भारत में सूफी आन्दोलन का प्रसार | Read this article to learn about the spread of Sufi Movement in India in Hindi.
मध्यकालीन आन्दोलनों में सूफी मत का उल्लेख करना भी आवश्यक है । सूफी मत इस्लाम के रहस्यवादी, उदारवादी तथा समन्वयवादी दर्शन की संज्ञा है । सूफियों ने कुरान की रहस्यवादी एवं उदार व्याख्या की जिसे तरीकत कहा गया । सूफी आन्दोलन का व्यवस्थित रूप अब्बासियों के खिलाफत युग में दिखायी पड़ता है ।
एक धर्म के रूप में सूफी मत का विकास ईसा की नवीं शती में हुआ । सूफीवाद में संसार की सभी प्रमुख धार्मिक विचारधाराओं को सम्मिलित किया गया । इस्लाम धर्म के अतिरिक्त इस धर्म पर हिन्दु वेदान्त, बौद्ध, यूनानी, ईसाई आदि मतों के सिद्धान्तों का भी समावेश किया गया था ।
सूफी मत भी दार-उल-हर्ब को दार-उल-इस्लाम में बदलना चाहता था । सिर्फ अन्तर इतना था कि सूफी परिवर्तन के लिए शान्तिपूर्ण एवं नैतिक साधनों का प्रयोग करना चाहते थे । सूफी सन्तों तथा फकीरों ने भी हिन्दु-मुस्लिम सामंजस्य स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया ।
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प्रत्येक सूफी को कुछ अवस्थाओं से गुजरना पड़ता था-उबूदियत, तरीकत (इश्क), मारिफात, हकीकत, फना (बका) । मुस्लिम रहस्यवाद का जन्म बहादातुल बुजूद (आत्मा-परमात्मा) की एकता के सिद्धान्त से हुआ । इसमें हक को परमात्मा और खल्क को सृष्टि माना गया है ।
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक शेख मुहीउद्दीन इब्नुल अरबी थे । फतुहात-ए-मक्किया ने इस विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया-ईश्वर के सिवा कुछ नहीं है, ईश्वर के सिवा वहाँ किसी का अस्तित्व नहीं हैं, यहाँ तक कि ‘वहाँ’ जैसा भी कुछ नहीं है, सभी चीजों का सार एक ही हैं । परमात्मा में लीन हो जाने के इस आदर्श को सूफी मारिफात या वस्ल कहते हैं ।
ईश्वर को निर्विकार एवं निर्विकल्प मानते हुए उसके साथ तादात्म स्थापित करने पर उन्होंने बल दिया । यह प्रेम के द्वारा ही सम्भव है । अहंभाव की समाप्ति ही साधक की सफलता का रहस्य है । इस मत के अनुसार मनुष्य को अपनी इच्छा-शक्ति का दमन कर अपने को पूर्णतया ईश्वर में समर्पित कर देना चाहिए ।
मनुष्य की इच्छायें जब समाप्त हो जाती हैं, तब वह ब्रह्म (अल्लाह) में मिल जाता है । इसे ‘अन-अल्हक’ अर्थात् ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ कहा गया है । यही सूफी दर्शन का चरम लक्ष्य है । सूफी सृष्टि के प्रत्येक कण में ईश्वर के रहस्य को देखते थे । इसी कारण उन्होंने सभी जीवों के साथ प्रेम एवं दया करने का उपदेश दिया ।
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सूफी मत में गुरू फिर का काफी महत्व था । शिष्य को मुरीद कहते थे । शिष्यता ग्रहण करते समय एक अनुष्ठान होता था जिसे ‘बैयत’ कहते थे । इसमें शिष्य अपना सिर मुड़वाते थे । यह भारतीय परम्परा के अनुकूल थी । इस अनुष्ठान में सूफी जमाल और हस्त की बात करते थे । सूफियों ने भी मोक्ष की परिकल्पना की थी ।
