Read this article in Hindi to learn about the development of state, religion and society in India during the rule of Mughals.

हमने दिखाया है कि देश के विभिन्न भागों में पंद्रहवीं सदी में किस प्रकार अनेक शासकों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपसी समझदारी को बढ़ावा देने का प्रयास किया था ।

इसके लिए उन्होंने लौकिक और धार्मिक साहित्य का संस्कृत से फारसी में अनुवाद कराया स्थानीय भाषाओं और साहित्य को संरक्षण दिया धार्मिक सहिष्णुता की अधिक उदार नीति अपनाई और कुछ मिसालों में तो हिंदुओं को दरबार और सेना में महत्वपूर्ण पद भी दिए ।

हमने यह भी दिखाया कि देश के विभिन्न भागों में चैतन्य, कबीर और नानक जैसे लोकप्रिय संतों की एक उल्लेखनीय शृंखला ने किस प्रकार इस्लाम और हिंदू धर्म की बुनियादी एकता पर जोर दिया तथा कर्मकांडों एवं इस्लामी पुस्तकों की शाब्दिक व्याख्या के बदले प्रेम और भक्ति पर आधारित धर्म को अपनाने का आग्रह किया ।

ADVERTISEMENTS:

इस तरह उन्होंने ऐसा वातावरण बनाया जिसमें उदार भावनाओं और विचारों का प्रसार हुआ तथा धार्मिक संकीर्णता को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा । यही वातावरण था जिसमें अकबर का जन्म और पालन-पोषण हुआ था ।

अपने हाथों में सत्ता लेने के बाद अकबर ने पहले-पहल जो कदम उठाए उनमें एक था जजिया का उन्मूलन जिसे एक मुस्लिम राज्य में गैर-मुस्लिमों को देना पड़ता था । यह कोई भारी कर न था पर इसे इसलिए नापसंद किया जाता था कि यह प्रजा और प्रजा में भेद करता था ।

साथ ही अकबर ने प्रयाग बनारस आदि स्थानों पर स्नान संबंधी तीर्थयात्रा कर भी समाप्त कर दिया । उसने युद्धबंदियों से जबरन इस्लाम स्वीकार कराने की प्रथा भी समाप्त कर दी । इसके कारण धार्मिक विश्वासों से परे, सभी नागरिकों के समान अधिकारों पर आधारित एक साम्राज्य के लिए आवश्यक आधार तैयार हुआ ।

अमीर वर्ग में हिंदुओं को शामिल करने से साम्राज्य के उदारवादी सिद्धांत और मजबूत हुए । इनमें से अधिकांश तो राजपूत राजा थे जिनमें से अनेक के परिवारों से अकबर ने विवाह-संबंध स्थापित किए और जिनके साथ उसने व्यक्तिगत रिश्ते भी जोड़ लिए थे । पर योग्यता के आधार पर दूसरों को भी मनसब दिए गए ।

ADVERTISEMENTS:

इन लोगों में सबसे योग्य और सबसे प्रसिद्ध टोडरमल था जो राजस्व के विषयों का विशेषज्ञ था और दीवान के पद तक ऊपर उठा । दूसरा बीरबल था जो स्वयं बादशाह को प्रिय था । इनके अलावा कायस्थ भी थे जो वित्तीय मामलों का प्रबंध करते थे ।

हिंदू प्रजा के प्रति अकबर के रवैये का गहरा संबंध उसके इस विचार से था कि एक शासक को अपनी प्रजा से कैसा व्यवहार करना चाहिए । ये विचार जिनको अकबर के जीवनी-लेखक अबुल फज़ल ने बहुत सावधानी से स्पष्ट किया है बादशाहत के बारे में तैमूरी, फ़ारसी और भारतीय विचारों का मेल थे ।

