Read this essay in Hindi to learn about the confrontational era in India (10th and 12th Century) during the medieval period.
पश्चिमी और मध्य एशिया की घटनाएँ अकसर भारत को प्रभावित करती थीं और कभी-कभी उतर-पश्चिम से घुसपैठ का कारण बन जाती थीं । प्राचीन काल से ऐसा ही होता आया था । पश्चिम एशिया में सातवीं सदी में एक शक्तिशाली प्रसारवादी अरब साम्राज्य के उदय के बाद नवीं सदी में अब्बासी राजवंश के खंडहर पर अनेक महत्वांकाक्षी युद्ध-प्रेमी तुर्क राज्यों का उदय हुआ ।
इसके कारण लाजमी तौर पर भारत में प्रवेश के प्रयास हुए जिसे हमेशा से सोने-चाँदी का और अत्यत समृद्धशाली देश माना जाता था । भारत में प्रवेश के ये प्रयास परिस्थितियों के अनुसार तेज या धीमे पड़ते रहे तथा उनको एक सही परिप्रेक्ष्य में भी देखना होगा ।
(i) आरंभिक चरण: अरब और सिंध:
एक समय सिंध का एक शक्तिशाली साम्राज्य था और इसमें मकरान, कंदहार, सीस्तान और कश्मीर तक फैली पूरी सिंधु घाटी आ जाती थी । पर इसका विघटन हो चुका था और स्वतंत्र राज्य पैदा हो गए थे । मुलतान तक सिंध पर चाच नाम के एक ब्राह्मण का कब्जा था । माना जाता है कि उसने कन्नौज से बहुत बड़ी संख्या में ब्राह्मण बुलाए । इनमें से अनेक ब्राह्मणों ने, जिनको मालगुजारी से मुक्त जमीनें -दान में दी गई, कृषि का प्रसार किया । मंत्रियों, लेखाकारों, राजस्व अधिकारियों आदि के रूप में वे प्रशासन भी चलाते थे ।
ADVERTISEMENTS:
636 ई॰ में अरबों ने शक्तिशाली फारस साम्राज्य को मात दे दी तथा अपने शासन को जल्द ही आक्सस (आमू) नदी तक फैला लिया । वे सिंध की ओर भी आकर्षित हुए जो अपने स्थलीय व्यापार और बंदरगाह दाभोल के रास्ते समुद्री व्यापार के कारण सोने से लदा हुआ था ।
दाभोल के आसपास कुछ लूटपाट की कार्रवाइयाँ हुईं और फिर अरबों ने समुद्री रास्ते से धावे बोले । मगर यह सब केवल सिंध पर हमले के बहाने थे । बोलन दर्रे और मकरान तट के रास्ते आरंभिक अरब हमलों को नाकाम कर दिया गया । यही हाल समुद्री रास्ते से दाभोल पर हुए एक हमले का हुआ ।
लेकिन खलीफा के आदेश पर मुहम्मद बिन कासिम ने 711 में मकरान के रास्ते स्थल मार्ग से सिंध पर हमला किया । सीरियाई सैनिकों का एक बडा दस्ता उसके साथ था । जबरदस्त प्रतिरोध के बाद दाभोल का पतन हुआ तथा तीन दिनों तक निर्मम नरसंहार और लूटपाट का दौर चलता रहा ।
उसके बाद मुहम्मद बिन कासिम ने चाच के बेटे दाहर पर हमला किया और भारी प्रतिरोध के बावजूद उसे हराकर मुलतान तक के इलाके पर कब्जा कर लिया । कुछ स्थानीय कबीलों ने मुस्लिम आक्रमणकारियो का साथ दिया । लेकिन इतिहासकार इस कथा को स्वीकार नहीं करते कि दाहर की पराजय बौद्धों के विश्वासघात के कारण हुई जौ ब्राह्मणों के जानी दुश्मन थे ।
ADVERTISEMENTS:
सिंध में अरब शासन, जो बारहवीं सदी तक चला की कुछ खास विशेषताएं हैं । आरंभ से ही बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन का कोई प्रयास नहीं किया गया तथा वहाँ के निवासियों- बौद्धों, हिंदुओं और अग्निपूजकों को जिम्मी का दर्जा दिया गया, अर्थात ऐसी संरक्षित जनता का जो मुस्लिम शासन को स्वीकार करती है और जज़िया देने पर सहमत है । लेकिन अलग से जज़िया की वसूली का कोई साक्ष्य नहीं मिलता ।
लगता है जज़िया या फिरोज तुगलक के समय तक दिल्ली सल्तनत में खिराज (भूमिकर) का अंग बना रहा । सिंध में अरब शासन के दौरान लूटपाट तथा मूर्तियों से सोने और आभूषणों को लूटा गया किंतु बाद में मंदिरों को नष्ट नहीं किया गया ।
