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शैशवावस्था (Infancy) – नवजात शिशु से 1 वर्ष की आयु शैशवावस्था के अन्तर्गत आती है । यह फ्रायड के मुखावस्था (Psycho Sexual Development Oral Stage) के समान होती है ।

इसका प्रथम धनात्मक अहं गुण (Positive Ego Quality) बच्चे में स्व अथवा दूसरे में विश्वास की भावना का जागृत होना है, जो माता की उचित देखभाल पर निर्भर करता है, जिसके कारण बच्चों में यह विश्वास भी घर कर लेता है, कि उनके शारीरिक अंग, जैविक आवश्यकताओं को पूर्ण करने की सामर्थ्य रखते हैं, अर्थात् स्वस्थ विकास का आधार बनता है ।

कभी-कभी परिस्थितिवश माँ द्वारा अविश्वसनीय, अनुपयुक्त एवं तिरस्कृत व्यवहार करने पर बच्चों में दूसरों के प्रति अविश्वास अथवा डर संदेह एवं आशंका जनित अनुभूतियों का विकास होने लगता है । चूंकि स्वस्थ विकास हेतु विश्वास अथवा अविश्वास की भावना के साथ अनुकूल अनुपात अवश्यम्भावी होता है ।

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ऐसी स्थिति में शिशु विश्वास बनाम अविश्वास पर (Trust Vs. Mis-Trust) की लड़ाई की अवस्था से उचित राह खोज कर असमंजस की स्थिति से बाहर आ जाता है, और उसमें मनोसामाजिक शक्ति ‘आशा’ जन्म लेती है, जिसकी सहायता से बालक स्वयं के सांस्कृतिक परिवेश एवं अस्तित्व को स्पष्ट रूप में समझने लगता है ।

इरिकसन द्वारा शैशवावस्था में कर्मकाण्डत (Ritualization) को दिव्य (Numinous) तत्व की संज्ञा दी गई है । शिशु अपनी माता को दिव्य शक्ति स्वरूप मानता है । वयस्क होने पर वह कर्मकाण्डता को दूसरे व्यक्ति के साथ स्नेह एवं सम्मान रूपी कर्मकाण्ड (Ritual) के रूप में परिवर्तित कर लेता है ।

इरिकसन के अनुसार कर्मकाण्डवाद (Ritualization) को देवत्व अथवा मूर्ति पूजा की संज्ञा दी गई है । जो दिव्य कर्मकाण्डता (Numinous Ritualization) में विकृति स्वरूप जागृत होती है । जोकि बच्चों पर अविश्वास की स्थिति स्व पूजा अर्थात् दूसरे पर विश्वास की परिस्थिति में अन्य लोगों का परम भक्त के रूप में विकसित होती है ।

प्रारम्भिक बाल्यावस्था (Early Childhood) 2-3 वर्ष की आयु प्रारम्भिक बाल्यावस्था कहलाती है । यह अवस्था फ्रायड के गुदा अवस्था (Anal Stage) के समान मानी जाती है ।

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बच्चे में विश्वास भावना जागृत होने के पश्चात् ही इस अवस्था में स्वतन्त्रता (Autonomy) एवं आत्म नियन्त्रण (Self-Control) जैसे गुण विकसित होते हैं, जिससे उनमें न्यूरोपेशीय परिपक्वता (Maturity), सामाजिक अन्तर की स्पष्टता तथा शब्दों द्वारा स्वयं के प्रस्तुतीकरण की सामर्थ्य विकसित होती है ।

शिशु प्रत्येक नवीन गतिविधियों से प्रोत्साहित होकर अधिकतर कार्य स्वयं करता है, जिसे स्वत: (Autonomy) कहते हैं, अर्थात् माँ-बाप अपने अनुशासन के अन्तर्गत शिशु को स्वतन्त्र रूप से विभिन्न कार्यों को स्वयं करने की छूट प्रदान करते हैं, तथा कभी उन्हें छोटा जानकर अथवा क्षमता से बाहर कार्य करने की आशा करने पर शिशुओं में शर्मीलापन (Modestness) का भाव विकसित होता है, जिससे स्वयं पर संदेह (Self-Doubt), कुछ न करने की मजबूरी (Ineptitude) एवं कार्य सफलता व बलपूर्वक न कर पाने की असमर्थता आदि से सम्बन्धित भाव जागृत हो ।

