Read this essay in Hindi to learn about the state of society and culture in Delhi sultanate.
Essay # 1. नगरीय जीवन: दास, दस्तकार और अन्य (Urban Life in Delhi Sultanate):
तुर्क शासक वर्ग को नगरीय जीवन खास तौर से पसंद था । अनेक नगर सैनिक मूलत: छावनियों के पास विकसित हुए जो सिपाहियों को खाद्य पदार्थों वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति करते थे । कालांतर में इन्हीं में से अनेक नगर सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में विकसित हुए ।
मध्यकालीन नगरों की आबादी मिली-जुली थी । इसमें अनेक कम स्थिति वाले अमीर बड़ी संख्या में सरकारी कार्यालय चलाने वाले बाबू आदि होते थे । बड़ी संख्या में दुकानदार, दस्तकार, भिखारी आदि भी नगरीय आबादी में शामिल थे । स्पष्ट है कि बाबुओं और निचले सरकारी हाकिमों के पद उन्हीं लोगों को दिए जा सकते थे जो पढ़ और लिख सकते थे ।
चूंकि अध्यापन कार्य अधिकतर मुसलमान धर्मशास्त्री (उलमा) करते थे, उलमा और ये निचले अधिकारी एक ही तरह सोचने और व्यवहार करने लगे । अधिकांश इतिहासकार इसी वर्ग से निकले और उनकी रचनाएँ इसी वर्ग के मतों और पूर्वाग्रहों को प्रतिबिंबित करती हैं । भिखारियों की संख्या बहुत थी और वे साधारण जनता की ही तरह हथियार बाँधते थे ।
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इसलिए वे कभी-कभी कानून-व्यवस्था के लिए समस्या खड़ी कर देते थे । नगरों में एक और बड़ा समूह दासों और घरेलू नौकरों का था । भारत में तथा पश्चिमी एशिया और यूरोप में भी लंबे समय से दास-प्रथा चलती आ रही थी । हिंदू शास्त्रों में विभिन्न प्रकार के दासों की स्थिति का वर्णन किया गया है-स्वामी के घर में जन्मे खरीदे हुए जीते हुए और उत्तराधिकार में पाए हुए ।
अरबों ने भी दास-प्रथा को अपनाया था, और बाद में चलकर तुर्कों ने भी । युद्ध में बंदी बनाना, दास पाने का सबसे आम ढंग होता था । एक युद्धबंदी को दास बनाने को महाभारत काल में भी सामान्य कर्म माना गया है । भारत में और भारत से बाहर तुर्कों ने व्यापक रूप से इस ढंग को अपनाया । पश्चिमी एशिया में और भारत में भी दासों और दासियों के बाजार मौजूद थे ।
तुर्क, काकेशियाई, यूनानी और भारतीय दासों को महत्व दिया जाता था और लोग उन्हें हासिल करने के लिए उत्सुक रहते थे । थोड़ी संख्या में दारनों का आयात अफ्रीका से भी होता था मुख्यत: अबीसीनिया से । दास मुख्यत: घरेलू कामों के लिए, संगति के लिए और अपने किसी विशेष कौशल के कारण खरीदे जाते थे ।
कुशल दासों सुंदर लड़कों और सुंदर लड़कियों की कभी-कभी भारी कीमत लगती थी । कुशल दासों को महत्व दिया जाता था और कुछ तो ऊपर उठकर ऊँचे पदों पर भी पहुँच जाते थे जैसा कि कुतबुद्दीन ऐबक के दासों के मामले में हुआ । फिरोज तुगलक भी दासों को महत्त्व देता था और उसने लगभग 1,80,000 दास जमा किए थे ।
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उनमें से अनेक तो हस्तशिल्पों में लगाए गए जबकि शेष सुल्तान के निजी अंगरक्षक थे । लेकिन दासों की सबसे बड़ी संख्या का उपयोग निजी सेवाओं के लिए किया जाता था । ऐसे दासों के साथ कभी-कभी कठोर व्यवहार किया जाता था । फिर भी कहा जा सकता है कि दास की हालत घरेलू नौकर से बेहतर होती थी क्योंकि दास का स्वामी उसे भोजन और आवास देने के लिए बाध्य था, जबकि एक स्वतंत्र व्यक्ति भूखों भी मर सकता था ।
