ब्रिटिश संसद और ईस्ट इंडिया कंपनी | British Parliament and East India Company.

अठारहवीं सदी के मध्य में, जबकि भारतीय उपमहाद्वीप में कंपनी का राज धीरे-धीरे स्थापित हो रहा था, इंग्लैंड के साथ संचार की कठिनाइयों ने कंपनी के सेवकों को भारत में खुली छूट दे दी कि वे स्वयं अपने मालिक की तरह काम कर सकें ।

ब्रिटेन में भारतीय मामलों के बारे में गलत सूचनाएँ भी थीं और भारत में दिलचस्पी का अभाव भी था । पी. जे. मार्शल (1975) का मानना है कि इसके फलस्वरूप 1784 से पहले नई नीतियों का आरंभ शायद ही कभी लंदन से हुआ हो ।

लेकिन भले ही मौके पर मौजूद कंपनी के लोगों का ”उप-साम्राज्यवाद” भारत में बहुत हद तक क्षेत्रों की विजय के पीछे एक महत्त्वपूर्ण प्रेरणा रहा हो, राज्य और कंपनी का संबंध जितना इस तथ्य से पता चलता है, वास्तव में उससे कहीं बहुत अधिक जटिल था ।

ADVERTISEMENTS:

न केवल कंपनी का अस्तित्व चार्टर के नवीनीकरण पर निर्भर था, बल्कि सत्रहवीं सदी से ही भारत में कंपनी के नौकर भी ”प्रत्यायोजित प्रभुसत्ता” (delegated sovereignty) की अवधारणा पर काम कर रहे थे और उन्हें इस बारे में स्पष्ट निर्देश थे कि अगर शाही सेना किसी संयुक्त अभियान में भाग लें तो उनके और कंपनी के बीच लूट के माल का बँटवारा कैसे किया जाएगा ।

कंपनी को विभिन्न कामों के लिए लंदन की उत्तरोत्तर सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता था, और ये सरकारें भी शाही खजाने में मोटी रकम दिए जाने के बदले मदद देने को तैयार रहती थीं । ब्रिटिश संसद में ऐसे कुछ सांसद हमेशा रहे जिनकी ईस्ट इंडिया में दिलचस्पी थी और ब्रिटिश सरकार के मंत्रियों ने कंपनी के संसाधनों का उपयोग अपने संरक्षण के दायरे को फैलाने के लिए किया । कंपनी लंदन शहर की राजनीति में भी एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व थी और सरकार इस राजनीति के बारे में गहरी चिंता में डूबी रहती थी ।

कंपनी के अंदर गुटों के टकराव अकसर संसद के अंदर के व्यापकतर राजनीतिक गठबंधनों से जुड़ जाते थे । जब कंपनी की बढ़ती संपत्ति के बारे में अफवाहें फैलने लगीं तो उसमें हिस्सेदारी के लिए सरकार और भी बेचैन हो उठी ।

कंपनी के मामलों में सरकार ने 1763 और 1764 में हस्तक्षेप किए, और शाही सेना की सहायता से जीते गए इलाकों के राजस्व पर राज्य के अधिकार को लेकर 1766 में संसद के हस्तक्षेप का रास्ता तैयार हुआ । इसके परिणामस्वरुप कंपनी ने सरकार को सालाना 4,00,000 पाउंड देने की बात मानी ।”

ADVERTISEMENTS:

इस तरह आरंभ से ही ब्रिटिश राज्य साम्राज्य में भागीदार रहा और उससे लाभ उठाता रहा; यह कहना भी कठिन है कि यह सब ”अन्यमनस्कता के दौरे” (absence of mind) गांण्त की हालत में प्राप्त हुआ । फिर भी यह. कहा जा सकता है कि साम्राज्य ‘राष्ट्रीय संज्ञान’ के बिना हासिल हुआ और ”उन थोड़े-से अंग्रेजों के हाथों हासिल हुआ, जिनको इस बारे में थोड़ी-सी भी जानकारी नहीं थी कि वे क्या कर रहे हैं ।” हालाँकि राज्य साम्राज्य से लाभ उठा रहा था पर सवाल यह था कि उस नियंत्रित कैसे किया जाए ।

