आजादी के बाद अलग राज्य के रूप में कश्मीर और हैदराबाद की मांग | Demand for Kashmir and Hyderabad as a Separate State After Independence.

स्वतंत्रता और विभाजन के तत्काल पश्चात् भारत के सामने एक अन्य बड़ी समस्या रजवाड़ों से संबंधित थी, जो मौजूदा राजसी प्रणाली में नए भारत की राजनीति में गतिरोध बने हुए थे ।

भारत संघ में शामिल होने के लिए ‘इन्स्ट्रुमेंट ऑफ एक्सेशन’  (instruments of accession)  पर हस्ताक्षर करके राजाओं ने केवल तीन विषयों, यथा रक्षा, विदेशी मामले और  संचार पर अपने अधिकारों का समर्पण कर दिया था, और इस प्रकार शासन के कुछ अवशिष्ट अधिकार अपने पास रख लिए थे । अत: 1947 के घटनाचक्र के कुछ समय पश्चात्, वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन ने रजवाड़ों की समस्या का ”अंतिम समाधान” करने का निश्चय किया ।

इयान काँपलैंड के शब्दों में, ”इस (उनकी) परियोजना, जिसमें लगभग दो वर्ष लगे, में कालानुक्रम में (हालांकि इसके प्रक्रम परस्पर व्याप्त हो गए) रजवाड़ों का बड़ी प्रशासकीय ईकाइयों में एकीकृत होना तथा अथवा उनका पहले के प्रदेशों में विलय होना उनका तीव्र गति से प्रजातंत्रीकरण होना और पूर्ण रूप से संघीय केंद्र के अधीन रहना शामिल था ।”

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इसका तात्पर्य था कि उन्हें अपने बचे-खुचे अधिकारों का समर्पण करने, प्रजातांत्रिक परिवर्तनों को स्वीकार करने, और अंतत: नए भारत के संविधान को अपने संविधान के रूप में अपनाने के लिए मनाना था । अनेक राजाओं को कर-मुक्त ‘विशेषाधिकार’ (Privy Purses) और अन्य लाभों के रूप में पेंशन देकर रजवाड़ों से हटा दिया गया; कुछ को विदेशी मिशनों में अधिकतर औपचारिक पद दे दिए गए ।

किंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि वह सभी, जैसाकि मेनन ने उल्लेख किया है, इस शांतिपूर्ण क्रांति में खुशी-खुशी शामिल हो गए । कुछ ने इसका विरोध किया, और इन मामलों में राष्ट्रसत्ता के अधिकार का दृढ़तापूर्वक प्रयोग किया गया ।

प्रतिरोध करने वाले राजाओं में से यहाँ हम तीन मामलों, यथा जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद का वर्णन कर रहे हैं । इनमें से, जूनागढ़-काठियावाड़ का एक राज्य, जो पूरी तरह भारतीय प्रदेश से घिरा था-के मुसलमान शासक ने, माउंटबेटन के प्रादेशिक समीपता (Contiguity) के नियम का उल्लंघन करते हुए, पाकिस्तान के साथ ‘इन्स्ट्रुमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करने का फैसला किया ।

उसकी प्रजा ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया । और भारत सरकार ने इस प्रदेश की नाकाबंदी कर दी, जिसके बाद विवश होकर शासक पाकिस्तान भाग गया । इसके पश्चात्, भारतीय सेना ने राज्य पर नियंत्रण कर लिया, और फरवरी 1948 में वहाँ जनमत संग्रह किया गया, जिसमें जूनागढ़ की जनता ने लगभग एकमत होकर भारत संघ में मिलने का निर्णय लिया ।

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एक वर्ष बाद, जूनागढ़ का सौराष्ट्र प्रदेश में विलय कर दिया गया और सौराष्ट्र विधान सभा में जूनागढ़ के सात सदस्यों को मंजूरी दी गई । इससे जूनागढ़ के भारत संघ में विलय की प्रक्रिया पूरी हो गई जिसका पाकिस्तान लगातार विरोध करता रहा ।

दूसरी ओर कश्मीर की स्थिति अधिक जटिल थी और प्रत्यक्ष रूप से विभाजन के इतिहास के साथ जुड़ी हुई थी । जैसाकि सुमित गांगुली का तर्क है, इस समस्या का मूल बिंदु ”दक्षिण एशिया में राज्यों के निर्माण के प्रतिस्पर्द्धी दृष्टिकोणों में निहित है ।”