दासों को विवाह करने तथा कुछ व्यक्तिगत संपत्ति रखने का भी अधिकार था । पर यह बात व्यापक रूप से स्वीकार की जाती थी कि दास-प्रथा पतनकारी थी और हिंदू तथा मुसलमान, दोनों में दास या दासी को मुक्त करना पुण्य का काम माना जाता था ।
सल्तनत काल में नगरवासियों के लिए खाद्य पदार्थ सामान्यत: सस्ते थे । हमने अलाउद्दीन खलजी के काल में खाद्य पदार्थों के दाम का जिक्र किया है । उसके दौर में एक मन (लगभग 15 किग्रा) गेहूं साढ़े सात जीतल का, जौ 4 और चावल 5 जीतल का बिक रहा था, जबकि 48 जीतल चाँदी के एक टके के बराबर होता था ।
मुहम्मद तुगलक के दौर में कीमतें तेजी से चढ़ी । पर फिरोज के दौर में गिरकर अलाउद्दीन वाले स्तर पर आ गईं । संभव है कि इसका कारण उसके शासनकाल में कृषि का प्रसार रहा हो । नगरों में जीवनयापन की लागत की गणना करना कठिन है ।
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एक आधुनिक इतिहासकार ने अनुमान लगाया है कि फिरोज के दौर में एक पुरुष, उसकी पत्नी, एक नौकर और एक या दो बच्चों पर आधारित एक परिवार 5 टंकों में एक माह तक जीवनयापन कर सकता था । इस तरह एक निम्न सरकारी अधिकारी या सैनिक के लिए जीवनयापन का खर्च कम था । किंतु यह बात कारीगरों और श्रमिकों पर लागू नहीं होती थी ।
अलाउद्दीन खलजी के दौर में एक कारीगर की मजदूरी 2 या 3 जीतल प्रतिदिन या डेढ़-दो टंके प्रतिमाह थी । घरेलू नौकर और भी कम पाते थे । अकबर के शासनकाल तक में एक अकुशल श्रमिक ढाई-तीन रुपए प्रतिमाह या और भी कम पाता था । आय की दृष्टि से नगरों के कारीगरों और श्रमिकों की जीवन-दशा लगता है कठोर रही होगी ।
इस तरह मध्यकालीन समाज भारी असमानताओं का समाज था । यह बात हिंदू समाज से अधिक मुस्लिम समाज में दिखाई देती है । हिंदू अधिकतर ग्रामीण थे जिनके बीच असमानताएँ कम स्पष्ट थीं । नगरों में मुस्लिम अमीर भारी तड़क-भड़क का जीवन जीते थे । कुछ धनी सौदागर भी जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल थे ऐसे ही तड़क-भड़क की जिंदगी बिताते थे ।
नगरों में और देहातों में भी आम लोग सीधा-सादा जीवन जीते थे और प्राय: उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था । लेकिन यह आनंदहीन जीवन नहीं था, क्योंकि अनेक त्योहार, मेले आदि उनके जीवन की एकरसता को एक हद तक तोड़ते थे ।
Essay # 2. जाति-प्रथा तथा सामाजिक रीति-रिवाज (Caste System, Society and Culture in Delhi Sultanate):
इस काल में हिंदू समाज के ढाँचे में शायद ही कोई परिवर्तन आया हो । इस काल के स्मृति-लेखक बाह्मणों को ऊँचा स्थान देते रहे हालांकि उन्होंने इस वर्ग के अयोग्य सदस्यों की घोर भर्त्सना की । एक विचारधारा के अनुसार ब्राह्मणों के लिए आपातकाल में ही नहीं बल्कि सामान्य काल तक में कृषि-कर्म विदित था क्योंकि कलियुग में यज्ञ आदि का संचालन जीवन-निर्वाह का साधन प्रदान नहीं कर सकता था ।
