Read this article in Hindi to learn about the national movements that led to the attainment of independence in India.

भारत के राजनीतिक क्षेत्र में महात्मा गाँधी का प्रवेश नवीन युग के प्रारम्भ का सूचक था । 1919 ई॰ के बाद महात्मा गाँधी ने भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय आन्दोलन को नया स्वरूप प्रदान किया । इसके बाद उनके नेतृत्व में अनेक आन्दोलन हुए ।

रौलेट एक्ट:

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भारत में क्रांतिकारियों के प्रभाव को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय भावना को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने न्यायाधीश ‘सर सिडनी रौलेट’ की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की एवं कमेटी ने 1918 ई॰ में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की कमेटी द्वारा दिए गए सुझावों के अंतर्गत केन्द्रीय विधानमण्डल में (फरवरी 1919 में) दो विधेयक पारित किए गए । इन विधेयकों को रौलेट एक्ट के नाम से जाना गया । भारतीयों द्वारा विरोध करने के बाद भी यह विधेयक 8 मार्च 1919 ई॰ को लागू कर दिया गया ।

i. इसके अन्तर्गत राजद्रोहात्मक गतिविधियों के सन्देह में किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए बंदी बनाने उससे जमानत लेने व अन्य कार्यों पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार सरकार को प्राप्त हो गया ।

ii. इसमें सरकार को बिना वारन्ट के क्रांतिकारियों की तलाशी एवं गिरफ्तार करने की शक्तियाँ प्रदान की गईं ।

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जिसके निर्णयों की अपील नहीं हो सकती थी । इसके विरोध में पूरे देश में एक दिन का उपवास रखा गया तथा दुकानें बंद रहीं हड़तालें हुईं । सरकार ने दमन नीति अपनाई । अत: 6 अप्रैल 1919 का दिन ‘राष्ट्रीय अपमान दिवस’ के रूप में मनाया गया ।

जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड:

गाँधीजी तथा अन्य नेताओं के पंजाब प्रवेश पर प्रतिबंध लगे होने के कारण वहाँ की जनता में बड़ा आक्रोश उत्पन्न हुआ । यह आक्रोश उस समय अधिक बढ़ गया जब पंजाब के दो लोकप्रिय नेता डॉ॰ सत्यपाल एवं डॉ॰ सैफुद्दीन किचलू को अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर ने बिना किसी कारण से गिरफ्तार कर लिया । इसके विरोध में जनता ने एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला । पुलिस ने जुलूस को आगे बढ़ने से रोका लेकिन रोकने में सफल न होने पर गोली चलाने का आदेश दिया गया ।

तत्पश्चात जुलूस ने उग्र रूप धारण किया, सरकारी इमारतों में आग लगा दी । अमृतसर की स्थिति से घबराकर सरकार ने 10 अप्रैल सन् 1919 को शहर का प्रशासन सैन्य अधिकारी ओ. डायर को सौंप दिया । सभा के आयोजनों एवं प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गई । मगर इसकी सूचना जनता को नहीं दी गई ।

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13 अप्रैल सन 1919 को वैशाखी के दिन शाम को करीब साढ़े चार बजे अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक आम सभा का आयोजन हुआ । जिसमें लगभग 10,000 लोग सम्मिलित हुए ।

जनरल डायर लगभग 400 हथियारबंद सैनिकों के साथ सभा स्थल पर पहुंचा और बिना पूर्व चेतावनी के भीड़ पर तब तक गोलियाँ चलाईं जब तक गोलियाँ समाप्त नहीं हो गई जिसमें हजारों लोग मारे गए और बड़ी संख्या में लोग घायल हुए ।

जलियाँवाला हत्याकाण्ड की जाँच के लिए अनेक आयोग नियुक्त किए गए । जनरल डायर को पद से हटा दिया मगर उसकी निंदा नहीं की गई । उसको ब्रिटिश साम्राज्य के रक्षक के रूप में देखा गया । ब्रिटिश सरकार द्वारा उसको एक तलवार और बहुत सा धन पुरस्कार के रूप में दिया गया ।