कंपनी के मामलों पर संसद का नियंत्रण बढ़ाने की आवश्यकता पलासी की लड़ाई के बाद के दशकों में और बढ़ी, क्योंकि कंपनी के भ्रष्ट नौकरों द्वारा भारतीय मामलों में कुशासन के प्रति संसद की चिंता बढ़ रही थी । इस ”भ्रष्टाचार” का एक कारण यह था कि ये अधिकारी अठारहवीं सदी के भारत में व्यापार और शासन के बीच आदान-प्रदान के एक जटिल जाल में उलझे हुए थे ।

राजनीतिक कृपा के लिए राजनीतिक कुलीनों और व्यापारियों के बीच उपहारों तथा व्यापार में रियायतों का आदान-प्रदान उनके बीच असमान शक्ति-संबंधों के स्वीकृत मानदंड थे । लेकिन उत्तर भारत के राजनीतिक वातावरण में जो कुछ स्वाभाविक था वही साम्राज्यिक शासन के पश्चिमी नैतिक संवाद के लिए अभिशाप था ।”

अंग्रेजों के समाज में जबरन जगह बनाने के लिए ईस्ट इंडिया के ”नवाब” जब दिखावे के उपभोगों का सहारा लेने लगे तो अंग्रेज कुलीन उनसे जलने लगे और यह बहस और तीखी हो उठी । भारत में कंपनी का साम्राज्य फैला तो ब्रिटिश सरकार ने भी महसूस किया कि उसे राज्य के नियंत्रण से बाहर रहने की अब और अनुमति नहीं दी जा सकती । 1772 में एडमंड बर्क ने दावा किया कि ”कंपनी के मामलों पर निगरानी रखना संसद का अधिकार भी था और कर्त्तव्य भी ।”

ADVERTISEMENTS:

भारत में क्लाइव या हेस्टिंग्ज जैसे गवर्नर जनरल भी सम्राट के साथ किसी न किसी तरह का औपचारिक संवैधानिक संबंध बनाने के इच्छुक थे, जिससे उनकी शक्ति बड़े और सत्ता वैधानिक बने । भारत में कंपनी के मामलों पर कोई प्रत्यक्ष नियंत्रण लादने की राजनीतिक इच्छा निश्चित रूप से अभी भी नहीं थी, सिवाय प्रतिरक्षा और आंतरिक व्यवस्था जैसे विषयों के, और प्रभुसत्ता की स्थापना को तो अभी तक एक कठोर कदम माना जाता था । इसलिए दुरुपयोग के सुधार वो लिए कंपनी के नौकरों पर हमले किए जाते रहे पर स्वयं कंपनी पर नहीं ।

1773 में लॉर्ड क्लाइव और 1786 में वारैन हेस्टिंग्ज़ पर दुराचरण के लिए असफल मुकदमे चलाए गए और आगे चलकर 1806 में लॉर्ड वेलेजली को ऐसी ही विकट घड़ी से गुजरना पड़ा । भारत की स्थिति की जाँच के लिए अप्रैल 1772 में संसद की एक प्रवर समिति बनाई गई ।

कुछ महत्त्वपूर्ण संवैधानिक समस्याओं का हल आवश्यक था; जैसे ब्रिटिश सरकार और भारत में इलाकों की मालिक कंपनी के आपसी सबंध कैसे तय होंगे; ब्रिटेन में कंपनी के अधिकारी भारत में अपने कर्मचारियों पर कैसे नियंत्रण रखेंगे; भारत जैसे दूरदराज के इलाकों के लिए सत्ता का एक ही केंद्र कैसे तैयार किया जाएगा ।

