भारत में बौद्ध काल के दौरान शहरी केंद्र | Urban Centers during Buddhist Period in India in Hindi.

बुद्ध काल में नगरों का तेजी से उदय हुआ ।

प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में बुद्ध के समय के  चार प्रसिद्ध नगरों का उल्लेख मिलता है:

1. कौशाम्बी,

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2.हस्तिनापुर,

3. वैशाली,

4. अहिच्छत्र,

इनके अतिरिक्त वैशाली, हस्तिनापुर, अहिच्छत्र, मिथिला, प्रतिष्ठान, उज्जयिनी, मथुरा आदि भी प्रमुख नगर थे । तक्षशिला पश्चिमोत्तर भारत का प्रसिद्ध नगर था । डी. एन. झा के अनुसार ईसा पूर्व छठीं शताब्दी से तीसरी शताब्दी के बीच भारत में 60 नगरों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है ।

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ये पूर्व में चम्पा से पश्चिम में भृगुकच्छ तक तथा उत्तर में कपिलवस्तु से दक्षिण में कावेरीपत्तन तक फैले हुए थे । श्रावस्ती जैसे विशाल नगर बीस के लगभग थे जिनमें से अधिकांश बुद्ध तथा उनके धर्म से संबंधित होने के कारण महत्वपूर्ण हो गये थे ।

ये नगर ही इस काल में बौद्धिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र बन गये । यही कारण है कि बौद्ध साहित्य, जो मुख्यतः इस युग की ही देन है, अपने दृष्टिकोण में पूर्णतया नगरीय प्रतीत होता है जबकि इसके पहले का ब्राह्मण साहित्य ग्रामीणता से प्रभावित है ।

बुद्धकालीन प्रमुख नगरों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:

1. कौशाम्बी:

इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम में लगभग 33 मील की दूरी पर स्थित कोसम नामक स्थान ही प्राचीन काल का कौशाम्बी था । यह नगर यमुना नदी के तट पर बसा हुआ था । पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर के राजा निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा के प्रवाह में बह जाने के बाद इस नगर की स्थापना करवाई थी ।

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ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में कौशाम्बी वत्स राज्य की राजधानी थी जहाँ का राजा उदयन था । इस नगर में जाकर बुद्ध ने कई बार धर्मोपदेश किया तथा लोगों को अपना शिष्य बनाया था । यहाँ अनेक विहार थे जिनमें सर्वप्रमुख घोषताराम था ।

इसका निर्माण श्रेष्ठि घोषित ने करवाया था । इस विहार के निकट ही अशोक का स्तूप था । बौद्ध धर्म का केन्द्र होने के साथ-साथ कौशाम्बी एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर भी था जहाँ अनेक धनी व्यापारी निवास करते थे । मौर्य शासक अशोक ने यहाँ अपने स्तम्भलेख उत्कीर्ण करवाये थे ।

मौर्यकाल में पाटलिपुत्र का महत्व बढ़ने से कौशाम्बी का गौरव घट गया । गुप्त युग तक इस नगर का अस्तित्व सुरक्षित रहा । सातवीं शती में जब हुएनसांग ने भारत की यात्रा की तब उसने इस नगर को उजड़ा हुआ पाया था ।

सर्वप्रथम 1861 ई. में कनिंघम महोदय ने इस स्थान की यात्रा कर इसके पुरातात्विक महत्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था । तत्पश्चात् 1936-37 में एन. जी. मजूमदार ने यहाँ उत्खनन कार्य करवाया, किन्तु दुर्भाग्यवश एक दुर्घटना में वे मारे गये जिसके फलस्वरूप कुछ समय तक कौशाम्बी का उत्खन्न कार्य रुका रहा ।

1949 से लेकर 1965-66 ई. तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी. आर. शर्मा के नेतृत्व में यहाँ व्यापक स्तर पर खुदाईयाँ करवायी गयीं जिसके परिणामस्वरूप पुरातात्विक महत्व की अनेक वस्तुयें यहाँ से प्रकाश में आयीं ।

