Read this article in Hindi to learn about Piaget’s views on cognitive approach to understand cognitive development in humans.

पियाजे (1970) ने संज्ञानात्मक उन्नति के अवस्था सिद्धान्त (Stage Theory) का प्रतिपादन किया । इस सिद्धान्त के अनुसार सभी मानव प्राणी परिवर्तनों की Orderly and Predictable Series से होकर गुजरते हैं । पियाजे के सिद्धान्त में एक मुख्य मान्यता यह ली जाती है, कि बच्चे सक्रिय चिन्तनकर्ता होते हैं ।

और वे अपने चारों ओर विराजमान संसार के परिशुद्ध बोध की रचना करने का बारम्बार प्रयास करते रहते हैं । इस अवधारणा को Constructivism का नाम दिया जाता है । इस प्रकार बालक वातावरण के साथ अन्त: क्रिया करके विश्व के बारे में ज्ञान की रचना करते हैं ।

तब प्रश्न यह उठता है, कि बच्चे इस प्रकार के ज्ञान किस तरह से निर्मित करते हैं? पियाजे ने इस प्रश्न के उत्तर में दो प्रक्रमों की चर्चा की है । पहली सात्मीकरण और दूसरी समंजन । ये जैविक बल कहलाते हैं । पहले से विराजमान ज्ञान संरचनाओं को स्कीमाज का नाम दिया जाता है ।

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सात्मीकरण के अन्तर्गत नयी-नयी जानकारियों अथवा ज्ञान का स्कीमाज में एकत्रित किया जाता है, जबकि समंजन के अन्तर्गत नवीन सूचनाओं अथवा अनुभवों को प्राप्त करके स्कीमाज में परिवर्तन किया जाता है । इन दोनों प्रक्रमों की संक्रिया को एक उदाहरण के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है ।

माना कि दो वर्ष के बालक ने विभिन्न प्रकार की गाय देखी हैं, तथा अपने अनुभवों द्वारा उसने गाय का एक स्कीमा निर्मित कर लिया है- चार टाँगों वाला एक बड़ा-सा पशु । अब वह एक बन्दर को पहली बार देखता है, और सात्मीकरण द्वारा इसे अपने स्कीमा में समावेशित कर लेता है, किन्तु जब वह दूसरे बन्दर को एक-एक करके देखता है, तो वह यह सोचता है, कि ये नये पशु गाय से अलग हैं ।

क्योंकि ये पेड़ पर चढ़ सकते हैं, दीवार कूद सकते हैं, खेखें कर सकते हैं, आदि । इन नये अनुभवों के आधार पर बन्दरों के लिए धीरे-धीरे नया स्कीमा तैयार कर लेता है । इस प्रकार वह नयी जानकारियों अथवा अनुभवों को प्राप्त करके वर्तमान ज्ञान संरचनाओं में परिवर्तित करता है । इसको समंजन कहते हैं ।

पियाजे के अनुसार समीकरण तथा समंजन के बीच तनाव ही सज्ञानात्मक उन्नति को प्रोत्साहित करता है, किन्तु पियाजे ने कहा है, जिस प्रकार ये परिवर्तन घटित होते हैं, वैसे ही बालक अपने चारों ओर विराजमान कठिन विश्व का अभिप्राय लगाने के लिए प्रयासरत रहते हैं ।

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पियाजे (1896 – 1980) ने सज्ञानात्मक उन्नति को मुख्य चार अवस्थाओं में विभाजित किया है:

(1) संवेदी गतिवाही अवस्था (Sensory Motor Stage):

यह अवस्था जन्म से लेकर प्रथम दो वर्ष तक चलती है । इसमे शिशु धीरे-धीरे यह सीख जाता है, कि उसके द्वारा की गई क्रियाओं और बाह्य विश्व में परस्पर सम्बन्ध होता है । शिशु यह बोध करता है, कि अगर वह किसी भी वस्तु को इधर-उधर करता है, तो ऐसा करने पर कुछ प्रभाव दिखाई देते हैं ।

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इस क्रिया के द्वारा वह कारण प्रभाव संप्रत्यय को अर्जित कर लेते हैं । अत: वे ऐसी ही विभिन्न क्रियाओं को करके उनके प्रभावों को देखने का प्रयास करते हैं ।

