Read this article in Hindi to learn about the rise of Marathas in India during the medieval period.
अहमदनगर और बीजापुर की प्रशासनिक और सैन्य व्यवस्थाओं में मराठों की स्थिति महत्त्वपूर्ण थी और जब मुगल दकन की ओर बड़े तो शासन के मामलों में उनकी शक्ति और प्रभाव में वृद्धि हुई । दकनी सुल्तान और मुगल दोनों उनका समर्थन पाना चाहते थे और मलिक अंबर ने बड़ी सख्या में उनका उपयोग अपनी सेना में सहायकों के रूप में किया ।
यूँ तो मोरे, घटगे, निंबलकर आदि अनेक प्रभावशाली मराठा परिवार कुछ क्षेत्रों में स्थानीय सत्ता के स्वामी थे पर मराठों का कोई सुस्थापित राज्य न था जैसा कि राजपूतों का था । एक बड़े राज्य की स्थापना का श्रेय शाहजी भोंसले और उनके बेटे शिवाजी को जाता है ।
जैसा कि शाहजी कुछ समय तक अहमदनगर में राजाओं को बनाते-मिटाते रहे और मुगलों की अवज्ञा करते रहे लेकिन 1636 की संधि के अनुसार शाहजी को अपने वर्चस्व वाले क्षेत्र छोड़ने पड़े । वे बीजापुर की सेवा में चले गए और कर्नाटक पर अपनी ऊर्जा केंद्रित करने लगे ।
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अस्थिरता का फायदा उठाकर शाहजी बंगलौर में एक अर्धस्वतंत्र रजवाड़ा बनाने का प्रयास करने लगे जिस प्रकार गोलकुंडा के एक अग्रणी अमीर मीर जुमला कोरोमंडल तट पर ऐसा ही एक राज्य बनाने का प्रयास कर रहा था ।
पश्चिमी घाट के अबीसीनियाई सरदारों और सीदी सरदारों जैसे अनेक दूसरे सरदारों ने ऐसे ही प्रयास किए थे । इसी पृष्ठभूमि में शिवाजी ने पूना के आसपास एक बड़ा रजवाड़ा बनाने का प्रयास किया ।
शिवाजी का आरंभिक जीवनवृत्त:
शाहजी ने अपनी पूना की जागीर अपनी उपेक्षित वरिष्ठ पत्नी जीजाबाई और उनके नाबालिग बेटे शिवाजी के लिए छोड़ दी थी । कुल 18 वर्ष की आयु में शिवाजी ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए 1645-47 में पूना के पास के अनेक पहाड़ी किलों को जीता जैसे राजगढ़ कोंडाना और तोरना को । 1647 में अपने सरक्षक दादाजी कोंडदेव की मृत्यु के बाद शिवाजी अपनी मर्जी के मालिक हो गए और पिता की जागीर का पूरा नियंत्रण उनके हाथों में आ गया ।
शिवाजी ने वास्तविक विजय अभियान 1656 में शुरू किया जब उन्होंने मराठा सरदार चंद्रराव मोरे से जावली को जीता । जावली का रजवाड़ा और मोरे परिवार द्वारा जमा संपत्ति महत्त्वपूर्ण थी और शिवाजी ने उन्हें धोखे से प्राप्त किया था । जावली की विजय ने उन्हें मावल के पहाड़ी क्षेत्रों का निर्विवाद स्वामी बना दिया और सतारा व कोंकण तट की ओर उनका रास्ता साफ हो गया ।
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मवाली पियादे उनकी सेना के एक मजबूत भाग बन गए । उनकी सहायता से पूना के पास कुछ और पहाड़ी किले जीत करके उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत कर ली । 1657 में बीजापुर पर मुगलों के आक्रमण ने शिवाजी को बीजापुर के प्रतिशोध से बचा लिया ।
शिवाजी ने पहले औरंगजेब से वार्ता आरंभ की और फिर पाला बदलकर मुगल क्षेत्रों में दूर तक घुसपैठ की और भारी माल लूटा । गृहयुद्ध की तैयारी के लिए औरंगजेब ने जब बीजापुर के नए शासक से समझौता कर लिया तौ उसने शिवाजी को भी माफ कर दिया ।
