अलग-अलग राज्यों में राजपूतों द्वारा निर्मित मंदिरों की सूची | List of Temples Build by Rajputs in Different States.
राजपूत शासक बड़े उत्साही निर्माता थे । अतः इस काल में अनेक भव्य मन्दिर, मूर्तियों एवं सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया गया । राजपूतकालीन मन्दिरों के भव्य नमूने भुवनेश्वर, खजुराहो, आबू पर्वत (राजस्थान) तथा गुजरात से प्राप्त होते हैं ।
इनका विवरण इस प्रकार है:
(1) उड़ीसा के मन्दिर (Temples of Odisha):
नागर शैली का विकास अधिकतम निखरे रूप में उड़िसा के मन्दिरों में दिखाई देता है । यहाँ आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ । पहाड़ियों से घिरा होने के कारण यह प्रदेश अधिकांशतः विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा और यही कारण है कि यहां पर निर्मित कुछ श्रेष्ठ मन्दिर आज भी बचे हुए है ।
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उड़ीसा के मन्दिर मुख्यतः भुवनेश्वर, पुरी तथा कोणार्क ये है जिनका निर्माण 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच हुआ । भुवनेश्वर के मन्दिरों के मुख्य भाग के सम्मुख चौकोर कक्ष बनाया गया है । इसे ‘जगमोहन’ (मुखमण्डप अथवा सभामण्डप) कहा जाता है । यहां उपासक एकत्रित होकर पूजा-अर्जना करते थे ।
जगमोहन का शीर्ष भाग पिरामिडाकार होता था । इनके भीतरी भाग सादे है किन्तु बाहरी भाग को अनेक प्रकार की प्रतिमाओं तथा अलंकरणों से सजाया गया है । गर्भगृह की संज्ञा ‘देउल’ थी । बड़े मन्दिरों में जगमोहन के आगे एक या दो मण्डप और बनाये जाते थे जिन्हें नटमन्दिर तथा भोगमंदिर कहते थे ।
शैली की दृष्टि से उड़ीसा के मन्दिर तीन श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते है:
i. रेखा देउल- इसमें शिखर ऊँचे बनाये गये हैं ।
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ii. पिढ़ा देउल- इसमें शिखर क्षितिजाकार पिरामिड प्रकार के है ।
iii. खाखर (खाखह)- इसमें गर्भगृह दीर्घाकार आयतनुमा होता है तथा छत गजपृष्ठाकार बनती है ।
मन्दिरों में स्तम्भों का बहुत कम प्रयोग किया गया है । इनके स्थान पर लोहे की शहतीरों का प्रयोग मिलता है । यह एक आश्चर्यजनक तथा प्राविधिक अविष्कार था । मन्दिरों की भीतरी दीवारों पर खजुराहो के मन्दिरों जैसा अलंकरण प्राप्त नहीं होता है ।
उड़ीसा के प्रारम्भिक मन्दिरों में भुवनेश्वर के परशुरामेश्वर मन्दिर का उल्लेख किया जा सकता है जिसका निर्माण ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी के लगभग हुआ । यह बहुत बड़ा नहीं है तथा इसकी कुल ऊँचाई 20 फुट है । गर्भगृह 20 फुट के धरातल पर बना है ।
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बड़ी-बड़ी पाषाण शिलाओं को एक दूसरे पर रखकर बिना किसी जुड़ाई के इसे बनाया गया है । गर्भगृह के सामने लम्बा आयताकार मुखमण्डप है । इसके ऊपर ढलुआं छत है । मुखमण्डप में तीन द्वार बने हैं । गर्भगृह तथा मुखमण्डप में भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं ।
परशुरामेश्वर मन्दिर के पास ही मुक्तेश्वर नामक एक छोटा सा मन्दिर है । मन्दिर एक नीची कुर्सी पर बना है । गर्भगृह के ऊपर शिकर बड़ी सावधानी के साथ गोलाई में ढाला गया है । मन्दिर के बाहरी भाग को व्यापक रूप से किया गया है । मुखमण्डप के ऊपर कलश है तथा छत के सामने के कोणों पर सिंह की सुन्दर मूर्तियाँ बैठाई गयी हैं ।
