Read this article in Hindi to learn about the state of foreign trade in India during medieval period.
भारत न केवल दक्षिण-पूर्व और पश्चिम एशिया के अनेक देशों को चावल शक्कर आदि खाद्य पदार्थ भेजता था बल्कि इस क्षेत्र के व्यापार में भारतीय कपड़ों का भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान था । जैसा कि एक अंग्रेज गुमाश्ते ने कहा था, ‘अदन से अचीन तक हर कोई सर से पाँव तक भारतीय वस्त्रों में लिपटा हुआ था ।’
यह वक्तव्य थोड़ी अतिशयोक्ति से भरा अवश्य है (क्योंकि मिस्र और उस्मानी तुर्की भी कपास पैदा करते और कपड़ों का निर्यात करते थे), पर बुनियादी तौर पर यह सही है । यही चीज थी जिसने भारत को (चीन छोडकर) एशियाई जगत का कारखाना जैसा बना दिया था ।
भारत को जिन वस्तुओं का आयात करना पड़ता था वे थीं टिन और ताँबे जैसी कुछ धातुएँ जिनका उत्पादन यहाँ अपर्याप्त था (टिन का उपयोग काँसा बनाने के लिए किया जाता था) भोजन और दवाओं में प्रयोग के लिए कुछ मसाले, जंगी घोड़े और (हाथीदाँत जैसी) विलासिता की वस्तुएँ ।
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व्यापार का अनुकूल संतुलन बनाए रखने के लिए भारत को सोने-चाँदी का आयात करना पड़ता था । भारत के विदेश व्यापार के बढ़ने के कारण सत्रहवीं सदी में देश में सोने-चाँदी का आयात इतना बढ़ गया कि बर्नियर के अनुसार ‘दुनिया के हर भाग में घूमने-फिरने के बाद सोना-चाँदी अंतत भारत में दफन हो जाते हैं जो सोने और चाँदी का तहखाना है ।’
इस वक्तव्य में भी अतिशयोक्ति है क्योंकि उन दिनों प्रत्येक देश सोना-चाँदी से चिपके रहने का प्रयास करता था । लेकिन अधिकतर इसमें भारत और चीन ही सफल रहे क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्थाएँ विशाल थीं और वे अधिकतर आत्मनिर्भर थे ।
हम पंद्रहवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारत में पुर्तगालियों के आगमन का उल्लेख कर चुके हैं । तीखे पुर्तगाली विरोध के बावजूद डचों ने 1606 में गोलकुंडा के सुल्तान से एक फरमान हासिल करके मसुलीपट्टम में अपना अड्डा बना लिया । उन्होंने मसाला द्वीप (जावा और सुमात्रा) में भी पैर जमा लिए जिसके चलते 1610 तक वे मसालों के व्यापार पर हावी हो चुके थे ।
डच मूलत: मसालों के व्यापार के लिए ही पूरब में आए थे । पर जल्द ही उन्होंने महसूस कर लिया कि भारतीय कपड़ा के बदले मसाले हासिल करना सबसे आसान है । कोरोमंडल तट पर बनने वाले कपड़े दक्षिण-पूर्व एशिया में सबसे अधिक लोकप्रिय थे और उनकी लदाई सबसे सस्ती थी । इसलिए डच मसुलीपट्टनम से दक्षिण में कोरोमंडल तट की ओर बढ़ ।
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उन्होंने स्थानीय शासक से पुलिकट हासिल करके उसे अपनी कार्रवाइयों का आधार बना लिया । डचों की तरह अंग्रेज भी मसालों के व्यापार के लिए पूरब में आए लेकिन जब उनका सामना डचों की दुश्मनी से हुआ जिनके पास अधिक संसाधन थे और जो मसाला द्वीपों में पहले ही पैर जमा चुके थे तो अंग्रेजों ने भारत पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया ।