पर उसे शिवाजी पर भरोसा नहीं था और उसने बीजापुर के शासक को सलाह दी कि शिवाजी ने जो बीजापुरी इलाके जीते थे उनसे उनको निकाले या उन्हें अपनी सेवा में रखना ही चाहे तो मुगल सीमा से दूर कर्नाटक में तैनात करे ।
औरंगजेब जब दूर, उत्तर में था, तब शिवाजी ने बीजापुर की कीमत पर अपनी विजय-यात्रा फिर से शुरू की । पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच की कोंकण पट्टी में वे घुस आए और उसके उत्तरी भाग पर कब्जा कर लिया । बीजापुर ने अब कड़ी कार्रवाई का निश्चय किया ।
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उसने अग्रणी बीजापुरी अमीर अफजल खान को 10,000 की सेना देकर शिवाजी के खिलाफ भेजा; निर्देश था कि वह जैसे भी हो उन्हें पकड़े । छल-कपट उन दिनों आम था तथा अफजल खान और शिवाजी दोनों ने अनेक अवसरों पर इसका सहारा लिया था । शिवाजी की सेना खुली लड़ाई की आदी नहीं थी और इस शक्तिशाली सरदार के खिलाफ खुलकर लड़ने से बचती रही ।
अफजल खान ने शिवाजी को निजी मुलाकात का निमंत्रण दिया और वादा किया कि बीजापुर दरबार से उन्हें क्षमा दिला देगा । यह एक छलावा है यह विश्वास लेकर शिवाजी तैयार होकर गए और (1659 में) उन्होंने चालाकी भरे मगर दुस्साहसी का से कटार से खान का वध कर दिया ।
उसकी नेतृत्वविहीन सेना को शिवाजी ने तहस-नहस कर दिया तथा तोपखाने समेत उसके तमाम साज-सामान पर कब्जा कर लिया । विजय में झूमते हुए मराठा सैनिकों ने पन्हाला के शक्तिशाली किले को आसानी से जीत लिया और व्यापक विजय का सिलसिला जारी रखते हुए दक्षिण कोंकण और कोल्हापुर में घुस आए ।
शिवाजी के कारनामों ने उन्हें एक चर्चित कथानायक बना दिया । उनका नाम घर-घर में गूँजने लगा और उन्हें जादुई शक्ति का श्रेय दिया जाने लगा । उनकी सेना में भरती होने के लिए मराठा क्षेत्रों से लोग उमडने लगे । यहाँ तक कि जो अफगान सिपाही पहले बीजापुर की सेवा में थे वे भी उनकी सेना में भरती हो गए ।
इस बीच औरंगजेब मुगल सीमा के इतने पास एक मराठा शक्ति के उदय को चिंतित होकर देख रहा था । औरंगजेब ने दकन में नए मुगल सूबेदार शाइस्ता खान को जिससे औरंगजेब का विवाहजन्य संबंध था शिवाजी के इलाकों पर आक्रमण का निर्देश दिया ।
आरंभ में लड़ाई शिवाजी के प्रतिकूल रही । शाइस्ता खान ने पूना पर कब्जा कर लिया और उसे अपना मुख्यालय बना लिया । फिर उसने शिवाजी से कोंकण छीनने के लिए दस्ते भेजे । शिवाजी के परेशान करनेवाले हमलों और मराठा रक्षकों की बहादुरी के बावजूद मुगलों ने उत्तरी कोंकण पर नियंत्रण कर लिया ।
हताश होकर शिवाजी ने दिलेरी का खेल खेला । वे पूना में शाइस्ता खान के खेमे में जा घुसे तथा रात को हरम में खान पर हमला किया (1663) उसके बेटे और एक सरदार को मार डाला तथा खान को घायल कर दिया । इस दुस्साहसी आक्रमण से खान का सम्मान जाता रहा और शिवाजी की प्रतिष्ठा एक बार फिर ऊपर चढ़ गई ।
क्रुद्ध होकर औरंगजेब ने शाइस्ता खान का तबादला बंगाल कर दिया और तबादले के समय उससे मिलने तक से इनकार कर दिया जैसा कि रिवाज था । इस बीच शिवाजी ने एक और दिलेराना चाल चली । उन्होंने सूरत पर हमला किया जो मुगलों का प्रमुख बंदरगाह था उसे जी भरकर लूटा (1664) और माल से लदे हुए घर लौटे ।
