परिवर्तन का काल | Read this article in Hindi to learn about the changes India witnessed during the year nineteen fifty-seven.
वर्ष 1947 में उपनिवेशी शासन की समाप्ति नि: संदेह आधुनिक दक्षिण एशिया के इतिहास में एक निर्णायक क्षण था । भारत ने 14-15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि में स्वतंत्रता प्राप्त की; भारत के भविष्यवक्ताओं ने पहले ही इस क्षण के भारत की भावी ऐतिहासिक यात्रा में सबसे अधिक शुभ होने की भविष्यवाणी कर दी थी ।
भारत की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने ”नियति के साथ भेंट” (Tryst With Destiny) भाषण में गर्व से घोषणा की थी कि: ”आज रात के बारह बजे, जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता की नई सुबह के साथ उठेगा ।
एक ऐसा क्षण जो इतिहास में बहुत ही कम आता है, जब हम पुराने को छोड़कर नए की ओर आगे बढ़ते हैं, जब एक युग का अंत होता है और जब वर्षो से शोषित एक देश की आत्मा अपनी आवाज उठा सकती
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है । पाकिस्तान का जन्म एक दिन पहले ही हुआ था, और इस प्रकार उस प्रदेश को, जो कभी ब्रिटिश भारत साम्राज्य था, विभाजित कर दो स्वतंत्र रियासतों में बांट दिया गया था-दोनों धीरे-धीरे स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में अपनी ऐतिहासिक नियति की ओर बढ़ चले थे ।
अगस्त 1947 में इस उपमहाद्वीप में घटे घटनाचक्र को दो जुड़ी हुई प्रक्रियाओं-स्वतंत्रता और विभाजन-के रूप में देखना होगा, जिसने दोनों राष्ट्रों के भविष्य को प्रभावित किया । निश्चित रूप से भारत में इसका तात्पर्य लगभग दो सौ वर्षों के ब्रिटिश शासन से मुक्ति था, जिसके लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य विभिन्न राजनीतिक दल लगभग आधी सदी से संघर्ष कर रहे थे ।
अत: स्वाभाविक रूप से भारत की राजधानी नई दिल्ली और अन्य प्रदेशों की सड़कों पर आनंद और उल्लास का वातावरण छाया हुआ था । लोगों ने 14 अगस्त की रात 11 बजे से उत्सव मनाने शुरू कर दिए, जब राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा की बैठक हुई, जिसके बाद नए राष्ट्र के प्रतीक चिह्न-ध्वज और राष्ट्रगान प्रस्तुत किए गए ।
संविधान सभा पहले ही 1930 से चले आ रहे कांग्रेसी ध्वज को एक छोटे-से बदलाव के बाद राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकृति दे चुकी थी जिसमें चरखे के स्थान पर चक्र (जीवन चक्र) का प्रयोग किया गया था । हमारा देश, जैसाकि नेहरू ने कहा था, उसी झंडे के तले खड़ा हो सकता था जिसके साथ इसने विदेशी शासकों से संघर्ष किया था ।
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संविधान सभा ने लोकप्रिय गीत ”वंदे मातरम” के स्थान पर, जिससे मुसलमानों के नाराज होने की आशंका थी रबीन्द्र नाथ टैगोर के ”जन गन मन” को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया । इस प्रकार स्वतंत्रता के उस क्षण में हमारे संस्थापकों ने नए राष्ट्र के चिह्नों को अत्यधिक सावधानी से चुना, वे चाहते थे कि ये धर्मनिरपेक्ष, संयुक्त और लोकतांत्रिक होने के साथ-साथ कांग्रेस की विरासत के साथ भी घनिष्ठ रूप से संबंधित हों ।