अबुल फजल के अनुसार एक सच्चे शासक का पद भारी जिम्मेदारी का पद है जो देवी बोध (फर्र-ए-एजादी) पर आधारित होता है । इसलिए अल्लाह और एक सच्चे शासक के बीच कोई और खड़ा नहीं होना चाहिए । पंथ और धर्म के भेद से ऊपर उठकर अपनी प्रजा से पिता-समान प्रेम इतना विशाल हृदय कि बड़े-छोटे सबकी इच्छाएँ पूरी हों प्रार्थना और भक्ति तथा अल्लाह में दिन-ब-दिन बढ़ता विश्वास-ये ही एक सच्चे शासक की विशेषताएँ हैं ।

किसी एक पद या व्यवसाय के व्यक्तियों को दूसरे के कर्त्तव्यों और दायित्वों में हस्तक्षेप की अनुमति न देकर समाज में संतुलन बनाए रखना भी एक शासक का कर्त्तव्य है । सबसे बड़ी बात यह कि वह पंथगत टकराव की धूल को उठने ही न दे । इन्हीं सब बातों से मिलकर वह नीति बनी जिसे सुलहकुल (सबके लिए शांति) कहा जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

धर्म और दर्शन में अकबर की गहरी दिलचस्पी थी । आरंभ में अकबर एक रूढ़िवादी मुस्लिम था । राज्य के प्रमुख काजी अब्दुन्नबी खान का जो सद्र-उस-सदूर (काजियों का काजी) के पद पर आसीन था वह बहुत आदर करता था और एक अवसर पर तो उसकी जूती भी उठाकर उसे दी थी । पर अकबर जब तक वयस्क हुआ, तब तसव्वुफ (सूफीवाद) उसे प्रभावित करने लगा जिसका पूरे देश में प्रसार हो रहा था ।

कहा जाता है कि वह रात-रात भर अल्लाह के ध्यान में खोया हुआ बराबर उसके नाम का जाप करते हुए गुजार देता था और अपनी सफलता पर आभार व्यक्त करने के लिए उसने आगरा में अपने महल के पास एक पुरानी इमारत में एक बड़े-से चौरस पत्थर पर उपासना और ध्यान में कई-कई सुबहें गुजारीं ।

धीरे-धीरे वह संकीर्ण रूढिवाद के रास्ते से हटता गया । उसने, जजिया और तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया था । अपने दरबार में उसने विचारों वाले प्रतिभाशाली व्यक्तियों का एक दल जमा कर लिया । इनमें सबसे उल्लेखनीय अबुल फजल और उसका भाई फैजी थे ।

उनको और उनके पिता को जो एक प्रसिद्ध विद्वान थे, मुल्लाओं ने इसलिए उत्पीड़ित किया था कि उनकी हमदर्दी महदवी विचारों के साथ थी जिनका रूढ़िवादी तत्व घोर विरोध करते थे । एक और उल्लेखनीय दरबारी महेशदास नाम का ब्राह्मण था जिसे राजा बीरबल की उपाधि दी गई थी और जो अकबर का रात-दिन का साथी था ।

1575 में अकबर ने अपनी नई राजधानी फतेहपुर सीकरी में एक इबादतखाना (उपासना कक्ष) बनवाया । इसमें वह चुनिंदा धर्मशास्त्रियों सूफियों और उन दरबारियों और अमीरों को बुलाता था जो अपनी विद्वता और बौद्धिक उपलब्धियों के लिए जाने जाते थे । उनके साथ अकबर धार्मिक-आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करता था ।

वह अकसर कहा करता था, ‘ऐ अक्लमंद मुल्लाओं, मेरा अकेला मकसद सच्चाई का निश्चय करना है, सच्चे धर्म के सिद्धांतों का पता लगाना और उन्हें सामने लाना है ।’ ये कार्रवाइयाँ आरंभ में मुसलमानों तक सीमित थीं । किंतु वे ये शायद ही व्यवस्थित ढंग से चल पाती थीं ।

मुल्ला लोग बादशाह की मौजूदगी में भी झगड़ा करते, चीखते और एक दूसरे को बुरा-भला कहते थे । इन मुल्लाओं के व्यवहार, घमंड और ज्ञान संबंधी दंभ से अकबर को उनके प्रति विरक्ति पैदा हो गई और वह मुल्लाओं से विमुख हो गया । इस चरण में अकबर ने सभी धर्मों के लोगों के लिए इबादतखाना खोल दिया-ईसाइयों, पारसियों, हिंदुओं, जैनियों यहाँ तक कि नास्तिकों के लिए भी ।