मनुष्य के पार्थिव अस्तित्व के अन्त को फना कहा गया है । जिसमें ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्थक हो जाने पर मनुष्य उसमें एकाकार हो जाता था । जब अस्तित्व अनन्तावस्था को प्राप्त कर लेता था उसे वका कहते थे । सूफियों के मुख्यतः दो उद्देश्य थे- आध्यात्मिक उन्नति और मानवता की सेवा ।
सूफियों ने अपने आदर्शों, शब्दों तथा आचरण से एक नैतिक मानक प्रस्तुत किया । उन्होंने अन्ध-विश्वास तथा धर्म और भक्ति के बीच के अन्तर को दूर करने का प्रयास किया । उन्होंने उपदेश दिये तथा उसके अनुसार व्यवहार करने के आवश्यकता पर बल दिया ।
सूफी सन्तों ने सूफी मत को आजीविका का साधन नहीं बनाया । उन्होंने जीविकोपार्जन के महत्व पर बल दिया । कुछ सन्तों ने अपने अहम को कुचलने के लिए भिक्षावृत्ति करना पसन्द किया । इससे उन्होंने यह भी अनुभव किया कि प्रत्येक वस्तु ईश्वर की है और व्यक्ति उसके अभिरक्षक मात्र होते है।
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आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए ब्रह्मचर्य और संसार के पूर्ण त्याग पर उन्होंने जोर नहीं दिया । विवाह और गृहस्थ जीवन से उन्हें घृणा नहीं थी । विशिष्ट भौतिकतावादी दृष्टिकोण पसन्द नहीं किया जाता था, लेकिन जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करना आवश्यक माना जाता था ।
भारत में विशेषकर चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिलों के सूफियों ने ईश्वर के आराधना के रूप में समा और रक्स (संगीत और नृत्य) को अपनाया । उन्होंने किसी प्रकार के मनोरंजनपूर्ण संगीत का आश्रय नहीं लिया । मजलिस-ए-समा, मजलिस-ए-तराव या संगीतमय मनोरंजन से पूर्णतया भिन्न था सूफियों के लिए संगीत किसी लक्ष्य का एकमात्र साधन था । समा से उनकी आध्यात्मिक शक्ति सजीव हो उठती थी तथा उनके व ईश्वर के बीच का पर्दा उठ जाता था जिससे उन्हें भाव प्रवण तन्मयता की चरमावस्था प्राप्त करने में मदद मिलती थी ।
भारत में सूफी विचार का प्रसार:
भारत में सूफीवाद का प्रवेश अरबों की सिन्ध विजय के बाद हुआ । महमूद गजनवी के समय भारत में शेख अली हुज्वीरी आये, जिन्होंने लाहौर को अपना केन्द बनाया और ऊंशकुल लुक, नामक ग्रन्थ की रचना की । भारत में सूफियों के कई सम्प्रदाय थे और 16वीं सदी के उत्तरार्ध में अबुल-फजल ने 14 सिलसिलों का उल्लेख किया है । इनमें चिश्तिया, सुहरावर्दिया, नक्शबंदिया, कादिरी, कलंदरिया और शत्तारिया सम्प्रदाय महत्वपूर्ण है । इन्हीं सम्प्रदायों को सिलसिला कहा जाता है । इनमें चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिले भारत में ज्यादा लोकप्रिय थे ।
कुछ प्रमुख सिलसिले इस प्रकार है:
1. चिश्ती सिलसिला:
इसकी स्थापना खुरासान में अबू इशाक ने किया । भारत में चिश्तिया सम्प्रदाय के प्रथम संत शेख उस्मान के शिष्य शेख मुईनुद्दीन चिश्ती थे उनकी जब अजमेर में है और जनसाधारण इनको ख्वाजा के नाम से जानता था । ख्वाजा वेदान्त दर्शन व संगीत से काफी प्रभावित थे । हिन्दुओं के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते थे ।
ख्वाजा का कहना था कि जब वाह्य बन्धनों को पार कर जाते हैं और चारों और देखते हैं तो प्रेमी-प्रेमिका स्टैर स्वयं प्रेम एक ही लगते है, अर्थात एकेश्वर के समक्ष वे सभी एक है । इनके शिष्यों में शेख हमीउद्दीन और शेख बख्तियार काकी काफी लोकप्रिय थे ।
शेख हमीउद्दीन को ख्वाजा ने ‘सुल्लान तारीकिन’ की उपाधि प्रदान की थी शेख हमीउद्दीन गैर-मुसलमानों के अध्यात्मिक गुणों को भी पहचान लेते थे और उनकी कद करते थे । कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का जन्म भारत में हुआ था । वे पहले मुल्लान में बसे, फिर इल्तुतमिश के समय दिल्ली आ गये ।
उन्होंने ‘शेख-उल-इस्लाम’ का पद ठुकरा दिया । बाद में माजमुद्दीन सुगरा (शेख-उल-इस्लाम) से सम्बन्ध बिगड़ जाने पर अजमेर जाने का फैसला किया । शेख कुतुबुद्दीन रहस्यवादी गीतों के बड़े प्रेमी थे । इनके शिष्यों में शेख फरीदुद्दीन मसूद गज-ए-शिकार अधिक प्रसिद्ध है । इन्हीं के प्रयासों से चिश्तिया सिलसिला एक अखिल रूप धारण किया ।
इनको जनसाधारण में शेख फरीद या बाबा फरीद के नाम से जाना गया । ये गुरुनानक से काफी प्रभावित थे । शेख निजामुद्दीन औलिया शेख फरीद के सर्वाधिक प्रसिद्ध शिष्य थे । अजोधान में औलिया शेख फरीद के शिष्य बने थे ।
शेख निजामुद्दीन ने अपने द्वार शिष्यों के लिए खोल दिये और उन्होंने अमीरों तथा सामान्य व्यक्तियों, धनी तथा निर्धनों, निरक्षरों, शहरियों और देहातियों, सैनिकों तथा योद्धाओं, स्वतंत्र व्यक्तियों तथा गुलामों को अंगीकार कर लिया था ।
निजामुद्दीन औलिया ने दिल्ली के सात सुल्तानों के राज्यकाल देखे । गयासुद्दीन तुगलक से इनकी नहीं पटती थी । इस शासक न 53 उलेमाओं के अदालत में मुकदमा चलाया था कि वे वर्जित संगीत गोष्ठियों में भाग लेते थे । परन्तु शेख वरी हो गये ।
सुल्तान गयासुद्दीन ने बंगाल अभियान के समय शेख को एक पत्र लिखा था जिसके प्रत्युत्तर में शेख निजामुद्दीन ने कहा कि ”हनोज दिल्ली दूर अस्त” । संयोगवश एक घटना में सुल्तान दिल्ली के बाहर ही मर गया । शेख निजामुद्दीन को ‘महबूवे इलाही’ के नाम से भी जाना गया । शेख निजामुद्दीन एकमात्र अविवाहित चिश्ती सूफी संत थे ।
निजामुद्दीन औलिया के बाद शेख नासिरुद्दीन चिराग और सलीम चिश्ती ही प्रसिद्ध चिश्ती मत हुए । इनमें भी शेख चिराग को ही अखिल भारतीय प्रसिद्धि मिली । शेख चिराग को कुतुबुद्दीन मुबारक शाह तथा मुहम्मद बिन तुगलक के कारण कुछ समस्याओं का सामना भी करना पड़ा शेख सलीम चिश्ती को अकबर शेखू बाबा कहता था ।