उदाहरणस्वरूप मुलतान के सूर्य मंदिर को नष्ट नहीं किया गया जहाँ भारी संख्या में तीर्थ यात्री आते थे । वास्तव में हिंदुओं को नए मंदिर तक बनाने की अनुमति थी । स्थानीय प्रशासन चलाने के लिए बडे पैमाने पर ब्राह्मणों और बौद्धों को शामिल किया गया । लगता है कि अरब शासन में सिंध का स्थलीय और समुद्री व्यापार फला-फूला । खेती का विकास भी हुआ । आर्थिक विकास नए नगरों के जन्म में प्रतिबिंबित होता था हालाँकि उनमें से कुछ ही बचे हैं ।
हालांकि अरबों ने सिंध के बाहर भी हमले किए पर सिंध से आगे वे अपने पैर फैला नहीं सके । इसके अनेक कारण थे । राजस्थान और पश्चिम भारत के गुर्जर-प्रतिहार शासक तथा गुजरात के चालुक्य इतने शक्तिशाली थे कि वे अरबों के हमलों को नाकाम कर सके ।
ADVERTISEMENTS:
स्पष्ट है कि केवल सिंध के संसाधनों के बल पर अरब सिंध से पर फैलने की हालत में नहीं थे । दमिश्क और बगदाद के खलीफ भी भारत में अपने राज्य के प्रसार को बहुत महत्व नहीं देते थे । वह तो तभी संभव हुआ जब अफगानिस्तान और पंजाब भारत में प्रवेश के आधार बन गए ।
लगता है इस पूरे काल में राजपूत राज्यों ने इसकी शायद ही कोई कोशिश की कि वे सिंध से अरबों को बाहर करके अपने ऊपर मँडरा रहे खतरे को दूर करें, तब भी नहीं जब अरबों की हालत कमजोर हो गई थी । यह बाद की एक मनगढ़त और अवांछित कथा लगती है कि उन्होंने ऐसी कोशिश नहीं की क्योंकि अरबों की यह धमकी थी कि वे मुलतान के सूर्य मंदिर को नष्ट कर देंगे ।
मुलतान के सूर्य मंदिर को दसवीं सदी में रूढ़ि-विरोधी इस्माइली पंथ के समर्थकों ने नष्ट कर दिया जिन्होंने मुलतान में अपना एक अलग राज्य कायम किया था । बाद में इस राज्य को महमूद गज़नवी ने नष्ट किया ।
(ii) अफगानिस्तान और अलहिंद:
नवीं सदी तक काबुल, जाबुल और जमींदावर, अर्थात हलमंद नदी के आसपास के क्षेत्र जिसे अरब अलहिंद कहते थे, उसके हिस्से बने रहे । इन क्षेत्रों में हिंदू, बौद्ध और पारसी धर्मो का फलना-फूलना जारी रहा ।
इन क्षेत्रों पर ऐसे वंशों का शासन रहा जिनकी मजबूत स्थानीय जड़ें थीं पर जिनके तुर्को, यूहेची और कनिष्क के कबिलाई लोगों से भी संबंध थे । खुरासान या पूर्वी फारस से, जो हेरात और आक्सस नदी तक फैला हुआ था अरब जमींदावर और काबुल पर बराबर हमले करते रहे । इन क्षेत्रों से कंदहार के रास्ते हेरात तक चलने वाले व्यापार के कारण ये समृद्ध क्षेत्र होते थे ।
लेकिन अरबों की गतिविधियाँ अधिकतर लूट खिराज की वसूली और गुलामों की गिरफ्तारी तक सीमित रहीं । काबुल के तुर्कशाही शासक, जिनकी मजबूत स्थानीय जड़ें थीं, बहुत हद तक इस घुसपैठ का सामना करने में सफल रहे हालांकि कभी-कभी वे खिराज देने पर भी सहमत हो जाते थे । गुलामों के लिए कभी-कभी मुलतान तक धावे बोले जाते थे । इसके कारण खुरासान मे सिविस्तान के अरब शासकों के खिलाफ मुलतान के शासक काबुल के शासकों के साथ हो गए ।
नवीं सदी के अंत में अब्बासी साम्राज्य पतनोन्मुख था । उसकी जगह इस्लाम अपना चुके तुर्को द्वारा शासित अनेक राज्य ले चुके थे । तुर्क अब्बासी साम्राज्य में नवीं सदी में महलों के पहरेदारों और किराए के सैनिकों के रूप में पहुँचे थे । जल्द ही वे बादशाहों को बनाने-बिगाड़ने लगे ।
केंद्र सरकार की शक्ति का ह्रास हुआ तो सूबेदार स्वतंत्र होने लगे हालांकि कुछ समय तक एकता का भ्रम इस तरह बनाकर रखा गया कि जो सिपहसालार अपना स्वंतत्र प्रभाव क्षेत्र बना लेता था खलीफा उसी को औपचारिक रूप से अमीर-उल-उमरा (कमानदारों का कमानदार) की पदवी दे देता था । इन नए शासकों ने पहले तो ‘अमीर’ और फिर ‘सुल्तान’ की उपाधि धारण की ।
मध्य एशिया के तुर्क कबीलों के निरंतर धावों ने, जल्दी से अपनी वफादारी बदल लेने और एक असफल शासक का साथ छोड़ देने के लिए तैयार तुर्क सिपाहियों के भाड़े वाले चरित्र ने तथा विभिन्न मुस्लिम पंथों के और विभिन्न क्षेत्रों के आपसी टकराव ने मध्य एशिया में इस काल को अशांति का काल बना दिया ।
