Read this article in Hindi to learn about the sensory and perceptual development in infants.

नवजात शिशु (The New Born Infant):

बच्चे का विकास उसके जन्म के बाद से शुरू न होकर वरन् उसके जन्म से पहले ही होता है, अर्थात् कहने का अर्थ यह है, कि नवजात शिशु में ज्ञानात्मक क्रियात्मक आदि क्षमताएँ किसी रूप में अवश्य ही विद्यमान रहती हैं, जिनका धीरे-धीरे विकास होता रहता है ।

नवजात शिशुओं के भिन्न-भिन्न प्रकार की क्षमताओं के विषय पता लगाने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने काफी अध्ययन किया है । लेकिन इस सम्बन्ध में याद रखने योग्य है, कि विभिन्न मनोवैज्ञानिकों में नवजात शिशुओं की क्षमता के सम्बध में काफी विचारों में भिन्नता रही है । नवजात शिशुओं की क्षमताओं का वर्णन प्रस्तुत है ।

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मनोवैज्ञानिकों द्वारा नवजात शिशु की विभिन्न क्षमताओं का पता लगाने के लिए अनेक प्रकार के अध्ययन किये गए हैं । चूंकि बालक का विकास उसके जन्म के बाद से होना शुरू नहीं होता वरन् उसके जन्म के पूर्व से ही होना प्रारम्भ हो जाता है, अर्थात् शिशु में सांवेदनिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही विद्यमान रहती हैं, जिनका विकास धीरे-धीरे होता है ।

इस सन्दर्भ में यह तथ्य विदित है, कि अनेक मनोविदों के विचार एक-दूसरे से काफी भिन्नता रखते हैं ।

शिशु के सांवेदनिक एवं प्रात्यक्षिक विकास सम्बन्धी प्रक्रियाएँ एवं क्षमताओं का वर्णन निम्नवत् किया जा सकता है:

शिशु की सांवेदनिक अभिक्षमताएँ एवं प्रक्रियाएँ (Sensory Capacities of Infants):

ADVERTISEMENTS:

शिशु में किस प्रकार की सांवेदनिक क्षमताएँ होती हैं, उसको ज्ञात करना जटिल कार्य है । सांवेदनिक सम्बन्धी अध्ययन के आधार पर ही ज्ञात होता है, कि शिशु में कौन सी सांवेदनिक क्षमताएँ निहित होती हैं? प्रयोगों के द्वारा ज्ञात हुआ है, कि शिशुओं की सवेदनशीलता का पता उनकी ज्ञानेद्रियों के उत्तेजित किये जाने पर उनके द्वारा की गई शारीरिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर लगाया जा सकता है ।

मनोवैज्ञानिकों द्वारा इस बात का पता लगाया गया है, कि शिशु की ज्ञानेद्रियाँ (Sense Organs) जन्म से या इसके थोड़ी देर बाद ही कार्यशील हो जाती है, परन्तु अचानक किसी सांवेदनिक उत्तेजना के प्रति शिशुओं द्वारा की गई प्रतिक्रिया वयस्कों के समान न होकर कुछ भिन्न होती है, अर्थात् शिशु अन्य प्रकार की उत्तेजनाओं की अपेक्षा स्पर्श उत्तेजना के प्रति सबसे अधिक प्रतिक्रिया करता है ।

शिशुओं में पायी जाने वाली विभिन्न सांवेदनिक क्षमताओं की व्याख्या निम्नवत् की जा सकती है:

(1) दृष्टि संवेदना (Visual Sensation):

ADVERTISEMENTS:

इरविन वाइस एवं रेडफील्ड ने अपने अध्ययनों के द्वारा ज्ञात किया कि शिशु अथवा छोटे बच्चों को प्रकाश द्वारा उत्तेजित करने पर उनमें सामूहिक क्रियाओं एवं रोने की क्रियाओं में कमी पाई गई । इससे स्पष्ट है, कि शिशु में दृष्टि संवेदनशीलता जन्म से ही होती है ।

(i) प्रकाश के प्रति प्रतिक्रियाएँ (Responses to the Light):

सरमन (Sherman) ने अपने एक प्रयोग में पाया कि शिशु की आँखों को अधिक प्रकाश से उत्तेजित करने पर वह टकटकी लगा कर देखने लगता है, अर्थात् उसकी आँखें स्थिर हो जाती हैं । इस प्रक्रिया को दोबारा तीन घण्टे के अन्दर करने पर वह अपनी खो की पलकों को धीरे-धीरे सिकोड़ने लगता है । इसी प्रकार शिशु के बढ़ने पर वह प्रकाश की उत्तेजना में अपना सिर इधर-उधर घुमाना प्रारम्भ कर देता है ।

(ii) आँखों का सन्तुलित ढंग से काम करना (To Co-Ordination of the Eye):

शिशु कुछ दिनों का हो जाने के पश्चात् अपनी आँखों को नियमित या सन्तुलित करने की क्रिया करने लगता है । मनोवैज्ञानिकों के द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया कि यह प्रक्रिया जन्म के छ: घण्टे के बाद ही शुरू होकर डेढ़ दिन के अन्दर ही पूर्ण रूप से होने लगती है ।

(iii) नेत्रों की अनैच्छिक गतिविधि:

किसी गतिशील वस्तु को देखने पर व्यक्ति की आँखें उसका अनुसरण करने लगती है । यह गतिविधि शिशु में जन्म के साढ़े ग्यारह और पौने बारह घण्टों बाद ही देखी गई । इससे स्पष्ट है, कि इस क्रिया में नाडी संरचन (Neural Mechanism Underlying this Activity) शिशुओं में जन्म से ही पाई जाती है ।

(iv) गतिशील वस्तुओं का नेत्रों द्वारा अनुसरण करना (Ocular Pursuit of a Moving Object):

शिशु में गतिशील वस्तुओं का अनुसरण करने की क्षमता प्रारम्भ में निम्न होती है । दाएँ से बाएँ व बाएँ से दाएँ अर्थात समानान्तर दिशा में शिशु के नेततों की गति अनुसरण करती है । इसके बाद ऊपर-नीचे तत्पश्चात् चारों ओर घूमने वाली वस्तुओं को एवं सबसे अन्त में वृत्ताकार दिशा में नेत्रों की गति अनुसरण करने लगती है ।

