Here is an essay on the ‘Theories of Freud on Human Development’ especially written for school and college students in Hindi language.

फ्रायड ने पराअहम् संस्थान के द्वारा यह समझाने का प्रयास किसा है, कि अन्तरात्मा एवं आदर्श अहम् बालक के पुरस्कृत होने से जुड़े हैं, जो विकास की विभिन अवस्थाओं पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं ।

इस प्रकार के पुरस्कारों के स्वरूप बालक का अपने लक्ष्य की ओर ध्यान आकृष्ट होता है, तथा वह अपने प्रयासों को और अधिक तन्मयता के साथ करने का प्रयास करता है, चूंकि बालक की अपने काम के प्रति अभिरुचि तभी जागृत होती है, जबकि उसके किसी-न-किसी प्रकार उत्साहवर्धन किया जाए और उसे उत्साहित करने के लिए ही माता-पिता अथवा समाज द्वारा उसको पुरस्कृत करने की व्यवस्था निर्धारित की गई है, जो कि बालक के विकास से सीधे जुड़ी होती है । फ्रायड ने इस बात को अधिक गहनता के साथ स्पष्ट किया है, जिसको इस प्रकार समझा जा सकता है ।

फ्रायड की शैशवावस्था (Infancy Stage of Freud):

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फ्रायड के अनुसार जन्मजात शिशु का मन का उपकरण पानी में तैरते शरीर के समान होता है, जिसका ऊपरी तल बाहरी संसार के सम्पर्क में होता है, एवं बाहरी उद्दीपनों को ग्राह्य करता है । शिशु के जन्म के समय पूर्ण मानसिक उपकरण को इदम् कहते हैं ।

बाहरी सांसारिक शक्तियाँ इदम् के ऊपर के हिस्से (तल) को प्रभावित करती हैं, जिसके कारण इसमें अत्यधिक रूपान्तरण होते हैं, तथा यह मानसिक उपकरण के अलग (Separate Part) भाग के रूप में विकसित होने लगता है, इदम् की अचेतन समस्त सामग्री अग्रचेतन अहम् में परिवर्तित होकर विकसित होती है, जिसमें प्रथम मानसिक प्रक्रम गौण प्रक्रम के विकास में आधार का काम करता है ।

शैशवावस्था में अहम् केवल आत्म अथवा स्वयं (खुद) को प्यार करता है । यह आत्मकेन्द्रित होता है । प्रथम आत्मरति की अवस्था में बाल्यकालीन अहम् बाहरी सांसारिक गतिविधियों से धीमी गति से प्रभावित होता है । बालक अपनी जरूरतों एवं विभिन आवश्यकताओं से घिरा होता है ।

सम्पूर्ण आवश्यकताओं के सम्पन्न होने पर वह तनाव मुक्त महसूस करता है, और गहरी निद्रा में खो जाता है । उसमें ईश्वरीय भावना आ जाती है ।

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शनै:-शनै: समय बीतने पर बच्चे को सर्वशक्तिमान (Almighty) स्व की आत्मरति को छोड्‌कर बाहरी संसार की शरण में जाकर सर्वशक्तिमान मानता है, क्योंकि अब वही उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होता है । शिशु बाहरी लोगों के सम्पर्क में आने से उन्हें ही सर्वशक्तिमान मानने लगता है ।

बच्चा उन व्यक्तियों को प्रतिरूप के रूप में लेता है, जो हमारी तुलना में अपनी जरूरतों की पूर्ति सफलतापूर्वक करने में सफल हो जाते हैं । एक बच्चा अपने पिता को आदर्श मानकर उनका अनुसरण करता है, क्योंकि वह अपने पिता को सर्वशक्तिमान मानता है ।

बालक एक अथवा ज्यादा पहलुओं का भी चयन कर सकता है, जिसके द्वारा मनोवांछित लक्ष्य की प्राप्ति होती है । बच्चा अपने बाहरी परिवेश के व्यक्तियों की शक्ति में स्वयं को जुडा हुआ अथवा उन्हें अपने से जुड़ा हुआ होने की परिकल्पना करने लगता है ।