पियाजे ने इस अवस्था में शिशु संवेदी और गतिवाही क्रियाओं के द्वारा ही संसार को समझने का प्रयास किया है । प्राय: वे घटनाओं अथवा वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले मानसिक चिन्हों एवं प्रतिमानों का उपयोग करना नहीं सीख पाते । उनके अनुसार Out of Slide Out of Mind सही होता है ।

उदाहरणार्थ – यदि चार-पाँच माह के शिशु के समक्ष से किसी चीज को हटा दिया जाता है, तो वह उसे खोजने का प्रयास करता है । इसी प्रकार लगभग दस माह तक शिशु वस्तु स्थायित्व (Object Permanence) के आधारभूत विचार को एकत्रित कर लेते हैं ।

वे यह मानने लगते हैं, कि यदि किसी वस्तु को उनकी आँखों से ओझल करके कहीं छिपा दिया जाता है, तो उस वस्तु का कोई-न-कोई अस्तित्व अवश्य होता है । संवेदी-गतिवाही अवस्था में आत्म-सप्रत्यय की भी उन्नति होती है । वह अपने आत्म को दूसरी वस्तुओं से भिन्न करने लगता है ।

(2) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Stage):

यह अवस्था दो वर्ष से 6 वर्ष तक चलती है । जैसा कि हम जानते हैं । कि दो वर्ष की आयु तक शिशु वस्तुओं तथा घटनाओं की मानसिक प्रतिमाओं का उपयोग करने की योग्यता को एकत्रित कर लेते हैं । इस समय तक भाषा का विकास इस अवस्था तक हो जाता है, कि वे शब्दों की मदद से चिन्तन करने लगते हैं ।

ये विकास ही पियाजे द्वारा लिखित प्रथम एवं द्वितीय विकासात्मक दिशाओं के मध्य संक्रमण को दर्शाते हैं । द्वितीय अवस्था में शिशु में तर्क तथा बौद्धिक संक्रियाओं को उपयोग करने की योग्यता का अभाव होता है, किन्तु इस अवस्था में शिशु बहुत-सी ऐसी क्रीडाओं को करना सीख जाते हैं, जिन्हें वे पहले नहीं कर पाते थे ।

जैसे- ये एक डिब्बे को खिलौना मानकर खेलना शुरू कर देते हैं । इन खेलों में ऐसी तीन शिफ्ट पायी जाती हैं, जिनकी सहायता से इस बारे में ज्ञान एकत्रित किया जा सकता है, कि इस अवधि में शिशुओं में संज्ञानात्मक योग्यताएँ किस प्रकार परिवर्तित होती है?

जो निम्न प्रकार हैं:

(i) Decentration इसमें बालक अपनी जगह पर किसी और को खेल क्रियाओं के प्राप्तकर्ता के रूप में लेने लगते हैं । जैसे-वे खिलौने से खेलने लगते हैं ।

(ii) Decontexualization में वस्तुओं को एक-दूसरे के स्थानापन्न के रूप में लिया जाने लगता है । इसमें बालक एक बाँसुरी के रूप में पाइप का प्रयोग कर सकता है ।

(iii) Integration शिशु खेल क्रियाओं को उत्तरोत्तर कठिन अनुक्रमों में संयोजन करते हैं ।

पियाजे के अनुसार इस अवधि में शिशु पहली अवस्था की तुलना में अधिक विकसित होते हैं, जिससे उनमें मानसिक अपरिपक्वता दिखाई देती है । वैसे तो वे बौद्धिक चिन्हों का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन उनका चिन्तन अतार्किक अनम्य टूटाफूटा आदि विशेषताओं को रखता हो ।

प्राय: बच्चों में आत्म-केन्द्रण (Egocentrism) पाया जाता है । बच्चों में यह समझने की योग्यता नहीं होती है, कि दूसरा व्यक्ति संसार को उनसे अलग रूप से देख सकते हैं ।

इसमें वे रंग के आधार पर वस्तुओं की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ बना सकते हैं, या वस्तुओं को केवल एक विशेषता के आधार पर श्रेणीगत कर सकते हैं, किन्तु ये हल्का-भारी, कम-अधिक, नरम-सख्त आदि सम्बन्धों को नहीं समझ पाते । इनमें Seriation की योग्यता का अभाव होता है । इस योग्यता के द्वारा किसी विमा को मद्देनजर रखकर वस्तुओं को व्यवस्थित किया जाता है ।