1947  में, कश्मीर के मुसलमान-बहुल रजवाड़े की सीमा भौगोलिक दृष्टि से  पाकिस्तान से जुड़ी हुई थी जिसके पाकिस्तान के साथ बहुत मजबूत व्यापारिक संबंध थे । अत: पाकिस्तान को कानूनी तौर पर भरोसा था कि वह इस राज्य का स्वाभाविक दावेदार था जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए, पाकिस्तान कश्मीर के बिना “अधूरा” था, जबकि नेहरू और कांग्रेस के लिए, कश्मीर के एकीकरण से भारत की धर्मनिरपेक्षता की छवि मजबूत होगी ।

1846 से, कश्मीर पर, एक ”हिंदू राज्य” के रूप में हिंदू डोगरा राजा, महाराजा गुलाब सिंह का राज था, जिसने मुस्लिम बहुसंख्यकों को किसी भी राजनीतिक सत्ता से हमेशा दूर रखा था । उनके उत्तराधिकारी महाराजा हरि सिंह ने भी एक छोटे ब्राह्मण कुलीनों की सहायता से कश्मीर पर शासन किया, जिसका राजनीतिक सत्ता और अधिकांश उपजाऊ कृषि भूमि पर नियंत्रण था ।

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किंतु उसे शेख मुहम्मद  अब्दुल्ला   के नेतृत्त्व में अखिल   जम्मू   एवं कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस द्वारा शुरू किए गए एक प्रजातांत्रिक राजनीतिक आंदोलन का सामना करना पड़ा, जो मुसलमानों के लिए अधिक अधिकारों की मांग कर रहे थे और एक कश्मीरी क्षेत्रीय राष्ट्रीयता अथवा कश्मीरियत का दावा कर रहे थे ।

सत्ता के हस्तांतरण के समय, जबकि कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे को मुस्लिम कांफ्रेंस-जो नैशनल कांफ्रेंस से अलग होकर बना एक दल था-का समर्थन प्राप्त था, स्वयं नेशनल कांफ्रेस ने, जिसे 75 प्रतिशत स्थानीय मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था, एक अलग कार्यवाही की योजना तैयार की ।

मई 1946 में, डोगराओं के एकछत्र शासन की संभावना से आशंकित होकर, नेशनल कांफ्रेंस ने स्थानीय हिंदू पंडितों के साथ एक व्यापक सांप्रदायिक गठबंधन बनाकर ”कश्मीर छोड़ो” आंदोलन की शुरूआत की और इंडियन नेशनल कांग्रेस से अधिक निकटता बना ली ।

अब्दुल्ला को जिसके 1938 से नेहरू के साथ व्यक्तिगत मित्रतापूर्ण सबंध थे, 45 डोगरा शासन का विरोध करने पर जेल में डाल दिया गया, जबकि उक्त चुनौतियों का सामना कर रहे महाराजा ने आई.ओ.ए पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया ।

इसी दौरान, पंजाब में भड़की सांप्रदायिकता की आग कश्मीर में भी फैल गई और मौजूदा कमजोर प्रशासन इसे नियंत्रित कर पाने में विफल रहा । अत: कथित रूप से अपने सहधर्मियों पर होने वाले अत्याचार का बदला लेने के लिए उत्तर-पश्चिमी सीमा  प्रांत के पठान आदिवासियों ने, पाकिस्तान के गुप्त सहयोग से, अक्टूबर 1947 में पश्चिमी कश्मीर में प्रवेश कर लिया । कुछ समय उनका प्रतिरोध करने के पश्चात्, महाराजा की छोटी सेना और नागरिक प्रशासन पूरी तरह विफल हो गया और उसने भारत से सहायता का निवेदन किया ।

भारत ने केवल इस शर्त पर मदद देने की सहमति दी कि महाराजा को भारत में शामिल होने के लिए आई.ओ.ए पर हस्ताक्षर करने होंगे, जिसे महाराजा ने मान लिया । इसके तुरंत बाद, भारतीय सेना श्रीनगर के एयरपोर्ट पर उतरी और परिस्थिति पर काबू कर लिया । किंतु इसके बाद पाकिस्तान के साथ एक लंबे संघर्ष के दौर की शुरूआत हुई, जो कानूनी रूप से कश्मीर को अपना हिस्सा मानता था और कश्मीर में सैन्य हस्तक्षेप करता रहता था ।

