भारत में लौह युग: अर्थ और इतिहास | Read this article in Hindi to learn about the meaning and historical background of Iron Age in India.
लौहयुगीन संस्कृतियां का अर्थ (Meaning of Iron Age Culture):
चित्रित धूसर मृद्भाण्ड, ताम्र तथा कांस्य के प्रयोग के पश्चात् मनुष्य ने लौह धातु का ज्ञान प्राप्त कर इसका प्रयोग अस्त्र-शस्त्र एवं कृषि उपकरणों के निर्माण में किया। इसके फलस्वरूप मानव जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ ।
उत्खनन के परिणामस्वरूप भारत के उत्तरी, पूर्वी, मध्य तथा दक्षिणी भागों के लगभग सात सौ से भी अधिक पुरास्थलों से लौह उपकरणों के प्रयोग के साक्ष्य प्रकाश में आये हैं । उत्तर भारत के प्रमुख स्थल अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, अहिच्छत्र, अल्लाहपुर (मेरठ) खलौआ, नोह, रोपड़, बटेश्वर, हस्तिनापुर, श्रावस्ती, कम्पिल, जखेड़ा आदि है ।
इनमें हस्तिनापुर के उत्खनन की सामग्री ही विधिवत् प्रकाशित की गयी है । इन स्थलों की प्रमुख पात्र परम्परा चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Grey Ware) है । इसके साथ लोहे के विविध उपकरण जैसे भाले, वाणाग्र, कुल्हाड़ी, कुदाल, दरौती, चाकू, फलक, कीले, पिन, चिमटा, बसूला आदि मिले हैं ।
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हस्तिनापुर तथा अतरंजीखेड़ा से धातुमल (Iron Slag) मिलता है जिससे सूचित होता है कि धातु को गलाकर ढलाई की जाती थी । चित्रित धूसर पात्र परम्परा की तिथि रेडियो कार्बन पद्धति के आधार पर ईसा पूर्व आठवीं-नवीं निर्धारित की गयी है । नोह तथा इसके दोआब क्षेत्र से काले और लाल मृद्भाण्ड (Black and Red Ware) के साथ लोहा प्राप्त हुआ है जिसकी संभावित तिथि ईसा पूर्व 1400 के लगभग है ।
भगवानपुरा, माण्डा, दघेरी, आलमगीरपुर, रोपड़ आदि में चित्रित धूसर भाण्ड, जिसका संबंध लोहे से माना जाता है, सैन्धव सभ्यता के पतन के तत्काल वाद (लगभग 1700 ई॰ पू॰) मिल जाते है । पूर्वी भारत के प्रमुख लौहकालीन स्थल हैं-पाण्डुराजार, ढिवि, महिष्दाल, सोनपुर, चिरान्ड आदि ।
यहां लौह उपकरण काले और लाल मृद्भाण्डों के साथ मिले है । इनमें बाणाग्र, छेनियां, कीलें आदि है । महिष्दाल से धातुमल तथा भट्टिया मिलती है जिनसे सूचित होता है कि धातु को स्थानीय रूप से गला कर उपकरण तैयार किये जाते थे ।
रेडियो कार्बन तिथियों के आधार पर यहाँ लोहे का प्रारम्भ ईसा पूर्व 750-700 निर्धारित किया गया है । दक्षिणी-पूर्वी उत्तर प्रदेश के विविध स्थलों-झूंसी (इलाहाबाद), राजा नल का टीला (सोनभद्र) मल्हार (चन्दौली) आदि से प्राप्त पुरानिधियों के आधार पर लोहे की प्राचीनता ई॰ पू॰ 1500 तक जाती है ।
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मध्य भारत (मालवा) तथा राजस्थान के कई पुरास्थलों की खुदाई से लौह उपकरण प्रकाश में आये हैं । मध्य भारत के प्रमुख पुरास्थल एरण तथा नागदा हैं । यहाँ से लौह निर्मित दुधारी कटारें, कुल्हाड़ी, बाणाग्र, हंसिया, चाकू आदि मिलते हैं ।
एरण तथा नागदा की प्रारम्भिक संस्कृति ताम्रपाषाणिक है जिसमें बाद में लोहा जुड़ गया । प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि एरण तथा नागदा में ताम्रपाषाणिक संस्कृति के तत्काल बाद ऐतिहासिक युग प्रारम्भ हो गया (लगभग 700-600 ईसा पूर्व) तथा इसी में लोहे का प्रयोग होने लगा । किन्तु अब यह स्पष्ट होता है कि दोनों के बीच कुछ व्यवधान था । इसी व्यवधान काल में लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हुआ । एन. आर. बनर्जी ने इसकी तिथि ईसा पूर्व 800 निर्धारित की है ।