सूरत से बाहर एक पुर्तगाली बेड़े को हराने के बाद उन्होंने आखिर 1612 में वहाँ अपनी फैक्टरी बना ही ली । उसे 1618 में जहाँगीर के एक फरमान ने अनुमोदित किया जिसे सर टामस रो की सहायता से प्राप्त किया गया था । फिर डच भी आए और सूरत में उन्होंने भी एक फैक्टरी बनाई ।
भारत के वस्त्र-निर्यात के केंद्र के रूप में अंग्रेजों ने गुजरात के महत्व को जल्द ही महसूस कर लिया । उन्होंने लाल सागर और फारस की खाड़ी के बंदरगाहों के साथ भारत के व्यापार में दखल देने की कोशिश की । 1622 में ईरानी फौजों की मदद से उन्होंने हरमुज पर कब्जा कर लिया जो फारस की खाड़ी के सिरे पर पुर्तगालियों का अड्डा था ।
इस तरह सत्रहवीं सदी की पहली चौथाई तक भारतीय व्यापार में डच और अंग्रेज दोनों पैर जमा चुके थे और समुद्र पर पुर्तगालियों का नियंत्रण हमेशा के लिए समाप्त हो चुका था । पुर्तगाली गोवा में बने रहे तथा दमन और दीव में भी । लेकिन भारत के विदेश व्यापार में उनकी भागीदारी लगातार कम होती गई ।
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हाल के अनुसंधानों से पता चला है कि समुद्र पर अपने वर्चस्व के बावजूद यूरोप वाले एशियाई व्यापार से भारतीय व्यापारियों को कभी बाहर न निकाल सके । वास्तव में भारत के किसी भी भाग-गुजरात कोरोमंडल या बंगाल के साथ व्यापार में यूरोपीय कंपनियों का भाग भारत के विदेश व्यापार का केवल एक छोटा हिस्सा ही रहा ।
भारतीय व्यापारी अगर अपने को कायम रख सके तो इसके अनेक कारण थे जहाँ तक कपड़ा व्यापार का सवाल था तो भारतीय व्यापारी घरेलू और विदेशी बाजार दोनों को बेहतर जानते थे । भारतीय कम मुनाफे पर 10 से 15 प्रतिशत पर भी काम करने को तैयार रहते थे जबकि ऊपरी लागत फैक्टरियों की लागत जंगी जहाजों आदि के खर्च पूरे करने के लिए डच न्यूनतम 40-50 प्रतिशत मुनाफे को आवश्यक मानते थे ।
अंग्रेजों का दृष्टिकोण भी ऐसा ही रहा होगा । डचों और अंग्रेजों ने यह देखा कि मुगल सरकार और भारतीय व्यापारियों के सहयोग के बिना वे भारत में व्यापार नहीं कर सकते थे बल्कि अपनी फैक्टरियों में काम करनेवालों को रोटी तक नहीं खिला सकते थे ।
इन कारणों से और अपने कामकाज की लागत कम करने के लिए वे भारतीय सौदागरों के मालों को अपने जहाजों पर लादने लगे । साथ ही भारतीय जहाजरानी की भी वृद्धि हुई । सूरत में सदी के मध्य में अगर लगभग 50 जहाज थे जिनमें से अनेक तो मजबूत बने थे तो सदी के अंत तक उनकी संख्या बढ़कर कम से कम 112 हो चुकी थी । यह भारत के विदेश व्यापार और घरेलू विनिर्माण की वृद्धि का एक और सूचक था ।
एशियाई व्यापार में भागीदारी के अलावा अंग्रेज और डच ऐसी वस्तुओं की तलाश में भी थे जिनका भारत से यूरोप को निर्यात किया जा सके । आरंभ में काली मिर्च के अलावा ‘प्रमुख व्यापार’ नील का था जिसका उपयोग ऊनी कपड़ों की रंगाई के लिए किया जाता था ।