स्मृति-ग्रंथ इस बात पर जोर देते रहे कि दुष्टों को दंड देना और सज्जनों की रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म है और जनता की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार केवल उसी को है । शूद्रों के कर्त्तव्यों, व्यवसायों और उनकी अयोग्यताओं को कमोबेश दोहराया गया है । जहाँ जातियों की सेवा करना शूद्र का सर्वोच्च कर्त्तव्य था वहीं उसे माँस-मदिरा के व्यवसाय को छोड़ सभी व्यवसायों में लगने की अनुमति थी ।
शूद्रों के लिए वेदों के अध्ययन और उच्चारण पर प्रतिबंध को जारी रखा गया पर पुराणों के श्लोक सुनने पर प्रतिबंध नहीं था । कुछ लेखकों ने तो आगे बढ़कर यहाँ तक कहा है कि शूद्र के साथ भोजन करने ही नहीं बल्कि उसके साथ ही एक मकान ही में रहने एक चारपाई पर बैठने और एक विद्वान शूद्र से धार्मिक निर्देश प्राप्त करने से भी बचना चाहिए । इसे एक अतिवादी विचार माना जा सकता है । लेकिन चांडालों और अन्य ‘अंत्यजों’ से मेलजोल पर कठोरतम प्रतिबंध लगाए गए ।
हिंदू समाज में स्त्रियों की स्थिति में शायद ही परिवर्तन आया हो । लड़कियों के शीघ्र विवाह तथा पति के प्रति पत्नी के सेवा और समर्पण संबंधी पुराने नियम जारी रहे । पत्नी को छोड़कर चले जाने, असाध्य रोग लग जाने आदि विशेष परिस्थितियों में विवाह-विच्छेद की अनुमति थी, पर सभी स्मृतिकार इससे सहमत नहीं हैं ।
कलियुग में निषिद्ध प्रथाओं में विधवा-विवाह भी शामिल है । पर लगता है यह निषेध तीन उच्च वर्णो तक ही सीमित था । सती-प्रथा का कुछ लेखकों ने जोर देकर अनुमोदन किया है जबकि दूसरों ने कुछ शर्त जोड़कर इसकी अनुमति दी है ।
देश के विभिन्न भागों में इसके प्रचलन का उल्लेख अनेक यात्रियों ने किया है । ढोलों की भारी आवाज के बीच एक स्त्री के अपने पति की चिता पर जल मरने का उल्लेख इब्न-बतूता ने बड़े भयाक्रांत ढंग से किया है । उसके कथनानुसार सती होने के लिए सुल्तान से अनुमति लेनी पड़ती थी ।
संपत्ति के बारे में टीकाकारों ने पति की संपत्ति पर पुत्रहीन विधवा के अधिकार का समर्थन किया है बशर्ते वह संपत्ति संयुक्त हो अर्थात अभी बंटी न हो । विधवा इस संपत्ति की संरक्षिका ही नहीं होती थी बल्कि उसको उसे बेचने या किसी को दे देने का पूरा अधिकार था । इस प्रकार लगता है कि हिंदू कानून में स्त्रियों के संपत्ति संबंधी अधिकार बड़े ।
इस काल में उच्च वर्गों में स्त्रियों को अलग रखने और उनके बाहरी व्यक्तियों की मौजूदगी में अपने चेहरे ढँकने की प्रथा अर्थात पर्दे की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित हुई । उच्चवर्गीय हिंदुओं में स्त्रियों को दूसरों की वासनामय दृष्टि से दूर रखने की प्रथा थी । यह प्रथा प्राचीन ईरान यूनान आदि में भी प्रचलित थी ।
इसे अरबों और तुर्कों ने अपनाया और इसे वे अपने साथ लेकर भारत आए । उनके द्वारा इसका प्रचलन किए जाने के कारण यह भारत और विशेषकर उत्तर भारत में व्यापक रूप से प्रचलित हो गई । आक्रमणकारियों द्वारा हिंदू स्त्रियों को बंदी बनाए जाने के डर को पर्दे के प्रचलन का कारण कहा जाता है ।