उस रात और अगले दिन लोग सड़कों पर उल्लास मनाते रहे । नई दिल्ली में 15 अगस्त की सुबह जवाहरलाल नेहरू को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई । शाम को दस लाख से भी अधिक लोग किंग्स वे में परेड देखने आए जहां तिरंगा फहराया गया और सरकारी इमारतों पर रोशनी की गई थी ।
उस सुबह दस लाख लोगों ने बंबई की सड़कों पर मार्च किया और उनमें से कुछ ने सचिवालय भवन पर कब्जा कर लिया । कलकत्ता में, दो लाख लोगों ने पुलिस का घेरा तोड़ दिया और राज के सबसे अधिक पवित्र और विशिष्ट स्थानों को अपने अधिकार में लेने के लिए, गवर्नर हाउस में जा घुसे जिसके बाद उन्होंने असेम्बली हाउस पर कब्जा कर लिया ।
देश भर में असंख्य कार्यक्रम आयोजित किए गए जहां राष्ट्रीय ध्वज फहराए गए, राष्ट्रगान गाया गया और देशभक्तिपूर्ण भाषण दिए गए । अधिकांश भारतवासियों के लिए यह एक विशेष और असाधारण दिवस
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था । किंतु उस दिन हर व्यक्ति आनंद नहीं मना रहा था, क्योंकि स्वतंत्रता की खुशियां विभाजन की त्रासदी भी अपने साथ लेकर आई थी । महात्मा गांधी ने, जो उस समय कलकत्ता में सांप्रदायिक दंगे रोकने का प्रयास कर रहे थे, अपना पूरा दिन प्रार्थना में बिताया और उपवास करके दंगों के लिए प्रायश्चित किया ।
हिंदू महासभा जो अखंड हिंदुस्तान (संयुक्त भारत) की मांग कर रही थी, किंतु जिसने बाद में हिंदू-बहुल पश्चिमी जिलों को भारत में रखने के लिए बंगाल के विभाजन का समर्थन किया था, विभाजन के विरोध में समारोह का बहिष्कार किया ।
मुस्लिम लीग ने उनका साथ देने का निर्णय किया, किंतु पाकिस्तान में हिंदुओं के समान, भारत में अल्पसंख्यक होने के कारण मुसलमान अपने अनिश्चित भविष्य को लेकर चिंतित थे । साम्यवादियों ने भी विभाजन और सांप्रदायिक दंगों के विरोध में किसी भी समारोह में भाग न लेने का निर्णय किया ।
इस प्रकार, स्वतंत्रता अपने साथ मिली-जुली भावनाएं लेकर आई । भारत में आजादी की विचारधारा का तेजी से विकास उपनिवेशी शासन से संघर्ष के कारण हुआ । जैसे-जैसे आजादी की लड़ाई तेज होती गई, सामूहिक स्वतंत्रता की धारणा के सामने व्यक्तिगत आजादी का मुद्दा गौण हो गया और देश में अन्य सभी पहचानों, जैसे वर्ग जाति या लिंग को प्राथमिकता दी जाने लगी ।
अभी तक, भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहासकारों ने इसकी पूर्णता के अंतिम क्षणों को राष्ट्र-राज्य के निर्माण के रूप में वर्णित किया था । किंतु ब्रिटिश काल के दौरान राष्ट्रवाद का इतिहास केवल राष्ट्र-राज्य के जन्म का पूर्व-इतिहास नहीं था, बल्कि राष्ट्र निर्माण की निरंतर प्रक्रिया का एक चरण था ।
यदि हम राष्ट्र को एक संघर्ष स्थल के रूप में देखें, तो यह संघर्ष उपनिवेशवाद के पश्चात् भी जारी रहा । महान राष्ट्रवादी गठबंधन (Grand nationalist coalition) बनाने वाले लोगों के विभिन्न दलों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के बारे में अलग-अलग धारणाएं बना रखीं थीं, जिससे तनाव उत्पन्न हुआ ।