शिशु में स्वायत्तता एवं लज्जाशीलता के मध्य सुलभ एवं अनुकूल अनुपात के स्थापन से नवीन शक्ति अर्थात् इच्छा शक्ति (Will Power) विकसित होती है, जिसके फलस्वरूप शिशु में रुचि के अनुसार कार्य करने एवं आत्म संयम (Self-Restraint) की प्रवृत्ति का विकास होता है ।

इस अवस्था में विवेकपूर्ण कर्मकाण्डता (Judicious Ritualization) का विकास होने लगता है, अर्थात् उचित अनुचित वस्तुओं व व्यक्तियों में ज्ञान प्राप्त करता है, जो कि भविष्य में न्याय विचार (Court Room) में परिवर्तित हो जाता है ।

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खेल अवस्था (Play-Age):

4-6 वर्ष की आयु खेल अवस्था होती है । यह अवस्था प्रत्यह की लिंग प्रहगनावस्था (Phallic Stage) के समान होती है । इसमें शिशु सामाजिक क्रियाकलापों एवं विभिन्न जिम्मेदारियों को पूर्ण करने में सुख का अनु भव करते हैं, उनको घर के बाहर बच्चों के साथ विभिन्न सामाजिक खेलों का खेलना रुचिकर लगता है ।

प्रथम बार समाज में स्व अस्तित्व की महत्ता का भान होता है । इसके विपरीत समाज के कार्यों को मना करना अथवा दण्ड मिलने पर दोषिता (Guilt) का भाव जागृत होता है, जिससे बच्चे स्वय को खुलकर व्यक्त नहीं करपाते हैं, एवं किसी वास्तविक उद्देश्य (Tangible Goal) को पाने में असमर्थ रहते हैं, और निष्क्रियता लैंगिक नपुंसकता एवं मनोविकृतियाँ जन्म लेने लगती हैं ।

जिसके फलस्वरूप उद्देश्य (Purpose) नामक शक्ति का विकास होता है, जिससे शिशुओं में किसी लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त करने की सामर्थ्य विकसित होती है ।

इस आयु में बच्चे नाटकीय कर्मकाण्डता (Dramatic Ritualization) से विभिन्न सकारात्मक भूमिकाओं को निभाते हैं, जो कि बाद में नाटकीय कर्मकाण्ड (Ritual) में परिवर्तित हो जाती हैं, जिसकी विकृति स्वरूप बच्चों में नकारात्मक प्रारूपों का निर्वाह करने की प्रवृत्ति जागृत हो जाती है । उदाहरणार्थ वे अपराधी (Delinquent) औषध व्यसन (Drug-Addict) अथवा शराबी की भूमिका अदा करने की ओर अग्रसर होने लगते हैं ।

स्कूल अवस्था (School Stage):

6-12 वर्ष की आयु स्कूल अवस्था कहलाती है, तथा यह अवस्था फ्रायड की अव्यकतावस्था (Latent Period) के समान होती है । बच्चे पहली बार औपचारिक शिक्षा (Formal Education) के द्वारा सांस्कृतिक कौशलों को ग्रहण करते हैं । बच्चों का सम्बन्ध निगमनात्मक तर्कणा (Deductive Reasoning) स्व अनुशासन (Self-Discipline) तथा अनुमोदित नियमानुकूल अपना सम्बन्ध मित्रों से बनाये रखने की क्षमता से ज्यादा होता है ।

उनमें परिश्रम का भाव टीचर अथवा परिवेशीय व्यक्तियों द्वारा जागृत किया जाता है । किसी कारणवश किसी कार्य को करने में असफल होने पर उसमें हीनता (Inferiority) अथवा असामर्थ्यता (Incompetence) का भाव उत्पन हो जाता है, जिसके फलस्वरूप बच्चे को अपने कार्य करने की शक्ति पर विश्वास नहीं रहता ।

परिश्रम/हीनता से बाहर आने पर बच्चे में (Competency) सामर्थ्यता की शक्ति पनपती है । अत: स्पष्ट है, कि शारीरिक (Physical) तथा बौद्धिक (Intellectual) दोनों प्रकार की शक्तियों का उपयोग करने से ही कार्य सम्पन होता है ।