प्रवेश द्वार पर एक भव्य तोरण है जो उड़ीसा के किसी अन्य मन्दिर में देखने को नहीं मिलता । अर्धगोलाकार इस तोरण का निर्माण क्रमशः ऊपर उठते हुए कई खण्डों में किया गया है । शीर्ष पर दो नारी मूर्तियाँ है । ये दोनों प्रारम्भिक स्तर के मन्दिर हैं । इनके बाद निर्मित मन्दिर अपेक्षाकृत विशाल आकार-प्रकार के हैं ।
इनमें भुवनेश्वर के तीन मन्दिरों- सिद्धेश्वर, केदारेश्वर, ब्रह्मेश्वर तथा राजारानी मन्दिर का उल्लेख किया जा सकता है । भुवनेश्वर के मन्दिरों में ‘लिंगराज मन्दिर’ उड़ीसा शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है । इसका निर्माण दसवीं-ग्यारहवीं शती में हुआ था ।
मन्दिर ऊँची दीवारों से घिरे एक विशाल प्रांगण (520’x465’) के बीच स्थित है । पूर्वी दीवार के बीच एक विशाल प्रवेश-द्वार है जिसके चारों ओर कई छोटे-छोटे मन्दिर बने हुए है । इन सबमें लिंगराज का विशाल मन्दिर उत्कृष्ट है । इसमें चार विशाल कक्ष हैं- देउल, जगमोहन, नटमण्डप तथा भोगमण्डप । इन्हें एक ही सीध एवं पंक्ति में बनाया गया है ।
मुख्य कक्ष (देउल या गर्भगृह) के ऊपर अत्यन्त ऊँचा शिखर बनाया गया है । इसकी गोलाकार चोटी के ऊपर पत्थर का आमलक तथा कलश रखा गया है । इस मन्दिर का शिखर अपने पूर्ण रूप में सुरक्षित है । यह लगभग 160 फुट ऊँचा है तथा इसके चारों कोनों पर दो पिच्छासिंह है ।
शिखर के बीच ये ऐसी कटान है जो बाहरी दीवार में ताम्र बना देती है । उसमें सुन्दर आकृतियाँ बनी हुई दिखाई देती है । सबसे ऊपर त्रिशूल स्थापित किया गया है । मन्दिर का मुखमण्डप (जगमोहन) भी काफी सुन्दर है । इसकी ऊँचाई सौ फुट के लगभग है ।
अलंकरण योजना गर्भगृह के ही समान है । नटमण्डप तथा भोगमण्डप को कालान्तर में निर्मित कर जगमोहन से जोड़ दिया गया । यह जुड़ाई इतनी बारीकी से की गयी है कि ये जगमोहन की बनावट से अलग नहीं लगते ।
उड़ीसा शैली के मन्दिरों की भीतरी दीवार सादी तथा अलंकरण रहित है । प्रत्येक मण्डप में चार स्तम्भ ऊपरी भार को सम्हाले हुए हैं । किन्तु मन्दिर की बाहरी दीवारों पर शृंगारिक दृश्यों का अंकन है जिनमें कुछ अत्यन्त अश्लीलता की कोटि में आते है ।
लिंगराज मन्दिर उड़ीसा शैली के प्रौढ़ मन्दिरों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है । लिंगराज मन्दिर के ही अनुकरण पर बना भुवनेश्वर का अनन्तवासुदेव मन्दिर है जो यहाँ का एकमात्र वैष्णव मन्दिर है । भुवनेश्वर में कुल आठ हजार मन्दिर थे जिनमें पाँच सौ की संख्या अब भी वर्तमान है । सभी में लिंगराज, गौरव तथा विशिष्टता की दृष्टि से अनुपम है ।
लिंगराज मन्दिर के अतिरिक्त पुरी का जगन्नाथ मन्दिर तथा कोणार्क स्थित सूर्य-मन्दिर भी उड़ीसा शैली के श्रेष्ठ उदाहरण है । जगन्नाथ मन्दिर दोहरी दीवारों वाले प्रांगण में स्थित है । चारों दिशाओं में चार विशाल द्वार बने है ।
मन्दिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर स्थित है तथा उसके सामने स्तम्भ है । मन्दिर की 400×350 वर्ग फुट की परिधि में छोटे-छोटे कई मन्दिर बनाये गये है । पुरी का जगन्नाथ मन्दिर हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ स्थलों में गिना जाता है ।
