यूरोप में मध्यकाल के अंतिम चरण में (ई॰स॰ तेरहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी) पुनर्जागरण, भौगोलिक खोजे और धर्म सुधार आंदोलन जैसी घटनाओं ने आधुनिक युग की नींव रखी । इस काल को ‘पुनर्जागरण काल’ कहते हैं ।
इस कालखंड में कला, स्थापत्य, दर्शन, आदि क्षेत्रों में प्राचीन ग्रीक और रोमन परंपराओं का पुनर्जागरण हुआ, परंतु इसके फलस्वरूप मात्र प्राचीन परंपराओं का नवीनीकरण ही नहीं हुआ अपितु इसके कारण सर्वागीण उन्नति को गति प्राप्त हुई और विश्व के इतिहास में नवयुग का अवतरण हुआ ।
पुनर्जागरण का प्रारंभ:
मध्यकालीन यूरोप पर धर्म का बहुत प्रभाव था । तेरहवीं शताब्दी से सभी क्षेत्रों में परिवर्तन आरंभ हो गया था । इस परिवर्तन का केंद्रस्थान इटली था । इटली के समुद्री नाविकों ने एशिया और यूरोप के देशों के साथ व्यापार करना प्रारंभ किया । इस व्यापार के फलस्वरूप इटली में संपन्न नगरों का विस्तार हुआ । साथ ही व्यापारी वर्ग अस्तित्व में आया । इस वर्ग ने कलाओं को आश्रय दिया ।
पुनर्जागरण का स्वरूप:
मानवता पुनर्जागरण का सबसे महत्वपूर्ण मूल्य है । इस कालखंड में मनुष्य की ओर देखने के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ । मनुष्य सबसे बुद्धिमान प्राणी है । उसमें अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित में अंतर करने की विवेक बुद्धि होती है । मनुष्य में स्वाभाविक रूप से भावनाएँ और इच्छाएँ पाई जाती हैं ।
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मनुष्य के बारे में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि मनुष्य स्वयं अपने जीवन का शिल्पी होता है । अत: मनुष्य सभी विचारधाराओं का केंद्रबिंदु बना । पुनर्जागरण एक ऐसा आंदोलन था जिसने जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया । दर्शन, साहित्य, विज्ञान, संगीत, शिल्पकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि क्षेत्रों में इस आंदोलन का प्रारंभ हुआ ।
इन सभी क्षेत्रों में नई कला-कृतियों की निर्मिति हुई । नई शैलियाँ विकसित हुई । पुनर्जागरण काल में कलाओं और साहित्य के माध्यम से मानवीय भावना, सुख-दुख, आनंद आदि का वर्णन किया जाने लगा । प्रादेशिक भाषाओं में ऐसा साहित्य लिखा जाने लगा; जिसे सामान्य मनुष्य समझ सके ।
इससे पहले पुस्तकें हस्तलिखित रूप में होती थी । ई॰स॰ १४५० में मुद्रण यंत्र का आविष्कार हुआ । इससे नए विचारों, नई संकल्पनाओं और ज्ञान को समाज के सामान्य मनुष्य तक ले जाना संभव हुआ । लियोनार्दो-दी-विंसी के उदाहरण से पुनर्जागरण काल में हुई उन्नति की कल्पना की जा सकती है ।
लियोनार्दो को कई कलाएं और विद्या शाखाएँ अवगत थीं । वह चित्रकार था, साथ ही वह शिल्पकार, स्थापत्यकार और अभियंता भी था । उसे संगीत की उत्तम जानकारी थी । वह गणितज्ञ तथा खगोल वैज्ञानिक भी था ।