चिश्ती सम्प्रदाय के गेसूदराज ने गुलबर्गा को केन्द्र बनाकर दक्कन में प्रचार किया । चिश्ती सम्प्रदाय के संत सादगी और निर्धनता में आस्था रखते थे । वे व्यक्तिगत सम्पत्ति को अपने अध्यात्मिक जीवन के विकास मैं बाधक मानते थे । वे फूतूह तथा नजुर (बिना माँगे हुए प्राप्त धन और भेंट) पर अपना निर्वाह करते थे ।
कहा जाता है कि शेख फरीद गज-ए-शिकार भूखों मरते थे, पर किसी से भोजन व धन नहीं माँगते थे । चिश्ती सूफी संत निम्न इच्छाओं के दमन के लिए उपवास किया करते थे । उनके वस्त्र भी निम्न स्तर के होते थे । अधिकांश सूफी संतों के गृहस्थ जीवन सुखमय होते थे लेकिन निजामुद्दीन औलिया आजीवन अविवाहित रहे ।
चिश्तियों के सिद्धान्त कुछ इस प्रकार थे:
कर्मकाण्डों का विरोध करना,
जनकल्याण पर पूरा ध्यान देना,
राजनीति में दूर रहना ।
इस्लाम में पूर्ण अस्था रखते हुए सर्वधर्म समभाव पर समान रूप से बल देना,
निम्न वर्गों के प्रति ज्यादा सक्रियता ।
संगीत समारोह का अयोजन करना तथा उनमें भाग लेना ।
2. सुहरावर्दी सिलसिला:
यह सम्प्रदाय भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्र में अधिक प्रचलित था । शेख शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी इस सम्प्रदाय के प्रणेता थे । उनके शिष्यों में शेख हमीदुद्दीन नागौरी और मुल्लान के शेख बहाउद्दीन जकारिया विशेष प्रसिद्ध थे । भारत में इस सिलसिला को संगठित करने का श्रेय बहाउद्दीन जकारिया को है ।
सभी सूफी संतों में जकारिया अधिक धनी थे । इन्होंने चिश्ती सिलसिला द्वारा अपनायी गयी रीति-रिवाजों का त्याग कर दिया । जकरिया को धन इकट्ठा करने से नफरत थी । वे राजनीतिक मसलों में भी भाग लेते थे । बहाउद्दीन के पुत्र सहरुद्दीन आरिफ मुल्तान में तथा शिष्य सैयद जलालुद्दीन खुर्श बुखारी सिन्ध में सक्रिय थे । सुहरावर्दी सम्प्रदाय का सामाजिक आधार उच्च वर्ग था ।
ये सुहरावर्दी धर्म परिवर्तन पर जोर देते थे । सुहरावर्दी सूफी सम्प्रदाय की एक प्रमुख शाखा फिरदीसिया थी । इसका मुख्य कार्य क्षेत्र बिहार था और शेख शर्फुदृनि यह्मा इसके प्रसिद्ध विद्वान थे । इन्होंने काफी पत्र छोड़े है जिनको ‘बात’ के नाम से जाना जाता है । शेख शर्फुद्दीन विद्वान और विचारक होने के साथ-साथ सक्रिय पथ-प्रदर्शक भी थे और मानवता की सेवा पर जोर देते थे ।
3. कादिरी सिलसिला:
कादिरी सम्प्रदाय की स्थापना बगदाद के शेख अब्दुल कादिर जिलानी ने 12वीं सदी में की थी । भारत में इस सम्प्रदाय के पहले संत शाह नियामत उल्ला और नासिरुद्दीन महमूद जिलानी थे । शेख अब्दुल जाकिर फतेहपुर सीकरी के दीवान-ए-आम में नमाज पढ़ते थे जिस पर अकबर ने विरोध किया तो शेख ने उत्तर दिया- ”मेरे बादशाह, यह आपका साम्राज्य नहीं है कि आप आदेश दें ।” शाहजहाँ का ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह कादिरी सूफी सम्प्रदाय का अनुयायी बन गया था और ‘मियां मीर’ से लाहौर में मुलाकात की थी । बाद में दाराशिकोह मुल्लाशाह बदख्शी का शिष्य बन गया ।