(v) रंग विभेदीकरण (Colour Discrimination):

शिशुओं के नेत्र के सम्बन्ध में एक बात अतिविचित्र है, कि उन्हें रंग से सम्बन्धित जो भी वस्तु दिखाई जाती है, उसका रंग कोई भी हो शिशु को केवल नीले रंग की संवेदना ही होती है ।

कुछ मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययन के आधार पर यह तथ्य सामने आए कि रंग विभेदीकरण की क्षमता 9 महीने से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं में भी पाई जाती है, जबकि कुछ अध्ययनों के आधार पर यह ज्ञात हुआ कि 18 महीने के पहले बच्चों में यह क्षमता नहीं होती ।

इन सबके बाद भी निष्कर्षत: कहा जा सकता है, कि शिशुओं में रंग ज्ञान (Colour Sense) अपूर्ण रूप से विकसित रहता है, तथा शिशु की वृद्धि के सा थ-साथ उसकी क्षमता भी विकसित होती जाती है ।

(2) श्रवण संवेदना (Auditory Sensation):

श्रवण संवेदना के सन्दर्भ में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों में मत भेद होने के बाद भी यह सहमति है, कि जन्म के प्रथम 10 दिनों के पहले ही शिशुओं में सुनने की क्रिया पूर्ण रूप से पाई जाती है । शिशु कैसी प्रतिक्रिया करेगा यह ध्वनि उत्तेजना की तीव्रता पर निर्भर करता है ।

कुछ शिशुओं में बहरापन भी पाया जाता है, विकास के दृष्टिकोण से सभी प्रकार की संवेदनाओं में शिशु में जन्म के समय ध्वनि संवेदना सबसे कम विकसित रहती है, तथा कुछ शिशुओं में जन्म के दिन ही बहुत तेज आवाज के प्रति उछलने एवं चीखने चिल्लाने की प्रतिक्रियाएँ भी देखी जाती है ।

ध्वनि उत्तेजना सम्बन्धी प्रयोगों के आधार पर कुछ मनोवैज्ञानिकों ने पता लगाया कि शिशु में ध्वनि संवेदना उत्पन्न करने वाली उत्तेजनाओं में एकाएक जोरों की आवाज (All of Sudden Loud Voice) एवं तीक्ष्ण ध्वनियाँ (Intense Voice) आदि भी मुख्य होती हैं ।

इन सब प्रयोगों के आधार पर कुछ निष्कर्ष निम्नवत् स्पष्ट किये जा सकते हैं:

उत्तेजनाओं के अत्यधिक तीव्र होने पर जन्म के समय भी शिशु में सुनने की क्रिया पाई जाती है । जन्म के प्रथम ग्यारह दिनों के अन्दर ध्वनि कुशलता, तीव्रता (Auditory acuity) में अत्यन्त प्रगति होती है ।

ध्वनि उत्तेजनाओं के कम या ज्यादा होने पर शिशु की प्रतिक्रिया में कमी या वृद्धि हो जाती है ।

(3) त्वक् संवेदना (Skin or Cutaneous Sensitivity):

शिशुओं में जन्म से या जन्म के कुछ देर पश्चात् स्पर्श (Touch), दवाब (Pressure), ताप (Temperature), पीडा (Pair) इत्यादि एवं संवेदनाएँ होती हैं ।

स्पर्श संवेदना (Touch Sensation):

स्पर्श संवेदनशीलता (Touch Sensitiveness) शरीर के सभी अंगों में जन्म के समय से ही बनी रहती है, परन्तु शरीर के कुछ अंग दूसरे अंगों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील रहते हैं । जैसे – होठ में सबसे अधिक संवेदनशीलता रहती है, जबकि धड़, जाँघ (Thigh) एवं अग्रवाहु (Forearm) की त्वचा में अपेक्षाकृत निम्न संवेदनशीलता रहती है ।

ताप-प्रतिक्रियाएँ (Reactions to Temperature):

जन्म के समय से ही शिशु में ताप-प्रतिक्रियाएँ पाई जाती हैं । शिशुओं को अधिक ठंडा या गर्म दू हा अ थवा पानी पीने के लिए दिया जाता है तो वे उसको पी नहीं पाते और चिल्लाने लगते हैं । इससे स्पष्ट होता है, कि शिशुओं में ताप-प्रतिक्रिया होती है, अर्थात् उसमें ताप संवेदना विद्यमान रहती है ।

पीड़ा संवेदना (Pain Sensation):

शिशु में जन्म के एक दो दिन तक पीड़ा की संवेदना थोड़ी कम होती है, किन्तु सबसे अधिक पीड़ा संवेदना पैर के तलवे (Sole of Foot), होंठ (Lips), पपनी (Eyelashes), मातृ या कपाल की त्वचा में पाई जाती है, जबकि अपेक्षाकृत शरीर के अन्य अंगों में पीड़ा की संवेदना कम होती है ।

शरीर के ऊपरी भाग में नीचे की अपेक्षा पीड़ा की संवेदना अधिक होती है । शिशु का मुखड़ा उसके पैरों की अपेक्षा पीड़ा उत्तेजना के प्रति अधिक प्रतिक्रियाएँ करता है ।

सरमन एवं सरमन  द्वारा किये गये प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि शिशु के मुखड़े से पहली ही बार पीड़ा उत्तेजना से उत्तेजित करने पर वे इसके प्रति प्रतिक्रियाएँ करते हैं, जबकि उनकी उम्र 41 घण्टे की होती है । 76 घण्टे की उम्र के बाद शिशुओं में उनके पैर की ऐड़ी की पीडा उत्तेजना से प्रथम बार उत्तेजित करने पर ही इसके प्रति प्रतिक्रियाएँ देखी गयीं ।

(4) गंध या घ्राण संवेदना (Smell or Olfactory Sensation):