एरण में लौहकालीन स्तर की तीन रेडियो कार्बन तिथियों निर्धारित की गयी हैं:
1. ईसा पूर्व 140+110 (TF-326)
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2. ईसा पूर्व 1270+110 (TF-324)
3. ईसा पूर्व 1239+79 (TF-525)
डी॰ के॰ चक्रवर्ती इसकी तिथि ई॰ पू॰ 1100 निर्धारित करते है । उल्लेखनीय है कि इसी के समीपवर्ती राजस्थान के अहाड् नामक पुरास्थल से लोहा तथा धातुमल प्रथम काल खण्ड के दूसरे स्तर के पाँच निक्षेपों से मिलता है जिसकी संभावित तिथि ईसा पूर्व 1500 के लगभग निश्चित की गयी है । दक्षिण भारत के आन्ध्र, कर्नाटक, केरल तथा तमिलनाडु के विविध पुरास्थलों से वृहत् अथवा महापाषाणिक (मेगालिथिक) संस्कृतियो के साक्ष्य मिलते है ।
बह्मगिरि, मास्की, पुदुकोट्टै, चिंगलपुत्त, शापूर, हल्लूर आदि महत्वपूर्ण स्थल है। इन स्थलों से प्राप्त महापाषाणिक समाधियों से बड़ी संख्या में लौह उपकरण जैसे-तलवार, कटार, त्रिशूल, चिपटी कुल्हाड़ियाँ, फावड़े, छेनी, बसूली, हंसिया, चाकू, भाले आदि लगभग तैंतीस प्रकार के उपकरण काले तथा लाल रंग के मृदभाण्डों के साथ मिले हैं ।
हल्लूर नवपाषाण एवं महापाषाण के बीच एक संक्रान्ति काल की सूचना देता है । विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त उपकरणों को भिन्न-भिन्न तिथिक्रमों में रखा गया है । डीलर इस संस्कृति की प्राचीनतम तिथि ईसा तीसरी-दूसरी शती निर्धारित करते है किन्तु आधुनिक शोधों से जो प्रमाण उपलब्ध हुए है, उनके आधार पर दक्षिण में उपकरणों के प्रयोग की प्राचीनता काफी पीछे तक जाती है ।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि दक्षिण में लोहे का प्रयोग सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व में प्रारम्भ हो गया था। हल्लूर उपकरणों की रेडियो कार्बन तिथि ईसा पूर्व 1000 के लगभग निर्धारित की गयी है । भारत में लोहे की प्राचीनता के विषय में विवाद है। पहले ऐसा माना जाता था कि मध्य एशिया की हित्ती जाति (ई॰ पू॰ 1800-1200) का इस पर एकाधिकार था और सर्वप्रथम उसी ने इसका प्रयोग किया ।
किन्तु अब इस सम्बन्ध में नवीन साक्ष्यों के मिल जाने के बाद यह मत मान्य नहीं है । नोह (राजस्थान) तथा इसके दोआव क्षेत्र से लोहा काले और लाल मृदभाण्डों (Black and Red Wares) के साथ मिलता है जिसकी सम्भावित तिथि ई॰ पू॰ 1400 है ।
कुछ स्थलों जैसे भगवानपुरा, माण्डा, दसरी, आलमगीपुर, रोपड़ आदि में चित्रित धूसर भाण्ड सैन्धव सभ्यता के पतन के साथ (लगभग ई॰ पू॰ 1700) मिलते हैं जिनका सम्बन्ध लोहे से माना गया है । ऋग्वेद में कवच (वर्म) का उल्लेख है जो अवश्य ही लोहे के रहे होंगे । अधिकांश विद्वान् यह मानने लगे हैं कि ऋग्वैदिक आयी को भी इसका ज्ञान था ।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त उत्तम कोटि के ताँबे और कांसे के उपकरण तथा गंगाघाटी से प्राप्त ताम्र निधियों एवं गेरिक भाण्डों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन भारतीयों का तकनीकी ज्ञान अत्यन्त विकसित था । सम्भव है गंगाघाटी के ताम्र धातुकर्मी ही लोहे के आविष्कर्ता रहे होंगे क्योंकि कच्चे लोहे की दो बड़ी निधियाँ माण्डी (हिमाचल) तथा नरौल (पंजाब) उत्तर भारत से ही मिलती है ।
भारत के विभिन्न स्थलों की खुदाई से लौह प्रयोक्ता संस्कृतियों के साक्ष्य मिलते है । ये अत्यन्त समृद्ध एवं विकसित ग्राम्य संस्कृतियाँ है जिनकी पृष्ठभूमि पर ऐतिहासिक काल में द्वितीय नगरीकरण सम्भव हुआ । इन संस्कृतियों के लोग जिस विशिष्ट प्रकार के मृद्भाण्ड का प्रयोग करते थे वे प्रधानत धूसर या स्लेटी रंग के हैं और इनके ऊपर काले रंग में चित्रकारियों की गयी है ।