1919 से 1922 के मध्य अंग्रेजों के विरूद्ध दो आंदोलन चलाए गए: 

i. खिलाफत एवं

ii. असहयोग आंदोलन ।

i. खिलाफत आन्दोलन:

प्रथम विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड ने तुर्की को पराजित कर वहाँ की जनता पर अत्याचार किए । खलीफा को उसके पद से हटाने का निर्णय लिया गया । तुर्की में किए गए ब्रिटेन के इस कार्य की भारत के मुसलमानों ने घोर निंदा करते हुए अंग्रेजों की खिलाफत की ।

भारत में 1919 में मोहम्मद अली, शौकत अली, मौलाना आजाद के नेतृत्व में खिलाफत कमेटी का गठन किया गया । जिसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों के द्वारा तुर्की के खलीफा को पद से हटाने तथा मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का विरोध करना था । गाँधीजी एवं कांग्रेस के सदस्यों ने खिलाफत आंदोलन में मुसलमानों को पूर्ण सहयोग देने का वचन दिया ।

ii. असहयोग आंदोलन:

प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों ने अंग्रेजों का तन-मन-धन से सहयोग किया था । गाँधीजी द्वारा युद्ध के दौरान अंग्रेजों को दिए गए सहयोग के कारण उन्हें ‘कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि दी गई ।

गाँधीजी अभी तक अंग्रेजों के साथ पूर्ण सहयोग के पक्षधर थे, किंतु 1918 ई॰ के बाद घटित कुछ घटनाओं के कारण वह सहयोगी से असहयोगी बन गए:

i. ब्रिटिश सरकार द्वारा युद्ध के दौरान किए गए वादों से मुकरना ।

ii. रौलेट एक्ट के द्वारा भारतीय जनता पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए गए ।

iii. जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ।

iv. प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी और वस्तुओं के मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि ।

v. खिलाफत का प्रश्न ।

दिसम्बर 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में गाँधीजी के असहयोग के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया । आंदोलन पूर्णत: शांतिपूर्वक चलाया जाना था । प्रत्येक स्तर पर सरकार के साथ असहयोग करना

था ।

आंदोलन के दो पक्ष थे:

(a) बहिष्कार का पक्ष:

1. सरकारी पद एवं उपाधियों का परित्याग ।

2. सरकारी स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार ।

3. न्यायालयों का बहिष्कार ।

4. कर न देने का निर्णय ।

5. विदेशी वस्तुओं एवं वस्त्रों का बहिष्कार आदि ।

(b) रचनात्मक पक्ष:

1. राष्ट्रीय स्कूल-कॉलेजों की स्थापना ।

2. पंचायतों द्वारा विवादों का निर्णय ।

3. सत्य एवं अहिंसा पर बल ।

4. कताई-बुनाई को बढ़ावा देने के लिए चरखे को प्रोत्साहन ।

5. आंदोलन को सफल बनाने के लिए 1 करोड़ स्वयं सेवकों को भर्ती करना ।

असहयोग आंदोलन शीघ्र ही जनता के बीच लोकप्रिय हो गया । लगभग 10,000 छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए । काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, महाराष्ट्र विद्यापीठ आदि संस्थाएं स्थापित हुईं । संपूर्ण देश में असहयोग आंदोलन को सफलता मिल रही थी ।

बच्चे, युवा, वृद्धजन एवं महिलाओं में अपार जोश था । वकालत छोड़ने वाले लोगों में पं॰ मोतीलाल नेहरू, एम॰आर॰ जयकर, सी॰आर॰ दास, वल्लभ भाई पटेल आदि प्रमुख थे । शराब की दुकानों पर धरने में महिलाओं ने प्रमुख रूप से भाग लिया ।

शांतिपूर्ण आंदोलन के दौरान सरकार का दमन-चक्र भी चलता रहा । गाँधीजी के अतिरिक्त सभी प्रमुख कांग्रेसी नेताओं को बंदी बना लिया गया । प्रिन्स ऑफ वेल्स के भारत आगमन पर प्रदर्शन किए गए । गाँधीजी ने 1 फरवरी 1922 को वायसराय के पास अल्टीमेटम भेजा कि अगर बंदियों को तुरन्त रिहा नहीं किया व दमनचक्र बन्द न किया गया तो सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया जाएगा किन्तु इसी बीच 5 फरवरी को उत्तरप्रदेश में चौरी-चौरा नामक स्थान पर कुद्ध भीड़ ने एक थानेदार व 21 पुलिस कर्मियों को थाने में बंद कर जीवित जला दिया ।