इससे चर्चाओं में व्यापकता आई और उन मुद्‌दों पर भी बहसें होने लगीं जिन पर मुस्लिमों के बीच मतभेद नहीं था जैसे क्या कुरान अल्लाह की आखिरी किताब है और क्या मुहम्मद उसके रसूल हैं, पुनर्जन्म, अल्लाह की प्रकृति आदि । पर इससे उलमा भयभीत हो गए तथा अकबर की इस्लाम का त्याग करने की इच्छा के बारे में हर तरह की अफवाहें फैलने लगीं ।

जैसा कि प्रसिद्ध आधुनिक इतिहासकार आर पी त्रिपाठी कहते हैं, ‘अकबर के धीरज और खुले विचारों की विभिन्न धर्मों के व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार से व्याख्याएँ की गई । इबादतखाना उसे यश देने के बदले अधिकाधिक बदनामी ही दे रहा था ।’

उन्हीं दिनों मुख्य सद्र अब्दुन्नबी के मामलों की जाँच हुई । उसे बेहद भ्रष्ट और दान की जमीनों (मदद-ए-मआश) के वितरण में निरंकुश पाया गया । उसने दूसरे भ्रष्ट उपायों से भी धन जमा किया था । वह धर्मांध था और शियाओं को तथा मथुरा के एक ब्राह्मण को भी उनके विश्वासों के कारण उसने मौत की सजाएँ सुनाई थीं ।

पहले तो अब्दु न्नबी को उसकी शक्तियों से वंचित कर दिया गया तथा मदद-ए-मआश के वितरण के लिए हर सूबे में एक सद्र नियुक्त किया गया । पर जल्द ही उसे बरखास्त करके हज के लिए मक्का जाने का आदेश दिया गया ।

लगभग उसी समय, 1580 में, पूरब में एक विद्रोह फूट पड़ा । काजियों ने अकबर को धर्मद्रोही ठहराते हुए अनेक फतवे जारी किए । अकबर ने इस विद्रोह को कुचलकर काजियों को कठोर दंड दिए ।

मुल्लाओं के मुकाबले अपनी स्थिति को और भी मजबूत करने के लिए अकबर ने एक ऐलान (महज़र) जारी किया जिसमें कहा गया था कि अगर कुरान की व्याख्या के अधिकारी माने जाने वालों (अर्थात मुजतहिदों) के परस्पर विरोधी विचार हों तो ‘एक अत्यंत न्यायप्रिय और बुद्धिमान शासक’ होने के नाते तथा अल्लाह की निगाह में मुजतहिदों से ऊँचे दर्जे पर आसीन होने के कारण अकबर को यह अधिकार प्राप्त है कि वह इन व्याख्याओं में से किसी एक को चुन ले जो ‘कौम के लाभ में और सुव्यवस्था के हित में हो’ |

इसके अलावा यह ऐलान भी किया गया कि अगर अकबर ‘कुरान से सुसंगत और कौम के लाभ में’ कोई नया आदेश जारी करे तो उसका पालन हर एक के लिए अनिवार्य होगा । इस महजर को जिस पर अग्रणी उलमाओं के हस्ताक्षर थे भ्रमवश ‘अनुल्लंघननीयता की राजाज्ञा’ (Doctrine of Infallibility) कहा गया है ।

अकबर ने चयन के अधिकार का दावा केवल उसी स्थिति में किया था जब कुरान की व्याख्या करनेवालों के बीच मतभेद की स्थिति पैदा हो गई हो । जिन दिनों देश के विभिन्न भागों में शियाओं, सुन्नियों और माहदवियों में खूनी संघर्ष चल रहे थे, अकबर अधिक से अधिक सहिष्णुता बरतना चाहता था । इसमें शायद ही शक हो कि साम्राज्य में धार्मिक स्थिति को स्थायित्व देने में इस महजर की एक सकारात्मक भूमिका रही ।