इन्हें चित्रित धूसर मृद्भाण्ड कहा जाता है । प्रारम्भिक पात्रों के सात लौह उपकरण नहीं मिलते किन्तु बाद में ये सभी स्थलों से मिलते हैं । इस कारण चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति लौहकालीन संस्कृति कही जाती है ।
यद्यपि लौहयुगीन संस्कृति के अधिकांश स्थल मध्यदेश अथवा ऊपरी गंगाघाटी क्षेत्र में स्थित है जो सतलज से गंगा नदी तक विस्तृत था, किन्तु इसका विस्तार अन्य क्षेत्रों में भी मिलता है । प्रमुख स्थल जिनकी खुदाई की गयी है- अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, अल्लाहपुर (मेरठ) मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, नोंह, काम्पिल्य आदि (उत्तरी भारत) नागदा तथा एरण (मध्य भारत) है ।
पूर्वी भारत में जिन स्थलों से ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों के साक्ष्य मिले है (जैसे पाण्डु राजार, ढिबि, महिशाल, सोनपुर, चिराण्ड आदि) उनके बाद के स्तर से लौह उपकरण भी मिल जाते हैं । दक्षिण में बृहत्पाषाणिक समाधियों के स्थल से लौह उपकरण मिलते हैं ।
इस प्रकार यह दिखाई देता है कि ई. पू. 1000-600 तक भारत के प्रायः सभी भागों में लोहे के अस्त्र-शस्त्रों और उपकरणों का प्रयोग बहुतायत में किया जाने लगा । हस्तिनापुर तथा अतरंजीखेड़ा की खुदाइयों में लौह धातुमल तथा भट्ठियाँ मिलती हैं जिनसे पता चलता है कि यहाँ के निवासी लोहे को गलाकर विविध आकार-प्रकार के उपकरण बनाने में भी निपुण थे ।
पहले लोहे से युद्ध सम्बन्धी अस्त्र-शस्त्र बनाये गये किन्तु बाद में कृषि सम्बन्धी उपकरणों हंसिया, खुरपी, फाल आदि का भी निर्माण किया जाने लगा। कृषि कार्य में लौह उपकरणों के प्रयोग से अधिकाधिक भूमि को खेती योग्य बनाया गया तथा उत्पादन भी प्रभूत होने लगा।
भारत में लोहे की प्राचीनता (Historical Background Iron in India):
सिन्धु घाटी की सभ्यता कांस्यकालीन है । इसके बाद भारत में लौह युग का प्रारम्भ होता है । भारत में लोहे की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये हमें साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों ही प्रमाणों से सहायता मिलती है । कुछ विद्वानों का मत है कि विश्व में सर्वप्रथम हित्ती नामक जाति, जो एशिया माइनर (टर्की) में ई. पू. 1800-1200 के लगभग शासन करती थी, ने ही लोहे का प्रयोग किया था ।
उनका एक शक्तिशाली साम्राज्य था । ई. प. 1200 के लगभग इस साम्राज्य का विघटन हुआ और इसके वाद ही विश्व के अन्य देशों में इस धातु का प्रचलन हुआ । अतः ई॰ पू॰ 1200 के पहले हम भारत में भी लोहे के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते है । किन्तु लोहे पर हित्ती एकाधिकार की बात अब तर्कसंगत नहीं प्रतीत होती ।
उल्लेखनीय है कि थाईलैंड में बानैची नामक की से साबूत संदर्भों में ढला हुआ लोहा मिलता है जिसकी तिथि ईसा पूर्व 1600-1200 के मध्य निर्धारित की गयी है । इस प्रमाण से लोहे पर हित्ती एकाधिकार की बात मिथ्या सिद्ध हो जाती है । पुनश्च: नोह (भरतपुर, राजस्थान) तथा इसके दोआब वाले क्षेत्र से लोहा कृष्ण लोहित (Black and Red Ware) के साथ मिलता है जिसकी संभावित तिथि ई॰ पू॰ 1400 के लगभग है ।
परियार के दसवें स्तर से भी कृष्णलोहित मृद्भाण्डों के साथ लोहे की एक भाले की नोंक Spear Head मिलती है । उज्जैन, विदिशा आदि की भी यही स्थिति है । भगवानपुरा (हरियाणा) में यह चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के साथ मिलता है जो उत्तर-हड़प्पाकालीन स्तर है । आलमगीरपुर तथा रोपड़ में भी यही स्थिति है ।