सबसे उपयुक्त नील वह पाया गया जो सरखेज (गुजरात) और आगरा के पास बयाना में पैदा किया जाता था । अंग्रेजों ने जल्द ही ‘कैलिको’ (मोटा सूती कपड़ा) कहलाने वाले भारतीय वस्त्रों का यूरोप को निर्यात शुरू कर दिया । आरंभ में गुजरात का कपड़ा इसके लिए पर्याप्त था ।
लेकिन माँग बड़ी तो अंग्रेजों ने आगरा और उसके आसपास उत्पादित कपड़ा को हासिल करने की कोशिश शुरू कर दी । पर यह भी काफी नहीं रहा । इसलिए उन्होंने कोरोमंडल को आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोत के रूप में विकसित किया । 1640 तक कोरोमंडल का निर्यात गुजरात के निर्यात के बराबर हो चुका था और 1660 तक गुजरात से तीन गुना हो गया ।
मसुलीपट्टम और फोर्ट सेंट जार्ज जो बाद में मद्रास के रूप में विकसित हुआ इस व्यापार के प्रमुख बंदरगाह थे । डच भी इस नए उद्यम में अंग्रेजों के साथ शामिल होकर कोरोमंडल से मोटे कपड़े और नील का निर्यात करने लगे ।
अंग्रेजों ने सिंधु नदी के मुहाने पर स्थित लहरी बंदर को भी खंगाला जो सिंधु नदी के रास्ते होने वाले यातायात के साथ मुलतान और लाहौर की पैदावार को खींच सकता था । पर वह व्यापार गुजरात के व्यापार के आगे गौण ही रहा । इससे अधिक महत्वपूर्ण उनके बंगाल और उड़ीसा के व्यापार के विकास संबंधी प्रयास थे ।
पूर्वी बंगाल में पुर्तगाली और माघ लुटेरों की सरगर्मियों से इस विकास की गति धीमी रही । लेकिन 1650 तक अंग्रेज हुगली के किनारे और बालासोर (उड़ीसा) में पैर जमा चुके थे और वहाँ के कपड़ों के अलावा कच्चे रेशम और शक्कर का निर्यात करने लगे थे । एक और मद का विकास भी हुआ ।
यह था शोरे का निर्यात जो बारूद के यूरोपीय सोर्तो का पूरक बन गया । उसे यूरोपगामी जहाजों में स्थिरक (बैलास्ट) के रूप में भी प्रमुका किया जाता था । सबसे अच्छी किस्म का शोरा बिहार में पाया जाता था । पूर्वी क्षेत्रों के निर्यात तेजी से बड़े तथा सदी के अंत तक मूल्य के एतबार से वे कोरोमंडल के निर्यात के बराबर हो चुके थे ।
इस तरह डच और अंग्रेज कंपनियों ने भारतीय वस्तुओं के निर्यात के लिए नए बाजार खोले । सत्रहवीं सदी की आखिरी चौथाई तक भारतीय वस्त्र इंग्लैंड में धूम मचाने लगे थे । जैसा कि एक अंग्रेज प्रेक्षक ने लिखा है, ‘चाहे स्त्रियों के वस्त्रों से संबंधित हो या हमारे घरों के फर्नीचर से लगभग हर ऐसी चीज जो लकड़ी या रेशम की बनी होती थी भारतीय व्यापार द्वारा प्रदान की जाती थी ।’
इंग्लैड में इस स्थिति के खिलाफ प्रतिक्रिया होने के फलस्वरूप 1701 में फारस, चीन या ईस्ट इंडीज (अर्थात भारत) के ‘सभी चित्रित, रंगे हुए, छपे हुए या दाग बनाए हुए सूती कपड़ों’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया । लेकिन इनका और दूसरे दंडनीय विधानों का प्रभाव कम ही पड़ा । छपे हुए कपड़े की जगह सफेद भारतीय सूती कपड़ों का आयात जो 1701 में बढ़कर साढ़े नौ लाख थान था, 1719 तक उछलकर 20 लाख थान तक जा पहुँचा ।
