Read this article in Hindi to learn about the rule of Shah Jahan in Bijapur and Golkonda during medieval period in India.
शाहजहाँ 1628 में तख्त पर बैठा । शाहजादे के रूप में दकन में दो अभियानों का नेतृत्व कर चुकने और अपने पिता के खिलाफ विद्रोह के दौरान दकन में अच्छा-खासा समय बिताने के बाद शाहजहाँ को दकन और उसकी राजनीति का काफी कुछ अनुभव और निजी ज्ञान प्राप्त हो चुका था ।
शासक के रूप में शाहजहाँ का पहला लक्ष्य दकन के उन क्षेत्रों को वापस पाना था जो निजामशाही शासक के हाथों में चले गए थे । इसके लिए उसने एक पुराने और अनुभवी अमीर खान-ए-जहाँ लोदी को नियुक्त किया । लेकिन खान-ए-जहाँ लोदी इस कार्य को पूरा करने में असफल रहा और उसे दरबार में वापस बुला लिया गया ।
कुछ ही समय बाद खान-ए-जहाँ विद्रोह करके निजामशाह से जा मिला जिसने उसे बरार और बालाघाट के बाकी भागों से मुगलों को बाहर निकालने के लिए नियुक्त किया । एक अग्रणी मुगल अमीर को शरण देने का मतलब मुगलों को चुनौती देना था जिसे शाहजहाँ अनदेखा नहीं कर सकता था ।
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स्पष्ट था कि मलिक अंबर की मृत्यु के बाद भी उसकी बरार और बालाघाट में मुगलों की सत्ता को मान्यता न देने की नीति को निजामशाही शासक जारी रखे हुए था । इसलिए शाहजहाँ इस नतीजे पर पहुँचा कि अहमदनगर जब तक एक स्वतंत्र राज्य बना रहेगा, दकन में मुगलों को शांति नहीं मिल सकती ।
यह अकबर और जहाँगीर की नीति से एक बहुत बड़ा अलगाव था । साथ ही दकन में जितना एकदम आवश्यक हो उससे अधिक मुगल क्षेत्र को बढ़ाने में शाहजहाँ की रुचि नहीं थी । इसलिए उसने बीजापुर के शासक को पत्र लिखकर प्रस्ताव रखा कि अगर वह अहमदनगर के खिलाफ सोचे जा रहे अभियान में मुगलों से सहयोग करे तो उसे मोटे तौर पर अहमदनगर राज्य का एक-तिहाई भाग दे दिया जाएगा ।
कूटनीतिक और सैनिक स्तर पर अहमदनगर को अलग-थलग करने की शाहजहाँ की यह एक सोची-समझी चाल थी । इसने विभिन्न मराठा सरदारों को भी हाल सेवा में शामिल होने के लिए संकेत भेजे ।
आरंभ में शाहजहाँ अपनी चालों मे सफल रहा । मलिक अंबर ने अपने अभियानों के दौरान कुछ प्रमुख बीजापुरी अमीरों को हराया और मार डाला था । मलिक अंबर के हाथों नौरसपुर की आगजनी और शोलापुर पर कब्जे के रूप में मिले अपमान से आदिलशाह भी कराह रहा था ।
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इसलिए उसने शाहजहाँ का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मुगलों से सहयोग करने के लिए निजामशाही सीमा पर एक सेना तैनात कर दी । लगभग इसी समय मुगलों के साथ षड़यंत्र करने के आरोप में जाधवराव को विश्वासघात करके निजामशाही दरबार में मार डाला गया था ।
वह एक प्रमुख मराठा सरदार था जो जहाँगीर के काल में मुगलों से जा मिला था पर फिर निजामशाह की सेवा में वापस आ गया था । फलस्वरूप शाहजी भोंसले जो उसका दामाद था (और शिवाजी का पिता था) अपने संबंधियों के साथ मुगलों से आ मिला । शाहजहाँ ने उसे 5,000 का मनसब दिया और पूना के क्षेत्र में जागीर दी । अनेक दूसरे प्रमुख मराठा सरदार भी शाहजहाँ से आ मिले ।
1629 में शाहजहाँ ने अहमदनगर के खिलाफ बड़ी-बड़ी सेनाएँ तैनात कीं । इनमें से एक को पश्चिम में बालाघाट क्षेत्र और दूसरों को पूरब में तेलंगाना क्षेत्र में अपना काम करना था । उनकी गतिविधियों के समन्वय के लिए बादशाह स्वयं बुरहानपुर पहुंच गया ।
बिना ढील दिए दबाव डालकर अहमदनगर राज्य के बड़े-बड़े भागों पर मुगलों का अधिकार हो गया । परेंदा पर घेरा डाला गया जो राज्य की आखिरी चौकियों में से एक था । निजामशाह ने अब आदिलशाह से एक दयनीय गुहार की । उसने कहा कि राज्य का अधिकांश भाग मुगलों के अधीन है और अब अगर परेंदा का पतन होता है तो उसका मतलब निजामशाह वंश का खात्मा होगा ।