ऐसी सोच के लिए तात्कालिक अवसर कंपनी के ऋण संबंधी प्रार्थना पत्र ने दिया जिससे भारत में संसाधनों के कुप्रबंध के बारे में शंकाएँ पैदा हो गईं । बंगाल के समृद्ध संसाधनों तथा कंपनी के अधिकारियों द्वारा वापस अपने देश भारी धन लेकर लौटने की कहानियाँ इस तथ्य से मेल नहीं खाती थीं कि कंपनी एक वित्तीय संकट का सामना कर रही थी ।

इसलिए नैतिक मानदंडों में गिरावट को लेकर चिंता पैदा हुई कि इससे तो ब्रिटेन की राजनीति में भी भ्रष्टाचार पैदा होगा । अपनी पुस्तक एन इंक्वायरी इनटु द नेचर एंड कॉजेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशन्स (An Enquiry into the Nature and Cause of the Wealth of Nations) में एडम स्मिथ ने अर्थशास्त्रीय चिंतन के एक नए संप्रदाय को जन्म दिया, जिसने कंपनी के शुद्ध एकाधिकार की निंदा की ।

मुक्त व्यापार के समर्थक भारतीय व्यापार के लाभों में हिस्सा पाने की कोशिश कर रहे थे और कंपनी के एकाधिकार को समाप्त करना चाहते थे । लेकिन संसद ने एक समझौते का निर्णय किया भारतीय मामलों पर एक तरह का नियंत्रण तो स्थापित किया गया पर पूर्वी व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार जारी रहने दिया गया और कंपनी के डायरेक्टरों को भारतीय प्रशासन का नियंत्रण सौंप दिया गया ।

इससे यद्यपि एक प्रवृत्ति तो स्थापित हो ही गई । भारत में कंपनी के प्रशासन पर नियंत्रण का अगला महत्त्वपूर्ण कदम 1773 के रेगुलेटिंग ऐक्ट के रूप में सामने आया, जिसने भारतीय मामलों पर नियंत्रण के बारे में संसद के अधिकार को औपचारिक मान्यता दे दी ।

अब आगे से कंपनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के लिए आवश्यक हो गया कि वे भारत में असैनिक सैनिक और राजस्व के विषयों से संबंधित हर पत्र को ब्रिटिश सरकार के सामने पेश करें । इसके अलावा भारतीय इलाकों पर भी कुछ सीमा तक केंद्रीकृत नियंत्रण लगाया गया ।

बंगाल के गवर्नर का दर्जा बढ़ाकर गवर्नर जनरल का कर दिया गया और उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद बनाई गई । उन्हें आपात स्थितियों को छोड्‌कर भारतीय रजवाड़ों के साथ युद्ध या शांति करने के बारे में मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों पर निगरानी और नियंत्रण की शक्ति भी दी गई ।

गवर्नर जनरल और उसकी काउंसिल कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के अधीन थे और उनसे उन्हें (कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को) नियमित पत्र, भेजने की आशा की जाती थी । कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया जबकि विधायी शक्तियाँ गवर्नर जनरल और काउंसिल को दी गईं ।

यह अधिनियम किसी भी तरह संतोषजनक नहीं था, क्योंकि यह भारतीय प्रशासन को कारगर बनाने में असफल रहा, जबकि संचार की समस्याओं के कारण ब्रिटिश सरकार की निगरानी अप्रभावी ही रही । काउंसिल में फूट तथा काउंसिल और गवर्नर जनरल के आपसी असामंजस्य के कारण भारत का प्रशासन प्रभावित होता रहा ।

अधिनियम की अस्पष्ट शब्दावली से जोड़तोड़ की जो भारी संभावना पैदा हुई उसका प्रांतों के गवर्नरों ने खूब लाभ उठाया जबकि सर्वोच्च न्यायालय और काउंसिल के अधिकार-क्षेत्र संबंधी अस्पष्टताओं ने प्रतियोगी अधिकारियों के बीच भारी टकराव पैदा किए ।