4. नक्सबंदी सम्प्रदाय:
इस सिलसिला की स्थापना 14वीं सदी में ख्वाजा वहाउद्दीन नक्शबंद ने की थी किन्तु भारत में इसका प्रचार ख्वाजा बकी बिल्लाह (1563-1603 ई.) ने किया था । य लोग सनातन इस्लाम में आस्था रखते थे और पैगम्बर द्वारा प्रतिपादित नियमों का ही पालन करते थे ।
यह सिलसिला धर्म में परिवर्तनों का पूर्ण रूप से विरोधी था । ख्वाजा बकी विल्लाह के शिष्यों में शेख अहमद सरहिन्दी प्रमुख थे जिनको मुजहीद के नाम से भी जाना जाता था । उन्होंने बहादतुल बुजूद के सिद्धान्त के जगह पर बहादतुल शुहूद (प्रत्यक्षवाद) का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, शेख सरहिन्दी का कहना था कि ”मनुष्य और ईश्वर में सम्बन्ध स्वामी और सेवक का है, प्रेमी और प्रेमिका का नहीं”।
शेख अहमद सरहिन्दी के पत्रों का संकलन मक्यूवाद-ए-रब्बानी के नाम से प्रसिद्ध है । उन्होंने शिया सम्प्रदाय तथा दीन-इलाही की आलोचना किया । मुगल शासक जहांगीर भी इनका शिष्य था । कट्टरवादी औरंगजेब इनके पुत्र ‘शेख मासूम’ का शिष्य बन गया । नक्वावदी सम्प्रदाय के दूसरे महासन्त दिल्ली के वहीदुल्ला (1707-62 ई.) थे ।
इन्होंने बहादतुल बुजूद और वहादतुल शुहूद के दोनों सिद्धान्तों को एक दूसरे में समन्वित कर दिया । इन्होंने कहा कि इन दोनों सिद्धान्तों में कोई अन्तर नहीं है, इस शाखा के अंतिम विख्यात संत ‘ख्व्जा मीर दर्द’ थे । मीर दर्द ने एक अपना मत चलाया जिसे ‘इल्मे इलाही मुहम्मद’ कहते थे । मीर दर्द उर्दू और फारसी के अच्छे कवि भी थे ।
इन सिलसिलों के अतिरिक्त शत्तारिया शाखा, कलन्दारिया शाखा और मदारिया शाखा का नाम लिया जा सकता है । शत्तारिया शाखाके प्रवर्तक शेख अब्दुल्ला शत्तार थे । इस शाखा के दूसरे सन्त शाह मुहम्मद गौस थे । इनके दो प्रसिद्ध ग्रन्थ थे जवाहिर-ए-खस्मा और अवरार-ए-गौसिया ।
इस शाखा के अन्तिम प्रसिद्ध संत शाह वजीउद्दीन थे । कलदरिया शाखा के सर्वप्रथम सत अबल अजीज पक्की को माना जाता है । इनके शिष्य खिज्ररूमी कलंदर खपरादरी थे । इनके वजह से चिश्तिया-कलंदरिंगा उपशाखा का जन्म हुआ तथा सैय्यद नजमुद्दीन कलंदर ने इस शाखा का खुब प्रचार किया ।
इस शाखा के अन्तिम महान सन्त कुतुबुद्दीन कलंदर हुए जिन्हें सरंदाज की संज्ञा दी गयी थी । मुंडित केश को भी इसी शाखा का सत माना जाता है । इसके अतिरिक्त मदारिया शाखा भी मिलती है जिसके प्रवर्तक शेख बदीउद्दीनशाह मदार थे ।
5. सिन्ध में नव-सूफीवाद:
सिन्ध भी नव-सूफीवाद का महान केन्द्र था । यहाँ बहुत से सूफी सत पैदा हुये । रहस्यवाद की शुरुआत शाह करीम ने लगभग 1600 ई. में की जिन्हें धार्मिक प्रेरणा अहमदाबाद के पास एक वैष्णव सन्त से मिली जिसने ॐ के रहस्यों से उनका परिचय कराया ।