हिंसा के युग में यह संभव था कि स्त्रियों को युद्ध में प्राप्त लूट का कीमती माल माना जाए । लेकिन पर्दा-प्रथा के फैलने का शायद सबसे महत्वपूर्ण कारण सामाजिक था । यह समाज के उच्चतर वर्गों की प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया तथा जो लोग प्रतिष्ठित माना जाना चाहते थे, वे इसकी नकल करने का प्रयास करते थे । इसके लिए धार्मिक औचित्य भी ढूँढ लिया गया । कारण जो भी हो पर्दा प्रथा ने स्त्रियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला और पुरुषों पर उन्हें और अधिक आश्रित बना दिया ।
सल्तनत काल में मुस्लिम समाज उपजातीय और नस्ली समूहों में विभाजित रहा । हम उसमें मौजूद भारी आर्थिक विषमताओं को पहले ही देख चुके हैं । तुर्क अफगान और भारतीय मूल के मुसलमानों से शायद ही विवाह संबंध बनाते थे । वास्तव में, हिंदुओं के जातिगत अलगाव को इन समूहों ने भी कुछ हद तक अपना लिया । हिंदू समाज के निचले तबके से जो लोग धर्म बदलकर मुसलमान बन जाते थे उनके साथ भी भेदभाव किया जाता था ।
इस काल में हिंदू और मुस्लिम उच्च वर्गो के बीच सामाजिक संपर्क कुछ खास नहीं था । अंशत: इसका कारण मुसलमानों का अपने आप को श्रेष्ठ समझना था और अंशत: यह कि दोनों के बीच रोटी-बेटी का संबंध बनाने पर धार्मिक पाबंदियाँ लगी हुई थीं । ऊँची जाति के हिंदू शूद्रों पर जो प्रतिबंध लगाते थे उन्हीं को मुसलमानों पर लगाने लगे ।
पर यह बात ध्यान में रहे कि जातिगत प्रतिबंधों के बावजूद मुसलमानों और उच्चजातीय हिंदुओं और शूद्रों के बीच सामाजिक संपर्क रहे । विभिन्न कालों में मुस्लिम सेनाओं में हिंदू सैनिक भर्ती किए जाते रहे । ज्यादातर अमीरों के निजी प्रबंधक हिंदू थे । स्थानीय प्रशासनतंत्र लगभग पूरी तरह हिंदुओं के हाथों में रहा ।
इस तरह आपसी संपर्क के अनेक अवसर थे । इसलिए अपने-अपने दायरे में सिमटे रहने वाले और एक दूसरे से प्राय: संपर्क न रखने वाले दो विरोधी समुदायों का चित्र न तो वास्तविक है और न यह व्यावहारिक हो सकता था । उपलब्ध साक्ष्यों से भी ऐसी स्थिति की पुष्टि नहीं होती ।
हितों के टकराव तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारों, प्रथाओं और विश्वासों संबंधी भेदों के कारण तनाव अवश्य पैदा होते थे तथा इससे आपसी समझ और सांस्कृतिक मेलजोल की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती थी ।
Essay # 3. राज्य की प्रकृति (Nature of the State in Delhi Sultanate):
भारत में तुर्क राज्य सैन्यवादी और अभिजातवादी था । तुर्क अमीरों ने आरंभ में राज्य के उच्च पदों पर एकाधिकार पाने की कोशिश की तथा ताजिक अफगान और दूसरे गैर-तुर्क आव्रजकों को इससे बाहर रखा । तुगलकों के काल में कुलीन वर्ग का आधार और व्यापक हुआ, पर कुलीनजन्मा होना ऊँचा पद पाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण तत्व बना रहा ।
इसलिए मुसलमानों के और हिंदुओं के विशाल बहुमत के लिए राज्य के ऊँचे पद पाने के अवसर कम ही थे । नगरवासी मुसलमानो के लिए सेना में भरती होने और सरकारी नौकरी पाने के अवसर निश्चित ही अधिक थे । व्यापार पर हिंदुओं का वर्चस्व था और ग्रामीण अभिजात भी वही थे । प्रशासन के निचले स्तरों पर भी हिंदू ही छाए हुए थे जिनके सहयोग के बिना राज्य का काम चल ही नहीं सकता था ।