पुरी से लगभग बीस मील की दूरी पर स्थित कोणार्क का सूर्य मन्दिर वास्तु कला की एक अनुपम रचना है । इसका निर्माण गंगवंशी शासक नरसिंह प्रथम (1238-64 ई.) ने करवाया था । एक आयाताकार प्रांगण में यह मन्दिर रथ के आकार पर बनाया गया है ।
इसका विशाल प्रांगण 865’x540′ के आकार का है । गर्भगृह तथा मुखमण्डप को इस तरह नियोजित किया गया है कि वे सूर्यरथ प्रतीत होते है । नीचे एक बहुत ऊँची कुर्सी है जिस पर सुन्दर अलंकरण मिलते है । उसके नीचे चारों ओर गज पंक्तियाँ उत्कीर्ण की गयी है । यह उकेरी अत्यन्त सूक्ष्मता एवं कुशलता के साथ हुई है । हाथियों की पंक्ति के ऊपर कुर्सी की चौड़ी पट्टी है जिसके अगल-बगल पहिये बनाये गये है ।
इन पर भी सूक्ष्म ढंग से अलंकरण हुआ है । इसी के ऊपर गर्भगृह तथा मुखमण्डप अवस्थित है । गर्भगृह के उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दीवारों में बने हुए ताखों में सूर्य की मूर्तियाँ है । मुखमण्डप तीन सल्ली वाला है तथा इसकी छतें तिरछी तिकोने आकार की है । प्रत्येक तल के मध्य भाग को मूर्तियों से अलंकृत किया गया है ।
मन्दिर का शिखर 225′ ऊँचा था जो कुछ समय पूर्व गिर गया इसका बड़ा सभाभवन आज भी सुरक्षित है । सभाभवन तथा शिखर का निर्माण एक चौड़ी तथा ऊँची चौकी पर हुआ जिसके चारों ओर बारह पहिये बनाये गये है । प्रवेशद्वार पर जाने के लिये सीढ़ियाँ बनायी गयी है ।
इसके दोनों ओर उछलती हुई अश्व प्रतिमायें उस रथ का आभास करती है जिन पर चढ़कर भगवान सूर्य आकाश में विचरण करते है । मन्दिर के बाहरी भाग पर विविध प्रकार की प्रतिमायें उत्कीर्ण की गयी है । प्रतिमायें रथ के पहियों पर भी उत्कीर्ण हैं । कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अश्लील हैं जिन पर तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव माना जा सकता है । संभोग तथा सौंदर्य का मुक्त प्रदर्शन यहाँ दिखाई देता है ।
अनेक मूर्तियों के सुस्पष्ट शृंगारिक चित्रण के कारण इस मन्दिर को ‘काला पगोडा’ कहा गया है । बारह राशियों के प्रतीक इस मन्दिर के आधारभूत बारह महाचक्र हैं तथा सूर्य के सात अश्वों के प्रतीक रूप में यहाँ सात अश्व प्रतिमायें बनाई गयी थीं ।
(2) गुजरात तथा राजस्थान के मन्दिर (Temples of Gujarat and Rajasthan):
प्रतिहार शासकों के निर्माण कार्यों का कुछ संकेत उनके लेखों में हुआ है । वाउक की जोधपुर प्रशस्ति से पता चलता है कि उसने वहाँ सिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर बनवाया था । इसी प्रकार मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से सूचित होता है कि उसने अपने अन्तपुर में भगवान विष्णु के मन्दिर का निर्माण करवाया था । इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि प्रतिहार शासकों की निर्माण कार्यों में गहरी अभिरुचि थी ।
गुप्तोत्तर काल (आठवीं शती में राजस्थान) वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध रहा । मन्दिरों तथा भवनों के अवशेष जोधपुर के उत्तर-पश्चिम में 56 किलोमीटर दूरी पर स्थित ओसिया नामक स्थान से प्राप्त होते हैं । प्राचीन मन्दिरों में शिव, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा, अर्धनारीश्वर, हरिहर, नवग्रह, कृष्ण तथा महिषमर्दिनी दुर्गा के मन्दिर उल्लेखनीय हैं । इन पर गुप्त स्थापत्य का प्रभाव है ।