दूसरे उल्लेखनीय रहस्यवादी शाह इनायत थे जिनका कहना था कि ईश्वर किसी विशिष्ट सम्प्रदाय की सम्पत्ति नहीं है । सिन्ध के सूफी संतों में शाह लतीफ का स्थान सबसे ऊंचा है । वे महान कवि और गायक और उनके गीत अभी भी गाये जाते है । इसके अलावा आज भी सूफी रहस्यवादी कवियों बेदिल और बेकस के लिखे गीत सिंधी समाज में लोकप्रिय हैं ।
सूफी सन्त बुल्ले शाह सिन्ध के सबसे प्रिय कवि है । वे कुरान और अन्य सभी धर्मग्रन्थों के भयंकर आलोचक थे । उनका कथन है ‘आपको ईश्वर न तो मस्जिद में न ही काबा में, न कुरान और अन्य पवित्र अन्यों में न ही औपचारिक प्रार्थना में मिलेगा । बुल्ला तुम्हें मुक्ति न तो मक्का में, न ही गंगा में मिलेगी, तुम्हें मुक्ति केवल उसी समय मिलेगी जब तुम अपना अहंकार छोड़ दोगे ।’
सूफी मत पर हिन्दू प्रभाव:
अलबरूनी के अनुसार आत्मा के बारे में सूफी सिद्धान्त पंतजलि के योगसूत्र के सिद्धान्तों की ही भाँति है । सूफी रचनाओं में यह विचार अभिव्यक्त किया गया कि प्रतिदान प्राप्त करने के उद्देश्य से शरीर आत्मा का मूर्तरूप होता है । अलबरूनी ने भी आत्म विनाश के रूप में दैवी प्रेम के सूफी सिद्धान्त की पहचान भगवद्गीता के समानान्तर अनुच्छेदों से की है ।
हठयोग की पुस्तक अमृतकुण्ड का सूफीमत पर स्थायी प्रभाव पड़ा । यौगिक मुद्राएं तथा प्राणायाम चिश्तिया सूफी पद्धति का एक अभिन्न अंग बन गया । बहादतुल बुजूद के सूफी सिद्धान्त तथा योगियों के सिद्धान्त में समानता थी । शेख हमीदुद्दीन नागोरी के हिन्दी पदों से भी योग का प्रभाव झलकता है ।
चिश्तिया शेख अब्दुल कुदूस गंगोही का उपनाम अलख (अगोचर) था । उनका कथन है कि अगोचर भगवान (अलख निरंजन अदृश्य है लेकिन जो उसे देखने योग्य है वे अपने आप को खो देते है, शेख ने अलख निरंजन की पहचान ईश्वर, खुदा में की है ।
बिलग्राम (जिला-हरदोई उत्तरप्रदेश) के अब्दुल वाहिद का उद्देश्य चिश्तियों द्वारा परमानन्द की प्राप्ति के लिए वैष्णव भावों से युक्त हिन्दी कविताओं के गायन के प्रति विरोध को समाप्त करना था । मीर अदल वाहिद ने अपनी ग्रंथ हकैक-ए-हिन्दी में कृष्ण राधा, गोपी, ब्रज, गोकुल, यमुना, गंगा, मथुरा तथा बंशी जैसे कृष्ण कथा के रूपकों के लिए इस्लामी पर्याय देकर इस पद्धति को उचित ठहराने का प्रयास किया ।
कुछ सूफी सन्त धर्मोपदेश देते समय हिन्दी कविताओं और काव्यों के पद्यांशों के उद्धरण भी प्रस्तुत करते थे । बदायूँनी का कहना है कि मखदूम शेख तकीउद्दीन वैज रब्बानी, तो मुल्ला दाऊद द्वारा लौरिक एवं चंदा के प्रणय प्रसंग पर रचित उनके प्रसिद्ध काव्य चाँदियान् के पद्यांशों का उद्धरण प्रस्तुत किया करते थे ।
मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी हिन्दी कविताओं मृगावती, मधुमालती, मानसात आदि में न केवल हिन्दू-देवताओं का उल्लेख किया है बल्कि वेदान्त दर्शन, योग, नाथ सम्प्रदाय के विचारधारा आदि का प्रभाव भी दिखाया है ।