Read this article in Hindi to learn about the various laws of development observed in humans.
1. विकास अवस्थाओं के द्वारा अग्रसर होता है (Development Proceeds from Different Stages):
शिशुओं का विकास निश्चित अवस्थाओं से होकर गुजरता है । प्रत्येक अवस्था की अपनी भिन्न-भिन्न विशेषताएँ होती हैं । सामान्य विकास क्रम में प्रत्येक विकास अवस्था अगली अवस्था हेतु बालक को तैयारी प्रदान करती है ।
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बालकों के विकास की कुछ प्रमुख अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं:
(i) गर्भकालीन अवस्था- इसकी तीन उप- अवस्थाएँ हैं:
(a) बीजावस्था,
(b) भूणावस्था,
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(c) गर्भस्थ शिशु की अवस्था ।
(ii) शैशवावस्था,
(iii) बचपनावस्था,
(iv) बाल्यावस्था,
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(v) वय: सन्धि अवस्था,
(vi) किशोरावस्था तथा
(vii) प्रौढ़ावस्था ।
2. विकास परिपक्वता और अधिगम का परिणाम है (Development is a Result of Maturity and Learning):
शिशु के विकास में परिपक्वता तथा अधिगम दोनों ही अपनी भूमिका अदा करती है । परिपक्वता से अभिप्राय व्यक्ति के वंशानुक्रम से जुड़े शारीरिक गुणों या क्षमताओं का विकास है ।
प्राणी के व्यवहार में बदलाव उसकी शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता के कारण भी होते हैं, किन्तु ये बदलाव अधिगम के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों से भिन्न होते हैं । तब भी अधिगम एवं पक्वीकरण में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है ।
अधिगम हेतु पक्वीकरण नींव तैयार करता है । अधिगम के माध्यम से शिशु के व्यवहार में प्रगतिपूर्ण स्थायी बदलाव होते हैं, तथा शिशु नई प्रतिक्रियाएँ प्राप्त करता है, या पुरानी प्रतिक्रियाओं की क्रियाशीलता तथा क्षमता को बढाता है । गर्भकालीन अवस्था में विकास मुख्यत: परिपक्वता के कारण होता है ।
शिशु की स्वयं की क्रियाओं के माध्यम से भी थोड़ा-बहुत विकास हो जाता है । एक अध्ययन में यह पाया गया कि सम्पूर्ण शारीरिक विकास तथा अंगो के प्रहस्थन में उच्च सहसम्बन्ध है । यह भी पाया गया कि गर्भकालीन अवस्था में जो शिशु ज्यादा क्रियाशील होते हैं, वे जन्म के पश्चात् भी शारीरिक कौशलों को दूसरे बच्चों की तुलना में जल्दी सीख लेते हैं ।
3. विकास के प्रतिमानों की भविष्यवाणी सम्भव (Prediction of Determinants of Development is Possible):
विकास की प्रत्येक अवस्था की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जिनके आधार पर बालक के विकास के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकती है ।
शिशु का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है:
(i) शिर: पदाभिमुख दिशा में और
(ii) सन्निकट दूरस्थ दिशा में ।
शिर: पदाभिमुख दिशा के अनुसार शारीरिक विकास की दिशा सिर से पैर की ओर क्रम से होती है । अभिप्राय यह है, कि सबसे पहले विकास सिर से शुरू होता है, फिर धड़ तथा आखिरी में पैर के क्षेत्र में विकास होता है ।
सन्निकट दूरस्थ दिशा के अनुसार शारीरिक विकास पहले सुषुम्ना नाडी के नजदीक के क्षेत्रों में होता है, तत्पश्चात् सुषुम्ना नाड़ी से दूर के क्षेत्रों मे होता है । उदाहरणार्थ – हाथ तथा भुजा के क्षेत्र में विकास पहले होता है, अंगुलिकों के क्षेत्र में विकास बाद में होता है ।