इस अवस्था में बच्चों में संरक्षण के सिद्धान्त (Principle of Conservation) का बोध नहीं होता । वह यह भी नहीं जानते हैं, कि बाह्य प्रतीति में परिवर्तन के बाद भी वस्तु के निश्चित भौतिक गुण-धर्म अपरिवर्तित रहते हैं । यदि अगर आधा लीटर दूध को जग से निकालकर एक लम्बे गिलास में डाल दिया जाये और बच्चे से पूछा जाये कि क्या दूध पहले जितना ही है, तो उसका उत्तर न में होगा ।

(3) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Stage):

यह अवस्था 6 साल से लेकर 11-12 वर्ष की अवधि तक होती है । पियाजे के अनुसार यह अवस्था संरक्षण की परम्परागत के साथ शुरू होती है । इन अवस्थाओं के अन्तर्गत अनेक कौशलों का उदय होता है,

जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:

(a) रिक्त पूर्ति (Closure):

कोई भी दो संक्रियाओं से मिलकर तीसरी संक्रिया पूर्ण हो सकती है । जैसे – रात व दिन मिलकर एक पूरा दिन बनाते हैं ।

(b) प्रतिवर्तनीयता (Reversibility):

किसी भी संक्रिया के लिए उसकी विपरीत संक्रिया हो सकती है, जो इसके प्रभाव को रद करती है । जिस प्रकार दिन तथा रात मिलकर पूरा दिन बनाते हैं, यदि पूरी रात से मात्र रात हटा दें तो मात्र दिन शेष बचता है ।

(c) सम्मिलन (Associativity):

जब कई संक्रियाओं को सयुक्त करते हैं, तब चाहे यह किसी भी क्रम में क्यों न हों इनका संयुक्त प्रभाव एकसा ही होता है ।

(d) समरूपता (Identity):

यह एक ऐसी शून्य संक्रिया है, जिनमें दो अलग संक्रियाएँ संयुक्त होती हैं । पियाजे ने इस अवस्था के मूर्त संक्रियात्मक चिन्तन के उपर्युका चारों गुणों को प्रमुखता दी है । इसमें उन्होंने यह बताया है, कि इस दशा में बच्चे तार्किक चिन्तन की योग्यता को विकसित कर लेते हैं, किन्तु ये तार्किक चिन्तन उन्हीं वस्तुओं और घटनाओं तक सीमित होते हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से उनके सम्पर्क में आती हैं ।

इस कारणवश उन्होंने इस अवस्था को मूर्त संक्रियात्मक अवस्था का नाम दिया है ।

इस अवस्था की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं:

(i) बालक चिन्तन को क्रमबद्ध तथा तार्किक रूप से करता है, तथा चिन्तन में आन्तरिक संगति का भी बोध होता है, किन्तु यह चिन्तन केवल प्रत्यक्ष सम्पर्क वाली वस्तुओं तक सीमित रहता है ।

(ii) इसमें बालक को अपने चारों ओर के वातावरण को भली प्रकार समझने व तर्कयुक्त चिन्तन हेतु उच्च स्तरीय स्कीमाज की आवश्यकता होती है, जिससे कि वह अपने चिन्तन के उत्तरों के अनुक्रमों को एक साथ समझ सके । इनमें सब कुछ ऐसे उच्च स्तरीय स्कीमाज का निर्माण शुरू हो जाता है । अब वह जो भी कुछ करता है उसे समझना भी शुरू कर देता है ।

(iii) बालक में संप्रत्यय निर्माण की क्षमता का विकास शुरू हो जाता है ।

(4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Stage):

यह अवस्था 11 से 12 वर्ष की आयु से शुरू होती है । इस अवस्था से पूर्व बालक केवल मूर्त वस्तुओं और घटनाओं के विषय में ही चिन्तन कर सकते थे किन्तु इस अवस्था में बालक अमूर्त चिन्तन करना शुरू कर देते हैं । अब वे न सिर्फ वास्तविक अथवा मूर्त वस्तुओं के साथ भी सोच सकते हैं, अपितु सम्भावनाओं को भी ध्यान में रखते हैं ।

अब वे जो वास्तविक रूप में नहीं होते या जिनकी कल्पना की जा सकती है, उन घटनाओं, वस्तुओं तथा उनके सम्बन्धों के बारे में सोच सकते हैं । पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बच्चे Hypotheticodeductive Reasoning के योग्य हो जाते हैं ।

वे विभिन्न परिकल्पनाओं का निर्माण कर सकते हैं । पहले बालक इस अवस्था में तर्क वाक्यों का एक-एक करके परीक्षण कर सकते थे अपितु अब वे इस अवस्था में विभिन्न तर्क वाक्यों की वैधता का समकालीन परीक्षण करने की योग्यता रखते हैं ।