पूर्व में मनोवैज्ञानिकों का मानना था कि नवजात शिशु पूर्ण रूप से गंध-विषय (Smell-Matter) को जन्म से ही समझने लगता है । तत्पश्चात् के प्रयोगों के इस विचार को खण्डित कर दिया । पिटर्सन, रेनी, प्रेयर, प्रैट, सन एवं नैलसन आदि मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि ऐसीटिक ऐसिड, अमोनिया, माँ का दूध (Mother’s Milk), पेट्रोल आदि गंधों से सम्बन्धित ज्ञान शिशुओं में जन्म के समय से ही विकसित हो जाता है ।

जन्म के एक घण्टे के अन्दर ही शरीर को ऐंठने, चिल्लाने, अंगूठा चूसने, मुँह बनाने सम्बन्धी प्रतिक्रियाएँ उनमें इन उत्तेजनाओं के प्रति पाई गई । प्रेयर (Prayer) ने पाया कि माँ के स्तन पर पेट्रोल या कोई कडुवा पदार्थ लगाने के पश्चात् शिशु को स्तनपान कराने पर उनमें मुँह सिकोड़ने जैसी प्रतिक्रियाएँ पायी गयीं ।

इसी प्रकार अमोनिया व ऐसीटिक एसिड आदि के प्रयोग में विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का होना पाया गया । सुप्तावस्था में बच्चों की नाक को अमोनिया से उत्तेजित करने पर उनमें उछलने सिर को घुमाने-मोड़ने नाक सिकोड़ने मुँह-चलाने जैसी प्रतिक्रियाएँ देखी गई ।

इसी प्रकार शिशु के जगने पर गौस को उत्तेजित करने पर रोने मुँह चलाने चेहरे पर एक हाथ से रगड़ने एवं छींकने की क्रियाएँ पाई गई । इसमें एक तथ्य यह निकलकर आया कि तीव्र उत्तेजनाओं के प्रति जो भी शिशुओं की प्रतिक्रियाएँ होती हैं, वे गंध उत्तेजना के प्रति न होकर वरन् स्पर्श उत्तेजना के कारण होती हैं । इस तथ्य की पृष्टि टेलर एवं जोन्स (Taylor & Jones) ने की ।

(5) स्वाद संवेदना (Taste Sensation):

शिशुओं की संवेदना के सन्दर्भ में अनेक प्रयोगों द्वारा यह ज्ञात होता है, कि उनमें स्वाद संवेदना अपेक्षाकृत दृष्टिज्ञान एवं ध्वनिज्ञान के अधिक विकसित रहती है । नेलसन एवं प्रैट (Nelson & Pratt) ने पाया कि जन्म के दो दिन बाद ही शिशु में नमक व चीनी घोल के प्रति स्पष्ट प्रतिक्रियाएँ पाई गई ।

जन्म के बाद पहले दिन ही कुनैन साइट्रिक एसिड एवं पानी आदि की उत्तेजना के फलस्वरूप शिशुओं में हाथ-पैर की गति, सिर व आखों की गति एवं सम्पूर्ण शरीर की गति आदि में परिवर्तन देखे गए । इनकी उत्तेजनाओं के प्रति शिशुओं में अनेक प्रतिक्रियाएँ देखी गई ।

इन प्रतिक्रियाओं को निम्न सारणी द्वारा समझा जा सकता है:

पिटर्सन एवं रेनी (Peterson & Rainey) के प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ कि जन्म से एक सप्ताह के अन्दर ही शिशु में स्वाद उत्तेजनाओं के प्रति विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ हुई शेष दो सप्ताह के बाद हुई ।

यह प्रयोग 1000 शिशुओं पर किया गया जिनमें 800 शिशुओं में विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ जन्म के एक सप्ताह के अन्दर तथा शेष 200 में दो सप्ताह के अन्दर प्रतिक्रियाएँ हुई । इनमें चीनी एवं नमक के प्रति उत्तेजनाओं का प्रतिशताक साधारण था जबकि खट्टे एवं कडुवे पदार्थो के प्रति उत्तेजना का प्रतिशतांक निषेधात्मक था ।

(6) अन्तरावयव संवेदना (Organic Sensation):

शिशुओं में जन्म के समय से ही भूख एवं प्यास से संबद्ध अन्तराववय संवेदना विद्यमान रहती है । ऐसा निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता । शिशुओं में रोने की क्रिया सामान्य तकलीफ (Common Discomfort) या भूख और प्यास के समय होने वाली अंतड़ियों की सिकुड़न जन्मकाल से ही शिशुओं मे पाई जाती है ।

और यह वयस्कों की अपेक्षा अधिक शीघ्रता एवं तीव्रता से होती है । कार्लसन एवं जिन्सबर्ग (Carlson & Ginsberg) ने नवजात शिशुओं पर किए गए अध्ययनों से स्पष्ट कर दिया कि पेट में भोजन जाने से पूर्व ही उनके पेट में सिकुड़न होने लगती है ।

नवजात शिशु के संवेग (Emotions of the Infants):

वाटसन (Watson) ने जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के फिर क्लीनिक (Phipps Clinic of John Hopkins University) में किए गए अध्ययनों के आधार पर यह पाया कि शिशुओं के जन्मकाल से ही ये तीनों संवेग – भय क्रोध तथा प्रेम – विद्यमान रहते हैं ।

इनका उत्पन्न होना विशिष्ट प्रकार की उत्तेजनाओं पर निर्भर करता है:

(i) भय का संवेग कर्कश ध्वनि एवं सहारे के अभाव से उत्पन्न हो जाता है ।

(ii) क्रोध का संवेग शिशुओं में शारीरिक गति में अवरोध (Hampering of Bodily Movement) के कारण होता है । 10 या 15 दिनों के शिशुओं के सिर बाँह या पैर को कसकर पकडूने पर वे अपने क्रोध का प्रदर्शन शरीर को कड़ा कर अपने हाथपैरों को जोर-जोर से पटककर एवं साँस को रोककर करते हैं ।

(iii) प्रेम का संवेग शिशुओं की त्वचा को स्पर्श करके सहलाने (Stroking the Skin), गुदगुदाने (Tickling), थपथपाने (Patting) इत्यादि उत्तेजनाओं से उत्पन होता है । शिशुओं के चूचुक (Nipples) होठ तथा जनेन्द्रियों को उत्तेजित करने पर उनमें मुस्कराने (Smiling) बाँह हिलाने व पैर पटकने आदि जैसी प्रतिक्रियाएँ पाई गई ।