विकास की गति अगर शुरू में ज्यादा होती है, तो विकास की हर स्थिति से ज्यादा रहती है । अत: विकास की प्रत्येक अवस्था के आधार पर अन्य अवस्थाओं के विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है ।
इन भविष्यवाणियों की सम्भावना से बहुत से लाभ हैं:
(i) पहले विकास की अवस्था के निरीक्षण के आधार पर भविष्य के विकास की सम्भावना को जाना जा सकता है ।
(ii) इन सम्भावनाओं के आधार पर उसके प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया जा सकता है ।
(iii) विकास की आने वाली अवस्था हेतु बालक को तैयार किया जा सकता है ।
(iv) विकास की सम्भावना के अनुकूल उसे व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जा सकता है ।
4. विकास का एक निश्चित कम होता है (Development Proceeds in a Certain Order):
मानसिक विकास एवं शारीरिक विकास का कम निश्चित होता है ।
यह क्रम निम्न दो प्रकार का होता है:
(a) शिर: पदाभिमुख क्रम तथा
(b) सन्निकट दूरस्थ क्रम ।
इसके अलावा हर विकास, क्योंकि अपनी अवस्था के अनुकूल होता है, अत: एक अवस्था के पूरा हो जाने पर ही अगले क्रम की अवस्था का विकास सम्भव है । जैसे – शिशु पहले बैठना, फिर खड़े होना तथा बाद में चलना सीखता है । यह क्रम सदा निश्चित रहता है ।
मानसिक विकास में भी निश्चित क्रम देखा गया है । भाषा विकास में शिशु पहले एक शब्द या वाक्य सीखता है, तत्पश्चात् बहुशब्दीय वाक्यों को सीख पाता है ।
5. विकास की प्रकृति सामान्य से विशिष्ट की ओर होती है (Nature of Development Proceeds from General to Specific Response):
शारीरिक विकास में पहले बालक वस्तु पकड़ने के लिए पूरे शरीर का प्रयोग करता है । धीरे-धीरे शारीरिक परिपक्वता आने पर सिर्फ पूरे हाथों के माध्यम से वस्तु पकड़ना सीखता है । तत्पश्चात् सिर्फ अँगुलियों की मदद से वस्तु का पकड़ना सीख जाता है । मानसिक विकास में भी सामान्य से जटिल का क्रम देखा गया है ।
आरम्भ में संवेग विशिष्ट नहीं होते । बहुतसी परिस्थितियों तथा बहुत से उद्दीपकों के प्रति एक ही प्रकार के संवेग दर्शाये जाते हैं । जैसे- शुरू में बालक हर स्थिति में रोता है । धीरे-धीरे वह अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग संवेगों का विशिष्ट प्रयोग करना सीख जाता है ।
6. विभिन्न अवस्थाओं में विकास की गति भिन्न होती है (Motion of Development Proceeds in Different Stages):
विकास लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, लेकिन उसकी गति हमेशा एकसी नहीं होती । उदाहरणार्थ सर्वाधिक विकास जन्म से पूर्व होता है, जबकि बालक एक कोषीय प्राणी से 9 माह में 18 से 20” लम्बाई तथा 2.50 से 3 किग्रा वजन प्राप्त कर लेता है । 1 वर्ष के पश्चात् शारीरिक विकास की गति धीमी पड़ जाती है । पूर्व किशोरावस्था में विकास की गति फिर से बढ़ जाती है ।
इसके अलावा शरीर के अलग-अलग अंगों का विकास भिन्न-भिन्न गति से होता है । प्रारम्भिक अवस्था में सिर का विकास सर्वाधिक तीव्र गति से होता है । किशोरावस्था मे हाथ तथा पैरों का विकास लगभग पूरा हो जाता है । कन्धे तथा वक्ष का विकास किशोरावस्था से शुरू होता है । इसी तरह मानसिक विकास की दर भी अलग-अलग होती है ।
