यापारिक कार्यकलापों में बहुत वृद्धि हुई ।
लेकिन अरबों के व्यापार में बड़े पैमाने पर गुलामों का, तथा सोने हाथीदाँत आदि का निर्यात भी शामिल था । अफ्रीका में एक काफी प्राचीन, शक्तिशाली इथियोपिया का राज्य भी था जिसमें अनेक नगर थे । इथियोपिया वाले हिंद महासागर में अदन से लेकर भारत तक व्यापार करते थे ।
हब्शी कहलाने वाले ऐसे अनेक इथियोपियावासी ईसाई थे । हिंद महासागरीय व्यापार में वे बैज़तीनी साम्राज्य के घनिष्ठ सहयोगी थे । बैजंतीनी साम्राज्य के पतन के बाद उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो ।
चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया:
चीन के साथ भारत के प्राचीन काल से ही आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध थे-जल और थल दोनों के रास्ते । आठवीं और नवीं सदियों में तांग शासन के अधीन चीन का समाज और वहाँ की संस्कृति प्रगति के उच्च सोपान पर पहुँच चुकी थी । तांग शासकों की अधिराजी मध्य एशिया में सिनकियांग के बहुत बड़े-बड़े हिस्सों पर, जिनमें काशगर भी शामिल था, फैली हुई थी ।
इसके कारण जिसे ‘रेशम मार्ग’ कहते हैं, उससे होकर स्थलीय व्यापार को काफी बढ़ावा मिला । इस रास्ते से रेशम ही नहीं बल्कि उम्दा चीनी मिट्टी के बर्तन तथा कम कीमती रत्न पुखराज की बनी वस्तुएं भी पश्चिम एशिया, यूरोप और भारत को निर्यात की जाती थीं । चीन में विदेशी व्यापारियों का स्वागत होता था । उनमें से अनेक-अरब, फारसी, भारतीय-समुद्री मार्ग से दक्षिण चीन में आए और केंटन में बस गए ।
नवीं सदी के मध्य में तांग साम्राज्य का पतन हुआ तथा दसवीं सदी में उसे सुग राजवंश ने विस्थापित कर दिया । सुंग राजवंश लगभग तीन सौ वर्षों तक चीन पर शासन करता रहा । आंरभिक सुंग काल, विशेषकर ग्यारहवीं सदी का काल चीन में अत्यधिक आर्थिक प्रसार का काल था ।
इसी काल के दौरान बाद के अनेक यूरोपीय आविष्कारों के आद्यरूप सामने आए । दक्षिण-पूर्व एशिया भारत और श्रीलंका के साथ चीन का समुद्रमार्गी व्यापार भी बढ़ा । आगे चलकर तेरहवीं सदी में चीनी शासनतंत्र की बढ़ती कमजोरी ने मंगोलों को चीन-विजय का अवसर दिया ।
उन्होंने चीन में मौत और तबाही का तांडव किया । लेकिन अपने घोर अनुशासित और गतिशील घुड़सवार दस्तों के बल पर मंगोल पहली बार एक शासन के अतंर्गत उत्तर और दक्षिण चीन का एकीकरण करने में सफल रहे । कुछ समय तक उन्होंने टोकिन (उत्तर वियतनाम) और अनाम (दक्षिण वियतनाम) को भी अपने कब्जे में रखा ।
उत्तर में उन्होंने कोरिया को रौंद डाला । इस तरह मंगोलों ने पूर्वी एशिया में एक ऐसे विशाल साम्राज्य की स्थापना की जिसकी गिनती दुनिसा की सबसे बड़ी ताकतों में होती थी ।
वेनिस का यात्री मार्को पोलो कुछ समय तक चीन के मंगोल शासकों में सबसे अधिक विख्यात कुबलाई खान के दरबार में रहा था । उसने इस दरबार का एक जीता-जागता चित्र खींचा है । मार्को पोलो समुद्री मार्ग से इटली लौटा और रास्ते में उसने भारत में मालाबार को भी देखा । इस तरह संसार के विभिन्न भाग पहले से करीब आ रहे थे तथा उनके व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्क बढ़ रहे थे ।
दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को कुछ चीनी शासकों की विस्तारवादी मुहिम का सामना करना पड़ा । तब तक चीन ने एक मजबूत नौसेना तैयार कर ली थी । लेकिन दक्षिण-पूर्व एशिया के राज्य अधिकतर स्वतंत्र ही रहे । इस क्षेत्र में इस काल में पनपनेवाले दो सबसे शक्तिशाली राज्य शैलेंद्र और कंबुज साम्राज्य थे ।
शैलेंद्र राजवंश आठवीं सदी में उभरा तथा उसने श्रीविजय साम्राज्य को काफी हद तक विस्थापित कर दिया । शैलेंद्र साम्राज्य दसवीं सदी तक फलता-फूलता रहा । इस साम्राज्य के चरमकाल में इसमें सुमात्रा, जावा, मलय प्रायद्वीप, सियाम (आधुनिक थाईलैंड) के कुछ भाग शामिल थे और तेज से तेज चलनेवाली नौका भी दो साल में इस विशाल साम्राज्य का चक्कर नहीं लगा सकती थी ।
शैलेंद्र शासकों के पास एक मजबूत नौसेना थी तथा चीन के साथ समुद्री व्यापार पर उनका वर्चस्व था । दक्षिण भारत के पल्लवों के पास भी एक शक्तिशाली नौसेना थी । पल्लव नौसेना विशेषकर बंगाल की खाड़ी में सक्रिय थी ।
दक्षिण-पूर्व के देशों और चीन के साथ समुद्री व्यापार इतना महत्वपूर्ण हो चला था कि दसवीं सदी में एक चोल शासक ने सुमात्रा और मलाया की ओर अनेक नौसैनिक अभियान रवाना किए ताकि संचार के समुद्री रास्तों को खुला रखा जा सके तथा व्यापार के नए अवसरों की तलाश की जा सके ।
ईसवी संवत् की आरंभिक सदियों में बल्कि उससे पहले भी इस क्षेत्र के देशों के साथ भारत के घनिष्ठ व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध थे । अनेक चीनी और भारतीय व्यापारी इस साम्राज्य की राजधानी पलेमका जाते थे जो सुमात्रा में स्थित था । पलेमबगै और भी पहले से सस्कृंत और बौद्ध अध्ययन का केंद्र बना हुआ था ।
इस काल में राजाओं ने यहाँ भव्य मंदिर बनवाए; इनमें सबसे प्रसिद्ध पूर्वी जावा नग बोरोबुदूर मंदिर है जो बुद्ध को समर्पित है । यह, एक मुकम्मल पहाड़ी है जिसे तराशकर नौ मंजिलें निकाली गई हैं और सबसे ऊपर एक स्तूप है ।
रामायण और महाभारत जैसे भारतीय महाकाव्यों के दृश्य इस मंदिर की पट्टिकाओं पर दिखाए गए हैं तथा ये साहित्य, लोक-कला, कठपुतली के खेलों आदि के लिए पसंदीदा विषय रहे हैं । शैलेंद्र शासक को जबाग का महाराज कहा जाता था जिसका अर्थ सुवर्णभूमि था ।
कंबुज साम्राज्य कंबोडिया और अनाम (दक्षिण वियतनाम) में फैला हुआ था । उसने फूनान के हिंदू रंग में रंगे राज्य को विस्थापित किया था जिसका इस क्षेत्र में पहले वर्चस्व था । कंबुज साम्राज्य पंद्रहवीं सदी तक फलता-फूलता रहा तथा उसने सांस्कृतिक विकास और समृद्धि का एक ऊँचा स्तर प्राप्त कर लिया था ।
कंबोडिया में अंकोरथोम के पास स्थित मंदिर-समूह को उसकी सबसे शानदार उपलब्धि माना जा सकता है । मंदिर निर्माण का सिलसिला दसवीं सदी में आरंभ हुआ । उसके बाद हर राजा अपनी याद छोड़ने के लिए वहाँ एक नया मंदिर बनवाता रहा और इस तरह 3.2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वहाँ 200 से अधिक मंदिर बन गए ।