ओसिया के मन्दिरों की दो कोटियां दिखाई देती है । प्रथम कोटि के मन्दिर जिनकी संख्या लगभग बारह है आठवीं-नवीं शती में बनवाये गये थे । इनमें शिखरों का विकास दिखाई पड़ता है तथा स्थानीय लक्षणों का अभाव है । दूसरी कोटि के मन्दिरों में स्थानीय विशेषतायें मुखर हो गयी है ।
प्रत्येक का आकार एक दूसरे से भिन्न है अर्थात् किन्हीं दो मन्दिरों में परस्पर समानता नहीं है । इसके निर्माण में मौलिकता है । तीन हरिहर मन्दिर आकार तथा अलंकरण की दृष्टि से सुन्दर है । दो पन्चायतन शैली थे बने हैं । इनके शीर्ष पर आमलक बना हुआ है ।
नागभट्ट द्वितीय के समय झालरपाटन मन्दिर का निर्माण हुआ । इसी प्रकार ओसिया ग्राम के भीतर तीर्थड्कर महावीर का एक सुन्दर मन्दिर है जिरो वत्सराज के समय (770-800 ई.) में बनवाया गया था । यह परकोटे के भीतर स्थित है । इसमें भव्य तोरण लगे है तथा स्तम्भों पर तीर्थड्करों की प्रतिमायें खुदी हुई है ।
ओसिया के मन्दिर यद्यपि छोटे हैं, फिर भी उनकी बनावट की स्पष्टता एवं अनुपात में आदर्श है । उनके शिखर उड़ीसा के प्रारम्भिक मन्दिरों के शिखर जैसे है । स्तम्भों के निचले भाग पर ढलुआं पीठासन है तथा इनके प्रत्येक भाग पर बारीक एवं सुन्दर नक्काशी की गयी है । गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर की गयी संगतराशी में सरलता एवं नवीनता दिखाई देती है ।
ओसिया के मन्दिरों में सूर्य मन्दिर सर्वाधिक उल्लेखनीय है । इस मन्दिर की प्रमुख विशेषता इसके अग्रभाग में है । यह भी पन्चायतन प्रकार का है । मुख्य मन्दिर के चारों ओर छोटे मन्दिर हैं जिन्हें जोड़ते हुए अन्तराल बनाये गये है । शिखर का आकार तथा अलंकरण प्रशंसनीय है ।
स्तम्भों के आधार तथा शीर्ष पर मंगलकलश स्थापित है । यह ओसिया के मन्दिरों का सिरमौर माना जाता है तथा अपनी भव्यता के लिये प्रसिद्ध है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह शिव को समर्पित था क्योंकि इसका ललाट बिम्ब ‘उमामाहेश्वर’ के रूप में है ।
ओसिया के बाद के मन्दिरों में सचिय माता तथा पिपला माता के मन्दिरों का उल्लेख किया जा सकता है जिनमें राजपूताना शैली का क्रमिक विकास दिखाई देता है । सचिय माता को ही लेखों में ‘सच्चिका देवी’ कहा गया है जो महिषमर्दिनी देवी का एक रूप है । मन्दिर के केंद्रीय मण्डप में अष्ठकोणीय स्तम्भ है जो गुम्बदाकार छत का भार वहन करते है । पिपला माता मन्दिर में तीस स्तम्भ है ।
ओसिया मन्दिरों का प्रवेश द्वार अति गर्भगृह में खुलता था । अतः कलाकारों ने उसकी नक्काशी पर विशेष ध्यान दिया । गर्भगृह के द्वार पर प्रतीक मूर्तियाँ तथा पौराणिक कथायें उत्कीर्ण है । द्वार के ऊपरी चौखट पर नवग्रह (रवि, चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु) की आकृतियाँ हुई है ।
दोनों पार्श्व चौखटों के ऊपरी कोने में गंगा-यमुना की आकृतियाँ बनाई गयी है जो गुप्तकाल से किंचित भिन्न हैं । ऐसा लगता है कि उत्तर गुप्तकाल से देवी प्रतिमाओं को चौखट के निचले भाग से ऊपरी कोने में उत्कीर्ण करने की पद्धति अपनाई गयी ।