साम्राज्य और राज्य तेजी के साथ एक-एक करके पैदा हुए और मिट गए । इस स्थिति में बस ऐसा ही कोई व्यक्ति कामयाब हो सकता था जो दिलेर सिपाही और जननायक हो जो युद्धकला में माहिर हो और षड्यंत्रों से जूझने में भी समर्थ हो । तुर्क कबीलों की लूटपाट करने की आदत थी । तेजी से आगे बढ़ना और पीछे हटना, बिजली की तरह टूट पड़ना और पीछे छूट जाने वालों के किसी ढीले-ढाले दल पर हमला करना उनकी युद्धकला के मुख्य ढंग थे ।
वे यह सब अपने उत्तम किस्म के घोड़ों और अपने सख्तजान चरित्र, दोनों के कारण कर पाते थे । और वे घोड़ों पर बैठे-बैठे अविश्वसनीय दूरियाँ तय कर लेते थे । इस बीच गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के कारण भारत में राजनीतिक अनिश्चय का एक दौर आरंभ हुआ और प्रभुत्व के संघर्ष के लिए एक नए दौर का भी । फलस्वरूप भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर पश्चिम एशिया में आक्रामक और प्रसारवादी तुर्क राज्यों के उदय की और कोई ध्यान ही नहीं दिया गया ।
गजनवी:
नवीं सदी के अंतिम वर्षो में आक्सस के पार के क्षेत्र तथा खुरासान और ईरान के कुछ भागों पर सामानियों का शासन था जो ईरानी मूल के थे । सामानियों को अपनी उत्तरी और पूर्वी सीमाओं पर गैर-मुस्लिम तुर्क कबीलों से बराबर लड़ना पड़ रहा था ।
यही संघर्ष था जिसके दौरान एक नए प्रकार के सैनिकों का उदय हुआ जो गाजी कहलाते थे । इन तुर्को में अधिकांश प्राकृतिक शक्तियों के उपासक थे और मुसलमानों की निगाह में काफिर थे इसलिए सामानियों की उनसे लड़ाई धर्म की रक्षा के लिए भी थी और राज्य की रक्षा के लिए भी ।
इस तरह गाजी योद्धा होने के साथ-साथ धर्म का रक्षक भी था । वह नियमित सेना के सहायक की तरह काम करता था और वेतन की कमी लूट के माल से पूरी करता था । गाजियों की सूझ-बूझ तथा अपने ध्येय के लिए उनकी भारी कष्ट उठाने की तत्परता ने ही इन नवजात मुस्लिम राज्यों को काफिर तुर्कों के खिलाफ खड़े रहने में समर्थ बनाया ।
कालांतर में अनेक तुर्क मुसलमान बन गए मगर गैर-मुस्लिम तुर्क कबीलों की नए सिरे से शुरू होने वाली घुसपैठों के खिलाफ संघर्ष जारी रहा । इस्लाम अपनाने वाले तुर्क कबीले इस्लाम के सबसे बड़े रक्षक और जेहादी बनकर सामने आए । लेकिन लूट -खसोट की चाहत इस्लाम की रक्षा के साथ-साथ बनी रही ।
सामानी सूबेदारों में एक तुर्क गुलाम भी था जिसका नाम अल्पतगीन था । कालांतर में उसने एक स्वतंत्र राज्य खड़ा कर लिया जिसकी राजधानी काबुल से पश्चिम में स्थित गजना या गजनी थी । सामानी राज्य जल्द ही समाप्त हो गया, और मध्य एशिया के कबीलों से इस्लामी क्षेत्रों की रक्षा का भार गजनवियों ने संभाल लिया ।
यही संदर्भ था जिसमें महमूद 998 में गजनी के तख्त पर बैठा और 1030 तक शासन करता रहा । मध्य एशिया के हमलावर तुर्क कबीलों के सख्त प्रतिरोध करने के कारण महमूद को मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकार इस्लाम का एक नायक जानते थे । इस तरह उसके शासनकाल में गाजी वाली भावना और मजबूत हुई । इस काल में ईरानी भावना का पुनर्जन्म हुआ और वह तेजी से बड़ी ।
महमूद का उससे गहरा वास्ता था । गर्वीले ईरानियों ने अरबी भाषा और सभ्यता को कभी स्वीकार नहीं किया । सामानी राज्य ने भी फारसी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन दिया था । फिरदौसी की रचना शाहनामा के साथ ईरानी पुनर्जागरण अपने चरम पर पहुंचा । फिरदौसी महमूद का दरबारी कवि था ।