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उसने चेतावनी दी कि इसके बाद बीजापुर की बारी आएगी । अहमदनगर में मुगलों के लगातार बढ़ते आने पर बीजापुर दरबार का एक शक्तिशाली समूह बेचैन हो रहा था । वास्तव में सरहद पर तैनात बीजापुरी सेनाओं ने बस स्थिति का जायजा लिया था और मुगलों की कार्रवाई में कोई सक्रिय भाग नहीं लिया था ।
अपनी ओर से मुगलों ने भी आदिलशाह को समझौते में तय हुए क्षेत्र देने से इनकार कर दिया था । फलस्वरूप आदिलशाह भड़क उठा और उसने निजामशाह की सहायता करने का निश्चय किया जिसने उसे शोलापुर सौंप देने का वादा किया । राजनीतिक स्थिति के ड्स मोड़ ने मुगलों को परेंदा का घेरा उठाकर पीछे हटने पर मजबूर कर दिया ।
लेकिन अहमदनगर की अतिरिक स्थिति अब मुगलों के पक्ष में पलट गई । मलिक अबर के बेटे फतह खान को निजामशाह ने अभी हाल में इस आशा पर पेशवा नियुक्त किया था कि वह शाहजहाँ को शांति-संधि के लिए प्रेरित कर सकेगा ।
इसके बदले फतह खान ने शाहजहाँ से गुप्त वार्ता शुरू कर दी और उसके कहने यर निजामशाह का कल्ल करके गद्दी पर एक कठपुतले को बिठा दिया । उसने नुगल बादशाह के नाम से खुत्वा भी पढ़वाया और सिक्का भी ढलवाया ।
पुरस्कारस्वरूप, फतह खान को मुगल सेवा में ले लिया गया और पूना के आसपास की जागीर जो पहले शाहजी को दी गई थी अब उसे हस्तांतरित कर दो गई । फलस्वरूप शाहजी ने मुगलों का साथ छोड़ दिया । ये घटनाएँ 1632 की हैं ।
फतह खान के समर्पण के बाद शाहजहाँ महाबत खान को दकन में मुगल सूबेदार नियुक्त करके स्वयं आगरा लौट गया । बीजापुर तथा शाहजी समेत स्थानीय निजामशाही अमीरों के संयुक्त विरोध के सामने महाबत खान ने अपने आपको बहुत मुश्किल हालत में पाया ।
परेंदा ने बीजापुर के आगे समर्पण कर दिया जिसने किला दौलताबाद के लिए भी एक जोरदार कोशिश की और किले के समर्पण के बदले फतह खान को भारी दौलत देने का प्रस्ताव किया । दूसरी जगहों पर भी मुगलों को अपनी स्थिति बनाए रखना कठिन लगने लगा ।
इस तरह देखा जा सकता है कि मुगल और बीजापुर वास्तव में अहमदनगर की लाश को बाँटने के संघर्ष में लगे हुए थे । दौलताबाद से समर्पण कराने और वहाँ अपनी छावनी बनाने के लिए आदिलशाह ने रनदौला खान और मुरारी पंडित के नेतृत्व में एक बड़ी फौज भेजी ।
मुगलों को परेशान कराने और उनकी रसद बद कराने के लिए शाहजी को भी बीजापुर की सेवा में ले लिया गया । पर बीजापुरी सेना और शाहजी की मिलीजुली कार्रवाई भी नाकाम रही । महाबत खान ने दौलताबाद को (1633 में) कसकर घेरा और छावनी को समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया ।
निजामशाह को कैद करके ग्वालियर भेज दिया गया । इस तरह निजामशाही वंश का अंत हो गया । लेकिन मुगलों की समस्याएँ इससे भी हल नहीं हुई । मलिक अंबर के उदाहरण का अनुकरण करते हुए शाहजी ने एक निजामशाही शाहजादा ढूँढ निकाला और उसे शासक बना दिया ।
शाहजी की सहायता के लिए आदिलशाह ने सात-आठ हजार घुड़सवारों का दस्ता भेजा और अनेक निजामशाही कुलीनों को अपने-अपने किले शाहजी को सौंप देने के लिए प्रेरित किया । अनेक तोड़ दिए गए निजामशाही सैनिक टुकड़ियों के सैनिक शाहजी से आ मिले जिससे उसकी सेना बढ़कर 20,000 सवारों तक जा पहुँची ।
इनके बल पर उसने मुगलों को परेशान किया और अहमदनगर राज्य के बड़े-बड़े हिस्सों पर अधिकार कर लिया । शाहजहाँ ने अब दकन की समस्याओं पर स्वयं ध्यान देने का निश्चय किया । उसने महसूस किया कि परेशानी की जड़ बीजापुर का रवैया है ।
इसलिए उसने बीजापुर पर आक्रमण के लिए एक बड़ी सेना भेजी और आदिलशाह को संकेत भी भेजे जिनमें अहमदनगर के इलाके को बीजापुर और मुगलों के बीच बाँटने के पिछले समझौते को फिर नए सिरे से मानने का प्रस्ताव किया गया ।