ओसिया के मन्दिर मूर्तिकारी के लिये भी प्रसिद्ध है । सूर्य मन्दिर के बाहर अर्धनारीश्वर शिव, सभामण्डप की छत में वंशी बजाते तथा गोवर्धन धारण किये हुए कृष्ण की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । गोवर्धन-लीला की यह मूर्ति राजस्थानी कला की अनुपम कृति मानी जा सकती है । इसके अतिरिक्त विभिन्न मन्दिरों में त्रिविक्रम विष्णु, नृसिंह तथा हरिहर की मूर्तियाँ भी मिलती है ।
(3) चौलुक्य (सोलंकी) कालीन स्थापत्य (Cholukya (Solanki) Architecture):
चौलुक्य शासक उत्साही निर्माता थे तथा उनके काल में अनेक मन्दिर एवं धार्मिक स्मारक बनवाये गये । मन्दिर निर्माण के पुनीत कार्य में उनके राज्यपालों, मन्त्रियों एवं धनाढय व्यापारियों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
इस प्रकार सम्पूर्ण समुदाय की कार्यनिष्ठा एवं प्रत्येक व्यक्ति की लगन के फलस्वरूप इस समय गुजरात के अन्हिलवाड तथा राजस्थान के आबू पर्वत पर कई भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया गया । ये मुख्यतः जैन धर्म से सम्बन्धित है ।
सोलंकी मन्दिरों में तीन भाग दिखाई पड़ते है:
1. पीठ या आधार- इसके ऊपरी भाग पर पूरा निर्माण टिका हुआ है । इसमें कई ढलाइयां है जो विविध अलंकरणों से युक्त हैं, राक्षस (शृंगरहित सिर), गजपीठ अश्व तथा मानव आकृतियाँ अदि उत्कीर्ण हैं ।
2. मण्डोवर अर्थात् मध्यवर्ती भाग- यह पीठ तथा शिखर के मध्य होता था और मन्दिर का प्रमुख भाग माना जाता था । इसकी लम्बवत् दीवारों में ताख बने हैं जिनमें देवी-देवताओं, नार्तिंकाओं आदि की आकृतियां उत्कीर्ण हैं ।
3. मीनार या शिखर- यह मन्दिर का सबसे ऊपरी भाग है जो नागरशैली में हैं । इसके चारों और उरुश्रुंगों (गर्भगृह की मिनार पर चारों ओ बना शिखरपुमा आकार) का समूह बनाया गया है ।
मन्दिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया जाता था । सामान्यतः, उनमें एक देवालय तथा एक कक्ष मात्र होता धा तथा प्रवेश द्वार पर बरसाती नहीं रहती थी । ऊपरी शिखर खजुराहो के समान अनेक छोटी-छोटी मीनारों से सुसज्जित रहता था तथा छतें रोड़ादार गुम्बदों जैसी होती थीं । इन भीतरी छतों पर खोदकर चित्र बनाये जाते थे ताकि वे एक वास्तविक गुम्बद जैसे प्रतीत हो सकें ।
गुजरात के प्रमुख मन्दिरों में मेहसाना जिले में स्थित ‘मोडेहरा का सूर्य मन्दिर’ उल्लेखनीय है । इसका निर्माण ग्यारहवीं शती में हुआ था । अब यह मन्दिर नष्ट हो गया है, केवल इसके ध्वंसावशेष ही विद्यमान हैं । इनमें गर्भगृह, प्रदक्षिणापथ, मण्डप आदि है । इसका निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया गया है ।
निर्माण में सुनहरे वलुए पत्थर लगे हैं । इसमें स्तम्भों पर आधारित खुला द्वार मण्डप है । उसके मेहराब भव्य एवं सुन्दर है । पाटन स्थित सोमनाथ के मन्दिर का भी उल्लेख किया ना सकता जिसका पुनर्निर्माण रूस काल में हुआ । इस वंश के शासक कर्ण ने अन्हिलवाड़ में कर्णमेरू नामक मन्दिर बनवाया था ।
सिद्धपुर स्थित रुदमहाकाल का मन्दिर भी वास्तु कला का सुन्दर उदाहरण है । गुजरात में अन्हिलवाड़ के निकट सुनक स्थित नीलकंठ महादेव मंदिर भी एक विशिष्ट रचना है । इसी का समकालीन काठियावाड़ का नवलाखा मन्दिर कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट है ।
आबू पर्वत पर कई मन्दिर प्राप्त होते हैं । यहाँ दो प्रसिद्ध संगमरमर के मन्दिर है जिन्हें दिलवाड़ा कहा जाता है । सोलकी नरेश भीमदेव प्रथम के मंत्री विमल शाह ने ग्यारहवीं शती में विमलशाही नामक मन्दिर बनवाया था ।