ईरान और तूरान के आपसी संघर्ष को वह अपनी रचनाओं में मिथकीय युग तक पीछे खींचकर ले गया तथा प्राचीन ईरानी नायकों का महिमामंडन किया । ईरानी वतनपरस्ती का पुनरोदय हुआ तथा फारसी भाषा और संस्कृति गजनवी साम्राज्य की भाषा और संस्कृति बन गई, यहाँ तक कि स्वयं महमूद दंतकथाओं के ईरानी राजा अफ्रासियाब से अपना नाता जोड़ने लगा । इस तरह तुर्को का इस्लामीकरण ही नहीं, फारसीकरण भी हुआ । यही संस्कृति थी जिसे वे दो सदी बाद अपने साथ भारत में लेकर आए ।
जहां महमूद ने तुर्क कबीलों से इस्लामी राज्यों की रक्षा में और ईरानी सांस्कृतिक पुनर्जागरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वहीं भारत में उसे सिर्फ एक लुटेरे और मंदिरों के विनाशक के रूप में याद किया जाता है । कहते हैं कि महमूद ने भारत पर 17 हमले किए ।
आरंभिक हमले उन हिंदूशाही राजाओं के खिलाफ थे जो अफगानिस्तान और पंजाब पर शासन कर रहे थे । उनकी राजधानी उदभंड या वैहिंद (पेशावर) मैं थी । हिन्दूशाही राजाओं को अपनी दक्षिण-पश्चिम सीमा पर एक आक्रामक, प्रसारवादी राज्य के उदय से उठ सकने वाले खतरे को भाँपने में देर नहीं लगी ।
गजनी के सत्ताच्युत सामानी सूबेदार, मुलतान के आसपास के क्षेत्रों के भट्टी राजा और मुलतान के मुस्लिम अमीर से मिलकर हिंदूशाही राजा जयपाल ने गजनी पर हमला किया । लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा और उसका बनाया हुआ गठजोड़ धराशायी हो गया ।
बदले के तौर पर उस समय के गजनवी शासक ने काबुल और जलालाबाद के आसपास के क्षेत्र तबाह कर दिए । सन् 990-91 के दौरान सुबुक्तिगीन के काल में शाहियों की भारी पराजय हुई । उसके बाद काबुल और जलालाबाद के सूबों पर कब्जा करके उन्हें गजनी में मिला लिया गया । एक शाहजादे के रूप में महमूद ने इन लड़ाइयों में भाग लिया था ।
उसने सत्तारोहण (998) के बाद शाहियों के खिलाफ हमले फिर शुरू कर दिए । इस बीच शाही राजा जयपाल लोहावर लाहौर को अपने अधीन करके अपनी स्थिति को मजबूत बना चुका था । इस तरह शाही राज्य पेशावर से पंजाब तक फैल चुका था । पेशावर के पास 1001 की एक भयानक लड़ाई में जयपाल की फिर हार हुई । महमूद शाही राजधानी पर चढ़ आया और उसे बुरी तरह तबाह कर दिया ।
हिंदूशाही राजा ने सिंधु नदी के पश्चिम का क्षेत्र महमूद को देकर शांति की स्थापना की । जयपाल की जल्द ही मृत्यु हो गई और उसकी जगह उसका बेटा आनंदपाल राजा बना । बाद के कुछ वृत्तांतों के अनुसार अपनी हार के बाद जयपाल स्वयं चिता पर जा बैठा क्योंकि उसे लग रहा था उसने अपना सम्मान खो दिया है । यह कहानी संदिग्ध लगती है कि महमूद ने उसे बंदी बनाकर फिर छोड़ दिया था ।
इन धक्कों के बावजूद शाही अभी भी इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने महमूद के पंजाब में घुसने के प्रयासों का गंभीर प्रतिरोध किया । महमूद को मध्य एशिया के गैर-मुस्लिम तुर्को के हमलों का मुकाबला भी करना पड़ा । लेकिन 1009 में सिंधु नदी के पास एक निर्णायक युद्ध में आनंदपाल पराजित हुआ ।
महमूद ने सालों में स्थित उसकी नई राजधानी नंदन या नंदनपुर को तबाह कर दिया । उसने आनंदपाल के नगरकोट नामक किले को भी तबाह कर दिया । गलती से इसे हिमाचल प्रदेश में स्थित नगरकोट समझ लिया गया है जहाँ महमूद कभी पहुंचा ही नहीं । आनंदपाल को एक अधीन राजा के रूप में कुछ समय तक लाहौर से राज्य करने की अनुमति दी गई ।
लेकिन 1015 में महमूद लाहौर तक चढ़ आया उसे लूटा और आनंदपाल को खदेड़ दिया । जल्द ही गजनवी शासन झेलम नदी तक फैल गया । इससे पहले मुलतान के मुस्लिम राज्य को तहस-नहस किया जा चुका था । लेकिन 1015 में कश्मीर पर महमूद का एक हमला खराब मौसम के कारण असफल रहा ।