नवंबर 1947 में भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं के बीच एक बड़ा युद्ध हुआ । हालांकि अधिकांश कश्मीर घाटी, लद्‌दाख एवं जम्मू पर भारतीय सेनाओं का अधिकार हो गया, पाकिस्तानी सेना ने राज्य के लगभग एक-तिहाई भूभाग पर कब्जा कर लिया, जिसे ”आजाद कश्मीर” कहा जाता है ।

इस प्रकार, दिसंबर 1947 तक कश्मीर वस्तुत: दो भागों में बंट चुका था । लॉर्ड माउंटबेटन के परामर्श पर भारत ने इस मामले के बहुपक्षीय समाधान के लिए इसे संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने रखने का निर्णय

किया । जब प्रधानमंत्री नेहरू ने कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र में उठाने का निर्णय किया तो उन्हे विश्वास था कि महाराजा द्वारा भारत के साथ रहने के समझौते पर हस्ताक्षर करने और घाटी के मुस्लिम बहुसंख्यकों की प्रतिनिधि नेशनल कांफ्रेंस द्वारा इसे समर्थन दिए जाने के कारण भारत का कानूनी पक्ष बहुत मजबूत था ।

उन्होंने पाकिस्तान द्वारा, पहले अप्रत्यक्ष और बाद में प्रत्यक्ष रूप से किए गए गैर-कानूनी आक्रमण की शिकायत की । दूसरी ओर पाकिस्तान ने अधिग्रहण की वैधता का विरोध किया जो उसकी राय में दबाव डालकर प्राप्त किया गया था ।

किंतु इससे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस वैश्विक मंच पर यह मुद्‌दा शीत युद्ध की राजनीति में फंस गया और इस क्षेत्र में ब्रिटेन के कूटनीतिक हितों के कारण गौण हो गया । परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्र संघ कोई ठोस निर्णय लेने अथवा ऐसा कोई स्पष्ट समाधान प्रस्तुत करने में विफल रहा जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हो । अप्रैल 1948 में, इसने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए एक पाँच-देशों को एक आयोग का गठन किया ।

1949 तक इसने एक अपूर्ण इकरारनामा प्रस्तुत किया जिसके बाद भारत और पाकिस्तान युद्धविराम के लिए तैयार हो गए । इकरारनामे में पाकिस्तान से ”आक्रमण बंद करने” और भारत से अपनी सेनाओं को कम करके केवल उतनी ही संख्या में तैनात करने को कहा, जो कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए पर्याप्त हो; इसके पश्चात् कश्मीर के भाग्य के बारे में फैसला लेने के लिए जनमत संग्रह किया जाना था ।

किंतु वह जनमत संग्रह कभी नहीं हुआ क्योंकि भारत की मांग थी कि उक्त जनमत सग्रह कराने से पहले सभी आदिवासी और पाकिस्तानी सेनाओं को कश्मीर से हटाया जाए, जबकि पाकिस्तान ने जनमत संग्रह होने के पश्चात् और इसके परिणामों के आधार पर सेनाएं हटाने की सहमति दी ।

जैसाकि गांगुली का तर्क है 1960 के दशक तक कश्मीर के मुद्‌दे पर संयुक्त राष्ट्र और विश्व की रुचि समाप्त हो गई,  तथा यह मुद्‌दा भारत और पाकिस्तान के संबंधों में एक रिसता हुआ जख्म बनकर रह गया जिसके कारण बाद में दो युद्ध और हुए 1965 का भारत-पाक युद्ध और 1999 का कारगिल युद्ध ।

हैदराबाद की स्थिति इसके विपरीत थी, क्योंकि यह एक हिंदू-बहुल राज्य था जो एक मुस्लिम शासक-निजाम-के अधीन था और जिसे एक दमनकारी मुस्लिम अल्पतंत्र (Oligarchy) का समर्थन प्राप्त था । भौगोलिक दृष्टि से यह चारों ओर भूमि से घिरा, आर्थिक रूप से भारत पर निर्भर और भारतीय प्रदेशों से घिरा प्रदेश था ।

तब भी, 1947 में निजाम ने स्वतंत्र रहने की मांग की और आई.ओ.ए पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया । हैदराबाद की भौगोलिक स्थिति-जो उत्तर और दक्षिण भारत के बीच संपर्क का प्रमुख गलियारा था-और इसकी जनसंख्या का संघटन देखते हुए, भारत में बहुत से लोगों ने निजाम के स्वतंत्र रहने के दावे को बेतुका और भारत की सुरक्षा  के लिए हानिकारक बताया ।