अनुश्रुति के अनुसार विमलशाह ने पहले कुम्भेरिया में पार्श्वनाथ के 360 मन्दिर बनवाये थे किन्तु उनकी इष्ट देवी अम्बा ने किसी बात से नाराज होकर पाँच मन्दिरों के सिवाय सभी को जला दिया तथा विमलशाह को दिलवाड़ा में आदिनाथ का मन्दिर बनवाने का आदेश स्वप्न में दिया । उसने परमार नरेश से 56 लाख रुपये में भूमि क्रय कर इस मन्दिर का निर्माण करवाया था ।
यह 98’x48′ के क्षेत्रफल में फैला है तथा ऊँचे परकोटे से घिरा हुआ है । इसमें पचास से अधिक कक्ष बनाये गये हैं । मन्दिर का प्रवेश द्वार गुम्बद वाले मण्डप से होकर बनाया गया है जिसके सामने एक वर्गाकार भवन है जिसमें छ: स्तम्भ तथा दस गज प्रतिमायें है । इसके पीछे मध्य में बने मुख्य गर्भगृह में ध्यानमुद्रा में अवस्थित आदिनाथ की मूर्ति है जिसकी आँखें हीरे की हैं ।
प्रवेशद्वार पर छ: स्तम्भ तथा दस गज-प्रतिमायें हैं । इसमें 128’x75’ के आकार का एक विशाल प्रांगण है । यह मन्दिर अपनी बारीक नक्काशी तथा अद्भुत मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध हैं । पाषाण शिल्पकला का इतना बढ़िया उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता ।
मन्दिर का बाहरी भाग अत्यन्त सादा है, किन्तु भीतर का अलंकृत है । श्वेत संगमरमर के गुम्बद का भीतरी भाग, दीवारें, छतें तथा स्तम्भ सभी पर नक्काशी मिलती है । मूर्तिकारी में विविध प्रकार के फूल-पत्ते, पशु-पक्षी, मानव आकृतियाँ आदि इतनी बारीकी से उकेरी गयी है मानो शिल्पियों की छेनी ने कठोर संगमरमर का मोम बना दिया हो ।
विमलशाही मन्दिर के समीप ही दूसरा मन्दिर स्थित है । इसे तेजपाल ने बनवाया था । निर्माता के नाम पर ही इसे ‘तेजपाल मन्दिर’ कहा जाता है । यह भी भव्य तथा सुन्दर है । मन्दिर में ठोस संगमरमर की लटकन है जो स्फटिकमणि से बनी प्रतीत होती है । उसके चारों ओर गोलाई में खोदकर कमल पुष्प बनाया गया है ।
लम्बवत् पाषाण पर खुदी हुई अनेक आकृतियाँ मनोहर हैं । गर्भगृह में नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित है तथा कक्ष के द्वार मण्डपों पर उनके जीवन से ली गयी अनेक गाथायें उत्कीर्ण है । कलाविद् फर्ग्गुशन के शब्दों में ‘केंद्रीय गुम्बद अधखिले कमल के समान दिखाई देता है जिसकी पंखुड़ियाँ इतनी पतली, पारदर्शक तथा कुशलता से उकेरी गयी हैं कि उनकी प्रशंसा करते हुए नेत्र ठहर जाते हैं’ ।
विमलशाहों तथा तेजपाल मन्दिरों के अतिरिक्त आबू पर्वत पर कुछ अन्य जैन मन्दिर भी मिलते है । पर्वत शिखर पर मन्दिर निर्माण की होड़ सी लगी हुई थी क्योंकि उत्तुंग पर्वत स्थान को देवता के आवास के लिये सबसे पवित्र माना जाता था ।
मन्दिर ऊँचे परकोटे से घिरे होते थे जिनके चारों ओर कोठरियाँ बनी होती थीं । कठोरियों में जैन तीर्थंड्करों अथवा देवताओं की बैठी प्रतिमायें दिखाई देती हैं । इनके शिखर छोटी मीनारों से अलंकृत हैं । मन्दिर की भीतरी छतों पर खोदकर चित्रकारियों की गयी है ।
वास्तु की दृष्टि से ये मन्दिर बहुत सुन्दर तो नहीं है किन्तु सभी मन्दिर अपनी कम एवं सुन्दर नक्काशी के लिये प्रसिद्ध हैं । इनमें सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हुए हैं । कलात्मक होने के साथ-साथ इनके अलंकरण का बाहुल्य दर्शकों को उबा देने वाला प्रतीक होता है ।