हालांकि सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध और अठारहवीं सदी के आरंभिक भाग में यूरोप के साथ भारत का व्यापार तेजी से बढ़ा, पर अंतर-एशियाई व्यापार अभी भी बहुत अधिक लाभदायक था । उदाहरण के लिए अनुमान लगाया गया है कि मसालों के समूचे उत्पादन का केवल 14 प्रतिशत यूरोप जाता था और उनकी सबसे अधिक खपत भारत और चीन में थी ।
सत्रहवीं सदी में पश्चिम एशिया और पूर्वी अफ्रीका के लिए भारतीय कपड़ों का निर्यात भी बढ़ा । व्यापार की एक नई मद कहवा (coffee) थी जो यमन (दक्षिणी अरब) में पैदा की जाती थी । लाहौर और मुलतान भारत के स्थलीय व्यापार के प्रमुख केंद्र थे । कहा गया है कि ईरान के विभिन्न भागों में व्यापारियों का एक बड़ा समूह बसा हुआ था जिनकी संख्या 10,000 थी ।
ईरान से वे बुखारा और समरकंद तक और दक्षिणी रूस तक भी फैल गए । इस तरह बाकू और वोल्गा नदी के मुहाने पर स्थित आस्त्राखान में उन भारतीय व्यापारियों की एक बड़ी-सी बस्ती थी जो मास्को के साथ व्यापार करते थे । ‘यारकंद और खोतान’ (आधुनिक सिंकियांग) में भी भारतीय व्यापारियों की बस्तियाँ थीं जो पंजाब से कश्मीर और लद्दाख के रास्ते चीन के साथ व्यापार करने में सहायक थीं । सफवी साम्राज्य आग फिर मुगल साम्राज्य के विघटन के बाद ही इस स्थलीय व्यापार का पतन हुआ ।
भारत के विदेश व्यापार की वृद्धि, देश में सोने-चाँदी की आमद और तेजी से बढ़ रहे यूरोपीय बाजारों के साथ भारत के घनिष्ठतर संबंधों के अनेक महत्वपूर्ण परिणाम निकले । जहाँ भारतीय व्यापार की वृद्धि हुई वहीं देश में सोने-चाँदी की आमद और भी तेज रही । फलस्वरूप सत्रहवीं सदी के पूर्वार्ध में कीमतें लगभग दोगुनी हो गई ।
समाज के विभिन्न वर्गो पर इस मूल्य वृद्धि के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन अभी होना है । इससे संभवत: गाँवों के पुराने, परंपरागत संबंध कमजोर हुए तथा कुलीन वर्ग और भी धनप्रेमी, लोभी और खूनचूस बन गए । दूसरे यूरोपीय राष्ट्र भारत को होने वाले सोने-चाँदी के निर्यात के विकल्प की खोज में थे ।
एक उपाय तो यह था कि मसालों के व्यापार पर एकाधिकार करके और कपड़ों के भारतीय व्यापार पर कब्जा करके एशिया के व्यापारतंत्र में घुसा जाए । जैसा कि हमने देखा इन क्षेत्रों में उन्हें सीमित सफलता ही मिली । इसलिए उन्होंने भारत और पास-पड़ोस में साम्राज्य बनाने का प्रयास किया ताकि वे इन क्षेत्रों के राजस्व से यूरोप के आयातों का भुगतान कर सकें । डच जावा और सुमात्रा को जीतने में सफल रहे । पर सफलता की कुंजी भारत था ।
भारत-विजय के लिए अंग्रेजों और फ्रांसीसियों, दोनों ने कोशिश की । लेकिन पहले मुगल शासन और फिर सुयोग्य सूबेदारों के अंतर्गत भारत जब तक मजबूत और एकजुट रहा, वे सफल नहीं हो सके । उन्हें सफलता तभी मिली जब आंतरिक और बाह्य कारणों ने इन राज्यों को भी कमजोर कर दिया ।