समाविष्टता से आत्म प्रेम अथवा गौण प्रेम की अनुभूति उन व्यक्तियों अथवा शक्तियों (सामर्थ्य) के साथ परस्पर एकीकरण की भावना से उत्पन होती है, जिन्हें वह सर्वशक्तिमान मानता है । शैशवावस्था में अहम स्व एवं अन्य चीजों के मध्यस्थ उचित भेद नहीं कर पाता है ।

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प्रारम्भिक काल में प्रेम, स्वजानित प्रेम व वस्तु प्रेम को स्पष्ट नहीं कर पाता है । शिशु की वृद्धि के साथ ही अहम अन्त: व बाहरी परिवेश के खतरों से स्वयं की रक्षा करने में पहले से अधिक सामर्थ्यवान हो जाता है । पूर्ण विकसित बालक अथवा वयस्क में अहम् मन की संरचना होती है, जो उसके सम्पूर्ण व्यवहार को सामंजस्य प्रदान करती है ।

शिशु के विकास के साथ ही उसके अहम् का विकास भी होता है, तथा वह मन में बसी प्रतिमाओं, वस्तुओं व घटनाओं को स्वत: समझने व स्पष्ट अन्तर करने की सामर्थ्य भी रखता है । अत: अहम मानसिक प्रक्रियाओं का संगठन होता है, जो बाहरी परिवेश के साथ सीधे रूप में आन्तरिक प्रक्रिया को सम्पन्न करता है, तथा शिशु स्वयं को बाहरी परिवेश से भिन दर्शाना प्रारम्भ कर चुका होता है ।

आत्म विकास का यह सिद्धान्त मूल प्रवृत्ति के अन्तर्नोदों को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानता है । यह आत्म अथवा स्व को स्पष्ट करने में अधिक सक्षम है । कुछ मनोवैज्ञानिक अहम् सम्प्रत्यय को स्व हेतु उपयोग में लाते हैं । फ्रायड ने अहम् का प्रयोग दो रूपों में किया है ।

प्रथम अहम् एक सत्य अथवा वस्तु की ओर इंगित करता है । फ्रायड के अनुसार अहम् पर इदम् अथवा पराअहम् प्रभावित करते हैं, तो इसी अर्थ में अहम् का प्रयोग किया है । द्वितीय अर्थ के अनुसार अहम इन प्रक्रमों की ओर संकेत करता है, जिनके द्वारा बालक बाहरी वास्तविकता के प्रति पूग जागरूक होकर स्थितिजन्य सही व उचित को निर्गित करता है ।

स्व प्रतिमा और पहचान की ओर संकेत करता है । प्रतिमा का सम्बन्ध हम बालक के व्यवहार और दूसरी पर अपने प्रभाव के बारे में मन में कैसी छवि (सूरत) बनाता है ? पहचान से तात्पर्य है कि बालक व बाहरी परिवेश के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध है ? अहम् व आत्म दोनों सम्प्रत्ययों को व्यक्तित्व नामक अति सामान्य सम्प्रत्यय में समावेश किया जा सकता है ।

फ्रायड ने ‘आदर्श आत्म’ की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है, तथा पराअहम् के अहम् आदर्श नामक रुख की ओर इगित किया है, जो व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए सन्दर्भ बिन्दु अथवा मापदण्ड (पैमाने) का काम करता है । मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार यह नयी मानसिक स्थिति शैशवकालीन अहम् की कमी से विकसित होती है ।

शिशु मलमूत्र त्याग और सफाई की शिक्षा के प्रति पिता से अन्तर्द्वन्द्व करता है । दण्ड का भय, प्यार व सुरक्षा की भावना शिशु को माँबाप की उचित-अनुचित झिड़कियों को मानने के अतिरिक्त दूसरा रास्ता नहीं होता । पराअहम् के दो पूर्व तत्च होते हैं, आन्तीकृत निषेध एवं आत्म प्रतिबन्ध जो प्रारम्भ में बहुत कमजोर होते हैं ।

किसी के न देखने पर शिशु उन्हें नजर-अंदाज भी कर देता है । अहम् का वास्तविक विकास लिंग अवस्था में इडियस ग्रन्थि में दण्ड देने वाले माता-पिता का डर चरम सीमा पर होता है । कुण्ठा से ग्रसित शिशु वस्तु सम्बन्ध में अन्त:क्षेपण द्वारा होने वाले तादात्मीकर (Identification) की अवस्था तक पहुँचता है ।

