Here is an essay on the ‘National Movements and Freedom Struggle’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘National Movements and Freedom Stuggle’ especially written for school and college students in Hindi language.

आधुनिक भारत की यात्रा में राजनीतिक स्वतंत्रता आंदोलन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । यह आंदोलन मनुष्य स्वतंत्र है, इस व्यापक सिद्धांत पर आधारित था । इस आंदोलन के निमित्त राजनीतिक पराधीनता के साथ-साथ रियासतदारी, सामाजिक विषमता, आर्थिक शोषण का भी विरोध होने लगा था ।

स्वतंत्रता कीं भांति समता सिद्धांत का भी बहुत बड़ा महत्व है । इस दृष्टि से किसान, श्रमिक, महिला, दलित आदि वर्गों द्‌वारा चलाए गए आंदोलन और समता को महत्व देनेवाली समाजवादी विचारधारा का योगदान बहुमूल्य सिद्ध हुआ । इसका बोध किए बिना आधुनिक भारत की निर्मिति प्रक्रिया को समझा नहीं जा सकता ।

Essay # 1. किसान आंदोलन:

भारतीय किसानों को अंग्रेजों की आर्थिक नीति के दुष्परिणाम भुगतने पड़ते थे । जमीनदारों, साहूकारों को अंग्रेज सरकार को संरक्षण प्राप्त था । वे किसानों पर अन्याय करते थे । किसानों ने इस अन्याय के विरोध में विद्रोह किए । नील का उत्पादन करने हेतु किसानो के साथ कड़ाई की जाती थी । इस कड़ाई के विरोध में बंगाल के किसानों ने कृषि संगठन स्थापित करके विद्रोह किए ।

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‘नील दर्पण’ नाटक के माध्यम से लेखक दीनबंधु मित्र ने लोगों के सम्मुख नील का उत्पादन करनेवाले किसानों की दुर्दशा को प्रस्तुत किया । ई॰स॰ १८७५ में महाराष्ट्र के किसानों ने जमीनदारों और साहूकारों के अत्याचारों के विरोध में बहुत बड़ा विद्रोह किया ।

बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश के किसानों ने ई॰स॰ १९१८ में ‘किसान सभा’ नामक संगठन की स्थापना की । केरल में मोपला किसानों ने व्यापक आंदोलन किया परंतु इसे अंग्रेज सरकार ने कुचल दिया । ई॰स॰ १९३६ में प्रा॰एन॰जी॰ संघ के नेतृत्व में ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ की स्थापना हुई ।

इस सभा के अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती थे । इस सभा ने राष्ट्रीय कांग्रेस को किसानों के अधिकारों का घोषणापत्र प्रस्तुत किया । ई॰स॰ १९३६ में महाराष्ट्र के फैजपुर में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ । इस अधिवेशन में हजारों किसान उपस्थित हुए थे । राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस अधिवेशन में किसान सभा के कार्यक्रम को स्वीकार किया ।

ई॰स॰ १९३८ में पूर्व खानदेश में अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट हो गई थी । फलस्वरूप किसानों की हालत खस्ता हो गई । साने गुरु जी ने लगान माफ करवाने के लिए स्थान-स्थान पर सभाएँ ली और जुलूस निकाले । उन्होंने कलेक्टर कचहरी पर भी जुलूस निकाला । ई॰स॰ १९४२ की क्रांति में किसान विशाल संख्या में सम्मिलित हुए ।

Essay # 2. श्रमिक संगठन:

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में कपड़ा मिलें, रेल कंपनियाँ जैसे उद्‌योगों का प्रारंभ हुआ था । तब तक श्रमिक वर्ग बड़ी मात्रा में अस्तित्व में आया नहीं था । फिर भी इस कालखंड में श्रमिकों की समस्याओं का हल निकालने के प्रयास हुए ।

शशिपद बनर्जी, नारायण मेघाजी लोखंडे ने स्थानीय स्तर पर श्रमिकों को संगठित किया । श्रमिकों के विषय में लोखंडे द्‌वारा क्यिा गया कार्य इतना उल्लेखनीय है कि उन्हें ‘भारतीय श्रमिक आंदोलन का जनक’ कहा जाता है ।

इसी समय असम के चाय बागानों के श्रमिकों की दारुण स्थिति के विरोध में आंदोलन किया गया । ई॰स॰ १८९९ में ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर (जी॰आई॰पी॰) रेल कर्मचारियों ने अपनी माँगों के लिए हड़ताल की थी । बंग भंग आंदोलन की समयावधि में श्रमिकों ने स्वदेशी को समर्थन देने हेतु समय-समय पर हड़तालें की परंतु उस समय श्रमिकों की समस्याओं का हल निकालने के लिए व्यापक संगम नहीं था ।

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प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात भारत में औद्‌योगिकीकरण शुरू हुआ । परिणामस्वरूप श्रमिक वर्ग में वृद्धि हुई । उस समय राष्ट्रव्यापी श्रमिक संगठन की आवश्यकता अनुभव हुई । इसी आवश्यकता को लेकर ई॰स॰ १९२० में आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (आईटक) की स्थापना की गई ।