पुरंदर की संधि और शिवाजी की आगरा यात्रा:
शाइस्ता खान की असफलता के बाद औरंगजेब ने शिवाजी से निपटने के लिए आमेर के राजा जयसिंह को नियुक्त किया, जो उसके विश्वस्त सलाहकारों में एक थे । जयसिंह को पूरे सैनिक और प्रशासनिक अधिकार दिए गए । इस तरह वे दकन के मुगल सूबेदार पर किसी भी तरह निर्भर नहीं रहे और उनका संपर्क सीधे सम्राट से रहा । अपने अग्रजों के विपरीत जयसिंह ने मराठों को कम करके नहीं का ।
उन्होंने सावधानी से कूटनीतिक और सैनिक तैयारियाँ की । उन्होंने शिवाजी के सभी शत्रुओं और विरोधियों से अपील की तथा शिवाजी को अलग-थलग करने के लिए बीजापुर के सुल्तान तक को अपनी ओर लाने का प्रयास किया ।
पूना की ओर कूच करते हुए उन्होंने शिवाजी के राज्य के केंद्र अर्थात किला पुरंदर पर हमला करने का फैसला किया जहाँ शिवाजी ने अपने परिवार और खजाने को रख छोड़ा था । जयसिंह ने पुरंदर की सख्त घेराबंदी की (1665) और उसे तोड़ने के सभी मराठा प्रयासों को नाकाम कर दिया । किले का पतन करीब जानकर और किसी भी तरफ से मदद आते न पाकर शिवाजी ने जयसिंह के साथ वार्ता आरंभ की ।
कड़ी सौदेबाजी के बाद निम्नलिखित शर्तों पर समझौत्रा हुआ:
1. शिवाजी के अधिकार वाले 35 किलों में से 23 को आसपास के क्षेत्रों के साथ, जिनकी सालाना आमदनी 4 लाख हूण थी, मुगलों को सौंप दिया जाएगा जबकि एक लाख हूण की सालाना आमदनी वाले 12 किले ‘बादशाह की खिदमत और वफादारी की शर्त पर’ शिवाजी के पास रहेंगे ।
2. बीजापुरी कोंकण के 4 लाख हूण की सालाना आय वाले जिस क्षेत्र पर शिवाजी का पहले से कब्जा था, उसे उंन्हीं का मान लिया गया । साथ ही पठारी इलाके (बालाघाट) में बीजापुर का वह क्षेत्र भी उन्हें सौंप दिया गया जिसे शिवाजी जीतना चाहते थे इसकी सालाना आमदनी 5 लाख हूण थी । इनके बदले में उन्हें मुगलों को किस्तों में 40 लाख हूण स्वामित्व के अधिकार के लिए देने थे ।
शिवाजी ने निजी सेवा से मुक्त रखे जाने की माँग की । इसलिए उनकी जगह उनके नाबालिग बेटे सौभाजी को 5000 का मनसब दिया गया । लेकिन शिवाजी ने दकन में मुगलों के किसी भी अभियान में स्वयं भाग लेने का वादा किया ।
जयसिंह ने चालाकी से शिवाजी और बीजापुर के शासक के बीच झगड़े का बीज डाल दिया । लेकिन जयसिंह की योजना की सफलता इस पर निर्भर थी कि शिवाजी से जो 8 लाख हूण के इलाके मुगलों ने लिए थे, उसकी बीजापुर के इलाके से भरपाई करने में मुगल उनका साथ देते ।
यही एक घातक दोष साबित हुआ । शिवाजी के प्रति औरंगजेब का संशय पहले जैसा था तथा बीजापुर पर एक संयुक्त मुगल-मराठा आक्रमण की बुद्धिमत्ता में उसे शक था । पर जयसिंह के विचार अधिक व्यापक थे । वे शिवाजी के साथ हुई संधि को बीजापुर और पूरे दकन की विजय का आरंभ बिंदु मानते थे ।
उनका विचार था कि यदि एक बार ऐसा हो जाता तो शिवाजी के पास मुगलों का सहयोगी बने रहने के अलावा कोई चारा नहीं बचता क्योंकि जैसा कि जयसिंह ने औरंगजेब को लिखा था, ‘तब हम शिवा को एक वृत के केंद्र की तरह घेर लेंगे ।’