उपर्युका सन्दर्भ में भय क्रोध एवं प्रेम के संवेगों को प्रारम्भ में स्वीकार कर लिया गया किन्तु धीरे-धीरे अन्य मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के आधार पर वाटसन के प्रयोगों को अस्वीकृत कर दिया उनको कहना था कि शिशुओं में जन्मकाल के समय कोई भी संवेग नहीं पाया जाता है ।

शिशुओं में होने वाली सवेग एवं प्रतिक्रियाओं के सन्दर्भ में सरमन तथा सरमन के अतिरिक्त अन्य मनोवैज्ञानिकों ने भी इस सम्बन्ध में अध्ययन कर वाटसन महोदय के विचार का खण्डन किया ।

टेलर वाटसन महोदय की तरह क्रोध उत्पन करने वाली उत्तेजनाओं (जैसे – बाँह और नाक पकड़ना तथा भय उत्पन्न करने वाली उत्तेजनाओं ( जैसे – कुछ ऊँचाई से बिछावन पर गिरा देना) तथा कर्कश ध्वनि का उपयोग कर 1 से 12 दिन की उम्र के 44 बच्चों का अध्ययन किया ।

उन्होंने शिशुओं में इन उत्तेजनाओं के प्रति विशिष्ट प्रकार की प्रतिक्रियाएँ नहीं पायी गई । प्रत्येक उत्तेजना के प्रति करीब- करीब एक ही तरह की प्रतिक्रिया शिशुओं ने की । इस प्रकार टेलर ने सरमन व सरमन के निष्कर्ष का ही समर्थन किया तथा वाटसन के विचारों का खण्डन किया ।

प्रैट, नैलसन तथा सन ने भी इस सम्बन्ध में प्रयोग किया इनके अनुसार जिन क्रियाओं को वाटसन महोदय क्रोध का द्योतक मानते हैं, कि वैसी क्रियाएँ शिशु की भूख की अवस्था में तथा अन्य किसी भी तरह के शारीरिक कष्ट के समय होती है ।

उन्होंने कई प्रयोग इस सम्बन्ध में उन्हीं उत्तेजनाओं का उपयोग कर किए जो वाटसन ने किये थे । इनके आधार पर उन्होंने भी वाटसन के विचारों का खण्डन और सरमन के विचारों का समर्थन किया अर्थात् उनके अनुसार भी शिशु में कोई जन्मजात संवेग नहीं पाया जाता ।

इस सम्बन्ध में डेनिस क्लार्क और हट बाकविन इत्यादि ने भी अलग-अलग प्रयोग किया । उन्होंने भी वाटसन महोदय के शिशु संवेग से सम्बद्ध विचार का खण्डन किया । उनके अनुसार भी बच्चों में कोई जन्मजात संवेग नहीं पाया जाता ।

अरविन (Irwin) ने इस विषय में किये गये अपने प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि दस दिनों के भीतर डर का संवेग नहीं पाया जाता । उनके अनुसार भी कर्कश ध्वनि या सहारे के अभाव में शिशुओं में भय का संवेग उत्पन नहीं होता बल्कि उनमें सामान्य ढंग से सम्पूर्ण शरीर से की गई क्रियाएँ ही पायी जाती हैं ।

नवजात शिशु में सम्बद्धता (Growth in New Born Infant):

पावलव के अनुयायियों के अनुसार नवजात शिशुओं में सीखने की क्षमता का अभाव रहता है । उनके अनुसार नवजात शिशुओं में सम्बद्धता का होना सम्भव नहीं है, क्योंकि जन्म के बाद प्रारम्भिक कुछ महीनों में शिशु का वृहत मस्तिष्कीय बल्क अपूर्ण रूप से कार्य करता है । मारक्विस ने एक प्रयोग किया ।

उन्होंने आठ शिशुओं के योजन के प्रति की गई प्रतिक्रियाओं का सम्बन्ध गुणक की ध्वनि के साथ स्थापित करने की चेष्टा की । तीन से छ: दिनों के प्रयोग के बाद आठ में से सात शिशुओं में गुंजक की आवाज सुनने के बाद प्रतिक्रियाओं में काफी परिवर्तन दिखाई पड़े चूसने और मुँह खोलने की क्रिया में सम्बद्धता प्रत्यावर्तन की क्रिया नहीं पाई गई , क्योंकि उसकी शारीरिक स्थिति दुर्बल थी । मारक्विस के अनुसार नवजात शिशुओं में सम्बद्धता सम्भव होती है ।

विकेन्स व विकेन्स (Wickens & Wickens) ने भी अपने अध्ययनों के आधार पर यह पाया कि नवजात शिशु में सम्बद्धता सम्भव नहीं । वेंजर (Wenger) धटर ने भी इस सम्बन्ध में प्रयोग किये और अपने अध्ययनों के आधार पर उनका यह निष्कर्ष है, कि शिशु में जन्म से प्रथम दस दिनों के भीतर सम्बद्धता का होना कठिन है ।

कसैटाकिंग तथा लेविकोव (Kasatking and Levikowa) ने पाया कि शिशुओं में दूसरे महीने के पूर्वार्द्ध के पहले ध्वनि उत्तेजना और चूसने की क्रिया में सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता ।

इस समय की सम्बद्धता में उत्तेजित किये जाने की संख्या (Number of Stimulation) की अपेक्षा शिशु की परिपक्वता का अधिक महत्च होता है । इस तरह नवजात शिशु में सम्बद्धता का होना सम्भव है, या नहीं इस सम्बन्ध में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता ।

नवजात शिशु की चेतना (Consciousness of the New Born Infant):

लोग सिर्फ कल्पना करते आये हैं, कि नवजात शिशु को यह संसार कैसा लगता है, और जिस वातावरण में वह जन्म लेता है, उसका निरीक्षण करते समय किन-किन चीजों की चेतना उसे रहती है? इस सम्बन्ध में सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है, कि शिशु अपने वातावरण कि किन-किन चीजों का प्रत्यक्षीकरण (Perception) करता है?