आईटक द्‌वारा किए गए कार्यों में नामजोशी का बहुत बड़ा योगदान रहा । आईटक के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे । उन्होंने कहा था कि श्रमिकों को राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय प्रतिभाग लेना चाहिए ।

श्रीपाद अमृत डांगे, मुजफ्फर अहमद आदि समाजवादी नेताओं ने श्रमिक वर्ग में समाजवादी विचारों का प्रसार कर उनके जुझारू सगठन निर्मित करने का कार्य किया । ई॰स॰ १९२८ में मुंबई में कपड़ा मिल श्रमिक संघ ने छह महीनों की हड़ताल की । ऐसी कई हड़तालें रेल मजदूरों, पटसन मजदूरों आदि श्रमिकों ने कीं । श्रमिक दोलनों की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर सरकार विचलित हो गई ।

इन आंदोलनों को कुचलने के लिए कानून बनाए गए । श्रमिकों द्‌वारा किए गए संघर्ष राष्ट्रीय आंदोलन के लिए पूरक सिद्ध हुए ।

Essay # 3. समाजवादी आंदोलन:

राष्ट्रीय कांग्रेस के अनेक युवा कार्यकर्ता अनुभव करने लगे थे कि सामान्य लोगों के हितों की रक्षा करने हेतु अंग्रेज सरकार को उलट देना आवश्यक है । यह बोध भी उन्हें हुआ कि समाज का नया ढाँचा आर्थिक और सामाजिक समता के आधार पर बनाया जाना चाहिए । इस बोध द्‌वारा समाजवादी विचारधारा का उदय और विकास हुआ ।

राष्ट्रीय कांग्रेस के कई समाजवादी युवा नाशिक के कारावास में बंद थे । इसी कारावास में इन युवाओं ने राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर समाजवादी दल की स्थापना करने का निश्चय किया और ई॰स॰ १९३४ में कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की गई । इस दल में आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, मीनू मसानी, डा॰ राममनोहर लोहिया आदि प्रमुख नेता थे । ई॰स॰ १९४२ में हुए ‘भारत छोड़’ आंदोलन में समाजवादी युवा अग्रसर थे ।

भारतीय लोग कार्ल मार्क्स और उसके साम्यवाद से परिचित होने लगे । लोक्यान्य तिलक ने तो ई॰स॰ १८८१ में मार्क्स के संबंध में लेख लिखा था । प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत में साम्यवाद का प्रभाव अनुभव किया जाने लगा । मानवेंद्रनाथ राय ने अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी आंदोलन में भी हिस्सा लिया था ।

ई॰स॰ १९२५ में भारत में साम्यवादी दल की स्थापना हुई । साम्यवादी युवाओं ने श्रमिकों और किसानों के जुझारू संगठन स्थापित करने का कार्य किया । अब सरकार कों साम्यवादी आंदोलन से खतरा अनुभव होने लगा । अत: सरकार ने साम्यवादी आंदोलन को कुचलने का निश्चय किया ।

मुजफ्फर अहमद, श्रीपाद अमृत डांगे, नीलकंठ जोगलेकर आदि को बंदी बनाया गया । उनपर अंग्रेज सरकार को उलट देने के षड्यंत्र को रचने का आरोप रखा गया । उन्हें अलग-अलग सजाएँ दी गईं । यह मुकदमा मेरठ में चलाया गया । अत: इसे ‘मेरठ षड्‌यंत्र’ कहते हैं । मेरठ मुकदमे के बाद भी श्रमिक आंदोलन पर साम्यवादियों का प्रभाव स्थायी रूप में रहा ।

Essay # 4. महिलाओं का आंदोलन:

भारतीय समाजव्यवस्था में महिलाओं को दोयम स्थान प्राप्त था । समाज में प्रचलित अनिष्ट प्रथा-परंपराओं के फलस्वरूप उनपर अन्याय होता था परंतु आधुनिक काल में इसके विरोध में जागृति होने लगी । नारी सुधार आंदोलन में कुछ पुरुष सुधारक भी आगे बढ़ आए थे परंतु कालांतर में महिलाओं ने इसका नेतृत्व करना प्रारंभ किया ।

उनके स्वतंत्र संगठन भी स्थापित होने लगे । पंडिता रमाबाई द्‌वारा स्थापित ‘आर्य महिला समाज’ और ‘शारदा सदन’ संस्थाएँ तथा रमाबाई रानडे द्‌वारा स्थापित ‘सेवा सदन’ संस्था ऐसे संगठनों के उदाहरण है । ‘भारत महिला पीरषद’ (१९०४), ‘आल इंडिया वुमेन्स कान्फरेन्स’ (१९२७) जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई । फलस्वरूप यह संगठनात्मक कार्य राष्ट्रीय स्तर पर जा पहुँचा ।

इन संगठनों के माध्यम से महिलाएं उत्तराधिकारी का अधिकार, मतदान का अधिकार आदि अधिकारों और समस्याओं के लिए संघर्ष करने लगीं । बीसवीं शताब्दी में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं का प्रतिभाग बढ़ने लगा ।