अथर्ववेद में “नील-लोहित” शब्द मिलता है । ए॰ घोषक ने स्पष्टतः बताया है कि इससे तात्पर्य कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड से ही है । अतः भारत में लोहे का प्रादुर्भाव कृष्णलोहित मृदभाण्डों के साथ हुआ न कि चित्रित धूसर मृद्भाण्डों के । भगवानपुरा के साक्ष्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लोहा ऋग्वैदिक काल में भी ज्ञात था ।
सुप्रसिद्ध पुराविद् ह्वीलर की मान्यता है कि भारत में सर्वप्रथम लोहे का प्रचलन ईरान के हखामनी शासकों द्वारा किया गया था । इसी प्रकार कुछ अन्य विद्वान यूनानियों को इसे लाने का श्रेय प्रदान करते है । किन्तु ये मत समीचीन नहीं लगते । स्वयं यूनानी साहित्य में इस वात का उल्लेख मिलता है कि भारतवासियों को सिकन्दर के पहले से ही लोहे का ज्ञान था और यहाँ के कारीगर लौह उपकरणों का निर्माण करने में कुशल थे ।
ऋग्वेद भी तीरों तथा भाले की नोकों एवं चर्म (कवच) का उल्लेख करता है । एक स्थल पर कवच तथा शत्रुओं से सुरक्षित लौह दुर्ग बनाने के लिये सोम का आह्वान किया गया है । ‘गालव’ नामक प्रसिद्ध ऋषि की चर्चा है जिसने पांचल नरेश दिवोदास को दशराज्ञ युद्ध में लोहे की तलवारें देकर सहायता की थी ।
कन्नौज नरेश अष्टक का उल्लेख है जिसने अपने पुत्र का नाम ‘लौही’ रखा था । यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम मितन्नियों तथा हित्तियों को लोहे का अविष्कर्त्ता सिद्ध करने के लिये उद्धरण देने में गर्व का अनुभव करते किन्तु अपने साहित्य में उपलब्ध सैकड़ों उद्धरणों की उपेक्षा करते हैं ।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त उत्तम कोटि के ताँबे तथा कांसे के उपकरण और गंगा घाटी से प्राप्त ताम्रनिधियों एवं गैरिक मृद्भाण्डों से स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन भारतीयों का तकनीकी ज्ञान अत्यन्त विकसित था। संभव है कि गंगाघाटी के ताम्रधातुकर्मी ही लोहे के अविष्कर्त्ता रहे हों क्योंकि लोहे की दो बड़ी निधिया माण्डी (हिमाचल) तथा नरनील (पंजाब) उत्तर भारत में ही स्थित है ।
अफ्रीका के समान भारत में भी ऐसी आदिम जनजातियां (उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश की अगरिया) निवास करती थीं जो देशी तकनीक से लोहा तैयार करती थीं तथा अपने द्वारा निर्मित बर्तनों का व्यापार करती थीं । इन समुदायों को लोहे का ज्ञान नियमित लौह युग के हजारों वर्ष पूर्व ही हो चुका था । मध्य तथा दक्षिणी भारत में लोहे की बहुलता को देखते हुए यही निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ लौह तकनीक-तंत्र का एक स्वतंत्र आरम्भिक केन्द्र था ।
अतः अब यह कहना युक्तिसंगत नहीं है कि भारत में लोहे का आगमन आर्यों के साथ हुआ जबकि उन्होंने लौह तकनीक-तंत्र पर हित्ती एकाधिकार को नष्ट कर दिया । यह बात इस तथ्य से भी पुष्ट होती है कि देश के उत्तरी-पश्चिमी तथा अन्तरिक भागों में लोहा साथ-साथ मिलता है । आद्यवैदिक काल से ईस्वी सन् के प्रारम्भ तक लोहे की उपलब्धता के निरन्तर प्रमाण मिलते हैं । उत्तरवैदिक कालीन साहित्य तो स्पष्टतः लौह धातु के व्यापक प्रचलन का संकेत देता है ।
सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल (ई॰ पू॰ 1000-600) के गन्थों में हमें इस धातु के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं । अथर्ववेद में ‘लोहायस्’ तथा ‘श्यामअयस’ शब्द मिलते हैं । वाजसनेयी संहिता में ‘लोह’ तथा ‘श्याम’ शब्द मिलते हैं । विद्वानों ने ‘लोह’ शब्द को ताँबे के अर्थ में तथा ‘श्याम’ शम को लोहे के अर्थ में ग्रहण किया है । इस प्रकार अथर्ववेद में उल्लिखित ‘शयामअयस’ से तात्पर्य लौह धातु से ही है ।