लेकिन देश में विभिन्न धर्मो के अनुयायियों के बीच एक साझा आधार पैदा करने के प्रयास में अकबर को ज्यादा सफलता नहीं मिली । इबादतखाना की बहसों रो विभिन्न धर्मो के बीच बेहतर समझ नहीं बनी, बल्कि कड़वाहट ही बड़ी क्योंकि हर धर्म के प्रतिनिधि दूसरे धर्मो की निंदा करते थे और यह साबित करने का प्रयास करते थे कि उनका धर्म दूसरों से श्रेष्ठ है ।

इसलिए 1582 में अकबर ने इबादतखाना की बहसें बंद कर दीं । पर उसने सत्य की खोज करना नहीं छोड़ा । उसके घोर आलोचक बदायूनी का कहना है: ‘लोग रात-दिन सत्ता की तलाश और छानबीन में लगे रहते थे ।’ अकबर ने हिंदू धर्म के सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए पुरुषोत्तम और देवी दो संतों को तथा पारसी धर्म के सिद्धांत स्पष्ट करने के लिए महारजी राणा को आमंत्रित किया ।

वह कुछ पुर्तगाली पादरियों से भी मिला और ईसाई सिद्धांतों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल गोवा भेजकर आग्रह किया कि दो विद्वान पादरी उसके दरबार में भेजे जाएँ । पुर्तगालियों ने एक्वाविवा और मौनसेरट नामक दो पादरियों को भेजा जो अकबरी दरबार में लगभग तीन वर्ष रहे और एक मूल्यवान विवरण पीछे छोड गए ।

पर वे अकबर को ईसाइयत में दीक्षित करने की आशा रखते थे, इसे मानने का कोई आधार नहीं है । अकबर जैनियों के भी संपर्क में आया और उसके आग्रह पर काठियावाड़ के प्रमुख जैन संत हीर विजय सूरी ने उसके दरबार में कुछ वर्ष बिताए ।

विभिन्न धर्मों के अगुवाओं से संपर्क, उनकी विद्वतापूर्ण रचनाओं के अध्ययन तथा सूफी संतों और योगियों से भेंट ने धीरे-धीरे अकबर को यह विश्वास दिला दिया था कि जहाँ पंथ और धर्म के भेद हैं, वहीं सभी धर्मो में कुछ अच्छी बातें भी हैं जो वाद-विवाद की गर्मी में ढँकी हुई हैं ।

उसे लगता था कि अगर विभिन्न धर्मो की अच्छी बातों पर जोर दिया जाए तो सामंजस्य और सौहार्द का वातावरण बनेगा जो देश के लाभ में होगा । उसे यह भी लगता था कि नामों और रूपों की बहुलता के पीछे ईश्वर तो बस एक ही है ।

जैसा कि बदायूनी कहता है जहाँपनाह पर पड़ने वाले प्रभावों के फलस्वरूप ‘धीरे-धीरे उसके दिल में पत्थर पर खिंची एक लकीर की तरह यह विश्वास पैदा हुआ कि सभी धर्मो में कुछ ज्ञानी लोग हैं । इस तरह कुछ न कुछ सच्चा ज्ञान सर्वत्र विद्यमान है तो सत्य भला एक धर्म तक कैसे सीमित रहेगा ?’

बदायूनी का दावा है कि इसके कारण अकबर धीरे-धीरे इस्लाम से हटता गया और उसने एक नया धर्म चलाया जो अनेक मौजूद धर्मो का मेल था-हिंदू धर्म ईसाइयत पारसी धर्म आदि का । लेकिन आधुनिक इतिहासकार इस मत को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हैं और सोचते हैं कि बदायूनी ने अतिशयोक्ति से काम लिया है ।

यह साबित करने के लिए कम ही प्रमाण हैं कि अकबर एक नया धर्म चलाना चाहता था या उसने वस्तुत: ऐसा किया था । इस तथाकथित नए मत के लिए अबुल फजल और बदायूनी ने तौहीद-ए-इलाही शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ ‘दैवी एकेश्वरवाद’ है ।