गाँधीजी इस हिंसा की घटना से अत्यन्त दुखी हुए और उन्होंने आंदोलन स्थगित कर दिया । इस आंदोलन की महत्ता इस बात में थी कि अपार जन समूह ने इसमें भाग लिया । युवा वर्ग ने स्कूल-कॉलेज छोड़कर आंदोलन को आगे बढ़ाया । राष्ट्रीय आंदोलन अब केवल शिक्षित लोगों या नगरवासियों तक ही सीमित नहीं था बल्कि गाँव-गाँव में फैल चुका था ।

स्वराज्य दल की स्थापना:

स्वराज्य दल की स्थापना को असहयोग आंदोलन के स्थगन की प्रतिक्रिया के रूप में समझा जा सकता है । गाँधी जी ने चौरी-चौरा के हिंसात्मक काण्ड के कारण असहयोग आंदोलन के स्थगन की घोषणा कर दी जबकि जनता में राष्ट्रीय चेतना चरमोत्कर्ष पर थी ।

जिस कारण कांग्रेस का एक वर्ग परिषदों में प्रवेश कर सरकार के कार्यों में बाधा डालने की योजना पर कार्य करने लगा । चितरंजन दास एवं पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्वराज्य दल का गठन किया । चितरंजन दास इसके अध्यक्ष बने ।

स्वराज्य दल के प्रमुख उद्देश्य:

i. स्वराज्य प्राप्त करना ।

ii. सरकारी कार्यों में बाधा उत्पन्न करना ।

iii. अंग्रेजों की नीतियों का विरोध करना ।

iv. राष्ट्रीय चेतना का विकास करना ।

v. चुनाव लड़कर कौंसिलों में प्रवेश करना ।

स्वराज्य दल के कार्य एवं उपलब्धियाँ:

केन्द्रीय विधानसभा में स्वराज्य दल के सदस्यों (विट्ठलभाई, चितरंजन दास, पण्डित मोतीलाल नेहरू) एवं अन्य सहयोगियों ने स्वतंत्र दल के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया और सरकार के समक्ष माँगे प्रस्तुत

कीं । सरकार द्वारा इन्हें न माने जाने पर उनके कार्यों में अड़चनें डालीं । सन् 1926 ई॰ के पश्चात स्वराज्य दल का विघटन हो गया ।

साइमन कमीशन के विरूद्ध प्रदर्शन:

वर्ष 1919 के एक्ट को पारित करते समय ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की थी कि वह 10 वर्ष पश्चात पुन: इन सुधारों की समीक्षा करेगी । लेकिन नवम्बर 1927 में एक आयोग की नियुक्ति कर दी । सर जान साइमन इसके अध्यक्ष बनाए गए । इसके सभी सात सदस्य अंग्रेज थे । इसे ‘साइमन आयोग’ के नाम से जाना जाता है ।

भारत में साइमन कमीशन के विरूद्ध भारी असंतोष उत्पन्न हुआ । असंतोष का प्रमुख कारण किसी भी भारतीय को कमीशन का सदस्य न बनाया जाना एवं भारत में स्वशासन के संबंध में निर्णय विदेशियों द्वारा किया जाना था ।

सन् 1927 ई॰ में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मद्रास (चेन्नई) में हुआ । अधिवेशन में कमीशन के बहिष्कार का निर्णय लिया । मुस्लिम लीग ने भी कमीशन का बहिष्कार करने का फैसला किया । कमीशन 3 फरवरी 1928 ई॰ को भारत पहुंचा । उस दिन सारे देश में हड़ताल हुई ।

कमीशन का बहिष्कार करने के लिए सारे देश में सभाएं हुईं । मद्रास में प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाई गईं । अनेक स्थानों पर लाठीचार्ज हुआ । कमीशन जहाँ भी गया वहाँ उसके विरूद्ध जबरदस्त प्रदर्शन