इस तरह शाहियों के खिलाफ लंबा युद्ध चला और शाहियों ने जमकर प्रतिरोध किया । इस लड़ाई में शाहियों का समर्थन सिर्फ मुलतान के मुस्लिम राजा ने किया जो गुलाम प्राप्त करने के लिए गजनी से होने वाले हमलों से परेशान था । उसका संबंध एक ऐसे पंथ से भी था जिसे सुन्नी इस्लाम को मानने वाला महमूद विधर्मी मानता था और इसलिए उसे अपना शत्रु मानता था ।
ध्यान देने की बात यह है कि लगता है कोई राजपूत राजा शाहियों की मदद के लिए नहीं आया, हालांकि महमूद की विजय को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए सत्रहवीं सदी के इतिहासकार फिरिश्ता ने लिखा है कि दिल्ली, अजमेर और कन्नौज के राजाओं समेत अनेक राजपूत राजाओं ने 1001 में जयपाल की मदद की थी । लेकिन तब तक तो अजमेर का राज्य स्थापित भी नहीं हुआ था और दिल्ली (धिल्लिका) एक छोटा-सा राज्य था ।
इसी तरह कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार, जिनका दबदबा किसी समय थानेश्वर तक था, काफी कमजोर स्थिति में पहुँच चुके थे । इस तरह शाही लगभग अकेले लड़ते रहे । 1015 तक महमूद गंगा की घाटी पर आक्रमण करने की स्थिति में आ चुका था । अगले कोई छह वर्षों में महमूद ने गंगा के मैदानी भागों में अनेक अभियान चलाए ।
इन हमलों का मकसद उन वैभवशाली मंदिरों और नगरों को लूटना था जिन्होंने कई पीढ़ियों के दौरान अकूत संपत्ति जमा कर ली थी । इस संपत्ति की लूट ने उसे अपने मध्य एशियाई शत्रुओ के खिलाफ युद्ध जारी रखने की शक्ति भी दी ।
वह भारतीय राजाओं को हाथ मिलाकर अपने खिलाफ एक होने का अवसर भी देना नहीं चाहता था । महमूद के भारतीय हमलों के बीच मध्य एशिया के युद्ध भी चलते रहे । भारत पर लूटपाट के उद्देश्य से किए गए हमलों में गाजी बहुत मददगार साबित हुए ।
महमूद ने अपने-आपको इस्लाम की शान में चार चाँद लगाने वाला महान बुतशिकन (मूर्तिभंजक) के रूप में भी पेश किया । पंजाब से महमूद ने हर्ष की पुरानी राजधानी थानेश्वर पर हमला किया । लेकिन उसके सबसे दुस्साहसी हमले वे थे जो उसने कन्नौज के खिलाफ 1018 में और सोमनाथ (गुजरात) के खिलाफ 1025 में किए ।
कन्नौज की मुहिम में उसने मथुरा और कन्नौज दोनों को लूटा और उन्हें तहस-नहस कर डाला । अगले साल उसने बुंदेलखंड में स्थित कालिंजर पर धावा बोला और अकृत धन-संपत्ति लैकर लौटा । वह मनमुताबिक ढंग से यह सब इसलिए कर पाया क्योंकि उत्तर भारत मे उस समय कोई शक्तिशाली राज्य नहीं था । महमूद ने इनमें से किसी भी क्षेत्र पर कब्जा जमाने की कोशिश नहीं की ।
1020 और 1025 के बीच महमूद मध्य एशियाई मामलों में उलझा रहा । 1025 में उसने सोमनाथ पर हमला करने की योजना बनाई जो एक बहुत धनी मंदिर था और लाखों तीर्थ यात्रियों को अपनी ओर खींचता था । यह एक समृद्ध बदरगाह भी था ।
इस हमले का उद्देश्य राजपूतों को आक्रांत करना और झटका देना भी था क्योंकि वह 30,000 की नियमित सवार सेना लेकर मुलतान और जैसलमेर के रास्ते आगे बढ़ा । रास्ते में मामूली प्रतिरोध ही हुआ और वह सोमनाथ जा पहुँचा । उसके आने पर नगर का कमानदार भाग खड़ा हुआ । लेकिन नागरिकों ने भारी प्रतिरोध किया ।
महमूद ने शिवलिंग को तोड़ दिया और आदेश दिया कि उसके बुाछ भाग उसके साथ गजनी लाए जाएँ । वापसी मे कुछ राजपूत राजाओं ने उसका रास्ता रोकने का प्रयास किया पर उनसे बचकर निकलने के बाद सिंध में उसे जाटों के लूटमार करने वाले दस्तों का सामना करना पड़ा । तब भी बेपनाह दौलत लेकर वह गजनी वापस पहुँचा ।
सोमनाथ पर महमूद का हमला राजस्थान और गुजरात पर हमले की भूमिका थी या नहीं यह कह सकना कठिन है । महमूद अगले साल उन जाटों को सजा देने के लिए पलटा जिन्होंने गजनी की ओर वापसी के दौरान उसे परेशान किया था । गजनी में 1030 में उसकी मृत्यु हुई ।