(4) बुन्देलखण्ड के चन्देलकालीन मन्दिर (Chandel Temple of Bundelkhand):
बुन्देलखण्ड का प्रमुख स्थल मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो नामक स्थान हैं । यहाँ चन्देल राजाओं के समय में नवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक अनेक सुन्दर तथा भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया गया । ये पूर्व मध्ययुगीन वास्तु एवं तक्षण कला के उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते है ।
खजुराहों में 25 मन्दिर आज भी विद्यमान हैं । इनका निर्माण ग्रेनाइट तथा लाल बड़ा पत्थरों से किया गया है । ये शैव, वैष्णव तथा जैन धर्मों से सम्बन्धित हैं । मंदिरों का निर्माण ऊँची चौकी पर हुआ जिसके ऊपरी भाग को अनेक अलंकरणों से सजाया गया है । चौकी या चबूतरे पर गर्भगृह, अन्तराल, मण्डप तथा अर्धमण्डप है । सभी पर शिखर एक निश्चित रेखा में बने हैं जो क्रमशः छोटे होते गये हैं ।
इन्हें आरोहावरोह कहा गया है । शिखरों पर छोटे-छोटे शिखर संलग्न हैं जिन्हें उरुशृंग कहा जाता है । ये छोटे आकार के मन्दिर के ही प्रतिरूप है । उरुशृंगों से मन्दिर की आकृति और भी सुन्दर हो गयी है । सर्वोच्च शिखर के ऊपर आमलक, स्तूपिका तथा कलश स्थापित है ।
दीवारों में बनी खिड़कियों में छोटी-छोटी मूर्तियाँ रखी गयी है । गर्भगृह के ऊपर उत्तुंग शिखर है । मन्दिर आकार में बहुत बड़े नहीं है तथा उनके चारों ओर दीवार भी नहीं बनाई गयी है । प्रत्येक मन्दिर में मण्डप, अर्धमण्डप तथा अन्तराल मिलते है । कुछ मन्दिरों में विशाल मण्डप बने है जिससे उन्हें ‘महामण्डप’ कहा जाता है ।
मन्दिरों के प्रवेश-द्वार को मकर-तोरण कहा गया है क्योंकि उनके ऊपर मकर मुख की आकृति बनी हुई है । कुछ मन्दिरों में गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा मार्ग भी बनाये गये हैं । गर्भगृह के प्रवेश-द्वार पर भी काफी अलंकरण मिलते है । मन्दिरों के सभी अंग एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से संबद्ध हैं जिसके फलस्वरूप खजुराहो के मन्दिर ऐसे पर्वत के समान लगते है जिस पर छोटी-बड़ी कई श्रेणियों होती हैं ।
विकास कम की दृष्टि से खजुराहो मन्दिरों को कई समूहों में बांटा जा सकता है । वामन तथा आदिनाथ मन्दिर प्रारिम्भक अवस्था के सूचक हैं । दोनों की बनावट एक जैसी है । गर्भगृह की दीवारों सुन्दर ढंग से गढ़ी गयी हैं तथा खोदी गयी हैं ।
आदिनाथ मन्दिर का शिखर, वामन मन्दिर से ऊँचा । दूसरे समूह के मन्दिर जगदम्बा, चतुर्भुज, पार्श्वनाथ, विश्वनाथ तथा अन्तिम सीढ़ी पर कन्डारिया महादेव मन्दिर है । इनकी बनावट और रचना शैली मूलत समान है । अन्तिम चार के गर्भगृह की परिधि में प्रदक्षिणापथ से जुड़ा हुआ मण्डप है । इसमें तीन ओर वातायन बने हैं ।
विश्वनाथ तथा चतुर्भुज मन्दिर एक जैसे हैं । इनके प्रत्येक कोने पर पूरक छोटे मन्दिर निर्मित हैं जिसके कारण इसे पंचायतन कहा जाता है । जगदम्बा मन्दिर में प्रदक्षिणापथ नहीं है । जैन मंदिरों की योजना भी बहुत कुछ इसी प्रकार की है । खजुराहो के मन्दिरों में कन्डारिया महादेव मन्दिर सर्वश्रेष्ठ है ।