पर बीजापुर के खिलाफ मुगल-मराठा मुहिम नाकाम रही । शिवाजी को किला पन्हाला पर कब्जे के लिए लगाया गया, पर वे असफल रहे । अपनी शानदार योजना को अपनी आँखों के सामने लुढ़कते देख जयसिंह ने शिवाजी को आगरा में बादशाह से मिलने पर आमादा किया ।
जयसिंह ने सोचा कि शिवाजी और औरंगजेब के बीच मेल हो जाए तो नए सिरे से बीजापुर पर हमले के लिए औरंगजेब को और अधिक साधन देने पर तैयार किया जा सकता था । लेकिन यह यात्रा घातक साबित हुई ।
शिवाजी को जब 5000 के मनसबदारों के बीच खड़ा किया गया जो श्रेणी पहले उनके नाबालिग बेटे को दी जा चुकी थी तो उन्हें अपमान का अनुभव हुआ । न ही शिवाजी से बातचीत के लिए बादशाह को समय मिला जिसका तब जन्मदिन मनाया जा रहा था ।
इसलिए क्रुद्ध होकर शिवाजी दरबार छोड़कर आ गए और शाही सेवा से इनकार कर दिया । ऐसी कोई घटना पहले कभी नहीं घटी थी तथा दरबार के एक शक्तिशाली गुट का तर्क था कि शाही इज्जत को बनाए रखने के लिए शिवाजी को कड़ी सजा दी जाए ।
चूंकि शिवाजी जयसिंह की सलाह पर आगरा आए थे इसलिए जयसिंह ने शिवाजी से नरमी का बर्ताव करने की जोरदार पैरवी की । लेकिन कोई फैसला होने से पहले शिवाजी (1666 में) नजरबंदी से निकल भागे । शिवाजी के निकलने का ढंग इतना जाना-समझा है कि यहाँ इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है ।
औरंगजेब शिवाजी के भाग निकलने के लिए हमेशा अपनी लापरवाही को दोष देता रहा । इसमें शायद ही शक हो कि शिवाजी की आगरा-यात्रा मराठों के साथ मुगलों के संबंधों में एक नया मोड़ साबित हुई, हालांकि घर-वापसी के दो साल बाद तक शिवाजी खामोश रहे ।
इस यात्रा से साबित हो गया कि जयसिंह के विपरीत औरंगजेब शिवाजी के साथ गंठबंधन को कोई खास महत्त्व नहीं देता था । उसके लिए शिवाजी बस एक ‘मामूली भूमिया’ (मामूली किसान के ऊपर) थे । जैसा कि बाद के विकासक्रम से साबित हुआ शिवाजी के प्रति औरंगजेब के हठीले पूर्वाग्रह, उनके महत्त्व को स्वीकार करने से इनकार तथा उनकी मित्रता का कम मूल्य लगाना औरंगजेब की सबसे बडी राजनीतिक गलतियों में एक थी ।
शिवाजी से अंतिम संबंध-विच्छेद: शिवाजी का प्रशासन और उनकी उपलब्धियों:
पुरंदर की संधि की एक संकीर्ण व्याख्या पर जोर देकर औरंगजेब ने शिवाजी को अपनी विजय-यात्रा फिर से आरंभ करने पर लगभग मजबूर कर दिया । हालांकि बीजापुर विरोधी मुहिम की असफलता के साथ इस संधि का कोई अर्थ रह ही नहीं गया था ।
बीजापुर से बदले में कुछ पाए बिना 23 किले और 4 लाख हूण सालाना की आमदनी वाले क्षेत्र को मुगलों को सौंप देने को शिवाजी कभी भुला नहीं सकते थे । उन्होंने नए सिरे से मुगलों से टकराव आरंभ किया तथा 1670 में सूरत को दूसरी बार लूटा । अगले चार वषों में उन्होंने मुगलों से पुरंदर समेत अपने अनेक किले वापस ले लिए और मुगल इलाकों में खासकर बरार और खानदेश में दूर तक घुसपैठ की ।
उत्तर-पश्चिम में अफगान विद्रोह के सिलसिले में मुगलों की व्यस्तता ने शिवाजी की सहायता की । उन्होंने बीजापुर से भी नए सिरे से टकराव आरंभ किया रिश्वतें देकर पन्हाला और सतारा को प्राप्त किया तथा हाला कनारा क्षेत्र पर धावा बोला ।