इस तरह ग्रामीण हिंदू अभिजातों और नगर-केंद्रित प्रशासकों के बीच सत्ता में एक अनकही भागीदारी दिल्ली सल्तनत के लिए सर्वोच्च महत्व का तत्व था हालांकि इन विभिन्न ममूहों के बीच अकसर टकराव होते रहते थे । इस संघर्ष को अकसर एक धार्मिक रंग दे दिया जाता था पर इसके बुनियादी कारण लौकिक हुआ करते थे जैसे सत्ता और जमीन की लड़ाई या भूमि से पैदा अधिशेष (सरप्लस) में हिस्सेदारी की लड़ाई क्योंकि उन दिनों जमीन आम तौर पर बेची नहीं जाती थी । इन उद्देश्यों से मुसलमान भी आपस में लडते रहते थे ।
राज्य औपचारिक अर्थ में इस्लामी था । सुल्तान राज्य के मुस्लिम चरित्र पर जोर देने तथा जहाँ तक हो सके शरीअत का पालन करने में दिलचस्पी रखते थे । इसका मतलब यह भी था कि शरीअत की किसी खुली अवज्ञा की अनुमति न दी जाए । सुल्तान राज्य के लाभदायक पदों पर उलमा को नियुक्त करते थे तथा उनमें से बहुतों को वे राजस्व-मुक्त भूमि दान में देते थे । लेकिन सुल्तान उलमा को राज्य की नीति में दखल देने की अनुमति नहीं देते थे ।
ऐसी जानकारी मिलती है कि इल्तुतमिश के शासनकाल में उलमा के एक दल ने सुल्तान से मिलकर शरीअत को सख्ती से लाग करने की माँग की और यह भी कि हिंदुओं को केवल इस्लाम या मौत में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाए ।
सुल्लान की ओर से उसके वजीर ने उन धर्मशास्त्रियों से कहा कि यह असंभव है और राजनीतिक दृष्टिकोण से गलत भी क्योंकि (संख्या के हिसाब से) मुसलमान तो बस दाल में नमक के बराबर हैं ।
सुल्तान को शरीअत के पूरक के रूप में अपने नियम-कायदे (जवाबित) बनाने पड़ते थे । अलाउद्दीन खलजी ने नगर के मुख्य काजी से कहा था कि मुझे नहीं पता कि शरीअत के अनुसार कानूनी क्या है, और गैर कानूनी क्या, मै तो राज्य की आवश्यकताओं के अनुसार कायदे बनाता हूँ । यही कारण है कि इतिहासकार बरनी ने भारतीय राज्य को सच्चा इस्लामी राज्य न मानकर दुनियावी सोचों (‘जहाँदारी’) पर आधारित राज्य माना ।
रही हिंदू प्रजा तो सिंध पर अरबों के आक्रमण के बाद से ही उमे जिम्मी अर्थात संरक्षित प्रजा का दर्जा दिया गया था, अर्थात एम लोगो का जो मुस्लिम शासन को स्वीकार करके जजिया नामक कर देने के लिए तैयार हो । वास्तव मै यह सैन्य सेवा के बदले में लिया जाने वाला कर था और साधनों के आधार पर कम या अधिक मात्रा में लिया जाता था । स्त्रियाँ, बच्चे, नथा साधनहीन और विपन्न लोग इससे मुक्त थे ।
ब्राह्मण भी इससे मुक्त रहे, हालांकि शरीअत में ऐसी कोई व्यवस्था नही थी । आरंभ मैं जजिया मालगुजारी के साथ वसूला जाता था । वास्तव में जजिया और मालगुजारी मे अतर करना कठिन भी था, क्योंकि सभी किसान हिंदू थे ।
बाद में अनेक गैरकानूनी वसूलियो का उन्मूलन करते समय फिरोज ने इस एक अलग कर बना दिया । उसने इसे ब्राह्मणों पर भी लागू किया । कभी कभी इसकी वसूली के लिए जिम्मेदार उलेमा हिंदुओं की अपमानित और परेशान करने के लिए इसका इस्तेमाल करते थे । लेकिन अपने-आप में जजिया हिंदुओं को इस्लाम अपनाने पर मजबूर करने का साधन नहीं हो सकता था ।