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लियोनार्दो के चरित्र से हमें पता चलता है कि मनुष्य में असीम बौद्धिक शक्ति और अभिव्यक्ति क्षमता होती है । इसी पुनर्जागरण काल में शेक्सपियर जैसा महान नाटककार तथा कोपरनिकस और गैलिलियो जैसे महान वैज्ञानिक हुए ।
नए विज्ञान का उदय:
पुनर्जागरण काल में पारंपरिक ज्ञान, अंधश्रद्धाओं, रूढ़िगत मान्यताओं को चुनौती दी जाने लगी । ज्ञानार्जन हेतु मनुष्य अब ज्ञानेंद्रियों का उद्देश्यपूर्ण उपयोग करने लगा । अपनी निरीक्षण क्षमता एवं प्रयोगशीलता के आधार पर वैज्ञानिक प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करने लगे । भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, खगोल विज्ञान जैसी विज्ञान शाखाएँ विकसित हुई ।
धर्म सुधार आंदोलन:
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स्वतंत्र रूप से विचार करनेवाले विचारकों ने पुरानी धार्मिक मान्यताओं पर प्रहार किया । यूरोप में धर्मगुरु लोगों के अज्ञान का अनुचित लाभ उठाकर कर्मकांड को अनावश्यक महत्व देते थे । धर्म के नाम पर उन्हें लूटते थे । इसके विरोध में यूरोप में जो आंदोलन हुआ, उसे ‘धर्म सुधार आंदोलन’ कहते हैं ।
विकलीफ, इरैस्मस, केलबिन आदि विचारकों ने धर्म की अनिष्टकारी प्रवृत्तियों और धर्मगुरुओं के पाखंडपूर्ण आचरण की कड़ी आलोचना की । ईसाइयों का धर्मग्रंथ ‘बाइबिल’ लैटिन भाषा में था । लैटिन भाषा सामान्य लोगों की समझ में नहीं आती थी । धर्म सुधार आंदोलन के कालखंड में ‘बाइबिल’ धर्मग्रंथ के अंग्रेजी और फ्रेंच जैसी जनभाषाओं में अनुवाद किए गए ।
बाइबिल में दी गई सीख और रोमन कैथोलिक चर्च में दी जानेवाली सीख में लोगों ने बहुत बड़ा अंतर पाया । मार्टिन लूथर ने कैथोलिक चर्च में प्रचलित त्रुटियों का विरोध (प्रोटेस्ट) किया । इसलिए उसके अनुयायियों को ‘प्रोटेस्टंट’ कहा जाने लगा । मूल पंथ रोमन कैथोलिक के साथ-साथ प्रोटेस्टंट जैसा नया ईसाई संप्रदाय अस्तित्व में आया ।
यूरोप में चल रहा धर्म सुधार आंदोलन अन्य देशों में फैल गया । नवोदित मध्य वर्ग ने धर्म सुधार आंदोलन को समर्थन दिया । इस आंदोलन के फलस्वरूप मनुष्य की स्वतंत्रता और बौद्धिक प्रामाणिकता जैसे सिद्धांतों को महत्व प्राप्त हुआ ।
भौगोलिक खोज:
पंद्रहवीं शताब्दी तक यूरोप के लोग पूर्वी देशों से आयात किए हुए मसालों के पदार्थ, चीनी, रेशम, वस्त्र जैसी मूल्यवान वस्तुओं का उपयोग करते थे परंतु इसमें बाधा उत्पन्न हो गई क्योंकि ई॰स॰ १४५३ में आटोमन तुर्कियों ने काँन्स्टींटीनोपल को जीत लिया । इस्तंबुल (काँन्स्टींटीनोपल) बैजंटाइन साम्राज्य की (पूर्वी रोमन साम्राज्य की) राजधानी थी ।
अपने साम्राज्य से होकर जानेवाले थल मार्गो को तुर्कियों ने अवरुद्ध कर दिया । फलस्वरूप पूर्वी देशों को जानेवाले नए मार्गो की खोज करना यूरोप के लिए आवश्यक हो गया । बार्थोलोम्यू डायस नामक पुर्तगाली नाविक भारत की खोज में अफ्रीका के दक्षिणी छोर तक पहुंचा । इस छोर को ‘आशा का अंतरीप’ (Cape of Good Hope) नाम प्राप्त हुआ ।