महमूद को मात्र एक आक्रांता और लुटेरा कह देना सही नहीं है । पंजाब और मुलतान पर गजनी की विजय ने उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति को पूरी तरह बदलकर रख दिया । तुर्क उत्तर-पश्चिम में भारत की रक्षा करने वाली पर्वतमाला को पार कर चुके थे और वे गंगा के केंद्रीय मैदानी क्षेत्र में किसी भी समय आगे बढ़ सकते थे ।
लेकिन अगले 150 वर्षो तक वे इस क्षेत्र पर विजय-पताका नहीं लहरा सके, इसका कारण उन तीव्र परिवर्तनों में तलाश करना होगा जो मध्य एशिया में और उत्तर भारत में इस काल में आए । महमूद की मृत्यु के बाद एक शक्तिशाली साम्राज्य का, अर्थात सलजूक साम्राज्य का जन्म हुआ । सलजूक साम्राज्य में सीरिया, ईराक और ईरान शामिल थे तथा खुरासान पर नियंत्रण के लिए गजनवियों से उनका मुकाबला चल रहा था ।
एक मशहूर लड़ाई में महमूद का बेटा मसूद सलजूकों के हाथों बुरी तरह पराजित हुआ और उसे पनाह लेने के लिए भाग कर लाहौर आना पड़ा । गजनवी साम्राज्य अब सिकुड़कर गजनी और पंजाब तक रह गया । गंगा के मैदान और राजपूताना में गजनवियों के लूटमार और हमले जारी तो रहे पर वे अब भारत के लिए कोई गंभीर सैनिक खतरा पैदा करने की स्थिति में नहीं थे । साथ ही, उत्तर भारत में ऐसे अनेक नए राज्य पैदा हुए जो गजनवियों के हमलों का सामना कर सकते थे ।
राजपूत रजवाड़े:
राजपूत कहे जाने वाले एक नए वर्ग के उदय और उसके उत्पत्ति संबंधी विवाद का जिक्र किया जा चुका है । प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के बाद उत्तर भारत में अनेक राजपूत राज्य अस्तित्व में आए । कन्नौज के गाहडवाल, मालवा के परमार और अजमेर के चौहान इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण थे ।
देश के विभिन्न भागों में दूसरे, छोटे-छोटे राजवंश भी थे, जैसे आज के जबलपुर के आसपास कलचूरी, बुंदेलखंड में चंदेल, गुजरात में चालुक्य, दिल्ली में तोमर आदि । बंगाल पालों और फिर सेनों के नियंत्रण में रहा । कन्नौज के गाहडवालों ने धीरे-धीरे पालों को बिहार से निकाल दिया ।
अपने चरमकाल में गाहडवाल या गाहडवार राज्य बिहार में मुंगेर से लेकर दिल्ली तक फैला हुआ था । इस वंश का सबसे महान शासक गोविंदचंद्र था जिसने वारहवी सदी के पूर्वार्ध में शासन किया था । उसने कन्नौज को अपनी राजधानी वनाया और बनारस उसकी दूसरी राजधानी बना रहा । उस दौर के फारसी ग्रंथ गोविंदचंद्र को हिंदुस्तान का सबसे महान शासक कहते हैं ।
गाहडवालों को दोआब ने होने वाले गजनवी हमलों का सामना करने वालों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है । गोविंदचंद्र के बाद जयचंद्र गद्दी पर बैठा जिसे चौहानों की बढ़ती शक्ति से टक्कर लेनी पड़ी । गुजरात के राजाओं के अधीन रह चुके चौहानों ने दसवीं सदी के अंतिम वर्षो ने नदौल में अपनी राजधानी बसाई ।
इस वंश का सबसे महान शासक सभवत: विग्रहराज था जिसने चित्तौड़ पर कब्जा किया, अजमेर (अजयमेरू) को बसाया और अपनी राजधानी बनाया । उसने अजमेर में एक संस्कृत महाविद्यालय और अन्नासागर झील का निर्माण कराया । गाहडवालों की तरह चौहानों ने भी गजनवी हमलों का जमकर प्रतिरोध किया ।
विग्रहराज ने दिल्ली (धिल्लिका) को 1151 तोमरों से छीना, लेकिन उसने उनको अपने नायब के रूप में राज करने की अनुमति दे दी । विग्रहराज का टकराव मालवा के परमारों से भी हुआ जिनका सबसे मशहूर, दंतकथाओं में प्रचलित शासक भोज था ।
विग्रहराज और भोज दोनों ही कवियों और विद्वानों के संरक्षक थे । स्वयं विग्रहराज ने एक संस्कृत नाटक लिखा था । भोज को उत्तर में और दक्षिण में भी अपने पड़ोसियों से लड़ना पड़ा । उसे दर्शनशास्त्र, काव्यशास्त्र योग और आयुर्विज्ञान पर पुस्तकें लिखने का श्रेय भी दिया जाता है ।