सामान्यत: ऐसा कहा जा सकता हे कि मध्यकालीन राज्य समानता के विचार पर नहीं विशेषाधिकार की धारणा पर आधारित होते थे । तुर्को से पहले राजपूत और कुछ सीमा तक ब्राह्मण विशेषाधिकार-संपन्न समूह थे । उनकी जगह तुर्को ने ले ली । बाद में तुर्क और दूसरे समूह विशेषाधिकार-संपन्न बन गए ।
इनमें ईरानी, अफगान और थोड़े-से भारतीय मुसलमान शामिल थे । मुस्लिम धर्मशास्त्री भी इसी विशेषाधिकार-संपन्न समूह के अंग थे । हिंदुओं का जो विशाल बहुमत पहले भी विशेषाधिकार-संपन्न समूह में शामिल नहीं था उसका दैनिक जीवन इस परिवर्तन से प्रभावित नहीं हुआ और पहले की तरह जारी रहा ।
इस तरह इस्लामी होने का दावा करके भी राज्य का चरित्र सैन्यवादी और अभिजातवादी रहा और सैन्यप्रमुखों का एक छोटा-सा गुट उस पर हावी रहा । यह गुट सुल्तान के नेतृत्व और नियंत्रण में था ।
Essay # 4. सल्तनत काल में धार्मिक स्वतंत्रता (Religious Freedom in the Delhi Sultanate):
दिल्ली सल्तनत में गैर-मुसलमानों को प्राप्त धार्मिक स्वतंत्रता को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए । विजय के आरंभिक चरण में अनेक नगर तबाह कर दिए गए । मंदिर आक्रमणकारियों के खास लक्ष्य होते थे, अंशत: विजय को उचित ठहराने के लिए तथा अंशत: उनमें मौजूद अकूत संपत्ति पर कब्जा करने के लिए ।
इस काल में अनेक हिंदू मंदिरों को मस्जिदों में बदल दिया गया । इनमें सबसे उल्लेखनीय उदाहरण दिल्ली में कुतुबमीनार के पास स्थित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का है । पहले यह एक विष्णु मंदिर था । उसे मस्जिद में बदलने के लिए उसके गर्भगृह को नष्ट कर दिया गया जहाँ देवता की मूर्ति थी और उसके सामने मेहराबों का एक पर्दा खड़ा कर दिया गया और उन पर कुरान की आयतें दर्ज कर दी गई ।
दालान के चारों ओर एक उपासनाघर बनाने के लिए अनेक मंदिरों के खंभों का उपयोग किया गया । दालान कमोबेश यथावत रहा । ऐसा दूबरे बहुत-से स्थानों में किया गया जैसे अजमेर में । लेकिन जब तुर्कों के पाँव जम गए तो वे अपनी मस्जिदें बनाने लगे ।
हिंदुओं, जैनियों आदि के मंदिरों और पूजास्थलों के प्रति उनकी नीति शरीअत पर आधारित थी जिसमें ‘इस्लाम के विरोध में’ नए पूजास्थल बनाने पर प्रतिबंध था । लेकिन शरोअत में पुराने मंदिरों की मरम्मत की छूट थी ‘क्योंकि इमारतें हमेशा के लिए कायम नहीं रह सकतीं’ |
इसका मतलब यह था कि गाँवों में मंदिर बनाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था क्योंकि वहाँ इस्लाम के अनुयायी थे ही नहीं । इसी तरह घरों के अंदर मंदिर बनाए जा सकते थे । पर युद्ध के समय इस सीमित सहिष्णुता की इस नीति पर अमल नहीं किया जाता था । तब इस्लाम के विरोधियों से लड़ना और उन्हें नष्ट करना पड़ता था चाहे वे मनुष्य हों या देवता ।
शांति-काल में तुर्क प्रशासित क्षेत्रों में और उन क्षेत्रों में जहाँ राजाओं ने मुस्लिम शासन की अधीनता मान ली थी हिंदू खुलकर बल्कि तड़क-भड़क के साथ अपने धर्म का पालन करते थे । बरनी के अनुसार जलालुद्दीन खलजी ने राजधानी और सूबों के मुख्यालयों तक में मूर्तियों की सार्वजनिक पूजा होते तथा हिंदू ग्रंथों का सार्वजनिक पाठ होते देखा था ।