दाम और दंड की इस नीति के कारण तथा दकन में शाहजहाँ की अग्रगति के कारण बीजापुर की राजनीति में एक और परिवर्तन आया । मुरारी पंडित समेत मुगल-विरोधी गुट के नेता अपदस्थ करके मार डाले गए और शाहजहाँ के साथ एक और अहदनामा (समझौता) किया गया ।
इस समझौते के अनुसार आदिलशाह ने मुगलों की अधिराजी स्वीकार करने 20 लाख रुपये हर्जाना देने तथा गोलकुंडा के मामलों में हस्तक्षेप न करने का वादा किया जिसे मुगलों के संरक्षण में ले लिया गया था । तय हुआ कि भविष्य में बीजापुर और गोलकुंडा के बीच कोई भी विवाद मध्यस्थता के लिए मुगल बादशाह के सामने लाया जाएगा ।
आदिलशाह ने वादा किया कि शाहजी से अधीनता मनवाने के लिए वह मुगलों से सहयोग करेगा और अगर वह बीजापुर की सेवा में आना स्वीकार करता है तो उसे दक्षिण में मुगलों की सीमा से दूर नियुक्त किया जाएगा । इनके बदले अहमदनगर का लगभग 20 लाख हूण (लगभग 80 लाख रुपये) वार्षिक राजस्व का इलाका बीजापुर को दे दिया गया ।
शाहजहाँ ने आदिलशाह के नाम एक सत्य-वचन फरमान भो भेजा, जिस पर बादशाह की हथेली की छाप लगी थी कि समझौते की शर्तों का कभी उल्लंघन नहीं किया जाएगा । शाहजहाँ ने गोलकुंडा से भी एक समझौता करके दकन का बंदोबस्त पूरा कर दिया ।
वहाँ के शासक ने खुत्बे से शाह-ए-ईरान का नाम निकालकर उसमें शाहजहाँ का नाम शामिल करने की हामी भरी । कुतबशाह ने बादशाह का वफादार रहने का वादा किया । चार लाख हूण सालाना का खिराज, जिसे गोलकुंडा पहले बीजापुर को दे रहा था माफ कर दिया गया । गोलकुंडा को मुगल संरक्षण के बदले मुगल बादशाह को दो लाख हूण सलाना देने को कहा गया ।
बीजापुर और गोलकुंडा के साथ 1636 की संधियाँ श्रेष्ठ राजनीतिक कदम थे । वास्तव में, उन्होंने शाहजहाँ को अकबर का परम उद्देश्य पूरा करने में सफलता दिलाई । मुगल बादशाह की अधिराजी अब देश के चारों कोनों में स्वीकार की जाने लगी थी ।
मुगलों के साथ शांति के बाद दकनी राज्य अब दक्षिण की ओर अपने पाँव फैलाने की स्थिति में थे । 1636 की संधियों के बाद एक दशक में बीजापुर और गोलकुंडा ने कृष्णा नदी से लेकर तंजावुर और उससे आगे तक कर्नाटक के समृद्ध और उपजाऊ क्षेत्र को रौंद डाला । इस क्षेत्र में अनेक छोटे-छोटे रजवाड़ों का शासन था ।
उनमें से अनेक तो विजयनगर के भूतपूर्व शासक राय की सैद्धांतिक अधीनता स्वीकार करते थे जैसे तंजावुर, जिंजी और मदुरै के नायक । इन राज्यों के खिलाफ बीजापुर और गोलकुंडा ने अनेक अभियान चलाए । शाहजहाँ की सहायता से उन्होंने अपनी सेनाओं द्वारा जीते गए क्षेत्रों और मालों को बीजापुर और गोलकुंडा के बीच 2:1 अनुपात में बाँटने का समझौता किया ।
इन दोनों के बीच बार-बार के झगड़ों के बावजूद विजय का चक्र बढ़ता रहा । इस तरह एक छोटी-सी अवधि में इन दोनों राज्यों के इलाके दोगुने से अधिक बढ़ गए और वे अपनी शक्ति और समृद्धि के चरम पर जा पहुँचे । अगर ये शासक जीते गए क्षेत्रों पर अपनी पकड़ को मजबूत बना पाते तो दकन में शांति का एक लंबा युग चला होता ।
लेकिन तीव्र प्रसार ने इन राज्यों में जो भी आंतरिक संगठन था उसे कमजोर कर दिया । बीजापुर में शाहजी और उसके बेटे शिवाजी जैसे और गोलकुंडा के अग्रणी अमीर मीर जुमला जैसे महत्वाकांक्षी अमीरों ने अपने-अपने प्रभावक्षेत्र बनाने शुरू कर दिए ।
मुगलों ने भी देखा कि दकन में शक्ति-संतुलन डगमगा चुका है और उन्होंने इन राज्यों के प्रसारवादी चरण में अपनी कृपालु तटस्थता बनाए रखने की कीमत माँगी । 1656 में मुहम्मद आदिलशाह की मृत्यु के बाद और मुगल सूबेदार बनकर औरंगजेब के दकन पहुँचने के बाद ये घटनाक्रम अपने चरम पर पहुँचे ।