मानसिक क्षमताओं के मापन सम्बन्धी अध्ययनों से ज्ञात होता है, कि बाल्यावस्था में सृजनात्मक कल्पना का विकास तीव्र गति से होता है, तथा किशोरावस्था तक अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विकास की गति शरीर के अलग-अलग अंगों में विभिन अवस्थाओं में अलग-अलग रहती है । उसी तरह मानसिक विकास के विभिन्न पहलू विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न गति से विकसित होते हैं ।
7. विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है (Development is a Continuing Process):
विकास का कम गर्भधारण से शुरू हो जाता है, तथा जीवन के अन्त तक सदैव चलता रहता है, जबकि अलग-अलग अवस्थाओं में उसकी गति भिन्न-भिन्न रहती है ।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि बालक में कोई गुण एकाएक प्रकट हो गया है, किन्तु वास्तव में किसी भी गुण के प्रकट होने के पहले एक लगातार होने वाले विकास क्रम से गुजरना पड़ता है । 6 महीने में शिशु के दाँत ऊपर दिखाई देते हैं, किन्तु उनके निर्माण की प्रक्रिया जन्म से पूर्व से शुरू होकर सदैव चलती रहती है ।
आरम्भ में शिशु की भाषा का स्वरूप क्रन्दन रहता है । धीरे-धीरे लगातार विकास प्रक्रिया द्वारा वह भाषा की अलग-अलग अवस्थाओं को पार कर लेता है । अत: विकास अपनी आन्तरिक अवस्था में उतना स्पष्ट भले ही न हो पर वह सदैव होता रहता है । अत: विकास एक अविराम चलने वाली प्रक्रिया है ।
8. विकास के विभित्र क्षेत्रों में सह-सम्बन्ध होता है (Development Proceeds Co-Operation in Different Areas):
शारीरिक तथा मानसिक क्षेत्रों में होने वाले भिन्न-भिन्न विकास एक-दूसरे से अत्यधिक सह-सम्बन्धित होते हैं । जिन शिशुओं का शारीरिक विकास सही होता है, उनका क्रियात्मक विकास भी ठीक होता है । जो शिशु खुश रहते हैं तथा जिनकी संवेगात्मक अभिव्यक्ति परिपक्व होती है, वे बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते हैं ।
यह भी पाया गया है, कि अच्छे सामाजिक विकास के साथ नैतिक विकास भी अच्छा होता है । इसलिए शारीरिक क्षेत्रों के विकास में सह-सम्बन्ध देखा गया है । मानसिक विकास के अलग-अलग क्षेत्रों में भी सह-सम्बन्ध देखा गया है । सामाजिक विकास के अलग-अलग क्षेत्रों में भी सह-सम्बन्ध पाया जाता है, तथा इन क्षेत्रों के विकास में परस्पर सह-सम्बन्ध पाया जाता है ।
9. विकास प्रतिमानों में वैयक्तिक विभिन्नता पाई जाती है (Development Proceeds Individual Differences):
यद्यपि शिशुओं के विकास क्रम में पर्याप्त समानता पाई जाती है, फिर भी विकास की दर एवं विकास प्रतिमानों के विषय में बालकों में पर्याप्त व्यक्तिगत विभिन्नता पाई जाती है ।
उदाहरणार्थ – कुछ शिशुओं में शारीरिक एवं मानसिक विकास की गति मन्द होती है, तथा कुछ अन्य शिशुओं में विकास की गति तीव्र होती है । विभिन्न अवस्थाओं में शिशुओं में शारीरिक एवं मानसिक योग्यताओं की मात्रा अलग-अलग होती है ।
इस प्रकार एक ही उम्र के कोई भी दो शिशु एक समय में अपने व्यवहार में कुछ-न-कुछ भिन्नता जरूर दर्शाते हैं । इन व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनेक कारण है । शारीरिक विकास के क्षेत्र में बालकों के विकास में प्राप्त होने वाली व्यक्तिगत विभिन्नताएँ वंशानुक्रम, भोजन, स्वास्थ्य तथा वातावरण की अन्य अनेकों परिस्थितियों के परिणामस्वरूप होती हैं ।