इस प्रकार उनमें Inter-Proportional Thinking Capacity का विकास अवश्य हो जाता है । यद्यपि इस अवस्था में पहुँचकर बालक अमूर्त संक्रियाएँ करने के योग्य होते हैं, किन्तु यह आवश्यक नहीं है, कि वे सभी उन संक्रियाओं को करेगे क्योंकि ऐसा करने के लिए विभिन्न संज्ञानात्मक प्रयत्नों की आवश्यकता होती है ।

इस अवस्था को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया गया है:

(i) बालक अमूर्त तर्क वाक्यों के विषय में तर्क के अनुसार सोच सकता है ।

(ii) वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करता है ।

(iii) वह विभिन्न परिकल्पनाओं को क्रमबद्ध तरीके से परीक्षण कर सकता है ।

(iv) वह परिकल्पनात्मक, भविष्य के प्रति सूचना और विचाराधारा सम्बन्धी जटिलताओं के विषय में चिन्तन शुरू कर देता है ।

मूल्यांकन (Evolution):

पियाजे द्वारा दिया गया सिद्धान्त वास्तव में एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, किन्तु मनोवैज्ञानिकों ने इसकी आलोचनाएँ की हैं,

जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:

(i) पियाजे ने छोटे बच्चों की संज्ञानात्मक योग्यताओं का न्यूनाकलन किया है, क्योंकि उनके द्वारा की गई अध्ययन विधियाँ ही ऐसी थीं जिनमें वे बच्चों की वास्तविक संज्ञानात्मक योग्यताओं को जान नहीं पाये ।

(ii) जैसा कि उन्होंने बताया कि बच्चे 8-9 माह की आयु तक यह ज्ञात नहीं कर पाते हैं, कि जो वस्तु उनके सामने से हटा दी गई है, और कहीं छिपा दी गई है, वह कहीं और अस्तित्व में हो सकती है, जबकि अभिनव शोध यह बताते हैं, कि चार से पाँच माह के शिशु भी वस्तु स्थायित्व को समझने की योग्यता रखते हैं ।

पियाजे ने आत्मकेन्द्रण (Egocentrism) के विषय में यह बताया है, कि बच्चे 6 वर्ष तक यह ज्ञात नहीं कर पाते हैं, कि अन्य लोग विश्व को उनसे अलग तरह से प्रत्यक्षीकृत करते हैं । किन्तु अभी हुए शोध यह बताते हैं, कि 13-17 माह की उस वाले शिशु भी ऐसी सूचना के साक्ष्य को प्रदर्शित करते हैं, कि जिन चीजों को वे देख रहे होते हैं, उन्हें अन्य भी देख रहे होते हैं ।

पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ अलग होती हैं, तथा ये निरन्तर प्रदर्शित होती हैं । शिशु एक अवस्था पर विकास को पूर्ण करने के पश्चात् ही अगली अवस्था में पहुँच सकते हैं । शोध यह बताते हैं, कि सज्ञानात्मक परिवर्तन क्रमिक ढंग से होते हैं ।

ऐसा नहीं हो सकता कि जो योग्यता एक अवस्था में बिल्कुल उपस्थित ही न हो, वह अगली दशा में अचानक से उदय हो जाये । इसके अलावा ये परिवर्तन प्राय: Domain Specific होते हैं । शिशु किसी एक चिन्तन में दूसरों से आगे तथा किसी अन्य चिन्तन में औरों से पीछे हो सकते हैं ।

(iii) पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास वातावरण में विराजमान विश्व को जानने के लिए बच्चों के सक्रिय प्रयासों और परिपक्वता प्रक्रम दोनों से होता है, किन्तु किए गए नये अध्ययनों के अनुसार संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों तथा भाषा मुख्य भूमिका अदा करते हैं ।

(iv) पियाजे ने तार्किक चिन्तन के विषय में विभिन्न संरचना एवं पद्धतियों की चर्चा की है, जबकि इन्हें इतना विस्तार से जानने की आवश्यकता नहीं होती है ।

यद्यपि इस सिद्धान्त की बहुत आलोचनाएँ होते हुए भी हमें यह मानना पड़ेगा कि इसने आज के मशीनी युग में विकासात्मक मनोविज्ञान के शोधों को एक नया मार्ग दिखाया है ।

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