Read this article in Hindi to learn about the Leu Vyogotsky’s socio-cultural theory of human development.

पियाजे के अवस्था सिद्धान्त की आलोचना के पश्चात् Leu Vyogotsky (1987) ने सामाजिक सिद्धान्त को प्रस्तुत किया । चूंकि यह सिद्धान्त बाल्यावस्था की गतिविधियाँ से भी जुड़ा था इसलिए इसका नाम सामाजिकसांस्कृतिक सिद्धान्त हो गया । इसके अन्तर्गत व्योगोत्सकी ने विभिन्न परिस्थितियों में बच्चों की गतिविधियों को सूक्ष्मता से देखा एवं बच्चों को कुछ समस्याओं का हल ढूँढने को कहा ।

ऐसा करने पर उन्होंने देखा कि बालक कुछ क्रियाओं के साथ बोल भी रहे थे । ऐसी दशाओं का आपसी सम्बन्ध क्या है, उसका अध्ययन उन्होंने किया । एक बालक को कार का चित्र बनाते हुए देखा, उसने देखा कि बालक चित्रांकनी (Brush) को तोड़ने के सन्दर्भ में टूटी-फूटी कार का चित्र बनाने लगा ।

इस क्रिया के पश्चात् ब्योगोत्सकी ने बताया कि भाषा एवं विशेषत: आन्तरिक वार्तालाप बच्चे की संज्ञानात्मक योग्यताओं का चित्रण करती है । अर्थात् अनेक दशाओं का सूक्ष्मता से निरीक्षण करने के पश्चात् यह हल निकाला कि सज्ञानात्मक विकास के अन्तर्गत सामाजिक एवं सांस्कृतिक दोनों विशेषताओं की भूमिका होती है ।

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व्योगोत्सकी ने बच्चों सम्बन्धी दो भूमिकाओं पर विशेष बल दिया:

(1) सुप्त विकास का स्तर (Level of Sleeping Development):

इसमें बच्चे बुजुगों, शिक्षकों, सलाहकारों आदि से सहयोग लेकर संज्ञानात्मक योग्यताओं की माँग करने वाले कार्यो को पूरा कर सकते हैं ।

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(2) वास्तविक विकास का स्तर (Level of Real Development):

इसमें बने बिना किसी सहायता से संज्ञानात्मक योग्यताओं को करने वाले कार्यों को कर सकते हैं । ब्योगोत्सकी ने इन दोनों स्तरों के मध्य होने वाले भेद को ‘Zone of Proximal Development’ का नाम दिया । इससे सम्बन्धी एक प्रश्न यह उठा कि वयस्कों के साथ सामाजिक अन्त क्रिया किस प्रकार की सहायता प्रदान करती है?

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इसके उत्तर में ब्योगोत्सकी ने यह कहा कि यह पारस्परिक शिक्षण का प्रारूप ले सकती हैं । इसमें क्रिया सम्बन्धी पक्ष एक बार बालक एवं एक बार शिक्षक के द्वारा पूर्ण होता है । इस प्रकार की प्रतिभागिता से वयस्क बालक के लिए एक प्रतिरूप की भूमिका निभाता है ।

इसके अतिरिक्त वयस्क बालक की अन्तर्क्रिया के दौरान उसे एक प्रकार की मानसिक संरचनाओं (Scaffolding) से भी जोड़ता है, जिन्हें नवीन कार्यों एवं नवीन चिन्तन तरीकों को पारंगत करने के प्रयोग कर सकते हैं ।

व्योगोत्सकी के इस अवलोकन को नवीन शोधों ने सहमति प्रदान करते हुए कहा कि सामाजिक अन्त:क्रियाओं के द्वारा संज्ञानात्मक विकास में वृद्धि की जा सकती है । ये अन्त:क्रियाएँ ने केवल बालक की पठन-पाठन योग्यता में वृद्धि वरन् सूक्ष्म व विशिष्ट कौशलों के अर्जन में भी सहायता प्रदान करते हैं ।

जो बालक जितने अधिक सामाजिक तरीके से जानने की कोशिश करते हैं, कि अन्य व्यक्तियों के चिन्तन का क्या तरीका है, वे उतने ही अधिक कौशलपूर्ण होते हैं । अत: यह कहा जा सकता कि संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों की प्रमुख भूमिका संयुजित होती है ।

भाषा (Language) एक माध्यम है, जिसके द्वारा हम स्वयं के भावों (Feelings) एवं विचारों को दूसरों के सामने प्रस्तुत करते हैं, एवं उनके विचारों को समझ पाते हैं, इसलिए विकास के दृष्टिकोण से भाषा का अत्यधिक महत्च है । भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति (Expression) विभिन्न प्रकार से हो सकती है ।

जैसे – बोलकर (Spoken), लिखकर (Written) एवं चिन्हों (Signs),मुख अभिव्यक्ति (Facial Expression), हाव-भाव (Gesture) आदि । इन सबके अतिरिक्त शब्दों की अभिव्यक्ति ( शब्दोच्चारण) में ध्वनि का समायोजन होता है ।

और जब वह दूसरों के लिए अर्थपूर्ण हो जाती है, तब भाषा का विकास हो जाता है । भाषा के व्यापक अर्थ को समझने के लिए विचार एवं भाषा तथा उनकी प्रकृति व अन्त:सम्बन्धों को समझना आवश्यक होगा ।

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