कुछ लोगों ने राजनीतिक प्रभुसत्ता की प्राप्ति को स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष का अंतिम लक्ष्य माना तो, दूसरों ने स्वतंत्रता के अर्थ को विस्तारित करके इसमें जनता की आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता की धारणा को शामिल करना उचित समझा ।
नेहरू ने 1947 में अपने देशवासियों से कहा था, राजनीतिक स्वतंत्रता का तात्कालिक लक्ष्य तो प्राप्त हो गया था, किंतु सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना था कि प्रत्येक नागरिक गरीबी अज्ञानता बीमारी और असमानता से मुक्त हो सके । यह चुनौती चिंता कि सबसे बड़ी कारण थी, क्योंकि इस बात पर अभी कोई सहमति नहीं हो सकी थी, कि इसका मुकाबला कैसे किया जाएगा ।
विपिन चंद्र और उनके कुछ सहयोगियों ने अपने इंडिया आफ्टर इंडीपेंडेस में यह तर्क दिया है कि भारत ने अपनी यात्रा इस बुनियादी राजनीतिक सहमति के साथ शुरू की: ”भारत की बुनियादी रूपरेखा-जिसे राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों तथा तीव्र आर्थिक विकास और आमूल सामाजिक परिवर्तनों के लक्ष्यों पर आधारित किया गया था-का व्यापक सामाजिक सहमति से निर्माण आरंभ करना अत्यधिक लाभकारी रहा । इन मूल्यों और लक्ष्यों को, तथा उनकी प्राप्ति के मार्ग को राष्ट्रीय आंदोलन ने सत्तर से अधिक वर्षो के संघर्ष में पूरी तरह निर्धारित कर लिया था ।”
तथापि, उपनिवेशवाद के दौरान भारत के बहुलवादी समाज में बहुस्वरित (Polyphonic) राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था जिसमें अलग-अलग राग बजाए जा रहे थे, किंतु उन सबके स्वर समवेत थे जो विभिन्न ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों में कभी-कभी असहज हो जाते थे, लेकिन अपनी विशिष्टता नहीं छोड़ते थे-इन स्वरों ने उपनिवेशी साम्राज्य का मिलकर विरोध किया तथा इसके हानिकारक प्रभावों के विभिन्न पहलुओं को अस्वीकार कर दिया ।
परंतु उपनिवेशवाद-विरोधी इस मतैक्य के अलावा, इस बात पर कोई सहमति नहीं थी कि देश का भावी प्रक्षेप मार्ग क्या होगा । अत: राष्ट्र निर्माण की यह प्रक्रिया 1947 में समाप्त नहीं हुई थी, क्योंकि इन अलग-अलग आवाजों और अलग-अलग कल्पनाओं के राष्ट्र-राज्य के ढांचे के साथ बनने वाले आपसी संबंध उपनिवेशवाद के पश्चात् भी भारत के इतिहास की प्रमुख समस्या बने रहे ।
नेहरू ने दलित नेता डॉ॰ बी॰ आर॰ अंबेडकर को कानून मंत्री और हिंदू महासभा के डॉ॰ एस॰ पी॰ मुखर्जी को उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल करके इसे व्यापक बनाकर मेल-मिलाप की नीति की शुरूआत की ।
किंतु मतभेदों का समाधान नहीं हुआ और इसीलिए 1947 में प्राप्त हुई स्वतंत्रता उपनिवेशवाद के अतीत के प्रभावों से पूरी तरह मुक्त नहीं हुई । परंतु, निरंतरता के इस स्वरूप पर अनेक ऐतिहासिक दृष्टिकोण प्रचलित हैं । उदाहरण के लिए, डी.ए. लो के अनुसार, अंग्रेजों द्वारा छोड़े गए ‘ब्रिटिश प्रकार के असंख्य संस्थान’ निरतंर जारी रहे ।