इनमें से अंकोरवाट का मंदिर सबसे बड़ा है । इसमें तीन किलोमीटर लंबे बंद गलियारे हैं जिनमें देवी-देवताओं और अप्सराओं की सुंदर मूर्तियाँ हैं तथा कुशलता से तराशी गई ऐसी पट्टिकाएँ हैं जिन पर रामायण और महाभारत के दृश्य अंकित हैं ।
1860 में एक फ्रांसीसी द्वारा की गई ‘खोज’ के पहले तक बाहरी दुनिया इमारतों के इस पूरे समूह को पूरी तरह भूल चुकी थी और वह अधिकतर जंगलों से ढँक चुका था । दिलचस्प बात यह है कि मंदिर-निर्माण का काल दसवीं से बारहवीं सदी तक तीव्रतम गति से चला जो भारत में भी मंदिर-निर्माण का सबसे शानदार काल था ।
मलय प्रायद्वीप के तक्कल बंदरगाह से स्थल के रास्ते चीन सागर तक यात्रा करते हुए अनेक भारतीय व्यापारी दक्षिण चीन गए । दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और दक्षिण चीन में अनेक ब्राह्मण और आगे चलकर बौद्ध भिक्षु बस गए । बौद्ध धर्म चीन से चलकर कोरिया और जापान में पँहुचा ।
भारतीय भिक्षु कोरिया में गए और वहाँ उन्होंने एक कोरियाई लिपि के विकास को प्रभावित किया जो भारतीय लिपि से मिलती-जुलती थी । कालातर में भारत में तो बौद्ध धर्म का हास हो गया पर दक्षिण-पूर्व एशिया में वह फलता-फूलता रहा । वास्तव मे वहाँ बौद्ध धर्म ने हिंदू देवी-देवताओं को आत्मसात किया, यहाँ तक कि उसने हिंदू मंदिरों की भी अपना लिया । यह उस समय भारत में हो रही घटनाओं का उलटा था ।
इस तरह पश्चिम, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन के साथ तथा मडागास्कर और अफ्रीका के पूर्वी तट के देशों के साथ भारत का घनिष्ठ व्यापारिक और सास्कृतिक संबंध था । दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों ने भारत चीन तथा बाहरी दुनिया के बीच व्यापारिक एव सांस्कृतिक संपर्कों के लिए सेतु का काम किया ।
भारतीय सभ्यता और सस्कृति से गहराई से प्रभावित होते हुए भी दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों ने अपनी-अपनी विशिष्ट संस्कृति विकसित की जो उच्च स्तर की थी । अरब व्यापारी जो पहले दक्षिण भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार करते थे अब्बासी साम्राज्य की स्थापना के बाद और भी सक्रिय हो उठे ।
लेकिन अरबों ने भारतीय व्यापारियों और धर्मोपदेशकों को विस्थापित नहीं किया । आरंभिक चरण में उन्होंने इस क्षेत्र की जनता को मुसलमान बनाने का भी कोई विशेष प्रयास नहीं किया ।
इस तरह एक उल्लेखनीय सीमा तक धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता तथा विभिन्न संस्कृतियों का मिलन इन देशों की विशेषताएँ थीं, और उनमें ये विशेषताएँ आज तक बाकी हैं । सुमात्रा, जावा और मलाया ने इस्लाम को धीरे-धीरे अपनाया-भारत में इस्लाम की स्थिति के मजबूत होने के बाद ही ।
दूसरी जगहों पर बौद्ध धर्म फलता-फूलता रहा । भारत और इन देशों के व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संपर्क तभी टूट जब इंडोनेशिया में डचों, भारत, बर्मा और मलाया में अग्रेजों तथा आगे चलकर हिंदचीन में फ्रांसीसियों ने अपने पैर जमा लिए ।