यह 109’x60’x16′ के आकार में बना है । मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर बना है जिस पर चढ़ने के लिये सीढ़िया बनाई गयी है । प्रवेशद्वार काफी अलंकृत है । इसमें चौकोर अर्धमण्डप तथा वर्गाकार मण्डप है । मण्डप के बाजू का भाग गर्भगृह के चारों ओर विस्तृत है तथा बारजे के वातायन से जुड़ा हुआ है ।
गर्भगृह के ऊपर एक ऊँचा शिखर तथा कई छोटे-छोटे शिखर बनाये गये हैं । इनकी दीवारों पर बहुसंख्यक मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं । एक सामान्य गणना के अनुसार यहाँ खुदे हुए रूपचित्रों की संख्या नौ सौ के लगभग है । इनमें मकर, विद्याधर, संगीतज्ञ, बाघ तथा कामासक्त मिथुन मूर्तियाँ स्पष्टतः दिखाई पड़ती है । बाह्य भाग में प्रेमी युगल, देवी-देवता, देवदूत आदि अंकित है । सभी सजीव एवं आकर्षक है ।
मन्दिर के गर्भगृह में संगमरमर का शिवलिंग स्थापित किया गया है । इस प्रकार कन्डारिया महादेव का मन्दिर खजुराहो के मन्दिरों का सिरमौर है । जैन मन्दिरों में ‘पार्श्वनाथमन्दिर’ प्रसिद्ध है जो 62’x31’ के आकार में निर्मित है । इसकी बाहरी दीवारों पर जैन मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ खोदी गयी हैं ।
वेष्णव मन्दिरों में ‘चतुर्भुज मन्दिर’ उल्लेखनीय हैं जो 85’x44′ के आकार का है । इसका वास्तु विन्यास कन्डारिया महादेव जैसा ही है । यहाँ के कुछ अन्य मन्दिर इस प्रकार हैं- चौंसठ योगिनी, ब्रह्मा, लालागुआं महादेव, लक्ष्मण, विश्वनाथ मन्दिर आदि । ये सभी वास्तु कला के अत्युत्कृष्ट उदाहरण है ।
वास्तु कला के समान खजुराहो के मन्दिर अपनी तक्षण-कला के लिये भी अत्यन्त प्रसिद्ध है । इनकी भीतरी तथा बाहरी दीवारों को बहुसंख्यक मूर्तियों से सजाया गया है । गुम्बददार छतों के ऊपर भी अनेक चित्र उत्खचित है । यद्यपि यहाँ की मूर्तियाँ उड़ीसा की मूर्तियों की भाँति सुदृढ़ नहीं हैं, तथापि उनसे कहीं अधिक सजीव तथा आकर्षक प्रतीत होती है ।
खजुराहो मन्दिर में देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ-साथ कई दिग्पालों, गणों, अप्सराओं, पशु-पक्षियों आदि की बहुसंख्यक मूर्तियाँ भी प्राप्त होती है । अप्सराओं या सुन्दर स्त्रियों की मूर्तियों ने यहाँ की कला को अमर बना दिया है । ये मन्दिर के जंघाओं, रथिकाओं, स्तम्भों, दीवारों आदि पर उत्कीर्ण हैं । उन्हें अनेक मुद्राओं और हाव-भावों में प्रदर्शित किया गया है ।
कहीं वे देवताओं के पार्श्व में तथा कहीं हाथों में दर्पण, कलश, पद्य आदि लिये हुए दिखाई गयी है । कहीं अप्सराओं के रूप में वे विभिन्न मुद्राओं में नृत्य कर रही हैं । पैर से काँटा निकालती हुई नायिका, कलस नायिका, माता और पुत्र सहित बहुसंख्यक मिथुन आकृतियाँ खोद कर बनायी गयी है जो अत्यन्त कलापूर्ण एवं आकर्षक है । कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अश्लील हो गयी है जिन पर संभवतः तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव लगता है ।
इस प्रकार समग्र रूप से खजुराहो के मन्दिर अपनी वास्तु तथा तक्षण दोनों के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध है । के. डी. वाजपेयी के शब्दों में ‘प्रकृति और मानव जीवन की ऐहिक सौंदर्यराशि को यहाँ के मन्दिरों में शाश्वत रूप प्रदान कर दिया गया है । शिल्प शृंगार का इतना प्रचुर तथा व्यापक आयाम भारत के अन्य किसी कला केन्द्र में शायद ही देखने को मिले ।’