तौहीद-ए-इलाही मत वास्तव में एक सूफी किस्म का मत था । इसके सदस्य वे होते थे जो अपनी इच्छा से होना चाहते थे और बादशाह जिनके लिए अनुमति देता था । दीक्षा के लिए रविवार का दिन तय किया गया था उम्मीदवार अपना सर बादशाह के पैर पर रखता था जो उसे उठाता था और उस मंत्र देता था जिसे सूफियों की भाषा में शस्त कहते हैं; इसका उसे बार-बार जाप और ध्यान करना होता था । इसमें अकबर का प्रिय कलमा ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ (अल्लाह सबसे बड़ा है) भी शामिल था ।

नवदीक्षितों को यथासंभव और कम से कम अपने जन्म के महीने में मांस से परहेज करना होता था तथा अपने जन्मदिन पर भोज देना पड़ता था और खैरात बाँटनी पड़ती थी । इसमें दीक्षा को छोड़कर न कोई धर्मग्रंथ था, न कोई पुरोहित वर्ग, न कोई पूजा का स्थान या कर्मकांड या समारोह ।

तौहीद-ए-इलाही के अलावा अकबर विश्वस्त अमीरों का एक छोटा-सा दल बनाना चाहता था जो पूरी तरह उसके प्रति समर्पित हो । बदायूनी के अनुसार चुने गए व्यक्तियों को संपत्ति, जीवन, सम्मान और धर्म के बलिदान का वचन देना होता था ।

लगता है धर्म के बलिदान का अर्थ संकीर्ण धारणाओं और रीति-रिवाजों से लगाव तोड़ना था, और यह बात भी सूफी विचारों से मेल खाती थी । लेकिन इस कारण अनेक ऊँचे अमीरों ने इसका सदस्य बनने से इनकार कर दिया । बीरबल को छोड़कर कोई भी हिंदू कुलीन इसमें शामिल नहीं हुआ ।

जहाँ तक हमें पता है, इस दल की सदस्यता कुल 12 थी जबकि अकबर के शिष्य रूप में दीक्षा पानेवाले हजारों में थे । शिष्य (मुरीद) बनाने के लिए अकबर ने बल का प्रयोग नहीं किया न ही धन का सहारा लिया ।

मुरीद बनाने के पीछे अकबर के स्पष्ट रूप से कुछ राजनीतिक उद्‌देश्य भी थे । वह ऐसे अमीरों और अन्य लोगों का समूह बनाना चाहता था जो उसके प्रति निजी तौर पर वफादार हों और उन लोगों के धार्मिक विश्वास चाहे जो हों, वे उसकी सुलहकुल पर आधारित राज्य की धारणा का समर्थन करें ।

ऐसे राज्य के साथ बदायूनी जैसे रूढ़िवादी तत्वों ने न कभी हमदर्दी दिखाई न उसका समर्थन किया । इसलिए बदायूनी ने अकबर की मुरीद बनाने की मुहिम का कारण यह बतलाया है कि अनेक निकम्मे खुशामदियों और भांडों ने यह कहकर अकबर का सर फिरा दिया था कि वह अपने दौर का इंसान-ए-कामिल (पूर्ण मानव) था ।

उन्हीं के कहने पर अकबर ने पाबोस की अर्थात बादशाह के सामने फर्श को चूमने की रस्म शुरू की थी जो पहले सिर्फ अल्लाह के लिए हुआ करती थी । ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जिनमें शासक लौकिक और आध्यात्मिक शक्तियों को अपने व्यक्तित्व में समन्वित कर लेते थे ।

अबुल फजल कहता है कि आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए लोगों का अपने शासक की ओर देखना स्वाभाविक है तथा जनता को आध्यात्मिक आनंद की ओर ले जाने और परस्पर टकरा रहे धर्मो के बीच सामंजस्य पैदा करने में अकबर की पूरी-पूरी योग्यता थी ।