हुआ । अन्तत: सारे देश में ‘कमीशन वापस जाओ’ का नारा गूँज उठा ।

पंजाब-केशरी लाला लाजपत राय की पुलिस ने निर्दयता से पिटाई की । जख्मी लाला लाजपत राय की कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई । लखनऊ में अन्य प्रदर्शनकारियों के साथ पं॰ जवाहरलाल नेहरू और गोविंद वल्लभ पंत को भी पुलिस की लाठियाँ खानी पड़ी । साइमन कमीशन के विरूद्ध किए गए आंदोलन ने एक बार फिर से भारतीय जनता की एकता और स्वतंत्रता प्राप्त करने के संकल्प को व्यक्त किया ।

लाहौर अधिवेशन के पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव:

दिसम्बर 1929 ई॰ में रावी नदी के तट पर लाहौर में कांग्रेस का वार्षिक सम्मेलन प्रारंभ हुआ । अधिवेशन की अध्यक्षता पं॰ जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे । 31 दिसम्बर 1929 की अर्द्धरात्रि में भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया गया । गाँधीजी को एक नवीन दोलन चलाने के समस्त अधिकार दिए गए ।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन:

गाँधीजी ने नमक को आंदोलन का आधार बनाने का निश्चय किया । ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक कर में अत्यधिक वृद्धि कर दी गई थी । निर्धन लोगों के लिए नमक का क्रय कठिन हो गया । गाँधीजी ने सरकार को 11 सूत्री माँगे लिखकर भेजी जिसमें नमक कर को कम करना प्रमुख माँग थीं ।

माँगे न माने जाने की स्थिति में 12 मार्च 1930 ई॰ को गाँधीजी द्वारा नमक कानून तोड़ने के लिए दाण्डी यात्रा प्रारंभ की गई । उनके साथ 78 यात्रियों ने भी साबरमती आश्रम से दाण्डी के लिए यात्रा प्रारंभ कर

दी । 24 दिन की यात्रा में संपूर्ण मार्ग गाँधीमय हो गया । अपार जन समूह ने गाँधीजी का स्वागत किया ।

6 अप्रैल 1930 ई॰ की प्रात काल को गुजरात में दाण्डी समुद्र तट में नमक बनाकर गाँधीजी ने नमक कानून भंग कर दिया । साथ ही संपूर्ण भारत में स्थान-स्थान पर नमक कानून भंग किया जाने लगा और सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ हो गया जिसमें शासन को कर न दिया जाना भी सम्मिलित था ।

नमक कानून तोड़ने के बाद सारे देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ हुआ । सविनय अवज्ञा आंदोलन के पहले दौर में सारे देश में नमक कानून तोड़ने की घटनाएं हुईं ।

नमक कानून तोड़ना सरकार के विरोध का प्रतीक बन गया । सविनय अवज्ञा आंदोलन जितना जोर पकड़ता जा रहा था, सरकारी दमन चक्र में भी वृद्धि होती जा रही थी । लाठीचार्ज और गोली चलाने की घटनाएं अनेक स्थानों पर हुई । लगभग 1,00,000 लोग जेलों में डाल दिए गए । बहुत से लोग पुलिस की गोली से मारे गए । इस आंदोलन में प्रथम बार महिलाओं ने खुलकर भाग लिया ।

गाँधी-इरविन समझौता:

आंदोलन की उग्रता को रोकने के लिए 5 मई 1930 ई॰ को गाँधीजी को बन्दी बना लिया गया । मगर आंदोलन जारी रहा । सरकार ने गाँधीजी को 26 जनवरी, 1931 को जेल से मुक्त कर दिया और दोनों के बीच 5 मार्च 1931 ई॰ को गाँधी इरविन समझौता हुआ ।

समझौते के द्वारा आंदोलन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया । गाँधीजी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होना स्वीकार किया । सरकार ने आंदोलनकारियों को जेलों से मुक्त कर दिया । गाँधीजी सितम्बर 1931 ई॰ में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लन्दन गए । ब्रिटिश सरकार की हठधर्मी के कारण सम्मेलन विफल रहा और गाँधीजी वापस भारत आ गए । गाँधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन पुन: प्रारंभ कर दिया ।