चौहान राजाओं में सबसे प्रसिद्ध पृथ्वीराज तृतीय था जो 1177 में या उसके आसपास 11 वर्ष की कम आयु में गद्दी पर बैठा । लेकिन उसने प्रशासन की बागडोर तब सँभाली, जब वह 16 वर्ष का था । तत्काल उसने प्रसार की एक जोरदार नीति आरंभ की और छोटे-छोटे अनेक राजपूत राज्यों पर विजय प्राप्त कर ली । पर गुजरात के चालुक्य राजा के खिलाफ संघर्ष में वह सफल नहीं हुआ ।
इससे मजबूर होकर वह गंगा की घाटी की ओर मुड़ गया । उसने बुंदेलखंड की राजधानी महोबा के खिलाफ एक अभियान चलाया । यही संघर्ष था जिसमें आल्हा और ऊदल नाम के प्रसिद्ध योद्धा मारे गए । कहते हैं कि कन्नौज के जयचंद्र ने इस संघर्ष में महोबा के चंदेल राजा की मदद की थी ।
दिल्ली और पंजाब पर नियंत्रण के लिए चौहानों के प्रयासों का गाहडवालों ने भी मुकाबला किया था । यही शत्रुताएँ थीं जिनके कारण पंजाब से गजनवियों को बाहर करने के लिए राजपूत राजाओं का आपस में मेल असंभव हो गया । राजपूत समाज का आधार कुल (क्लान) था ।
हर कुल अपने आपको एक साझे वास्तविक या काल्पनिक पूर्वज की संतान मानता था । आम तौर पर कुलों का एक सुगठित क्षेत्र पर वर्चस्व होता था । कभी-कभी ये आबादियाँ 12 या 24 या 48 या 84 गाँवों की इकाइयों पर आधारित होती थीं । सरदार गाँवों में अपने उप-सरदारों को भूमि आवंटित करता था जो फिर इसे अलग-अलग राजपूत योद्धाओं को उनके परिवारों और घोड़ों के रखरखाव के लिए आवंटित कर देते थे । भूमि परिवार और इज्जत (मान) से लगाव राजपूतों की विशेषता थी ।
हर राजदूत राज्य पर राणा अथवा रावत अपने सरदारों की सहायता से राज्य करता था जो आम तौर पर उसके खून के भाई होते थे । माना जाता था कि उनकी जागीरें राजा की मर्जी पर कायम रहती थीं पर भूमि की पवित्रता की राजपूती धारणा के कारण तथा विद्रोह का भय, उत्तराधिकारी का अभाव आदि विशेष दशाओं को छोड़, राजा दी गई भूमि को वापस नहीं लेता था ।
राजपूत समाज के संगठन के गुण भी थे और अवगुण भी । एक लाभ तो भाईचारे और समानता का वह भाव था जो राजपूतों में पाया जाता था । लेकिन इसी विशेषता के कारण उनके बीच अनुशासन बनाए रखना कठिन हो जाता था । अनेक पीढ़ियों तक चलने वाले झगड़े राजपूतों की एक और कमजोरी थी ।
लेकिन उनकी बुनियादी कमजोरी थी ऐसे बंद समूह बना लेने की प्रवृत्ति जिनमें अन्य समूह के लोगों के लिए कोई स्थान नहीं होता था और हर समूह अपने को सबसे श्रेष्ठ मानता था । गैर-राजपूतों से वे भाईचारे का व्यवहार करने को तैयार नहीं थे । इससे राजपूत शासक-समूहों तथा जनता जिसका अधिकांश भाग गैर-राजपूतों का था के बीच खाई बढ़ती गई ।
आज भी राजस्थान की आबादी में राजपूत लगभग दस प्रतिशत ही है । ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में भी जिन क्षेत्रों पर राजपूतों का वर्चस्व था वहाँ की कुल आबादी में उनका प्रतिशत इससे कुछ खास अधिक नहीं रहा होगा ।
राजपूत युद्ध को क्रीड़ा समझते थे । इसके कारण तथा जमीन और मवेशियों के झगड़े के कारण विभिन्न राजपूत राज्यों के बीच बराबर युद्ध चलता रहता था । आदर्श राजा वह था जो दशहरा का त्योहार मनाने के बाद पड़ोसियों के इलाकों पर हमले के लिए अपनी सेनाओं का नेतृत्व करता था । ग्राम और नगर दोनों में इस नीति से जबसे अधिक कष्ट जनता को पहुँचता था ।
उस काल के अधिकांश राजपूत राजा हिंदू धर्म के समर्थक थे हालांकि कुछ जैन धर्म को भी संरक्षण देते थे । वे ब्राह्मणों और मंदिरों को दिल खोलकर दान और भूमिदान देते थे । राजपूत राजा ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों और जातिप्रथा के संरक्षकों के रूप में मशहूर थे ।