इस सम्बन्ध में थोड़ा बहुत ज्ञान हमें नवजात शिशुओं की ज्ञानेन्द्रियों की स्थिति (Conditions of the Sense Organs) उनके जन्म के समय कैसी रहती है, इसकी जानकारी द्वारा प्राप्त होता है । इसके अलावा विभिन्न परिस्थितियों में उनके द्वारा किये गये व्यवहारों से भी इस सम्बन्ध में कुछ ज्ञान मिलता है ।

शिशुओं की चेतना का वर्णन करने की चेष्टा बहुत से लोगों ने की है । जेम्स महोदय का कहना है, कि नवजात शिशु को जन्म के समय इस संसार की कुछ चेतना नहीं रहती ।

जब वह जन्म लेता है, तब वह अपने को कुछ कोलाहलपूर्ण वातावरण (Big Blooming Confusion) में पाता है । इस संसार का उसको इससे कोई ज्यादा ज्ञान नहीं रहता जब तक उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ कार्य नहीं कर पाती तब तक नवजात शिशु में चेतना का सर्वथा अभाव रहता है ।

स्टर्न का मानना है, कि नवजात शिशु में थोड़ी बहुत चेतना जन्मकाल से ही रहती है । बच्चों के व्यवहारों को देखने से स्पष्ट होता है, कि वे जन्म के पहले ही दिन से सुख (Comfort) तथा दु:ख (Discomfort) का अनुभव करते हैं । काफ्का का कथन है, कि नवजात शिशु को इस संसार का अनुभव या ज्ञान वयस्कों से भिन्न प्रकार का होता है ।

नवजात शिशु की प्रात्यक्षिक क्षमताएँ (Perceptual Capacities of Infant Baby):

गिल्मर (Gilmar) ने चलचित्र कैमरा (Moving Picture Camera) द्वारा नवजात शिशु की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया । प्रैट, नैलसन तथा सन ने भी ओहिओ स्टेट विश्वविद्यालय के प्रयोगात्मक भवन (Experimental Cabinet) में शिशुओं को रखा तथा उनका परीक्षण किया । अरविन का कथन है, कि नवजात शिशु की प्रतिक्रियाएँ अनियमित दोषपूर्ण एवं असन्तुलित होती हैं ।

उन्होंने नवजात शिशुओ की प्रतिक्रियाओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया है:

(a) विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ तथा

(b) सामूहिक ।

इस विषय में डेनिस (Denis) द्वारा उठाया गया यह प्रश्न कि नवजात शिशु की प्रतिक्रियाएँ सरीखी हुई हैं, या भूतप्रवृत्यात्मक (Instinctive) बहुत ही महत्वपूर्ण है । उन्होंने इस सम्बन्ध में अध्ययन भी किया है, तथा वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि नवजात शिशु द्वारा जन्म के समय किये गये अधिकांश व्यवहार अनसीखे (Unlearned) है ।

सामूहिक प्रतिक्रियाएँ वह होती हैं, जिसमें शिशु का सारा शरीर सन्निहित होता है, लेकिन इसके विपरीत जिसमें शरीर का खास भाग सन्निहित होता है, विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ कहलाती हैं ।

यह विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ भी दो प्रकार की होती हैं:

(i) सामान्य प्रतिक्रियाएँ,

(ii) प्रतिक्षेप या सहज प्रतिक्रियाएँ ।

विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ वास्तविकता में सामूहिक प्रतिक्रियाओं के ही प्रतिवर्द्धित स्वरूप होता है, बच्चे के जन्म के पहले होने वाले विकास में भी बच्चे सम्पूर्ण शरीर से ही प्रतिक्रियाएँ प्रकट करते हैं । जब गर्भस्थ शिशु के शरीर को उत्तेजित किया जाता है, तब उसका सारा शरीर प्रतिक्रिया करने लगता है ।

इस प्रकार का अनुभव मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर पाया जब शिशु रोता है, तब उस वक्त उसका सारा शरीर क्रियाशील रहता है । शिशु के विकास के साथ-साथ उसमें विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का होना आरम्भ हो जाता है । अब वह अपने सम्पूर्ण शरीर से प्रतिक्रिया नहीं करता बल्कि किसी एक खास अंग से ही करता है, जो उत्तेजित किया गया होता है ।

बच्चों की इन दोनों विशिष्ट सामूहिक प्रतिक्रियाओं का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिये गया है:

(a) सामूहिक प्रतिक्रियाएँ (Mass Activities):

शरीर का जब कोई एक भाग या अंग किसी ज्ञानात्मक उत्तेजना (Sensory Stimuli) के सम्पर्क में आता है, तब शिशु के सारे शरीर में क्रियात्मक प्रतिक्रियाएँ (Motor Activities) होने लगती है । लेकिन शरीर का जो भाग उत्तेजित किया गया रहता है, उसमें अधिक प्रतिक्रिया देखी गई होती है ।

प्रैट (Pratt) ने महसूस किया कि ध्वनि उत्तेजनाएँ (Auditory Stimuli) भी शिशु की शारीरिक प्रतिक्रियाओं को बढ़ा देती है । ध्वनि की तीव्रता बढ़ जाने पर या ध्वनि उत्तेजना को काफी समय तक बच्चों के कानों के सम्पर्क में रखने पर शिशु की शारीरिक क्रियाओं में वृद्धि पायी गई । यह बात सुषुप्तावस्था जागृतावस्था तथा रुदनवस्था में ज्यादा पाई गई ।

डेलयेन ने चलचित्र कैमरे द्वारा स्पर्श उत्तेजनाओं (Touchier Stimuli) के प्रति शिशु द्वारा दी गई प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया । इसके आहगर पर उनका निष्कर्ष है, कि हालांकि क्रिया सिर्फ शरीर के उत्तेजित किए गये भाग में नहीं होती, फिर भी इस प्रारम्भिक अवस्था से ही शिशु की प्रतिक्रियाओं में एक प्रकार का क्रम (Pattern) पाया जाता है ।