कोई भी आसानि से देख सकता है कि भारत में सिविल सेवा, पुलिस, सेना और न्यायपालिका ने पुराने ढांचे पर काम करना जारी रखा, जो हमारे उपनिवेशी अतीत के साथ बने हमारे सामयिक सेतु का प्रमाण हैं । अत: होल्डन फर्बर ने तर्क किया है कि पाकिस्तान की तुलना में, भारत का विशष रूप से “पिछली केंद्रीय सरकार की अधिकांश मशीनरी विरासत में प्राप्त हुई और और उसे न तो राष्ट्रीय राजधानी को और न ही राष्ट्रीय सरकार को नए सिरे से स्थापित करने की आवश्यकता पड़ी” ।
विउपनिवेशीकरण के इस कॉमनवैल्थ दृष्टिकोण में-जो अत्यधिक स्थिर दृष्टिकोण है-उपनिवेशवाद-पश्चात् भारत के इतिहास में किसी अन्य मालिक ज्ञानमीमांसात्मक (Epistemological) विभेद की तुलना में, निरंतरता के अधिक प्रमाण मिलते हैं ।
जूडिथ ब्राउन का तर्क है कि यह निरंतरता हमारे संस्कारों, रीति-रिवाजों, राजोपचारों और शासन संस्थानों में, और इससे भी अधिक राजनीतिक आधुनिकता की ओर ले जाने वाले भारत के तथाकथित बाधारहित रेखीय आंदोलनों में प्रकट हुई ।
प्रत्यक्ष रूप में, महात्मा गांधी ने इस प्रकार की स्वतंत्रता की कामना नहीं की थी । अपने हिंद स्वराज (1909) में उन्होंने चेतावनी दी थी कि भारत में कहीं अंग्रेजों के बिना अंग्रेजी शासन की स्थापना न हो जाए । उन्हें और अन्य अनेक राष्ट्रवादियों को आशा थी कि उपनिवेशवाद समाप्त होने पर, भारत को उपनिवेशी अतीत से पूरी तरह छुटकारा मिल जाएगा । संभवतया उपनिवेशवाद से मुक्ति के इतिहास में विश्व में कहीं भी ऐसा संपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ होगा । तथापि यह पूर्ण रूप से केवल निरंतरता की कहानी ही नहीं है ।
दीपेश चक्रबर्ती का तर्क है कि ”एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में”, उपनिवेशवाद से मुक्ति की प्रक्रिया ”अनिवार्य रूप से” बेढंगी, जटिल और सहज रूप से अधूरी (अर्थात्, विखंडित) थी । इस संदर्भ में स्वतंत्रता ब्रिटिश संबंधों से संपूर्ण अलगाव का क्षण नहीं थी, किंतु यह हस्तांतरण और अनुकूलन की प्रक्रिया का प्रतीक थी-संकरण (Hybridization) की एक ऐसी प्रक्रिया जिसके माध्यम से स्वतंत्रता के तात्पर्य में अत्यधिक विस्तार हो जाता ।
श्रीरूपा राय ने इसलिए इस प्रक्रिया का ”निरंतरता के साथ परिवर्तन” के रूप में वर्णन किया है । यह उपनिवेशवादी अतीत और उपनिवेशवाद पश्चात् के वर्तमान के बीच संवाद की एक प्रक्रिया थी, एक ऐसा संवाद जो अभी भी समाप्त नहीं हुआ है ।
यह संवाद अनेक स्तरों पर हुआ क्योंकि देश में कोई एकसमान सत्ता नहीं थी, और पार्था चटर्जी के अनुसार यह ”आधुनिकता का विषमकाल” था । तथापि, टेड स्टीवनसन ने, हाल ही में तर्क दिया है ”निरंतरता” की तुलना में यह ”विखंडन” अधिक था, क्योंकि अधिकांश राजनीतिक विद्वानों की राय के विपरीत नई राजनीतिक प्रणालियाँ काफी सीमा तक नई थीं ।
उपनिवेशवाद से मुक्ति और विभाजन के अनुभवों ने ही नई प्रणालियों को पुराना स्वरूप प्रदान किया । उपनिवेशवाद से मुक्ति की इस जटिल और अस्पष्ट प्रक्रिया को समझने के लिए हम यहाँ अनिश्चितताओं और चिंताओं की कुछ प्रारंभिक प्रवृत्तियों के साथ-साथ उपनिवेशवाद पश्चात् भारत की उपलब्धियों का सारांश प्रस्तुत कर रहे हैं ।