लगता है कि अधिनियम की इन अस्पष्टताओं और उसके अनिश्चयात्मक चरित्र का कारण भारत में प्रभुसत्ता के मुद्दे के ठीक-ठीक निरूपण करने के बारे में संसद की अयोग्यता थी । 1781 के एक संशोधन कानून ने सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र का अधिक सटीक निरूपण किया पर दूसरी विसंगतियों को उसने दूर नहीं किया ।

एक सही संशोधन 1784 में फिट्स इंडिया ऐक्ट के रूप में आया । पर यह भी एक समझौता था कंपनी के इलाकों को छेड़ा नहीं गया लेकिन भारत में उसके सार्वजनिक मामलों और प्रशासन पर सरकार का अधिक प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित किया गया ।

छह सदस्यों का एक बोर्ड ऑफ कंट्रोल बनाया गया ये सदस्य थे राज्य सचिवों में से एक चांसलर ऑफ एक्सचेकर (वित्तमंत्री) और चार प्रिवी काउंसिलर्स । उसका (बोर्ड का) काम ”ईस्ट इंडीज़ में ब्रिटेन के इलाकों के नागरिक या सैनिक शासन या राजस्व संबंधी सभी कानूनों कार्यकलापों और सरोकारों की निगरानी, मार्गदर्शन और नियंत्रण करना था ।”

इस बोर्ड के आदेशों को मानना कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के लिए अनिवार्य था और उनसे अपेक्षा की जाने लगी कि अपने सारे पत्र-व्यवहार को विचार के लिए बोर्ड को भेजेंगे । वाणिज्य और संरक्षण पर कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का नियंत्रण कायम रहा लेकिन भारत में वह गवर्नर जनरल गवर्नरों और कमांडर-इन-चीफ़ जैसे प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति सम्राट की सहमति से ही कर सकता था ।

भारत का शासन गवर्नर जनरल और एक तीन सदस्यों वाली परिषद के अधीन कर दिया गया जिससे गवर्नर जनरल की शक्ति में वृद्धि हुई । मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों को गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया और उनपर उसकी शक्ति को और बढ़ा दिया गया तथा स्पष्टत निरूहीन भी कर दिया गया ।

इस तरह कमान का एक सुस्पष्ट सोपानक्रम बनाया गया और भारतीय प्रशासन पर संसद का और भी प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित हुआ । इस व्यवस्था में भी अनेक दोष थे । सबसे पहली बात तो यह थी कि गवर्नर जनरल के दो स्वामी हो गए कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स और बोर्ड ऑफ कंट्रोल जिससे मौके पर बैठा व्यक्ति (यानी गवर्नर जनरल) लगभग स्वतंत्र हो गया ।

गवर्नर जनरल सरलता से दोनों को आपस में लड़वा सकता था और अपनी इच्छा से काम कर सकता था । लेकिन दूसरी ओर गुटबंद परिषद थी और गवर्नर जनरल उसके निर्णयों को पलटने में असमर्थ था जिसके कारण वह अकसर प्रभावहीन बनकर रह जाता था खासकर इसलिए कि उसके सेना का उपयोग करने के अधिकार पर अंकुश लगा दिया गया था ।

1786 के एक संशोधन कानून ने इन विसंगतियों को किया । उसने गवर्नर जनरल को असाधारण स्थितियों में अपनी काउंसिल को दरकिनार करने का अधिकार दिया और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को अधिकार दिया कि गवर्नर जनरल और कमांडर-इन-चीफ़ के दो पदों को एक में मिला दे, जिसके कारण वरन हेस्टिंग्ज़ को पहली बार इन दो पदों के व्यवहार का अवसर मिला ।

इस तरह नियंत्रण का एक कारगर और निरंकुश ढाँचा बनाया गया जो मामूली फेरबदल के साथ 1858 तक जारी रहा । 1793 के चार्टर ऐक्ट ने कंपनी के चार्टर का बीस वर्षो के लिए नवीनीकरण किया और उसे इतने समय तक अपने भारतीय इलाकों पर पूर्ण अधिकार दे दिया ।