अकबर की मृत्यु के साथ तौहीद-ए-इलाही लगभग समाप्त हो गया हालांकि मुरीद बनाने और उन्हें मंत्र शस्त देने का सिलसिला जहाँगीर ने कुछ समय तक जारी रखा । लेकिन अमीरों को निजी तौर पर सम्राट से बाँधने का अकबर का प्रयास सफल रहा और अनेक अमीर अपने को अकबर का गुलाम या मुरीद होने की बात पर गर्व किया करते थे ।

इसके अलावा अधिकतर अमीरों ने उन तत्वों का समर्थन नहीं किया जो सामाजिक और राजनीतिक विषयों में धार्मिक रूढ़िवादिता के पक्षपाती थे । लेकिन राजा को चमत्कारी शक्तियों वाला व्यक्ति मानने की एक पुरानी परंपरा थी जिसके कारण लोगों को विश्वास था कि राजा के स्पर्श से या पानी के बर्तन में मंत्र फूँक देने से वे रोगमुक्त हो जाएँगे । औरंगजेब जैसा रूढ़िवादी शासक भी इस विश्वास से पल्ला नहीं झाड़ सका ।

अकबर ने दूसरे ढंग से भी सुलहकुल अर्थात धर्मो के बीच शांति और सामंजस्य की धारणा पर जोर देने की कोशिश की । उसने संस्कृत, अरबी, यूनानी आदि की रचनाओं के फ़ारसी अनुवाद कराने के लिए एक बड़ा-सा अनुवाद विभाग स्थापित किया । इसमें सिंहासन बत्तीसी, अथर्ववेद और बाइबिल को अनुवाद के लिए पहले चुना गया ।

इनके बाद महाभारत, गीता और रामायण की बारी आई । बहुत-सी दूसरी रचनाओं के भी अनुवाद हुए जिनमें पंचतंत्र और भूगोल के ग्रंथ शामिल थे । कुरान का भी अनुवाद कराया गया संभवत पहली बार । अकबर ने कई सामाजिक और शैक्षिक सुधार भी किए ।

उसने सती प्रथा पर रोक लगा दी बशर्ते कि स्वयं विधवा अपनी स्वतंत्र इच्छा से बार-बार इसकी इच्छा व्यक्त न करे । कम आयु की उन विधवाओं को जलाना मना था जिन्होंने अभी अपने पति के साथ सहवास न किया हो । विधवा विवाह को भी कानूनी बनाया गया ।

अकबर इसके विरुद्ध था कि कोई एक से अधिक पत्नी रखे बशर्ते कि पहली बीवी बाँझ न हो । विवाह की आयु बढ़ाकर लड़कियों के लिए 14 और लड़कों के लिए 16 कर दी गई । शराब और मादक पेय पदार्थो के विक्रय पर प्रतिबंध लगा दिया गया । लेकिन ये सभी कदम सफल नहीं हुए ।

जैसा कि हम जानते हैं सामाजिक विधान की सफलता एक बड़ी सीमा तक जनता के सहयोग पर निर्भर होती है । अकबर एक अंधविश्वास से भरे युग में रह रहा था और लगता है उसके सामाजिक सुधारों को सफलता कम ही मिली ।

अकबर ने शिक्षा के पाठ्‌यक्रम में भी संशोधन किया जिसमें नैतिक शिक्षा और गणित पर तथा कृषि ज्यामिति खगोलिकी शासन के नियमों तर्कशास्त्र इतिहास आदि लौकिक विषयों पर अधिक जोर दिया गया । उसने कलाकारों कवियों चित्रकारों और संगीतकारों को भी संरक्षण दिया जो अलग-अलग धर्मो के थे और विभिन्न क्षेत्रों से आए थे ।

उसका दरबार भी प्रसिद्ध व्यक्तियों या नवरत्नों के कारण प्रसिद्ध हो गया था । इस तरह अकबर के काल में राज्य मूलत: धर्गनिरपेक्ष, सामाजिक विषयों में उदार और प्रबुद्ध तथा सांस्कृतिक एकीकरण का प्रोत्साहक बन गया ।

Home››Hindi››