गिलमर (Gilmer) ने भी चलचित्र कैमरे के माध्यम से चार शिशुओं का अध्ययन जन्म से लेकर दस दिनों तक किया और अनुभव किया कि छींकने (Sneezing) तथा हाथ-पैर, फैलाने के समय बच्चों का सारा शरीर क्रियाशील रहता है । ऐसा देखा फिर पाया गया कि, भूख प्यास दर्द व शारीरिक कष्ट की अवस्था में बच्चों का सम्पूर्ण शरीर अपेक्षाकृत अधिक क्रियाशील रहता है ।

भोजन मिलने के पश्चात् उनकी प्रतिक्रियाओं में कमी हो जाती है । जन्म से सात दिनों की अवस्था तक सम्पूर्ण शरीर से किया करने अर्थात् सामूहिक क्रियाओं में वृद्धि होती है ।

लेकिन उसके पश्चात् उस किया में कमी होने लगती है, अर्थात् कहा जा सकता है, इस पर बच्चों के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है । अन्धकार की अपेक्षा रोशनी में बच्चों के इस तरह की भी प्रतिक्रियाओं की मात्रा बहुत कम होती है । रेडफील्ड ने अनुभव किया कि प्रकाश में बच्चे कम शारीरिक क्रियाएँ करते हैं ।

अरविन इस विषय में कहते हैं, कि शिशु को अन्धकार से प्रकाश में लाया जाता है, तब उसकी शारीरिक क्रियाओं में कमी पाई जाती है, लेकिन इसके विपरीत उन्हें प्रकाश से अन्धकार में लाने पर क्रियाओं में वृद्धि होती है । प्रैट ने यह भी पाया कि 74-88 तक के तापमान और आर्द्रता में 22-90% तक के बीच परिवर्तन लाने पर शिशुओं की शारीरिक क्रियाओं पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

अरविन इस बात का भी पता लगाते हैं, कि नवजात शिशु के शरीर का कौनसा भाग अधिक क्रियाशील रहता है । उन्होंने पाया कि दस दिन तक के शिशु के शरीर के विभिन्न अंगों की क्रियाओं का औसत प्रतिशत इस प्रकार है- सिर में 4%, धड़ में 28%, बाँहों में 21% तथा पैरों में 27% |

स्टब्स व अरविन ने चार बच्चों की क्रियाओं का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि उनकी बाईं व दाई बाँहों की गति में काफी अन्तर होता है । दो शिशुओं ने दाहिने पैर से अधिक बाएँ पैर से क्रिया की तथा एक ने बाएँ से ज्यादा दाहिने पैर से ।

(b) विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ (Specific Reaction):

जैसा कि इस अध्याय में अध्ययन के पूर्व में बताया गया है,

शिशुओं में पाई जाने वाली विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं:

(i) सामान्य प्रतिक्रियाएँ और

(ii) सहज प्रतिक्रियाएँ ।

पर यह स्मरण रखने योग्य बात है, कि इन दोनों प्रकार की विशिष्ट प्रतिक्रियाओं में भेद सिर्फ परिणाम सम्बन्धी है ।

(i) सामान्य प्रतिक्रियाएँ (General Reaction):

सामान्य प्रतिक्रियाएँ वह कहलाती हैं, जिनके करने से शिशुओं में सहज क्रियाओं की अपेक्षा शरीर पर ज्यादा भाग सन्निहित होता है, अर्थात् ये सहज क्रियाओं की अपेक्षा कम विशिष्ट है । सहज क्रियाओं के समान ही ये किसी बाहरी या आन्तरिक उत्तेजनाओं के प्रति होती है, लेकिन इन्हें उत्पन करने वाली उत्तेजनाओं को बार-बार दुहराने पर इनमें परिवर्तन लाना सम्भव है ।

शिशुओं द्वारा की गई सामान्य प्रतिक्रियाओं में मुख्य हैं, प्रकाश पर ध्यान केन्द्रित करना (Visual Fixation on Light), स्वाभाविक नेत्र गति (Spontaneous Eye Movement), आँसू बहाना (Shedding Tears), चूसना (Sucking), धोंटाना (Swallowing), जीभ (Tongue) और ओंठ (Lips) इत्यादि की क्रियाएँ अंगुलियाँ चूसना और बन्द करना (Mouthing Movement), बाँह और हाथ का संचालन (Arm and Hand Movement), उछलकूद करना तथा लात मारना  तथा पैर तथा लात की गति (Leg and Feet Movement) |

अत: स्पष्ट होता है, कि शिशु में बहुत सारी विशेषताएँ होती हैं, उनका उद्देश्यहीन (Aimless) तथा असन्तुलित (Uncoordinated) होना, लेकिन इन्हीं क्रियाओं के आधार पर आगे चलकर बच्चे बहुत सी कुशल क्रियाएँ (Skilled Actions) करना सीख लेते हैं ।

(ii) सहज प्रतिक्रियाएँ (Relax Action):

यह विशिष्ट प्रतिक्रियाएँ दूसरे प्रकार की होती हैं, जो नवजात शिशु में पायी जाती हैं । नवजात शिशुओं की सहज क्रियाओं के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों द्वारा विशेष रूप से अध्ययन किये गये हैं । नवजात शिशु में पाई जाने वाली सहज क्रियाओं का वर्णन करने के पहले यह जान लेना चाहिए कि सहज क्रिया किसे कहते हैं (What is meant by Relax Action)?

सहज क्रिया की परिभाषा पर छगन देने से स्पष्ट होता है, कि इनमें निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं:

(a) शीघ्रता से होना (Quick in Operation),

(b) निश्चित रूप से होना (Define in its Course),

(c) अनैच्छिक (Involuntary) होना,

(d) अनसीखी होना, प्रशिक्षण का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना तथा कार्य करने के लिए सदैव तैयार रहना ।

नवजात शिशु में सर्वप्रथम यही सहज क्रियाएँ पायी जाती है, जिनका जीवन रक्षा सम्बन्धी विशेष महत्व होता है । जैसे – घुटना झटकारना (Knee Jerk), पलक प्रत्यावर्तन, पाचन क्रिया सम्बन्धी सहज क्रियाएँ । ये सहज क्रियाएँ शिशु में जन्म से पहले की अवस्था में पाई जाती हैं ।