साम्प्रदायिक पंचाट (पंच निर्णय):

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मेक्डानल्ड ने 1932 ई॰ में साम्प्रदायिक पंचाट (पंच निर्णय) की घोषणा कर दी, जिसमें भारत के हरिजनों के लिए भी अलग निर्वाचक मण्डलों की घोषणा कर दी । भारत को तोड़ने और जातियों में विभक्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार की यह एक कूटनीतिक चाल थी ।

कांग्रेस और भारत के लिए यह एक आघात था । गाँधीजी ने 21 दिनों के उपवास की घोषणा कर दी, गाँधीजी और बाबा साहब अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट द्वारा साम्प्रदायिक पंचाट का हल खोजा गया ।

1930 से 1934 ई॰ के बीच अनेक घटनाएं घटित हो चुकी थीं । सविनय अवज्ञा आंदोलन 1932 ई॰ तक तो ठीक प्रकार से चलता रहा । मगर उसके बाद वह लगभग समाप्त हो गया और 1934 ई॰ में उसको वापस लेने की घोषणा कर दी गई ।

प्रान्तीय सरकारों का गठन:

1935 ई॰ के एक्ट के अनुसार 1937 ई॰ में प्रान्तों में चुनाव कराए गए । 11 प्रान्तों में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस को सफलता मिली और उसने सरकारों का गठन किया ।

द्वितीय विश्व युद्ध का प्रारंभ:

1 सितम्बर 1939 ई॰ को जर्मनी के पौलेण्ड पर आक्रमण के साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हो गया । 3 सितम्बर 1939 ई॰ को ब्रिटेन भी इस युद्ध में सम्मिलित हो गया । इसी के साथ भारत को भी युद्ध में सम्मिलित कर लिया गया ।

ब्रिटेन द्वारा बिना किसी कारण के बिना भारतीयों की सहमति लिए भारत को युद्ध में सम्मिलित करने से कांग्रेस अत्यधिक नाराज हुई । विरोध स्वरूप कांग्रेस शासित सात प्रान्तों के मंत्रिमण्डलों ने त्याग-पत्र दे दिए ।

अगस्त प्रस्ताव (1940):

अक्टूबर-नवम्बर 1939 में प्रांतीय मंत्रिमंडलों ने त्याग-पत्र दे दिया । इसके बाद भी कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया और केन्द्र में राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की माँग अंग्रेजों के समक्ष रखी परंतु अंग्रेजों ने इस माँग की अवहेलना की ।

भारतीयों की माँग की जगह लार्ड लिनलिथगो ने 8 अगस्त 1940 ई॰ को एक प्रस्ताव रखा जो अगस्त प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है । इस प्रस्ताव में फिर से दोहराया गया कि युद्ध के पश्चात भारत में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना की जाएगी ।

पाकिस्तान प्रस्ताव लाहौर अधिवेशन (1940):

23 मार्च 1940 ई॰ को मुस्लिम लीग का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ । जिसमें पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया गया । इस प्रस्ताव में कहा गया कि ‘भौगोलिक स्थिति से एक-दूसरे से लगे हुए प्रदेश आवश्यक परिवर्तनों के साथ इस प्रकार गठित किए जाएं ताकि मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक हो जाए ।’

क्रिप्स मिशन:

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेज भारत के सक्रिय एवं पूर्ण सहयोग के लिए बेचैन थे । भारत की दक्षिणी पूर्वी सीमाओं पर जापानी खतरा बढ़ रहा था । दूसरी ओर रंगून में स्थित इंडियन नेशनल आर्मी बर्मा (म्यांमार) के रास्ते भारत पर आक्रमण करने की तैयारी कर रही थी ।

इस परिस्थिति में इंग्लैण्ड के युद्धकालीन मंत्रिमंडल के सदस्य सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को भारतीयों के लिए वर्तमान में ‘स्वशासन’ और भविष्य के लिए कुछ ठोस आश्वासन के साथ भारत भेजा गया ।