बालकों में औपचारिक कर्मकाण्डता (Formal Ritualization) का प्रादुर्भाव होने के कारण कार्य सुचारू रूप से करने पर उनमें गुणात्मक एवं astistic गुणों का विकास होता है, जिससे उनका कार्य भविष्य में कर्मकाण्ड में बदलता है, अर्थात् एक औपचारिक कर्मविधि (Formal Methodology) द्वारा उन्हें कार्य करना रुचिकर लगता है ।

जिसमें किसी विकार की उत्पत्ति होने के फलस्वरूप औपचारिक कर्मकाण्डवाद (Formal Ritualism) जागृत होनेलगता है । अत: व्यक्तिकार्य को मात्र करने में विश्वास रखता है । उदाहरणार्थ – बारम्बार हाथ धोने का व्यवहार ।

किशोरावस्था (Adolescence):

विकास की पंचम महत्वपूर्ण अवस्था 12-20 वर्ष की आयु होती है । इस अवस्था में किशोरों में अहम् की पहचान (Ego Identity) धनात्मक पहलू एवं भूमिका संभ्रान्ति (Role Confusion) के रूप में तथा पहचान सक्रान्ति (Identity Crisis) नकारात्मक पहलू के रूप में जागृत होते हैं ।

अत: स्व पहचान बनाने के लिए किशोर अपने समस्त ज्ञान को एकत्रित करते हैं और स्व प्रल्पक्षणों (Self-Perception) एवं अन्त:वैयक्तिक अनुभूतियों (Interpersonal Experience) में सामंजस्प स्थापित करते हैं । तीव्र अहंकी पहचान हेतु उपयुक्त वयस्क यौन भूमिकाओं (Adult Sex Roles) को विकसित करने की आवश्यकता है । बाल्यावस्था में आधुनिक समाज की विपरीत परिस्थितियों के परिणामस्वरूप त्रुटिपूर्ण (Self-Perception) के द्वारा भूमिका संग्रति विकसित होने लगती है ।

अत: वे कैरियर में स्व का मार्गदर्शन भली-भांति नहीं कर पाते हैं, तथा उनमें उद्देश्य हीनता (Aimlessness), व्यक्तिगत विघटन (Personal Disorganization) एवं व्यर्थता (Futility) की भावना विकास होने लगती है । कुछ किशोर पहचान सक्राति को लम्बे समय तक जीवितरखना चाहते हैं ।

इरिकसन ने इसी भावना को मनोसामाजिक बिलंबन (Psychological Moratorium) की संज्ञा दी है, तथा जिसके फलस्वरूप उनमें वयस्क वचनबद्धता (Adult Commitment) का ह्रास हो जाता है । अत एवं अह पहचान/भूमिका संभ्रान्ति सम्बन्धी समस्या का निदान कर लेने पर किशोरों में कर्त्तव्यनिष्ठता (Fidelity) नायक मनोसामाजिक शक्तिकाविकास होता है ।

अत: उनमें सामाजिक विचारों, शिष्टाचार (Mores) तथा मानकों के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करने की सामर्थ्य विकसित होती है, अर्थात् कर्त्तव्यनिष्ठता को विकास का प्रमुख तत्व माना गया है ।

किशोरावस्था में सिद्धान्तवाद (Ideology) से कर्ममाण्डता (Ritualization) विकसित होती है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं, कि वे किशोरवय के मूल्यों (Values) तथा पूर्व कल्पित (Assumptions) धारणाओं पर आधारित धर्म राजनीति अथवा विज्ञान सम्बन्धी विचारों को प्रदर्शित करने लगते हैं ।

भविष्य में व्यक्ति एक विशेष जीवन शैली को अपनाता है । इस कर्मकाण्डता में विकास स्वरूप सम्पूर्णता (Totalism) का भाव विकसित होता है, जिसमें भ्रमशक्ति से जागृत किसी व्यक्ति का आधुनिकीकरण किया जाता है ।

तरुण वयस्कावस्था (Early Adulthood):