1674 में शिवाजी ने रामगढ़ में औपचारिक रूप से ताज धारण किया । वे पूना के एक जागीरदार की स्थिति से बहुत आगे जा चुके थे । अब वे मराठा सरदारों में सबसे शक्तिशाली थे तथा अपने क्षेत्र के विस्तार और सेना के आकार के आधार पर कमजोर दकनी सुल्तानों के साथ बराबरी का दावा कर सकते थे ।
इस तरह इस औपचारिक सत्तारोहण के अनेक उद्देश्य थे । इसने उन्हें मराठा सरदारों में से किसी से भी अधिक ऊँचा स्थान दिलाया जिनमें से कुछ तो उन्हें बस एक छिछोरा व्यक्ति समझते थे । अपनी स्थिति को और मजबूत बनाने के लिए शिवाजी ने कुछ पुराने अग्रणी मराठा परिवारों में विवाह किए जैसे मोहिते शिरके आदि में ।
समारोह का संचालन करनेवाले पुरोहित गंगाभट्ट ने यह औपचारिक घोषणा भी की कि शिवाजी एक उच्च श्रेणी के क्षत्रिय हैं । इस तरह अब शिवाजी एक स्वतंत्र शासक थे और वह दकनी सुल्तानों के साथ बराबरी के स्तर पर संधि स्थापित कर सकते थे न कि एक बागी सरदार की तरह ।
यह मराठा राष्ट्रीय भावना को और आगे बढ़ानेवाला एक महत्वपूर्ण कदम भी था । 1676 में शिवाजी ने एक नया दुस्साहस किया । हैदराबाद राज्य के प्रभारी मदन्ना और अखन्ना नामक भाइयों की सक्रिय सहायता और समर्थन से शिवाजी ने बीजापुरी कर्नाटक में एक नया अभियान शुरू किया ।
अपनी राजधानी में कुतबशाह ने शिवाजी का शानदार स्वागत किया और एक औपचारिक समझौता हुआ । कुंतबशाह ने शिवाजी को एक लाख हूण (पाँच लाख रुपये) वार्षिक का अनुदान देना स्वीकार किया और उसके दरबार में एक मराठा राजदूत का रहना तय हुआ ।
कर्नाटक में मिलने वाले इलाके और लूट के माल का बाँटा जाना भी तय हुआ । शिवाजी की सहायता के लिए कुतबशाह ने एक दस्ता और तोपखाना दिया और सेना का खर्च उठाने के लिए धन भी ।
यह संधि शिवाजी के लिए बहुत लाभदायक रही उन्होंने बीजापुरी अधिकारियों से जिंजी और बेक्यूर छीना तथा अपने सौतेले भाई एकोजी के अधिकार वाले क्षेत्रों का काफी भाग भी जीत लिया । शिवाजी ने हालाकिं ‘हैंदव-धर्मोद्धारक’ (हिंदू धर्म के उद्धारक) की उपाधि धारण की थी पर उन्होंने इस क्षेत्र को जिसकी आबादी अधिकतर हिंदू थी, बेरहमी से लूटा ।
दौलत से लदे हुए घर लौटने के बाद शिवाजी ने कुतबशाह के साथ उसका बँटवारा करने से इनकार कर दिया और इस तरह उससे अपने संबंध बिगाड़ लिए । कर्नाटक का अभियान शिवाजी का अंतिम बड़ा अभियान था । शिवाजी ने जिंजी में जो आधार बनाया था वह उस समय उनके बेटे राजाराम के लिए सुरक्षित शरणस्थल साबित हुआ जब औरंगजेब ने मराठों के खिलाफ निर्णायक युद्ध छेड़ा ।
कर्नाटक के अभियान के कुछ ही समय बाद 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई । इस बीच उन्होंने प्रशासन की एक ठोस व्यवस्था की बुनियाद रख दी थी । शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था अधिकतर दकनी राज्यों के प्रशासनिक तौर-तरीकों की तर्ज पर थी ।
हालांकि उन्होंने आठ मंत्री नियुक्त किए थे जो कभी-कभी अष्ट प्रधान कहे जाते हैं पर इसकी प्रकृति एक मंत्री परिषद वाली नहीं थी और हर मंत्री सीधे शासक को जवाबदेह होता था । सबसे महत्वपूर्ण मंत्री था पेशवा जो वित्त और सामान्य प्रशासन देखता था । सरे-नौबत (सेनापति) सम्मानजनक पद था और आम तौर पर अग्रणी मराठा सरदारों में से किसी को दिया जाता था ।