भारत की खोज में निकला हुआ कोलंबस एक समुद्री तट तक पहुँचा । उसे भ्रम हुआ कि वह भारत में पहुँच गया है । कालांतर में इटली का नाविक अमेरिगो वेस्पुस्सी कोलंबस के मार्ग से ही चलकर उसी समुद्री तट पर पहुंचा परंतु उसके ध्यान में आया कि यह भारत का तट नहीं है ।
अत: इस अज्ञात प्रदेश को अमेरिगो के नाम पर ‘अमेरिका’ नाम प्राप्त हुआ । ई॰स॰ १४९८ में वास्को-दी-गामा नामक पुर्तगाली नाविक ने भारत की ओर आनेवाले समुद्री मार्ग को खोज निकाला । ई॰स॰ १५१९ में फर्डीनंड मैगेलन नामक पुर्तगाली नाविक पृथ्वी की परिक्रमा करने के उद्देश्य से समुद्री यात्रा पर निकला परंतु परिक्रमा पूर्ण करने से पूर्व ही वह मुठभेड़ में मारा गया । फिर भी उसके सहयोगियों ने पृथ्वी की परिक्रमा पूर्ण की । विश्व के इतिहास में यह पृथ्वी की प्रथम समुद्री परिक्रमा है ।
भौगोलिक खोज के परिणाम:
यूरोप से पूर्व की ओर जानेवाले नए मार्गों के फलस्वरूप एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के साथ चल रहा व्यापार समृद्ध हुआ । प्रारंभ में पुर्तगाल और स्पेन व्यापार के क्षेत्र में अग्रसर थे । कालांतर में इंग्लैंड, फ्रांस, हालैंड आदि यूरोपीय देशों के बीच व्यापारिक स्पर्धा आरंभ हुई ।
यदि अपने राष्ट्र को समृद्ध बनाना है तो राजसत्ता को चाहिए कि वह अपने देश के व्यापार और उद्योगों को संरक्षण दें; यह धारणा इस कालखंड में दृढ़ होने लगी । इस आर्थिक नीति को ‘व्यापारवाद’ कहते है । यूरोपीय व्यापारी अपने आर्थिक लाभों को नए उद्योगों में निवेश करने लगे ।
वे इकट्ठे आकर व्यापार के लिए आवस्थक पूँजी का प्रबंध करने लगे । इसके द्वारा व्यापारिक कंपनियों की स्थापना होने लगी । ऐसी ही एक व्यापारिक कंपनी भारत में आई थी; जिसका नाम था ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ । व्यापार में हुई वृद्धि के परिणामस्वरूप साख बैंक, आढ़तिए, दुकानदार, लिपिक, लेखापाल (हिसाब-किताब देखनेवाला) के रूप में एक नया वर्ग अस्तित्व में आया । इसे ‘मध्य वर्ग’ कहा जाने लगा ।
यूरोप के राष्ट्रों ने अमेरिका, एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया महाद्वीपों के देशों में अपने उपनिवेश स्थापित किए । ये यूरोपीय व्यापारी औपनिवेशिक देशों से कम मूल्यों पर माल खरीदते थे और यूरोप में अधिक मूल्य पर बेचते थे ।
इन व्यापारियों ने औपनिवेशिक देशों में सत्ता प्राप्त की जिससे वे सुनियोजित ढंग से उन उपनिवेशों का आर्थिक शोषण कर सकें । इस नीति को ‘उपनिवेशवाद’ कहते हैं । पुनर्जागरण, धर्म सुधार आंदोलन और भौगोलिक खोजों के फलस्वरूप आधुनिक युग की पृष्ठभूमि तैयार हुई परंतु आधुनिक युग का वास्तविक प्रारंभ क्रांति युग से हुआ ।