20-30 वर्ष तक की आयु तरुण वयस्कावस्था होती है । व्यक्ति स्वयं का जीविकोपार्जन तथा विवाह करके प्रारम्भिक पारिवारिक जीवन (Early Family) में प्रवेश कर चुका होता है । इरिकसन कहते हैं, व्यक्ति अपने माँ-बाप, बहन-भाइयों व अन्य व्यक्तियों के साथ घनिष्ठ सामाजिक रिश्ते बनाता है, एवं पति/पत्नी परस्पर घनिष्ठ लैंगिक (Sexual) सम्बन्ध स्थापित करते हैं ।

स्वयं के साथ घनिष्ठ रिश्ते बनाकर स्वस्थ व्यक्तित्व को जन्म देता है । कभी-कभी वह अन्य व्यक्तियों के साथ सन्तोषप्रद एवं घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं बना पाता । इस अवस्था को विलगन (Isolation) की स्थिति कहते हैं, अर्थात् अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध (Interpersonal Relationship) सतही (Superficial) सम्बन्ध होता है ।

व्यक्ति में व्यवसाय में मन नहीं लगने का भाव जागृत होता है । अत: विलगन (Isolation) की मात्रा प्रबल हो जाने पर व्यक्ति में समाज विरोधी व्यवहार (Anti-Social Behaviour) की मनोवृत्ति अत्यधिक बढ़ जाती है ।

घनिष्ठता/विलगन (Intimacy Vs. Isolation) के मध्य संघर्ष का समाधान करने से मनोसामाजिक शक्ति स्नेह (Love) का जन्म होता है । तात्पर्य यह है, कि किसी रिश्ते को बनाये रखने के लिए परस्पर समर्पण (Mutual Devotion) आवश्यक है । यही समर्पण की भावना स्नेह कहलाती है । दूसरों के प्रति सम्मान कर्त्तव्यों एवं उचित देख-रेख की प्रवृत्ति को व्यक्ति प्राय: प्रदर्शित करते हैं ।

तरुण वयस्कावस्था में सम्बन्धन (Affiliation) कर्मकाण्डता विकसित होती है । दूसरों के साथ मित्रता एवं स्नेह का भाव विद्यमान होने पर व्यक्ति परस्पर भावनाओं का भी सांझा करता है । भविष्य में सम्बद्धग्न कर्मकाण्डता (Ritualization), विवाह (Marriage) रूपी संस्था में परिवर्तित हो जाती है ।

अन्यथा किसी अन्य सामाजिक गतिविधियों में परिलक्षित होती है । दूसरे शब्दों में कर्मकाण्डता में विकार जागृत होने पर सुशिष्टता (Elitism) विकसित होती है, जिसमें व्यक्ति विशेष प्रकार की अभिरुचि पर आधारित ग्रुप का निर्माण करता है ।

मध्य -वयस्कावस्था (Middle Adulthood):

30-65 वर्ष की आयु मध्य वयस्कावस्था के अन्तर्गत आती है । इस उम्र में व्यक्ति में जननात्मकता  का भाव जागृत होता है । जननात्मकता  से तात्पर्य वृद्ध व्यक्तियों में अपनी आने वाली पीढ़ी के कल्याण की भावना एवं उनत जीवन देने की कामना से है ।

विस्तृत रूप में जननात्मकता, उत्पादकता (Productivity) एवं सृजनात्मकता (Creativity) का सम्मिश्रण है । व्यक्ति में जननात्मकता का अभाव अथवा अरुचि होने पर समाज में स्थिरता (Stagnation) आ जाती है । व्यक्तियों में अपना वंश आगे बढ़ाने का प्रयास सामान्यतया समाज में निरन्तर जारी रहता है ।

इसके विपरीत अवस्था में व्यक्ति में विशेष प्रकार की आत्म-तल्लीनता (Self-Absorption) की भावना जागृत हो जाती है । अत: व्यक्ति स्व की जरूरतों तथा सुख-सुविधाओं (Comfort) को ही सर्वोपरि महत्व प्रदान करते हैं । वह किसी दूसरे की चिन्ता नहीं करता है ।