भारतीय प्रशासन में गवर्नर जनरल की शक्ति बड़ी तथा बंबई और मद्रास के गवर्नरों पर उसका और भी निर्णायक नियंत्रण स्थापित हुआ । ऐसे सभी कानूनों के लिए, जो बंगाल में ब्रिटिश इलाकों के आंतरिक शासन के लिए बनाए जा सकते थे उनके लिए एक संहिता बनाई गई ।

यह कानून भारतीय जनता के सभी अधिकारों और जान-माल पर लागू होता था और उसने अदालतों के लिए अनिवार्य बना दिया कि वे उसमें वर्णित नियमों और निर्देशों के अनुसार अपने फैसले सुनाएँगी । सभी कानूनों और उनके भारतीय अनुवादों का प्रकाशन अनिवार्य हो गया ताकि जनता अपने अधिकारों विशेष सुविधाओं और सुरक्षा-प्रावधानों के बारे में जान सके । इस तरह इस कानून ने भारत में दीवानी कानून (Civil law) की एक धारणा पेश की, जिसे एक धर्मेतर सत्ता बनाएगी और जो सब पर लागू होगा ।

विलियम विल्बर फोर्स इस कानून में दो और धाराएँ जुड़वाना चाहते थे: एक तो यह घोषणा कि भारत में ब्रिटिश राज का उद्देश्य भारतवासियों के नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए काम करना था और दूसरे यह कि इस साम्राज्यिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए भारत में अध्यापकों और मिशनरियों जैसे योग्य व्यक्तियों को प्रवेश की छूट रहेगी ।

हालाँकि ये दोनों ही धाराएँ शामिल नहीं की गई लेकिन यह स्थिति चार्टर के अगले नवीनीकरण तक ही रही । 1808 में हाउस ऑफ कॉमंस ने एक जाँच समिति बनाई जिसने अपनी रिपोर्ट 1812 में दी । इस बीच मुक्त व्यापार के समर्थक ब्रिटिश राजनीति पर हावी हो चुके थे और भारत में मुक्त प्रवेश की माँग कर रहे थे ।

उनका तर्क था कि उनसे भारत को पूँजी और कुशलताएँ मिलेंगी तथा उद्योगों की स्थापना और खेती में नई तकनीकों के व्यवहार के कारण भारत में विकास और सुधार संभव होगा । बेंथमवादी सुधारकों और इंजीलवादियों ने भी ब्रिटिश राजनीति और भारत में ब्रिटेन की नीतियों को प्रभावित करने के प्रयास किए और जब इंजीलवादी चार्ल्स ग्राट कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के लिए चुना गया तो उनको (इंजीलवादियों को) एक निर्णायक आवाज मिली ।

1813 के चार्टर ऐक्ट ने एक अर्थपूर्ण ढंग से ब्रिटेन की भारत-नीति में परिवर्तन की इन सभी आकांक्षाओं को शामिल किया । उसने कंपनी के चार्टर का बीस वर्ष के लिए नवीनीकरण किया और इस दौरान कंपनी को उसके इलाकों पर पूरा अधिकार प्राप्त रहा ।

लेकिन साथ ही साथ इस कानून ने भारतीय क्षेत्रों पर ”यूनाइटेड किंगडम के सिंहासन की असंदिग्ध प्रभुसत्ता” का दावा भी किया । कंपनी को भारतीय व्यापार के एकाधिकार से भी वंचित कर दिया गया, हालाँकि उसका चीनी व्यापार का एकाधिकार अगले बीस वर्षो तक अप्रभावित रहा ।

इसके अलावा अब ईसाई मिशनरियों को भारत में प्रवेश की अनुमति दे दी गई; शर्त बस यह थी कि वे या तो कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स या बोर्ड ऑफ कंट्रोल से एक लाइसेंस प्राप्त करें । इस तरह 1813 का चार्टर ऐक्ट भारत के पश्चिमीकरण की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हुआ ।