कौशाम्बी में उत्खनित क्षेत्र मुख्यतः चार हैं:

i. अशोक स्तम्भ का समीपवर्ती-क्षेत्र,

ii. घोषिताराम विहार-क्षेत्र,

iii. पूर्वी भाग में मुख्य प्रवेश द्वार का समीपवर्ती क्षेत्र,

iv. राजप्रासाद क्षेत्र ।

अशोक स्तम्भ वाले क्षेत्र की खुदाई में मुख्यतः तीन प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिलते हैं जिन्हें चित्रित-धूसरभाण्ड, उत्तरी काले चमकीले भाण्ड उत्तर-एन. वी. पी. भाण्ड आदि नाम दिये जाते हैं । चित्रित धूसर संस्कृति के अवशेष अपेक्षाकृत सीमित हैं । इसके प्रमुख पात्र कटोरे तथा तश्तरियाँ हैं । इनकी गढ़न अच्छी है ।

उत्तरी काली चमकीली संस्कृति से सम्बन्धित निर्माण के आठ स्तर प्राप्त हुए है जिनमें प्रथम पाँच मिट्टी तथा कच्ची ईंटों से और ऊपर के तीन पकी ईंटों से बने हैं । इनके अतिरिक्त यहाँ से मित्रवंशी राजाओं के सिक्के, मिट्टी की मूर्तियाँ, कुषाण राजाओं के सिक्के आदि भी प्राप्त हुए है ।

घोषिताराम की खुदाई से एक विहार मिला है जिसके चारों ओर ईंट की दीवारें बनी हुई हैं । विभिन्न स्तरों से सूचित होता है कि इस विहार का निर्माण कई बार किया गया । विहार के प्रांगण से एक बड़े तथा तीन छोटे रूपों के अवशेष मिलते है । इस विहार का निर्माण संभवतः ई. पू. पांचवीं शताब्दी में हुआ था ।

विहार से पाषाण तथा मिट्टी की मूर्तियाँ, सिक्के तथा कुछ लेख भी मिलते हैं । इसी क्षेत्र से हूणनरेश तोरमाण की मुहर मिली है । इससे सूचित होता है कि हूणों का कौशाम्बी के ऊपर आक्रमण हुआ तथा उन्होंने यहाँ बड़े पैमाने पर आगजनी और लूटपाट की ।

यहाँ से मिली पत्थर की मूर्तियों पर बुद्ध का अंकन प्रतीकों में किया गया है । बड़ी संख्या में मिट्टी की बनी हुई मानव तथा पशु मूर्तियाँ मिलती हैं । कुछ देवी-देवताओं से भी संबद्ध है । इनका समय मौर्यकाल से गुप्त काल तक निर्धारित किया गया है ।

पाषाण मूर्तियाँ ई. पू. 200 से 500-600 ई. तक की हैं । इनसे सूचित होता है कि भरहुत तथा साँची के समान कौशाम्बी भी कला का एक प्रमुख केन्द्र था । यहाँ की प्रसिद्ध मूर्तियों में कुबेर, हारीति तथा गजलक्ष्मी की मूर्तियों का उल्लेख किया जा सकता है ।

मुख्य प्रवेश द्वार वाले क्षेत्र के उत्खनन की महत्वपूर्ण उपलब्धि रक्षा-प्राचीर है । इसके अतिरिक्त चार प्रकार की पात्र परम्परायें- लाल रंग, चित्रित-धूसर, उत्तरी काली चमकीली तथा उत्तर-एन. बी. पी. भी यहाँ से मिलते हैं । लेख रहित ढले हुए ताम्र सिक्के तथा लोहे के उपकरण भी यहाँ से प्राप्त होते हैं ।

रक्षा प्राचीर से सूचित होता है कि ईसा पूर्व की तेरहवीं-बारहवीं शताब्दियों से ही यहाँ भवन निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा था । जी. आर. शर्मा यहाँ से मिले हुए सिक्कों को आहत सिक्कों से भी प्राचीनतर मानते हैं तथा उनकी तिथि ईसा पूर्व नवीं शताब्दी निर्धारित करते हैं ।

किन्तु कई विद्वान् इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं । शर्मा के अनुसार ई. पू. ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में यहाँ नगर-जीवन का प्रारम्भ हो चुका था । पूर्वी रक्षा-प्राचीर के पास से एक यज्ञ की वेदी मिलनी है जिसका आकार उड़ते हुए बाज (श्येन) जैसा है ।

इसे ‘श्येनचिति’ कहा गया है । बताया गया है कि यहाँ पुरुषमेध किया गया था । यह यज्ञ संभवतः ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में सम्पन्न हुआ था । इसका सम्बन्ध शुंग शासक पुष्पमित्र से जोड़ा गया है । किन्तु मार्टीमर ह्वीलर, बी. बी. लाल जैसे विद्वान् श्येनचिति की अवधारणा को स्वीकार नहीं करते हैं ।