मध्य वयस्कावस्था में मनोसामाजिक संक्राति (Psychosocial Crisis) जननात्मकता/स्थिरता   के मध्य संघर्ष का समाधान करने से व्यक्ति में विशिष्ट मनोसामाजिक शक्ति देख भाल (Care) की प्रवृत्ति जागृत होती है । वास्तव में देख भाल का गुण उदासीनता (Apathy) से विपरीत गुण है ।

इस अवस्था में व्यक्ति स्वयं से अधिक दूसरों की भलाई की सोचता है । मध्य वयस्कावस्था में प्रजनन (Generation) कर्मकाण्डता (Ritualization) का जन्म होता है, जिसमें सामान्यतया व्यक्ति आने वाली पीढ़ी के मार्गदर्शक की भूमिका निभाने को सदा तैयार रहता है ।

व्यक्ति भविष्य में पर पीड़ा को जानने एवं मुश्किलों का समाधान करने के लिए भी तत्पर रहता है, एवं प्रजनन कर्मकाण्डता से विकसित कर्मकाण्डता (Ritual) किसी प्रकार का विकार जागृत होने से व्यक्ति में प्राधिकृतता (Authoritism) जन्म लेती है । इसमें व्यक्ति बिना किसी उचित कारण (Justification) के प्राधिकार (Authority) का उपयोग करता है ।

परिपक्वता (Maturity):

विकास की अन्तिम अवस्था परिपक्वता (Maturity) अवस्था कहलाती है । 65 वर्ष से मृत्यु तक की अवधि इसके अन्तर्गत होती है, जिसे बुढ़ापा या वृद्धा अवस्था भी कहते हैं । शारीरिक स्वास्थ्य व शक्ति में कमी के कारण जीवन में संघर्ष अधिक रहते हैं ।

अत: सही समायोजन, रिटायरमेंट से आय में कमी, मित्र अथवा साथी की मृत्यु एवं समान आयु ग्रुप के साथ सम्बन्धन (Affiliation) आदि इस अवस्था की प्रमुख चुनौतियाँ (Challenges) हैं । इस अवस्था में व्यक्तियों का मुख्य ध्यान बीती सफलताओं अथवा असफलताओं के मध्य केन्द्रित रहता है । कोई नवीन सकाति जन्म नहीं ले पाती है । व्यक्ति पूर्व की परिस्थितियों एवं घटनाओं का पुन: मूल्यांकन करता है ।

इससे व्यक्तियों में अहं सम्पूर्णता (Ego-Integrity) का भाव विकसित होता है । सन्तान एवं स्वयं की उपलब्धियों के रहते स्व अस्तित्व जागृति से व्यक्ति में मृत्यु का भय नहीं रहता है । जीवन की अन्तिम अवस्था में परिपक्वता एवं बुद्धि का व्यवहारिक ज्ञान (Practical Sense of Wisdom) सर्वाधिक होता है ।

अत: परिपक्वता इस अवस्था की प्रधान शक्ति है । कुछ व्यक्ति पूर्व की असफलताओं के फलस्वरूप जीवन को अपूर्ण मनोकामनाओं, जरूरतों, उचित-अनुचित निर्णयों का समूह मानते हैं ।

परिणामस्वरूप निराशा की भावना जागृत होती है, और वे स्वयं को वेवस असहाय एवं कमजोर महसूस करते हैं । निराशा की इस तीव्र भावना से मानसिक विषाद (Mental Depression) की उत्पत्ति होती है ।

जीवन के अन्तिम पड़ाव में समन्वय (Integral) कर्मकाण्डता (Ritualization) का प्रादुर्भाव होता है, जिसमें व्यक्ति जीवन की सच्चाई अथवा वास्तविकताओं (Realities) को बुद्धिमता पूर्ण स्वीकार करता है । इस अवस्था में रिटायरमेंट की स्थिति, सन्तानों अथवा नाती-पोतों के साथ समय व्यतीत करना प्रमुख कर्मकाण्ड (Rituals) है ।

वृद्ध व्यक्ति अहं सम्पूर्णता (Ego Integrity) का अभाव होता है, जो विवेकता कर्मकाण्डवाद (Ritualism) को जागृत करते हैं । इस अवस्था में व्यक्ति स्वयं की कुलचा व निराशा को छुपाने के लिए स्वयं के ज्ञानी अथवा विवेकी होने का प्रदर्शन करता है ।

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