कुछ राजपूत राज्यों में ब्राह्मणों से कम मालगुजारी वसूल करने की प्रथा भारतीय संघ में उनके विलय तक जारी रही । इन और दूसरी रियायतों के बदले में ब्राह्मण राजपूतों को उन चंद्रवंशी और सूर्यवंशी क्षत्रियों के वशज मानने को तैयार थे जो माना जाता था कि समाप्त हो चुके हैं ।
आठवीं सदी के बाद तथा खासकर दसवीं और बारहवीं सदी के बीच के काल को उत्तर भारत में मंदिर-निर्माण का चरमकाल माना जा सकता है । आज के कुछ सबसे शानदार मंदिर इसी काल के हैं । इस काल में मंदिर-निर्माण की जो शैली प्रचलित हुई, वह नागर शैली कहलाती है ।
हालांकि इस शैली के मंदिर पूरे भारत में पाए जाते हैं पर इसके मुख्य केंद्र उत्तर भारत और दकन थे । मुख्य देवता के कक्ष के ऊपर जिसे गर्भगृह कहा जाता था, लंबी और वक्राकार छत इसकी मुख्य विशेषता थी । गर्भगृह आम तौर पर वर्गाकार होता था हालांकि उसकी हर दीवार से कोई ढाँचा बाहर की ओर निकला होता था ।
गर्भगृह से एक बाहरी कक्ष (मंडप) जुड़ा रहता था और कभी-कभी मंदिर ऊँची दीवारों से घिरा होता था जिनमें शानदार दरवाजे बने होते थे । खजुराहो (मध्यप्रदेश) का मंदिर-समूह और भुवनेश्वर (उड़ीसा) के मंदिर इस शैली का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करते हैं । खजुराहो का पार्श्वनाथ मंदिर, विश्वनाथ मंदिर और कांदर्य महादेव मंदिर इस शैली के सबसे समृद्ध और परिपक्व रूप हैं ।
इन मंदिरों की दीवारों पर की गई गहन और लंबी-चौड़ी नक्काशी दिखाती है कि मूर्तिकला अपने शिखर पर पहुँच चुकी थी । इनमें से अधिकांश मंदिर चंदेलों के बनवाए हुए हैं जो नवीं सदी के आरंभ से लेकर तेरहवीं सदी के अत तक इस क्षेत्र पर शासन करते रहे ।
उड़ीसा में इस काल की मंदिर-निर्माण कला के सबसे शानदार उदाहरण लिंगराज मंदिर (ग्यारहवीं सदी) और कोणार्क का सूर्य मंदिर (तेरहवीं सदी) है । पुरी का सुप्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर भी इसी काल का है ।
उत्तर भारत के अन्य बहुत-से स्थानों पर भी बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए गए । जैसे कन्नौज, मथुरा, बनारस, दिलवाड़ा (आबू) आदि में । दक्षिण भारत के मंदिरों की तरह उत्तर भारत के मंदिर भी अधिकाधिक सुसज्जित होते रहे । वे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के केंद्र थे ।
उनमें से कुछ तो अत्यंत समृद्ध थे, जैसे सोमनाथ मंदिर । वे अनेक गाँवों पर शासन करते और कारोबार में भाग लेते थे । राजपूत राजाओं ने मंदिरों के अलावा अनेक सुंदर महल मजबूत किले और सार्वजनिक लाभ के स्थान भी बनवाए, जैसे सीढीदार कुँए (बावलियाँ), बंध आदि ।
राजपूत राजा कला और साहित्य के संरक्षक भी थे । उनके संरक्षण मे इस काल में अनेक ग्रंथ और नाटक लिखे गए । गुजरात के चालुक्य राजा भीम का सुप्रसिद्ध आमात्य वस्तुपाल एक लेखक, विद्वानों का संरक्षक और आबू पर्वत के सुदर जैन मंदिर का निर्माता था ।
परमार शासकों की राजधानियाँ उज्जैन और धार संस्कृत ज्ञान-विज्ञान के सुप्रसिद्ध केंद्र थीं । अनेक ग्रंथ अपभ्रंश और प्राकृत में लिखे गए जो इस क्षेत्र की भाषाएँ थीं । इस दिशा में जैन विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा; उनमें सबसे प्रसिद्ध हेमचंद्र थे जिन्होंने संस्कृत और अपभ्रंश दोनों में लिखा है । ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान के साथ उच्च वर्गों के बीच संस्कृत ने अपभ्रंश और प्राकृत को विस्थापित कर दिया ।
लेकिन इन भाषाओं में, जो बोलचाल की भाषाओं के अधिक करीब थीं, साहित्य रचना जारी रही । उत्तर भारत की आधुनिक भाषाएँ, जैसे हिंदी, बंगला और मराठी, इसी काल में इन्हीं जन भाषाओं से विकसित हुई ।