मजूमदार लेखापति होता था जबकि वाकियानवीस गुप्तचरी डाक और घरेलू मामलों के लिए जिम्मेदार होता था । सुरूनवीस या चिटनीस पत्र-व्यवहार के द्वारा शासक की सहायता करता था । दबीर समारोहों का प्रभारी था और विदेशी शक्तियों से संबंधित मामलों में भी शासक की सहायता करता था । न्यायाधीश और पंडितराव न्याय और दान-सहायता के प्रभारी थे ।
इन अधिकारियों की नियुक्ति से अधिक महत्वपूर्ण था शिवाजी द्वारा सेना और राजस्व व्यवस्था का गठन । शिवाजी नियमित सैनिकों को नकद वेतन देने को वरीयता देते थे हालाकिं सरदार लोग कभी-कभी जागीर के अनुरूप सरंजाम पाते थे । सेना में सख्त अनुशासन रखा जाता था ।
किसी स्त्री या नर्तकी को सेना के साथ चलने की अनुमति नहीं थी । अभियानों के दौरान हर सैनिक द्वारा की गई लूट का सख्ती से हिसाब लिया जाता था । ढीली-ढाली सहायक सेनाओं (सिलहदारों) से अलग नियमित सेना पगा में लगभग 30,000 से 40,000 घुड़सवार होते थे; उनकी निगरानी हवलदार करते थे जो नकद वेतन पाते थे ।
किलों की होशियारी से निगरानी की जाती थी और वहाँ मवाली पियादे और बंदूकची तैनात किए जाते थे । कहा गया है कि विश्वासघात से बचाव के लिए समान दर्ज वाले तीन व्यक्तियों को हर किले का प्रभारी बनाया जाता था । राजस्व व्यवस्था लगता है मलिक अंबर की तर्ज पर बनाई गई थी ।
अन्नाजी दत्तो ने 1679 में मालगुजारी का एक नया आकलन पूरा किया । यह मानना सही नहीं है कि शिवाजी ने जमींदारी देशमुखी व्यवस्था का उन्मूलन कर दिया था या वे अपने अधिकारियों को जागीरें मोकासा नहीं देते थे । लेकिन शिवाजी मीरासदारों पर अर्थात भूमि पर पुश्तैनी अधिकार रखने वालों पर कड़ी निगरानी रखते थे ।
इस स्थिति का वर्णन करते हुए सभासद ने र जिनकी रचना अठारहवीं सदी की है कहा है कि ‘ये समूह अपनी वसूलियों का बहुत छोटा सा भाग सरकार को देते थे । फलस्वरूप मीरासदारों ने गाँवों में गढ़ियाँ हवेलियाँ और पुख्ता ठिकाने बनवाकर तथा पियादों और बंदूकचियों को भरती करके अपने-आपको बढ़ाया और शक्तिशाली बनाया । यह वर्ग उच्छृंखल बन गया था और इसने देश पर कब्जा कर लिया था ।’
शिवाजी ने इनकी गढ़ियों को नष्ट कर दिया और उन्हें अधीनता मानने के लिए मजबूर कर दिया । शिवाजी ने पड़ोसी मुगल क्षेत्रों से वसूलियाँ करके अपनी आय बढ़ाई । यह वसूली, जो मालगुजारी का चौथा भाग थी, चौथाई या चौथ कही जाने लगी ।
शिवाजी एक योग्य सेनापति, कुशल रणनीतिज्ञ और चालाक कूटनीतिज्ञ ही साबित नहीं हुए बल्कि देशमुखों की शक्ति पर अंकुश लगाकर उन्होंने एक मजबूत राज्य की बुनियाद भी रखी । सेना उनकी नीतियों का प्रमुख साधन होती थी जिसको उन्होंने ऐसा चुस्त बनाया कि वह तेज रफ्तार से चल सके ।
सेना अपने वेतन के लिए काफी हद तक पड़ोसी क्षेत्रों की लूट पर निर्भर होती थी । पर इसी कारण से राज्य को ‘सैनिक राज्य’ नहीं कहा जा सकता । इसका चरित्र निस्संदेह क्षेत्रीय था, पर निश्चित ही इसका एक जनाधार भी था । उस सीमा तक शिवाजी एक लोकप्रिय शासक थे जिन्होंने मुगलों के अतिक्रमण के खिलाफ उस क्षेत्र की जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व किया ।