उसने कहा था, ‘शाही महल की दीवार के नीचे हिन्दू नाचते-गाते, ढोल बजाते हुए यमुना में विसर्जन के लिए मूर्तियों को जुलूस में लेकर निकलते हैं और मैं देखता रह जाता हूँ ।’
रूढ़िवादी धर्मशास्त्रियों के एक वर्ग के दबाव और कुछ सुल्तानों और उनके समर्थकों के तंग दृष्टिकोण के बावजूद ‘सीमा के अंदर सहिष्णुता’ की यह नीति सल्तनत काल में जारी रही हालांकि कभी-कभी इसमें विचलन भी आते थे । कभी-कभी युद्धबंदियों को मुस्लिम बना लिया जाता था और अपराधी इस्लाम स्वीकार कर लेते थे तो उन्हें दंड से मुक्त कर दिया जाता था । फिरोज ने एक ब्राहमण को पैगंबर-इस्लाम की निंदा के आरोप में मृत्युदंड दिया था ।
कुल मिलाकर देखें तो इस्लाम का प्रसार तलवार के बल पर नहीं किया गया । अगर ऐसा होता तो दिल्ली अंचल की हिंदू आबादी का सबसे पहले धर्मातरण होता । मुस्लिम शासकों ने मान लिया था कि हिंदू धर्म इतना प्रबल है कि उसे ताकत से नष्ट नहीं किया जा सकता ।
दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी मत शेख निजामुद्दीन लिया ने कहा था ‘कुछ हिंदू जानते हैं कि इस्लाम सच्चा धर्म है पर वे इस्लाम कस नहीं करते ।’ बरनी का भी कहना है कि हिंदुओं के खिलाफ बल-प्रयोग का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
इस्लाम में धर्मातरण का कारण राजनीतिक या आर्थिक लाभ पाने की आशा या अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार की संभावना थी । कभी एक महत्वपूर्ण शासक या कबीले का सरदार धर्म बदलता तो उसकी प्रजा उसका अनुकरण करती थी ।
पश्चिमी पंजाब, कश्मीर की वादी, पूर्वी बंगाल आदि कुछ क्षेत्रों में जहाँ आदिवासी जनता को कृषक बनने के लिए प्रेरित किया गया उन्होंने अपने पिछले विश्वासों को छोड्कर शासक तत्वों की आस्था को इस उदाहरण में इस्लाम को अपना लिया ।
नगरों में तुर्को के लाए हुए हस्तशिल्पों को अपनाने वाले या शासक वर्ग के संरक्षण पर निर्भर अनेक दस्तकारों ने इस्लाम अपना लिया मसलन बुनकरों लुहारों कागज बनानेवालों आदि ने । कुछ भूमिका सूफी संतों की भी रही हालांकि आम तौर पर वे धर्म-प्रसार की चिंता नहीं करते थे और अपने प्रवचनों में हिंदू-मुसलमान दोनों का स्वागत करते थे ।
सूफी संतों के संत-सुलभ चरित्र ने इस्लाम के लिए एक अनुकूल वातावरण पैदा किया । पर इसका कोई प्रमाण नहीं है कि निचली जातियों के बहुत-से व्यक्तियों ने हिंदू समाज में व्याप्त भेदभाव के कारण या सूफी संतों के प्रभाववश इस्लाम को अपनाया । इस तरह धर्म-परिवर्तन के निजी राजनीतिक और कुछ मामलों में (जैसे पंजाब, पूर्वी बंगाल आदि के संबंध में) में क्षेत्रीय कारण थे ।
पश्चिम एशिया पर मंगोल आक्रमण के बाद प्रमुख मुस्लिम परिवारों के अनेक व्यक्ति भागकर भारत आ गए । भारत में अफगानों का आना भी बराबर लगा रहा । उनमें से अनेक तुर्क सेनाओं में भरती हो गए या व्यापार में लग गए । तेरहवीं सदी में लोदी शासन में अफगानों का एक रेला और आया ।
इसके बावजूद भारत में मुसलमानों की संख्या अपेक्षाकृत कम रही । इसी स्थिति में हिंदू-मुस्लिम संबंधों की प्रकृति का और दोनों के सांस्कृतिक रवैयों का निर्धारण हुआ ।