अत: भारत सरकार ने अंग्रेजों के जाने के बाद निजाम के स्वतंत्र   रहन  के   फरमान को अस्वीकार कर दिया । इस अवस्था पर हैदराबाद की आंतरिक राजनीति काफी जटिल होती जा रही थी, क्योंकि तेलंगाना आंदोलन ने विचित्र मोड़ ले लिया था ।  कांग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच मैत्री संबंध टूट गया, कृषक विद्रोह तीव्र हो गया, और रजाकारों का दमन बढ़ गया ।

निरंतर बिगड़ती राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में भारत सरकार ने वल्लभभाई पटेल के माध्यम से निजाम और उसके प्रतिनिधियों से बातचीत की और लगातार पूर्ण रूप से भारत के साथ जुड़ने तथा हैदराबाद में प्रतिनिधि सरकार बनाने की  मांग की जिसका मुसलमान कुलीन वर्ग ने कड़ा विरोध किया ।

अंतत: 13 सितंबर, 1948 को भारतीय सेना ने दक्षिण भारत में कानून व्यवस्था लागू करने के बहाने हस्तक्षेप किया और अधिक प्रतिरोध का सामना किए बिना हैदराबाद पर नियंत्रण कर लिया । किंतु साम्यवादियों के नेतृत्त्व में तेलंगाना में चला आ रहा किसानों का विद्रोह नवजात भारत राष्ट्र के लिए लगातार सबसे अधिक जटिल समस्या बना हुआ था ।

दिसंबर 1947 में, सी.पी.आई ने घोषणा की कि भारत की स्वतंत्रता बनावटी थी, और एक नया नारा दिया ”ये आजादी झूठी है” । कांग्रेस और इसके नेता जवाहरलाल नेहरू को आंग्ल-अमेरिकी साम्राज्यवाद और देश के सामंतवादी तत्त्वों की कठपुतली समझा जाता था, और उन्हें वास्तविक स्वतंत्रता पाने का केवल एक रास्ता उन्हें हटाना था ।

सी.पी.आई. ने 28 फरवरी और 6 मार्च, 1948 के बीच कलकत्ता में अपनी दूसरी महासभा का आयोजन किया, जहां इसने एक ”राजनीतिक प्रसंग” (Thesis) अपनाया, जिसमें औपचारिक रूप से घोषणा की गई थी कि 15 अगस्त, 1947 को स्थापित की गई राष्ट्रीय सरकार भारत के लोगों की एक बड़ी शत्रु थी और इसलिए इसे बदलना बहुत जरूरी था ।

इसे पूरा करने के लिए पार्टी ने ”बी.टी. रनदिवे लाइन” (इसके महासचिव के नाम पर) के नाम से लोकप्रिय सिद्धांत, अथवा भारत में ”प्रजातंत्रात्मक क्रांति” के मार्ग को अपनाने का निर्णय किया । इसका लक्ष्य अपने राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में यह मौलिक परिवर्तन लाना होगा जिनके बिना हमारी जनता स्वतंत्र और समृद्ध नहीं हो सकती । वर्तमान राष्ट्र के स्थान पर ”प्रजातांत्रिक गणतंत्र” की स्थापना करनी होगी जो मजदूरों, किसानों और दलित मध्य वर्गो का गणतंत्र  होगा ।

इसके पश्चात्, न केवल तेलंगाना विद्रोह जारी रहा, किंतु यह भारत के अन्य भागों, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में भी फैल गया, जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में तेभागा आंदोलन पुनर्जीवित हो उठा और कलकत्ता तथा निकटवर्ती औद्योगिक क्षेत्रों में शहरी विद्रोह फैल गया ।

इस अवस्था पर साम्यवादियों ने विद्रोह करने का निर्णय क्यों लिया, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका इतिहासकार विभिन्न तरीकों से उत्तर देने का प्रयास करते रहे हैं । विपिन चंद्र और उनके सहयोगियों का विचार है कि पार्टी में गहरी गुटबंदी होने और भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का उचित मूल्यांकन करने में विफल होने के कारण साम्यवादियों ने यह मार्ग अपनाने का निर्णय लिया ।