1833 में जब चार्टर के पुनर्नवीनीकरण की बात उठी तो ब्रिटेन में एक नया और अधिक व्यापक आंदोलन उठ खड़ा हुआ कि कंपनी का उन्मूलन करके सरकार भारत का प्रशासन सीधे अपने हाथ में ले ले । उस समय ब्रिटेन का राजनीतिक वातावरण भी सुधार के पक्ष में था क्योंकि 1832 का सुधार कानून अभी-अभी पारित हुआ था ।

एक संसदीय जाँच हो चुकी थी और उसकी सिफारिशों के आधार पर 1833 में पारित कानून भारत के संवैधानिक इतिहास में मील का पत्थर बन गया । चीन के साथ चाय के व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार अब समाप्त कर दिया गया ।

अब आगे से उसके केवल राजनीतिक कार्य रह गए और इसमें भी कंपनी ब्रिटिश क्राउन का भरोसा पाकर ही अपने भारतीय क्षेत्रों को अपने हाथ में रख सकती थीं । बोर्ड ऑफ कंट्रोल का अध्यक्ष अब भारतीय मामलों का मंत्री बना दिया गया और बोर्ड को भारत में सभी प्रशासनिक मामलों की निगरानी के अधिकार दे दिए गए ।

बंगाल का गवर्नर भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया, जो परिषद के परामर्श से पूरे भारत में सभी असैनिक, सैनिक और राजस्व के मामलों पर नियंत्रण रख सकता था । इलाके बढ़े और भारत में ब्रिटिश उपनिवेशी (settlers) आने लगे तो एक समान कानूनों की आवश्यकता पैदा हुई ।

इसलिए गवर्नर जनरल-इन-काउंसिल को भारत में पूर ब्रिटिश क्षेत्र के लिए कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया और ये कानून ब्रिटिश या भारतीय सभी पर लागू होने थे । काउंसिल में एक विधि सदस्य (लॉर्ड मैकॉले) जोड़ा गया और कानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए एक विधि आयोग बनाया गया ।

भारत में कंपनी की सेवाएँ मूल निवासियों के लिए खोल दी गईं पर कमीशन-याफ़्ता सेवाओं में उनके नामित किए जाने का कोई प्रावधान नहीं था । इस पूरी अवधि में हालाकि भारत में कंपनी राज के उन्मूलन की माँगे उठती रहीं पर ब्रिटिश सरकार ऐसे किसी कदम के बारे में अभी भी बहुत निश्चित नहीं थी ।

1833 के चार्टर का 1853 में नवीनीकरण किया गया पर इस बार अगले बीस वर्ष के लिए नहीं किया गया । कंपनी को अनुमति दी गई कि ”अगर संसद अन्यथा कोई प्रावधान न करे तो महारानी, उनके वारिसों और उनके उत्तराधिकारियों का भरोसा जीतकर” कंपनी भारतीय इलाकों को अपने पास रख सकती थी ।

इस तरह भावी अधिग्रहण के लिए दरवाजा खुला छोड़ दिया गया । इस कानून ने विधायी उद्देश्यों के लिए नए सदस्य बढ़ाकर गवर्नर जनरल की काउंसिल के कार्यकारी और विधायी कार्यो का पृथक्करण भी किया । इंडियन सिविल सर्विस में प्रतियोगिता का प्रावधान करके नियुक्तियों पर कंपनी के नियंत्रण में कमी की गई । अपने व्यापारिक विशेषाधिकारों से पहले ही वंचित की जा चुकी कंपनी अब मुश्किल से ही भारत में नीतियों की नियंता रह गई ।