इसी तरह मानसिक विकास के क्षेत्र की विभिन्नताएं भी वशानुक्रम तथा वातावरण के अलग-अलग पहलुओं की भित्रता के कारण होती हैं । इन्हीं व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण हर वयस्क व्यक्तित्व का उदाहरण अद्वितीय होता है ।
10. विकास प्रतिमानों में स्थिरता पाई जाती है (Development Determines Stability):
यद्यपि अलग-अलग शिशुओं की विकास गति भिन्न-भिन्न होती है, तत्पश्चात् उनके विकास में स्थिरता देखी जाती है ।
उदाहरणार्थ:
जो शिशु जन्म के समय सामान्य की अपे क्षा ज्यादा लम्बे रहते हैं । इस तरह उनके लम्बाई सम्बन्धी विकास प्रतिमान में स्थिरता पाई जाती है ।
उदाहरणार्थ:
जो शिशु आरम्भिक बाल्यावस्था में मन्द बुद्धि होते हैं, वे वयस्कावस्था में भी मन्द बुद्धि के होते हैं । अत: जो बालक आरम्भिक बाल्यावस्था में तीव्र बुद्धि के होते हैं, वयस्कावस्था में भी उनकी बुद्धि तीव्र रहती है । इस तरह हम देखते हैं, कि विकास प्रतिमानों में पर्याप्त स्थिरता पाई जाती है ।
11. विकास की प्रत्येक अवस्था के विशिष्ट गुण होते हैं (Development Proceeds some Specific Quality in Each Stage):
विकास क्रम मे प्रत्येक आयु स्तर की कुछ विशेषताएँ होती हैं, जोकि उस अवस्था हेतु तो सामान्य होती हैं, पर किसी दूसरी अवस्था में उनकी उपस्थिति असामान्य मानी जाती हैं ।
उदाहरणार्थ:
बाल्यावस्था में समान यौन के बालकों में रुचि रहती है । इसके विपरीत किशोरावस्था में विपरीत लिंग के शिशुओं में ज्यादा रुचि देखी जाती है । इस तरह हर आयु स्तर पर कुछ ऐसे सामान्य व्यवहार के प्रतिमान बालकों में पाये जाते हैं, जिन्हें अभिभावक समस्याजनक व्यवहार की संज्ञा देते हैं ।
उदाहरणार्थ:
तीन वर्ष के शिशु में अत्यधिक नकारात्मक व्यवहार सामान्य है, जो आयु बढ़ने के साथ अपने आप कम हो जाता है, किन्तु अभिभावक इसे असामान्य समझते हैं तथा वे दु:खी हो जाते हैं ।
उसी तरह वय: सन्धि अवस्था के विकास प्रतिमानों की विशेषता कामुकता होती है, जो इस विकास की अवस्था हेतु सामान्य है । किन्तु माता-पिता या वयस्क इसे समस्या समझ लेते हैं । विशिष्ट तौर पर उसे उस समय समस्याजनक माना जाता है, जबकि किशोर नई परिस्थितियों से समायोजन नहीं कर पाता ।
12. सन्तुलन और असन्तुलन के पहलू (Aspects of Balance and Imbalance):
कई विकास प्रतिमानों में सन्तुलन तथा कुछ में असन्तुलन प्रदर्शित होता है । जिन विकास प्रतिमानों में सन्तुलन होता है, उनमें शिशु अपना अच्छा समायोजन कर लेता है । इनमें उसका जीवन सरल तथा सुगम होता है ।
विकास प्रतिमानों के असन्तुलन की उपस्थिति में बालक में तनाव असुरक्षा अनिर्णय इत्यादि व्यवहार सम्बन्धी समस्याएँ प्रदर्शित होती हैं । लड़के तथा लड़कियों में ये सन्तुलन तथा असन्तुलन के पहलू कुछ अलग-अलग आयु स्तरों में प्रदर्शित होते हैं ।
ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लड़के तथा लड़कियों की विकास की दर अलग-अलग होती है । 18 महीने 21/2 वर्ष, 31/2 वर्ष, 51/2 वर्ष के आयु स्तर पर शिशुओं में असन्तुलन तथा 2 वर्ष, 3 वर्ष, 4 वर्ष व 5 वर्ष के आयु स्तर पर बालकों में सन्तुलन देखा जाता है । लगभग 6 वर्ष की आयु से वय: सन्धि तक सन्तुलन तथा वय: सन्धि में पुन: असन्तुलन पैदा हो जाता है ।