क्रिप्स प्रस्ताव द्वारा भारत को युद्धोपरांत अधिराज्य का दर्जा दिया जाना था । एक संविधान सभा भी प्रस्तावित थी । परंतु लगभग सभी दलों ने अलग-अलग कारणों से इस घोषणा को अस्वीकार कर दिया ।

भारत छोड़ो आंदोलन (1942):

अप्रैल 1942 ई॰ में क्रिप्स मिशन की असफलता और इसके फलस्वरूप निराशा ने एक बार फिर देश में कुंठा की स्थिति पैदा कर दी । 8 अगस्त 1942 ई॰ को मुम्बई में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया ।

प्रस्ताव में घोषणा की गई कि भारत में ब्रिटिश सरकार को जल्दी समाप्त करना अति आवश्यक हो गया है । आजादी और जनतंत्र की विजय के लिए फासिस्ट देशों तथा जापान के विरूद्ध लडू रहे मित्र राष्ट्रों के लिए भी यह जरूरी है कि भारत को जल्दी से स्वाधीनता मिल जाए । गाँधीजी ने ‘करो या मरो’ (Do or Die) का नारा दिया जो हर जगह सुनाई पड़ने लगा ।

9 अगस्त 1942 ई॰ की सुबह कांग्रेस के अधिकांश नेता गिरफ्तार कर लिए गए । उन्हें देश की विभिन्न जेलों में बंद कर दिया गया । परिणामस्वरूप आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया । गोलियाँ चलीं, लाठीचार्ज हुए और सारे देश में गिरफ्तारियाँ हुईं । इसमें हजारों लोग घायल हुए ।

अंतत: आक्रोशित जनता भी हिंसा पर उतर आई । लोगों ने सरकारी संपत्ति पर हमला किया । रेल की पटरियों को तोड़ा गया और पुल, टेलीफोन तथा तार लाइनों को क्षति पहुंचाई । बलिया और सतारा जैसे कुछ स्थान अंग्रेजी दासता से मुक्त हो गए ।

मगर सरकारी दमनचक्र की उग्रता अपनी सभी सीमाएं तोड़ गईं । हवाई जहाजों से बम बरसाए गए । गोलियाँ चलाई गईं । बड़ी संख्या में लोग मारे गए । सभी बडे नेता बंदीगृह में थे । जो बाहर थे वे भूमिगत हो गए । सरकारी दमनचक्र के कारण भारत छोड़ो आंदोलन अधिक समय नहीं चल सका ।

भारत विभाजन एवं स्वतंत्रता:

ब्रिटिश सरकार ने 1946 ई॰ में घोषणा की कि वह भारत में अपना शासन समाप्त करना चाहती है । ब्रिटिश मंत्रिमंडल का एक दल जो कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है, वह सत्ता के हस्तांतरण के बारे में भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए भारत आया ।

सरकार ने अंतरिम सरकार बनाने और संविधान सभा बुलाने का प्रस्ताव रखा । जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार बनीं । इस सरकार में आरंभ में मुस्लिम लीग सम्मिलित नहीं हुई थी । कुछ समय बाद वह सरकार में सम्मिलित हुई । संविधान सभा ने दिसम्बर 1946 ई॰ में अपना काम शुरू किया । परंतु मुस्लिम लीग ने उसमें भाग लेने से इंकार कर दिया ।

20 फरवरी, 1947 को सरकार ने नीति संबंधी महत्वपूर्ण घोषणा की और माउण्टबेटन को भारत का नया वायसराय बनाया । जिन्होंने आगे चलकर अपनी एक योजना प्रस्तुत की, जिसके तहत भारत और पाकिस्तान में विभाजन को स्वीकृति मिल गई । माउण्टबेटन योजना में निर्णय लिया गया कि 15 अगस्त सन् 1947 ई॰ को भारत और पाकिस्तान को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाएगा ।

18 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम स्वीकृत हुआ और देश भारत तथा पाकिस्तान दो राष्ट्रों में विभक्त हुआ । अंतत: 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया । स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं॰ जवाहरलाल नेहरू बनाए गए ।

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