राजप्रासाद क्षेत्र के उत्खनन में पाषाणनिर्मित एक लम्बी-चौड़ी चहारदीवारी के अवशेष मिलते हैं । अनुमान किया जाता है कि यह किसी राजपरिवार का आवास रहा होगा । यहाँ से भी चार सांस्कृतिक पात्र परम्पराओं की जानकारी होती है ।

यहाँ से मेहराब के भी अवशेष मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि भारत में मेहराब युक्त भवन पहली-दूसरी सदी में ही बनने लगे थे । किन्तु सभी विद्वान् इस बात को स्वीकार नहीं करते । कौशाम्बी के उत्खनन से सिद्ध होता है कि ई. पू. बारहवीं शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी ईस्वी (गुप्त युग) तक यहाँ लोग निवास करते थे । गुप्त काल तक यह नगर वीरान हो चुका था ।

2. हस्तिनापुर:

महाभारत काल का यह प्रसिद्ध नगर मेरठ से 22 मील उत्तर-पूर्व में गंगा नदी की प्राचीन धारा के तट पर बसा हुआ है । महाभारत काल में यहाँ कौरवों की राजधानी थी । महाभारत युद्ध के बाद इस नगर का गौरव समाप्त हो गया तथा अन्तोगत्वा यह गंगा नदी के प्रवाह में विलीन हो गया ।

विष्णु पुराण से पता चलता है कि हस्तिनापुर के गंगा में प्रवाहित हो जाने पर राजा निचक्षु (जनमेजय का वंशज) ने अपनी राजधानी कौशाम्बी में स्थानान्तरित किया था । गंगयापहृते तस्मिन् नगरे नाग साहवये । त्यक्त्वा निचक्षु नगरं कैशांब्याम् स निवत्स्यति ।।

हस्तिनापुर को मानचित्र पर रखने का श्रेय बी. बी. लाल को है भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से 1950 से लेकर 1952 तक यहां पर उत्खनन कार्य करवाया था । यहां की खुदाई से पांच संस्कृतियों के अवशेष प्रकाश में आये हैं जिन्हें गेरिक, चित्रित-धूसर, उत्तरी काली-चमकीली (N.B.P.) तथा उत्तर-एन. बी. पी. संस्कृति कहा जाता है ।

यहाँ की पाँचवीं संस्कृति मध्यकाल की है । सभी से सम्बन्धित मिट्टी के बर्तन खुदाई से प्राप्त होते हैं । गेरिक संस्कृति के स्तर से केवल कुछ पात्रखण्ड ही मिले हैं जो गेरुये रंग से पुते हुए हैं । भवन निर्माण का कोई साक्ष्य नहीं मिलता ।

दूसरी संस्कृति से सम्बन्धित बर्तन प्राप्त होते हैं । इनमें सलेटी रंग की थालियाँ, कटोरे, घड़े, मटके, नींद आदि हैं । बर्तनों के ऊपर चित्रकारियां भी मिलती हैं । इस स्तर से भवन निर्माण के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं । ज्ञात होता है कि भवन निर्माण में मिट्टी तथा बांसबल्ली का प्रयोग होता था ।

लोग कृषि तथा पशुपालन से परिचित थे । खुदाई में गाय, बैल, भेड़, बकरी, घोड़े आदि पशुओं की हड्डियाँ तथा चावल के दाने प्राप्त होते हैं । कुछ हड्डियों पर काटे जाने के चिह्न हैं तथा कुछ जलने से काली भी पड़ गयी है ।

हरिण के सींगों के अवशेष भी मिलते हैं । संभवतः इनका शिकार किया जाता था । आभूषणों में मनके तथा काँच की चूड़ियाँ मिलती हैं । अन्य उपकरणों में चाकू, कील, तीर, भाला, हंसिया, कुदाल, चिमटा आदि का उल्लेख किया जा सकता है ।

तीसरी संस्कृति (एन. बी. पी.) के निवासी काले चमकीले भाण्डों का प्रयोग करते थे तथा पक्की ईंटों से बने भवनों में निवास करते थे । उनकी सभ्यता पूर्ववर्ती युगों की अपेक्षा अधिक विकसित थी । गन्दे पानी को बाहर निकालने के लिये नालियों की भी व्यवस्था की गयी थी ।