राष्ट्रीय आंदोलन और क्रांतिकारी गतिविधियों में महिलाओं का महत्वपूर्ण प्रतिभाग रहा । ई॰स॰ १९३५ के कानून के पश्चात प्रांतीय मंत्रिमंडलों में भी महिलाओं का प्रवेश हुआ । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत के संविधान में स्त्री-पुरुष समानता के सिद्धांत को स्पष्ट रूप से अंकित किया गया ।

Essay # 5. दलित आंदोलन:

भारत का सामाजिक ढाँचा विषमता पर आधारित था । समाज में दलितों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जाता था । इसके विरोध में महात्मा जोतीराव फुले, नारायण गुरु जैसे समाज सुधारकों ने जनजागृति उत्पन्न की ।

महात्मा फुले द्‌वारा दी गई सीख का अनुसरण करते हुए गोपालबाबा वलंगकर, शिवराम जानबा कांबले ने अस्पृश्यता उन्मूलन का कार्य किया । वलंगकर ने ‘विटाल विध्वंसन’ (अस्पृश्यता विध्वंसन) नामक पुस्तक द्‌वारा अस्पृश्यता का खंडन किया । तमिलनाडु में पेरियार रामस्वामी ने अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु आंदोलन प्रारंभ किया ।

राजर्षि शाहू महाराज ने अपनी कोल्हापुर रियासत में जाति भेद उन्मूलन हेतु ठोस कार्य किए । महर्षि विठ्ठल रामजी शिंदे ने दलितों की उन्नति हेतु ‘डिप्रेस्ट क्लासेस मिशन’ नामक संस्था प्रारंभ की । दक्षिण भारत में जस्टिस दल ने उल्लेखनीय कार्य किया ।

महात्मा गांधीजी ने भी अस्पृश्यता समस्या को लेकर दलितों पर होनेवाले अन्याय को दूर करने के लिए प्रयास किए । डा॰ बाबासाहेब आंबेडकर के नेतृत्व में हुआ दलित आंदोलन अधिक व्यापक होता गया । स्वतंत्रता, समता, और बंधुता के सिद्धांतों पर आधारित समाज की निर्मिति करना डा॰ बाबासाहेब आंबेड़कर का उद्देश्य था । उन्हें विश्वास था कि जब तक जाति व्यवस्था समूल नष्ट नहीं होगी तब तक दलितों पर होनेवाले अत्याचारों और विषमता का अंत नहीं होगा ।

उनकी धारणा थी कि सामाजिक समता दलितों का अधिकार है । उन्हें स्वाभिमान से प्रेरित आंदोलन अभिप्रेत था । इन्हीं विचारों को ध्यान में रखकर उन्होंने जुलाई, १९२४ में ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की । ‘पढ़ो, संगठित हो जाओ और संघर्ष करो’ यह स्फूर्तिदायी संदेश उन्होंने अपने अनुयायियों को दिया ।

मुंबई प्रांत के विधान मंडल में बाबासाहेब बोले ने अछूतों के लिए सार्वजनिक जलाशय (पनघट) खुले करने का विधेयक पारित करवा लिया था । फिर भी प्रत्यक्ष में दलितों के लिए जलाशय खोले नहीं गए । अत: डा॰ बाबासाहेब आंबेड़कर एवं उनके अनुयायियों ने महाड़ में चवदार तालाब पर सत्याग्रह किया । उन्होंने विषमता का समर्थन करनेवाले ‘मनुस्मृति’ का दहन किया ।

नाशिक के कालाराम मंदिर में दलितों को प्रवेश मिले इसलिए ई॰स॰ १९३० में सत्याग्रह प्रारंभ किया । कर्मवीर दादासाहेब गायकवाड़ ने इस सत्याग्रह का नेतृत्व किया । समाज में जागृति उत्पन्न करने और दुखों को अभिव्यक्त करने हेतु डा॰ बाबासाहेब आंबेड़कर ने ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’, ‘समता’ नामक समाचारपत्र प्रारंभ किए ।

श्रमिकों की समस्याओं को हल करने हेतु डा॰ बाबासाहेब आंबेड़कर ने ‘स्वतंत्र मजूर पक्ष’ नामक दल की स्थापना की । विधान मंडल में उन्होंने श्रमिकों के हितों को प्रभावित करनेवाले कानूनों का विरोध किया । दलितों की समस्याओं को प्रभावी पद्धति से प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने ई॰स॰ १९४२ में ‘शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन’ की स्थापना की ।

आधुनिक भारत में समता पर आधारित समाज रचना का निर्णय करने के कार्य में डा. बाबासाहेब आंबेड़कर ने भारतीय संविधान द्‌वारा उल्लेखनीय योगदान दिया है । ई॰स॰ १९५६ में उन्होंने अपने असंख्य अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को स्वीकार किया; जो बौद्ध धर्म मानवता और समता का समर्थन करता है ।

भारतीय समाज के शोषित वर्गों में हुई जागृति के फलस्वरूप राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप अधिक व्यापक हो गया । साथ ही भारतीय समाज व्यवस्था के दोष दूर होने के लिए अनुकूल वातावरण बनने लगा । इन सभी आंदोलनों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में उल्लेखनीय योगदान दिया ।

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