इसका मुख्य सम्बन्ध मुखरित अवस्था से होता है । बाह्य परिवेश को अहम द्वारा स्व में आत्मसात् करना ही अन्त:क्षेपण कहलाता है । इस प्रक्रम में Taking in नामक प्रवृत्ति पायी जाती है । प्रारम्भिक अवस्था में पराअहम् अहम् में ही नये तत्व रूप में सामने आता है, परन्तु तत्पश्चात् यह ऐसे मानसिक उपकरण के जैसा ही उभर कर प्रतीत होता है, जो प्राय: अहम् के विपरीत (विरुद्ध) होता है ।

पराअहम् सामाजिक मानकों और व्यावहारिक पैमानों अथवा मानदण्डों को दर्शाता है जो व्यक्तित्व (Personality) की Moral व Ethical भुजा इकाई है । जब शिशु उचित-अनुचित तथा नैतिक व अनैतिक में अन्तर को स्पष्ट करने लगता है, तब इसे आपेचारिक रूप से अभिव्यक्त भी करने लगता है ।

शिशु के पेरेन्ट्स जब उसके व्यवहार को सामाजिक मूल्यों के अनुरूप बनाने के लिए पुरस्कृत व दण्डित करते हैं, तभी बच्चे में अहम् से पराअहम् विकसित होता है । शिशु माता-पिता से प्रशंसा प्राप्ति हेतु तथा दण्डित होने से बचने के लिए स्वयं के व्यवहार को नियन्त्रित रखना प्रारम्भ करता है ।

अन्त:क्षेपण एवं तादात्मीकरण पराअहम् के विकास में विशेष भूमिका अदा करते हैं । बाहरी अभिकरण की भांति पराअहम् भी पूर्व कालीन शिशु के अनैतिक सुखद क्रियाओं का शमन करता है । अपना प्रभाव अहम् से अभिव्यक्त करता है ।

फ्रायड के अनुसार अन्तरात्मा और आदर्श अहम पराअहम् संस्थान की दो शाखाएँ हैं । पराअहम् का आदर्श अहम् आत्मसिद्धान्त का अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू है । आदर्श अहम् व्यवहार के अन्तर्गत आन्तरिक प्रतिनिधित्व करने वाले विभिन्न तत्वों का समावेश किया गया है, जिनके लिए माता-पिता शिशु को पुरस्कार देते हैं ।

आदर्श अहम् वास्तविक रूप में उस व्यक्ति की आन्तरिक छवि अथवा प्रतिमूर्ति होती है, जिसके सदृश शिशु बनने की चाह रखता है । यह उपलब्धि की माँग को प्रदर्शित करता है, जिस ओर अहम् कोशिश में संलग्न है । यदि व्यक्ति उपरोक्त माँग को सफलतापूर्वक पूर्ण करता है, तो आदर्श अहम् उसे गौरवान्वित महसूस कराता है, अर्थात् पुरस्कृत होता है अन्यथा असफल होने पर हीन भावना से ग्रसित हो जाता है ।

उदाहरणस्वरूप यदि शिशु को अच्छे नम्बर लाने पर पुरस्कार दिया जाता है, तो बड़ा होने पर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने पर वह स्वयं ही गर्व अनुभव करता है । अत: आदर्श अहम् माँ-बाप द्वारा प्रशसित एवं पुरस्कृत अनुभूतियों से जन्म लेता है ।

इन्हीं व्यवहारों द्वारा व्यक्ति इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति का संकल्प लेता है और उन्हीं की प्राप्ति के लिए व्यक्ति में स्वाभिमान आत्मसम्मान एवं गर्व की भावना की उत्पत्ति होती है, अथवा उसमें सफल न होने पर उसमें हीनता की भावना घर कर जाती है । उपर्युक्त व्याख्या में फ्रायड ने विकास की अवस्थाओं का सन्दर्भ एक बालक के अहम् से किया है, जो कि उसके पुरस्कृत होने पर निर्भर करता है ।

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