छीकने की क्रिया शिशु में माँ के गर्भ (Womb) के बाहर आने के साथ ही पाई जाती हैं, और जन्म-रुदन (Birth-Cry) के पहले ही होती है । दूसरी सहज क्रियाएँ शिशु में जन्म के कुछ घण्टे बाद पाई जाती है । कुछ सहज क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिनका कुछ समय के बाद लोप (Disappear) हो जाता है ।

नीचे बच्चों में पायी जाने वाली सहज क्रियाओं का सीक्षप्त में वर्णन दिया गया है:

(A) पलक प्रत्यावर्तन:

यह सहज क्रिया समस्त शिशुओं में देखी जाती है । आँखों के सम्पर्क में आने वाली रोशनी की तीव्रता में परिवर्तन के साथ अभियोजन करने के लिए शिशु में पलक प्रत्यावर्तन होता है ।

आँखों पर जब तीव्र प्रकाश पड़ता है, तब शिशु की आँखेँ सिकुड़ने लगती हैं, तथा इसके विपरीत जब प्रकाश मंद रहता है, पलकें फैल जाती हैं, जिसको आँखों में अधिक-से-अधिक प्रकाश प्रवेश कर सके शिशु में पलक प्रत्यावर्तन की जाँच सम्भव नहीं होती, क्योंकि अधिकतर वह सोए रहते हैं ।

आँखों पर तीव्र प्रकाश के पड़ते ही वे पुन: आँखें सिकुड़ लेते हैं । इसके वाबजूद सरमन व सरमन अपने अध्ययन के आधार पर कहते हैं, जन्म से दो घण्टे तक शिशु में पलक प्रत्यावर्तन नहीं पाया जाता है और आठ घण्टे की औसत उम्र के शिशुओं में यह थोड़ा-थोड़ा पाया जाता है, परन्तु 23 घण्टे के बाद समस्त बच्चों में शिशुओं में पलक प्रत्यावर्तन की क्रिया पायी जाती है ।

इस प्रकार स्पष्ट होता है, कि नवजात शिशुओं में जन्म के समय ही पलक प्रत्यावर्तन की क्रिया नहीं पायी जाती है, लेकिन जन्म के पश्चात् इसका विकास बहुत शीघ्रता से हो जाता है ।

(B) यादतल प्रत्यावर्तन:

मैत्री ने जन्म से लेकर पाँच वर्ष की अवस्था तक के 75 बच्चों का अध्ययन बार-बार करने पर पाया कि यादतल प्रत्यावर्तन के विकास का कम सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं की ओर होता है । जैसे – प्रारम्भ में पैर को खींच लेने की क्रिया देखी जाती है, किन्तु बाद में केवल टखने (Ankle) व पैर की अँगुलियों (Toes) में होती है । यह सहज क्रिया कुछ दिनों के पश्चात् मुका हो जाती है ।

(C) स्नायु प्रत्यावर्तन:

माँसपेशियों (Muscles) से सम्बन्धित स्नायुओं को जोर से थपथपाने से उस माँसपेशी में सिकुड़न (Contraction) हो जाती है ।

इसी प्रकार शिशु में पाए जाने वाले कुछ मुख्य स्नायु प्रत्यावर्तन निम्नवत् हैं:

(i) घुटना झड़कने की सहज क्रिया (Knee Jerk or Patellar Reflex);

(ii) एकिलीज स्नायु की सहज क्रिया (Achilles Tendon Reflex);

(iii) द्विमूल प्रत्यावर्तन (Biceps Reflex);

(iv) त्रिमूल प्रतिक्षेप (Triceps Reflex) |

पकड़ने की सहज क्रिया (Grasping Reflex):

इसमें भी दो अवस्थाएँ कार्य करती हैं:

(i) हथेली पर सूक्ष्म दवाब पड़ने पर उसका बन्द हो जाना एवं

(ii) अगुलियों के बन्द होने पर अपनी अंगुली खींचने पर मुट्ठी बन जाना ।

हावरसन ने अपने प्रयोगों से पता लगाया कि यह पकडू इतनी मजबूत हो सकती है, कि शिशु स्वयं के भार से अधिक भार सँभाल सकता है । शिशु के सुप्तावस्था में यह प्रतिक्रिया निष्किय रहती है । शिशु की जाग्रत अवस्था या उसे उत्तेजित करने की अवस्थाएँ शिशु को इस प्रतिक्रिया हेतु प्रेरित करती हैं ।

साधारणतया 4 महीने के पश्चात् इस क्रिया का प्राय: विलुप्तीकरण हो जाता है । इसके लुप्त होने पर बच्चों में हाथ सम्बन्धी नवीन व्यवहार प्रणालियों का निर्माण होने लगता है । वे स्वत: ही अन्य प्रकार की सहज क्रियाओं को अपनाना प्रारम्भ कर देते हैं । मेग्रौ (McGraw) लिखते हैं, कि जब बच्चा अपने हाथों का भली भांति प्रयोग करना सीख लेता है, तो पकडूने की सहज किया साधारणतया समाप्त हो जाती है ।

उपर्युक्त सन्दर्भ में अपने बच्चे की सांवेदनिक (Sensation) एवं प्रात्यक्षिक (Precipitant) प्रतिक्रियाओं के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त की । हम आपको यहाँ एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी अवश्य देना चाहेंगे जो कि नवजात शिशु के स्वर उच्चारण से सम्बन्धित है ।

हम नवजात शिशु को जन्म से लेकर कई माह तक विभिन्न क्रंदन अवस्थाओं में देखते हैं । यह क्रंदन अवस्थाएं कौन-कौन सी होती हैं? भाषा से इसका क्या सम्बन्ध है? इनकी क्या विभिन्नताएं हैं?