इन्हें विशेष प्रकार की ईंटों से बनाया जाता था । वे तांबे तथा लोहे के उपकरणों का भी प्रयोग करते थे । खुदाई में इन धातुओं के उपकरण प्राप्त होते हैं । इस काल तक नगरीय जीवन का प्रारम्भ हो चुका था । इस स्तर के ऊपरी भाग से जलने के अवशेष मिलते हैं । इससे अनुमान किया जाता है कि हस्तिनापुर के इस स्तर का विनाश अग्निकाण्ड में हुआ ।

हस्तिनापुर के चौथे सांस्कृतिक स्तर (उत्तर-एन. बी. पी.) से कई प्रकार के मृद्‌भाण्ड प्राप्त हुए हैं । ये लाल रंग के हैं जिन पर कहीं-कहीं काले रंग से चित्रकारी भी की गयी है । स्वास्तिक, त्रिरत्न, मीन, फूलपत्तियों आदि के आकारों के ठप्पे भी पात्रों पर लगाये गये हैं ।

मकानों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया गया है । साथ ही साथ शुंग काल से लेकर गुप्त काल तक की मिट्टी तथा पत्थर की प्रतिमायें भी मिलती हैं । शुंगकालीन प्रतिमाओं में एक स्त्री की मूर्ति अत्यन्त सजीव एवं आकर्षक है । उसके हाथों, चेहरे, आँखों, केशों आदि को विविध प्रकार से सजाया गया है ।

कुषाणयुगीन प्रतिमाओं में मैत्रेय की प्रतिमा सुन्दर है । कुछ बर्तनों के ऊपर निर्माताओं के नाम भी उत्कीर्ण हैं । मथुरा के दत्तवंशी शासकों, कुषाण राजाओं तथा यौधेयों के सिक्के भी यहाँ से मिलते हैं । बी. बी. लाल का अनुमान है कि हस्तिनापुर की प्राचीनतम गेंरिक संस्कृति का समय ई. पू. 1200 के पहले का है ।

सिक्कों के आधार पर यहाँ की चतुर्थ संस्कृति का समय ई. पू. 200 से 300 ई. तक निर्धारित किया गया है । चतुर्थ काल के बाद लगभग आठ शताब्दियों तक हस्तिनापुर में आवास के साक्ष्य नहीं मिलते । जब यहाँ पाँचवीं बार बस्ती बसाई गयी तो सब कुछ परिवर्तित हो चुका था ।

इस स्तर से दिल्ली सल्तनत के सुल्तान बल्बन का एक सिक्का मिलता है जिसके आधार पर इसे मध्यकालीन माना जाता है । मकान पकी ईंटों के बनते थे । इस काल के कचित मृद्‌भाण्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पार्वती तथा ऋषभदेव की प्रस्तर प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं ।

डॉ. लाल ने हस्तिनापुर की अन्तिम संस्कृति का समय 1200-1500 ई. के बीच निर्धारित किया है । पन्द्रहवीं शती के बाद से यहाँ मानव आवास के साक्ष्य नहीं मिलते हैं । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि हस्तिनापुर में लम्बे समय तक मानव आवास विद्यमान रहा । जैनग्रन्थों में भी हस्तिनापुर को महत्व दिया गया है । इसका सम्बन्ध कई तीर्थड्करों- शान्ति, कन्तु, अमरनाथ आदि से बनाया गया है । अत: यह स्थान जैनियों का तीर्थस्थल माना जाने लगा ।

3. वैशाली:

बिहार प्रान्त के मुजफ्फरपुर जिले से 20 मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित बसाढ़ नामक स्थान ही प्राचीन काल का वैशाली नगर था । रामायण में इसे ‘विशाला’ कहा गया है । बुद्ध काल में यहाँ लिच्छवियों का प्रसिद्ध गणराज्य था । यह गणराज्यों में सबसे बड़ा और शक्तिशाली था । इनकी केन्द्रीय समिति में 7,707 राजा थे ।

वैशाली बुद्धकाल का एक समृद्धिशाली नगर था । ललितविस्तर में इसे महानगर कहा गया है । यह जैन तथा बौद्ध धर्म का केन्द्र धा । महावीर ने अपने जीवन के प्रारम्भिक तीस वर्ष यहीं बिताये तथा कई बार उन्होंने यहाँ उपदेश भी दिया । उनकी माता त्रिशला वैशाली गण के प्रमुख चेटक की बहन थीं ।

गौतम बुद्ध को भी यह नगर बहुत प्रिय था । लिच्छवियों ने उनके ठहरने के लिये महावन में कूटाग्रशाला का निर्माण करवाया था जहाँ बुद्ध ने कई बार उपदेश दिये थे । इस नगर की प्रसिद्ध वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा उसने भिक्षुसंघ के लिये आम्रवाटिका दान में दिया था ।