चूँकि कानून ने उसे अगले बीस वर्षों तक शासन का अधिकार नहीं दिया था इसलिए हाउस ऑफ कॉमंस ने बहुत आसानी के साथ 1858 में भारत में प्रशासन का औपचारिक अंत कर दिया; इस आखिरी धक्के के लिए तात्कालिक कारण नि:संदेह 1857 के विद्रोह ने उत्पन्न किया था । विद्रोह से ब्रिटिश जनता में भारतीय स्थिति के प्रति जागरूकता बढ़ी तथा वहाँ ब्रिटिश राज को स्थायी बनाने और पुनर्गठित करने के प्रति जनसमर्थन पैदा हुआ ।

1833 के बाद अनेक अंग्रेज व्यापारी और उपनिवेशी भारत में एक निहित स्वार्थ से लैस हो चुके थे और उनकी शिकायत यह थी कि कंपनी उनके हितों की उपेक्षा कर रही है । दूसरे शब्दों में देश में और भारत में भी कंपनी राज के उन्मूलन और महारानी के राज की स्थापना के लिए बहुत दबाव पड़ने लगा था ।

प्रशासन के ढाँचे की दृष्टि से देखें तो विद्रोह के कुचले जाने के बाद बना गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट (1858) परिवर्तन से अधिक निरंतरता का सूचक था । उसने बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष की जगह एक भारत सचिव (सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया) की व्यवस्था की जो ”मंत्रिमंडल के अंतर्गत रहकर भारत संबंधी नीतियों का स्रोत भी बन गया और नियंता भी ।”

उसे सलाह देने के लिए एक पंद्रह सदस्यों की परिषद बनाई गई, जिनमें से सात को अब समाप्त किए जा चुके कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स में से चुना जाना था । गवर्नर जनरल के हाथ में जिसे अब वायसरॉय कहा जाने लगा, सारी शक्तियाँ रहने दी गई पर दोहरे नियंत्रण की जगह अब उसे केवल भारत सचिव के समक्ष जवाबदेह बनाया गया ।

सिविल सेवा के ढाँचे में भी निरंतरता बनाकर रखी गई और भरती के लिए उसी परीक्षा को जारी रखा गया जिसे 1853 में आरंभ किया गया था । इस तरह भारत अब कंपनी की जगह महारानी के राज में आ गया जिसका विडंबना से भरा अर्थ यह था कि भारत को स्वशासन के हेतु तैयार करने के लिए उसके सुधार का उदारवादी वादा भुला दिया गया ।

दूसरे शब्दों में, इसका अर्थ अब ”भारत में ब्रिटिश स्थायित्व का प्रतीकात्मक अनुमोदन” था । सुधार और परिवर्तन का उदारवादी जोश अब तक मर चुका था और विद्रोह के बाद भारत में ब्रिटेन की नीति के हर पहलू में वह चीज देखी जा सकती थी जिसे टॉमस मेटकॉफ ने ”सावधानी और रूढ़िवाद का एक नया रवैया” कहा था ।

अब दावा शासक जाति की जातीय श्रेष्ठता का किया जाने लगा जो जैसा कि कहा जा चुका है एक अधिक कठोर व्यवस्था को औपचारिक रूप देने के लिए अब शासित समाज से अपने आप को सावधानी से दूर करने लगा ।

अब भारतीयों को ”परंपरा से बंधा हुआ” और इसलिए पश्चिम के उच्च नैतिक मानदंड को पाने में असमर्थ सुधार के अयोग्य कहा जाने लगा । यह भरोसा किया जाने लगा तो उसके ”स्वाभाविक नेताओं” अर्थात् भूस्वामी कुलीनों और अन्य कुलीनों पर जिनकी वफादारी पाने की आशा में अब फिर से उनका गौरव वापस दिलाया गया ।

इस स्थिति को आनंद यांग (1989) ने ”सीमित राज” कहा है जिसमें उपनिवेशी राज्य अंदरूनी भागों के प्रशासन के लिए ज़मींदारों जैसे स्थानीय कुलीनों पर निर्भर था । इस स्थिति ने एक अधिक कठोर राज की स्थापना में सचमुच योगदान दिया ।

Home››History››