Read this article in Hindi to learn about the viewpoints of G.H. Mead and C.H. Colley on personal identity.
मनोवैज्ञानिकों के अतिरिक्त कुछ समाजशास्त्रियों एवं दर्शनशास्त्रियों ने भी स्व-पहचान (Personal Identity) के सन्दर्भ में आत्मन् की व्याख्या की है, जिसके सन्दर्भ में अपने विचारों को स्पष्ट किया है । इनमें मुख्यत: जी.एच.मीड (G.H. Mead) तथा सी.एच.कूले (C.H. Colley) का नाम लिया जा सकता है ।
(i) जी. एच. मीड का दृष्टिकोण (View Point of G.H. Mead):
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मीड एक दार्शनिक (Philosopher) थे । उन्होंने समाज मनोविज्ञान का अध्ययन बहुत गहनता से किया, जिसके परिणामस्वरूप स्व-पहचान अवधारणा को भी स्पष्ट किया जो कि मनोवैज्ञानिकों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुई । मीड ने कूले की भांति स्व-पहचान के लिए आत्मन् सांकेतिक अन्त:क्रिया (Self Symbolic Interaction) की अवधारणा को महत्वपूर्ण बतलाया है ।
मीड के अनुसार आत्मन् का सबसे मुख्य गुण आत्मवाचक (Reflective) होता है, जिसकी अभिव्यक्ति से स्व-पहचान का निर्माण होता है । इसलिए आत्मन् स्वयं के लिए वस्तु (Object) हो सकता है । मीड का विचार है कि हम लोग अपने विषय में एक तस्वीर (Picture) बना पाते हैं, जो ‘सामान्यीकृत अन्य’ (Generalized Other) का निर्माण करता है ।
व्यक्ति के प्रति समाज के अन्य दूसरे लोगों की मनोवृत्ति से ही ‘ सामान्यीकृत अन्य’ की उपलब्धि होती है । इसे हम अन्य शब्दों में समाजीकरण (Socialization) भी कह सकते हैं । दूसरे लोगों के साथ जब तक अन्त:क्रिया नहीं होती तब तक उनकी मनोवृत्ति समझने का कोई परिदृश्य उत्पल नहीं होता ।
इसलिए आत्मन् का स्वरूप सामाजिक (Social) एवं समाजीकृत (Socialized) दोनों ही प्रकार का होता है । मीड के अनुसार आत्मन् के दो भाग होते हैं । पहले को वह ‘मुझे’ (Me) या ‘सामान्यीकृत अन्य’ की संज्ञा देते हैं जबकि दूसरे को ‘मैं’ (I) की संज्ञा देते हैं, जो ‘मुझे’ के प्रति प्रतिक्रिया करता है ।
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‘मैं’ आत्मन् का वह अंश होता है, जो यह निर्णय करता है कि ‘मुझे’ वाला भाग दोबारा किस प्रकार से व्यवहार करेगा? जैसे ही ‘मैं’ द्वारा किए गए निर्णयों को व्यक्ति कार्यरूप देना प्रारम्भ करता है, वे ‘मुझे’ का अंश बन जाते हैं ।
अन्य शब्दों में अतीत का एक भाग बन जाते हैं । इस प्रकार ‘मैं’ वाले भाग को अभिग्रहित करने की स्थिति नहीं बन पाती और जब तक हमें इसका संज्ञान होता है, तब तक ‘मुझे’ का अंश बन जाता है ।
मीड ने आत्मन् के सिद्धान्त को लेकर इस बात पर सर्वाधिक बल दिया कि आत्मन् की उत्पत्ति का स्वरूप सामाजिक (Social) होता है, साथ ही आत्मन् का विकास तब ही हो सकता है जबकि दूसरों के साथ अन्त क्रिया हो । मीड ने स्वयं ही कहा है,, ”अन्य लोगों के साथ आत्मन् के सुस्पष्ट सम्बन्ध से ही आत्मन् का अस्तित्व बना होता है ।”
इससे सिद्ध होता है, कि आत्मन् व्यक्ति का जन्मजात गुण नहीं होता वरन् इसका निर्माण अन्य लोगों के साथ अन्त क्रिया करने से जो अनुभूति प्राप्त होती है और तब ही व्यक्ति की स्व-पहचान (Personal Identity) बनती है ।
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(ii) सी.एच.कूले का दृष्टिकोण (View Point of C.H. Colley):
कूले के मतानुसार आत्मन् एवं समाज (Self and Society) दोनों ही एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं । कुले का आत्मन् से आशय मैं या मुझको से था । उनके अनुसार समाज को प्राप्त होने वाली अनुभूतियाँ ही आत्मन् का विकास करती हैं क्योंकि यह आत्मगत होती हैं ।
कूले ने 1902 में ‘आईना आत्मन्’ (Looking Glass Self) के सम्प्रत्यय का प्रतिपादन किया । जिसका यह अर्थ था कि व्यक्ति का आत्मन् दूसरे लोग उसके विषय में क्या सोचते हैं ? इस बात से प्रभावित होता है और परिणामस्वरूप सम्मान या मानहानि की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं ।
‘आईना आत्मन्’ विभिन्न प्रकार के सांकेतिक अन्त क्रियाओं से उत्पन होता है अर्थात् सांकेतिक पद से आशय उस वातावरण से है, जिसमें ऐसी वस्तुएँ होती हैं जिसका महत्व उसके सामाजिक कार्यों में छिपा रहता है । इस प्रकार व्यक्ति वातावरणीय संकेतों से घिरा रहता है न कि वस्तुओं से ।
साकेतिक अन्त क्रिया का विश्लेषण की इकाई कोई पृथक् व्यक्ति (Isolated Person) न होकर दो व्यक्तियों के बीच होने वाली अन्त:क्रिया (Interaction) यानि कि आत्मन् (Self) एवं अन्य लोगों के मध्य होने वाली अन्त:क्रिया होती है । अन्त:क्रिया के फलस्वरूप आत्मन् का स्वयं से सामना होता है और व्यक्ति स्वयं की पहचान करता है अर्थात् उसे स्व-पहचान (Personal Identity) का ज्ञान हो जाता है ।
उपर्युक्त विचारों से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है, कि आत्मन् (Self) से तात्पर्य उन समस्त चीजों से होता है, जिसकी सहायता से व्यक्ति यह निश्चित करता है, कि वह स्वयं के विषय में क्या सोचता है, तथा दूसरे लोग उसके विषय में क्या सोचते हैं ? तथा वह व्यक्ति स्वय क्या होना चाहता है और उसकी अपनी पहचान (Personal Identity) क्या है ?