आदि के सन्दर्भ में जानकारी निम्नवत् स्पष्ट की गई है:

नवजात शिशु का स्वर उच्चारण (Vocalization of the New Born):

नवजात शिशु के स्वर उच्चारण में निम्न तत्वों के सन्दर्भ में स्पष्टीकरण दिया जा सकता है:

(i) जन्म क्रंदन (Birth Cry):

शिशु के जन्म लेने के पश्चात् उसके उच्चारण का प्रारम्भ जन्म क्रदन के रूप में माना गया है । जन्म के समय बच्चे का वाणी यन्त्र हवा के सम्पर्क में आने से उसको कष्ट होता है, और वह क्रंदन प्रारम्भ कर देता है । चिकित्सकीय भाषा में इस प्रक्रिया का अत्यन्त महत्व है । इसके द्वारा साँस लेने की क्रिया सम्भव होती है, एवं रक्त को पर्याप्त ऑक्सीजन की मात्रा भी प्राप्त हो जाती है ।

(ii) जन्म क्रंदन में विभिन्नताएँ (Differentiation in Birth Cry):

यह क्रिया सब शिशुओं में समान नहीं होती । यह शिशु की शारीरिक स्थिति एवं जन्म के तरीके पर निर्भर करती है । सामान्य अवधि में उत्पन शिशुओं का क्रंदन तीक्षा एवं तीव्र होता है, जबकि 9 माह से पूर्व की स्थिति में उसका क्रंदन धीमे-धीमे होता है ।

(iii) परिवर्तन एवं विकास (Changes & Development):

जन्म के 24 घण्टे के मध्य शिशुओं में रोने की क्रिया इसकी गहराई (Pitch), तीव्रता (Intensity) एवं अवधि (Duration) के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकता है । शारीरिक पीड़ा क्रोध आदि की अवस्थाओं में रुदन की तीव्रता एवं सत्ताकाल बढ़ जाती है । इन अवस्थाओं में शिशु तेजी से बहुत देर तक रोता हुआ पाया जाता है ।

(iv) रुदन की उत्तेजनाएँ (Stimulation of Crises):

शिशु अवस्था में रूदन की उत्तेजना के कई कारण हैं; जैसे-भूख (Hunger), दर्द (Pain), की कष्टमयी उत्तेजनाएँ, घाव, फोड़ा-फुंसी तथा खतना करना (Circumcision) इत्यादि । आलिड्रच (Aldrich) द्वारा किये गये अध्ययन के आधार पर पाया कि नवजात शिशु में रोने की किया कई कारणों से होती है जिनमें 35.5% भूख तथा 35.1% अज्ञात कारण होते हैं ।

(v) रुदन की अवधि में शारीरिक क्रियाएँ (Bodily Accompaniment):

अरविन (Irwin) के अनुसार रोते समय शिशु सम्पूर्ण शरीर से प्रतिक्रिया करते पाये जाते हैं । प्राय: शिशु में रोने के साथ-साथ कुछ-न-कुछ शारीरिक क्रियाएँ देखी जाती हैं । रोते समय वह अपने हाथ-पैर जोर-जोर से फेंकता है, अँगुली एवं तलवे को सिकोड़ता है, शरीर को इधर-उधर घुमाता है, एवं लात भी मारता है । शिशु में रूदन को भाषा मानते हुए अरविन इसे सामाजिक व्यवहार का प्रारम्भिक काल कहते हैं ।

(vi) रुदन का परिणाम (Result of Crying):

आल्डिच (Aldrich) ने कुछ शिशुओं का अध्ययन किया । उन्हें इससे प्राप्त परिणाम इस प्रकार थे – कम-से-कम रोने वाले बच्चे जन्म से लेकर आठ दिन तक की अवधि में 386 मिनट तक रोते पाये गये । अर्थात् उनके रोने का औसत प्रतिशत 48. 2 मिनट प्रतिदिन का था । सबसे अधिक रोने वाले बच्चे 1,947 मिनट तक रोते पाये गये, जिनके प्रतिदिन रोने का औसत प्रतिशत 243 मिनट था ।

(vii) रुदन का सामाजिक प्रभाव (Social Effect of Crying):

शिशु रुदन के सामाजिक प्रभावों के सन्दर्भ में बलाप्टन (Blanton) ने अध्ययन किया उन्होंने एक बच्चे के रोने की प्रतिक्रियाओं का रिकॉर्ड (Record) किया और उसके बाद उस रिकॉर्ड को 1 से 14 दिन तक की उम्र के 6 बच्चों के सामने बजाया ।

इस प्रयोग से ज्ञात हुआ कि एक शिशु के रुदन का दूसरे शिशु के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् शिशु रुदन क्रिया एक सहज किया है । अत: इसका दूसरे बच्चों के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

(viii) आकस्मिक उत्पन्न ध्वनि या विस्फोटक ध्वनि (Explosive Sound):

वाणी यन्त्र की माँसपेशियों में सिकुड़न होने के साथ-साथ अनेक प्रकार की अर्थहीन एवं उद्देश्यहीन ध्वनियाँ निकलती हैं । चूंकि ये ध्वनियाँ रोने की क्रिया की अपेक्षा क्षीण होती हैं, इसलिए ये महत्वहीन समझी जाती हैं । भाषा-विकास के दृष्टिकोण से ये अवश्य महत्वपूर्ण ध्वनियाँ कहलाती हैं ।

प्रथम वर्ष के उत्तरार्द्ध (Second hall) में ये वलवलाने (Babbling) का रूप धारण कर लेती हैं । छींकने की क्रिया भी एक प्रकार की विस्फोटक ध्वनि कहलाती है, जो प्राय: जन्म क्रदन के पूर्व होती है । जमाँई (Yawning) लेने की किया भी एक प्रकार की विस्फोटक ध्वनि है, जो शिशुओं में जन्म के बाद थोड़ी देर तक पाई जाती है, तथा हिचकी की ध्वनि शिशु में जन्म के सातवें दिन तक पायी जाती है ।

अरविन एवं चेन (Irwin & Chen) के अनुसार कराहने (Whining) की किया शिशुओं में साँस लेते समय पाई जाती है । इस प्रकार स्पष्ट है, कि नवजात शिशु में बहुत प्रकार की ध्वनियों को उत्पल करने की क्षमता होती है ।

उपमुका विवरण में आपने समझा कि नवजात शिशु की सांवेदनिक, प्रात्याक्षिक, चेतना, संबद्धता, स्वर उच्चारण आदि से सम्बन्धित प्रतिक्रियाएँ किस प्रकार वयस्कों से भिन्न-भिन्न होती हैं, तथा उनका इस ससार का अनुभव या ज्ञान किस प्रकार विकसित होता है ।

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