लिच्छवि राज्य बड़ा समृद्ध एवं शक्तिशाली था । मगधनरेश अज्ञातशत्रु ने कूटनीति द्वारा उसमें फूट डलवा दी तथा फिर उस पर अधिकार कर लिया । तत्पश्चात् लिच्छवि दीर्घकाल तक दबे रहे । कुषाणों के पतन के बाद तथा गुप्तों के उदय के समय गंगा घाटी में उन्होंने पुन: अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी ।

फाहियान तथा हुएनसांग दोनों ने वैशाली नगर का वर्णन किया है । उन्होंने इसकी सम्पन्नता का वर्णन किया है । यहाँ कई स्तूप तथा विहार थे । लोग सच्चे और ईमानदार थे । भूमि बड़ी उपजाऊ थी । हुएनसांग ने वैशाली की द्वितीय बौद्ध संगीति का भी उल्लेख किया है जिसमें सात सौ भिक्षुओं ने भाग लिया था ।

वैशाली के समीप ही बखिरा है जहाँ से अशोक का सिंहशीर्ष स्तम्भ लेख मिलता है । बसाढ़ के खण्डहरों में राजप्रासाद एवं स्तूप के अवशेष हैं । यहाँ से कुछ मुद्रायें भी मिलती हैं । यहाँ के टीले की खुदाई ब्लाख महोदय ने की थी ।

1903-04 से 1958-62 ई. तक यहां पांच उत्खननों में बड़े पैमाने पर खुदाइयां की गयी । यहां का प्रमुख टीला ‘राजा विशाल का गढ़’ कहा जाता है जहां मुख्यतः खुदाई की गयी है । उपलब्ध भौतिक अवशेषों से सूचित होता है कि ई. पू. 50 से लेकर 200 ई. तक यहां एक समृद्ध नगर था ।

कुषाणकालीन अवशेष सुराहीनुमा हजारे, गहरे कटोरे, ईंटों के मकान तथा 77 फुट लम्बी एक दीवार आदि है । कुषाणकालीन सिक्के तथा लगभग दो हजार मुहरें मिलती हैं जिनमें अधिकांशतः शिल्पियों, व्यापारियों सौदागरों एवं उनके निगमों की है । गुप्तकालीन अवशेष ऊंचे अपेक्षाकृत घटिया किस्म के हैं जिनसे नगर के पतन की धारणा बनती है ।

4. अहिच्छत्र:

इसकी पहचान बरेली स्थित वर्तमान रामनगर नामक स्थान से की जाती है । यह उत्तरी पञ्चाल की राजधानी थी । महाभारत तथा पूर्व बौद्ध काल में यहां प्रसिद्ध नगर था । महाभारत से पता चलता है कि द्रोण ने पाञ्चाल नरेश द्रुपद को हराकर अहिच्छत्र को अपने अधिकार में कर लिया था ।

अशोक ने यहां एक स्तूप बनवाया था । उत्खनन से पता चलता है कि लगभग 300 ई. पू. में यहां बड़ी आबादी थी तथा भवन कच्ची ईंटों के बने थे । कुषाण काल (लगभग प्रथम शताब्दी ई. पू.) में इसे पकी ईंटों की दीवार से घेर दिया गया ।

दीवार की लम्बाई 3.5 किलोमीटर है । इसी समय के ‘मित्र’ राजाओं के सिक्के यहां से मिलते हैं । कुषाण काल से भवन पक्की ईंटों के बनने लगे । इन्हें पंक्तिबद्ध रूप से बनाया जाता था । कुषाणकालीन अवशेष कटोरे, सुराहीनुमा, हजारे, दावात आदि हैं ।

लोहे तथा ताँबे के उपकरण तथा कुषाण पञ्चाल एवं अच्यु नामांकित सिक्के भी मिलते हैं । एक गुप्तकालीन मुहर पर ‘अहिच्छत्र मुक्ति’ अंकित है । प्रयाग लेख में अच्युत नामक जिस शासक का उल्लेख मिलता है उसे यहीं का राजा माना जाता है । चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड मिलते हैं । यह एक लौहकालीन स्थल है । कुषाणकाल से आरम्भिक गुप्तकाल तक अहिच्छत्र एक समृद्ध नगर था । बाद के अवशेष नगर के पतन की सूचना देते हैं ।

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