इसके याद ‘अयस्’ शब्द लोहे का ही पर्याय वन गया । काठक संहिता में चौबीस बेली द्वारा खींचे आने जाने वाले भारी हलों का उल्लेख मिलता है । इनमें अवश्य ही लोहे की फाल लगाई गयी होगी । अथर्ववेद भी लोहे से बने हुए फाल का उल्लेख करता है । इस प्रकार साहित्यक प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ईसा-पूर्व आठवीं शती में भारतीयों को लोहे का ज्ञान प्राप्त हो चुका था ।
लोहे की प्राचीनता सम्बन्धी साहित्यिक उल्लेखों की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से भी हो जाती है । अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, काम्पिल्य आदि स्थानों की खुदाईयों से लोह युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए है । इस काल के लोग एक विशिष्ट प्रकार के बर्तन का प्रयोग करते थे जिसे चित्रित धूसर भाण्ड (Painted Grey-Ware) कहा जाता है ।
इन स्थानों से लोहे के औजार तथा उपकरण, जैसे- भाला, तीर, वसुली, खुरपी, चाकू, कटार आदि मिलते हैं । अतरंजीखेड़ा की खुदाई में धातु-शोधन करने वाली भट्ठियों के अवशेष मिले है । इन साक्ष्यों से यह विदित होता है कि चित्रित धूसर भाण्डों के प्रयोक्ता लोहे का न केवल ज्ञान रखते थे अपित इसके विविध उपकरण भी बनाते थे ।
पुरातत्वविदों ने इस सस्कृति का समय ईसा पूर्व 1000 के लगभग निर्धारित किया है । पूर्वी भारत में सोनपुर, चिरांद आदि स्थानों की खुदाइयों से लोहे की बढ़िया, छेनी, कीले आदि मिली है जिनका समय आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है । इसी प्रकार मध्य भारत के एरण, नागदा, उज्जैन, कायथा आदि स्थानों की खुदाईयों से भी लौह उपकरण मिलते है ।
इनका समय भी ईसा पूर्व सातवीं-छठीं शती निर्धारित किया जाता है । दक्षिणी भारत के विभिन्न स्थानों से वृहत्पाषाणिक कब्रें (Megaliths) प्राप्त होती हैं । इस संस्कृति के लोग काले तथा लाल रंग के बर्तनों का प्रयोग करते थे । विद्वानों ने इस संस्कृति का समय ईसा पूर्व एक हजार से लेकर पहली शताब्दी ईस्वी तक निर्धारित किया है ।
इस प्रकार हम कह सकते है कि दक्षिण भारत के लोगों को लोहे का गान ईसा पूर्व एक हजार में हो गया था । उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत के विभिन्न भागों में लोहे का प्रचलन ईसा पूर्व एक हजार के लगभग हो गया था ।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि सर्वप्रथम दक्षिण भारत में इसका प्रचार हुआ तथा वहाँ लौह-संस्कृति का प्रारम्भ पाषाण काल के बाद हो गया । इसके विपरीत उत्तरी भारत में पाषाण काल के बाद पहले ताम्र, फिर कांस्य काल आया । इसके कई सौ वर्षो बाद लोहे का आविष्कार किया गया । लोहे के जान से लोगों के भौतिक जीवन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो गया ।
बुद्ध काल तक आते-आते पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी विहार में इसका व्यापक रूप से प्रयोग किया जाने लगा । लौह तकनीक के फलस्वरूप कृषि उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हो गयी । इस समय गंगा-घाटी में नगरीय क्रान्ति आई तथा बड़े-घड़े नगरों की स्थापना हुई । विद्वानों ने इसके पीछे लौह तकनीक को ही उत्तरदायी ठहराया है । मगध साम्राज्य के उत्कर्ष के पीछे भी इसी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
इस प्रकार विविध साक्ष्यों पर विचार करने के उपरान्त लोहे के भारतीय उत्पत्ति का सिद्धान्त अधिक तर्कसंगत लगता है तथा इसकी प्राचीनता ऋग्वैदिक काल तक ले जायी जा सकती है । किन्तु वास्तविक लौह युग का प्रारम्भ उस समय से हुआ जबकि मनुष्य ने इस धातु का प्रयोग जंगलों की कटाई कर भूमि को कृषि योग बनाने तथा बस्तियाँ बसाने के लिये करना प्रारम्भ कर दिया ।