रामचंद्र गुहा का भी विचार है कि तेलंगाना आंदोलन की आरंभिक सफलता से उत्साहित होकर सी.पी.आई के नेताओं ने ‘कांग्रेस से हुई छिटपुट निराशा’ को समझने में गलती की और इसे क्रांति की सभावना समझते हुए यह सोचा कि यह ”लाल भारत की उचित शुरूआत” होगी ।

अधिक व्यापक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि जब 1946 में सांप्रदायिक दंगे और विभाजन की राजनीति शुरू हुई थी, तब सी.पी.आई ने परिस्थिति के समाधान के लिए एक रणनीति का विकास करने का प्रयास किया था ।

ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध मिलकर संघर्ष करने के लिए कांग्रेस और लीग को आपस में मिलाने के उनके राजनीतिक लक्ष्य की समाप्ति को शशि जोशी और भगवान जोश ने ”बेतुकी कार्यवाही” कहा । अपने धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का प्रयोग करके वे उस समय की सांप्रदायिक परिस्थिति का मुकाबला नहीं कर सके और किसी उचित नीति का विकास करने में विफल रहे ।

और इसके पश्चात्, जैसाकि टी.जे. नाँसीटर का कथन है, विभाजन के पश्चात् भारत का राजनीतिक परिदृश्य इतनी तेजी से बदला कि इसने सी.पी.आई के नेताओं पर अधिक दबाव डालना शुरू कर दिया जबकि मॉस्को से भी तत्काल कोई निर्देश आने की कोई उम्मीद नहीं थी ।

इसी समय, कुछ नेताओं को पूरी तरह से यह विश्वास हो चला था कि भावी राजनीतिक परिस्थितियों में वास्तविक क्रांति की संभावना मौजूद थी, और वे उस अवसर को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे । जैसाकि जाविद आलम का कथन है, भारत के साम्यवादी बुर्जुआ राष्ट्र को वास्तविक शत्रु समझते थे और उनका विश्वास था कि ”राष्ट्र के विरुद्ध वर्ग-आधारित लामबंदी मेहनतकश लोगों के दृष्टिकोण को क्रांतिकारी चेतना में परिवर्तित करने के लिए पर्याप्त थी ।” संक्षेप में, ”हैदराबादी शैली” को ”कश्मीरी शैली” से बेहतर समझा गया ।

वर्ग संघर्ष और देशद्राही पूंजीपतियों द्वारा राष्ट्र के विरुद्ध चलाई जाने वाली वर्ग संघर्ष और सशस्त्र विद्रोह की नीति को, जनता का ध्यान सांप्रदायिक मतभेदों से हटाने का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया, जिसने विभाजन के पश्चात् देश को पूरी तरह निगल लिया था ।

यह याद रखना भी जरूरी है कि 1940 का उत्तरार्ध और 1950 का पूर्वार्ध वह समय था जब एशिया के चीन, मलाया, इंडोनेशिया, फिलीपींस और बर्मा में साम्यवादियों को अभूतपूर्व सफलताएँ मिल रही थीं । इसने भारत के साम्यवादियों को भी प्रोत्साहित किया क्योंकि उन्हें मॉस्को का समर्थन प्राप्त था, जिसने सितंबर 1947 में पोलैंड में हुए एक सम्मेलन में, अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी दलों में अधिक सक्रियतावाद को प्रोत्साहित करने के लिए ”ए॰ जडानोव थीसिस” की घोषणा की थी ।

यह, मार्शल प्लान को मॉस्को का उत्तर था । इस परिस्थिति से प्रोत्साहित होकर, सी.पी.आई के पी.सी. जोशी जैसे परिष्कृत नेताओं ने, जो जनवरी 1948 तक पार्टी के महासचिव थे और जिसने नेहरू सरकार के साथ सहयोग की वकालत की थी, सशस्त्र विरोध की तैयारी की, जिसने स्वतंत्रता पश्चात् के प्रारंभिक वर्षो में भारतीय राष्ट्र के लिए, संभवतया सबसे अधिक गंभीर घरेलू समस्या उत्पन्न कर दी ।

किंतु यह आंदोलन अधिक नहीं फैला, क्योंकि यह अधिकतर हैदराबाद और पश्चिम  बंगाल में ही सीमित रहा, और यहाँ भी जन-समर्थन छिटपुट और सशर्त रहा क्योंकि लोग स्वतंत्रता के बाद इतनी जल्दी कांग्रेस को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे ।

और सरकार ने भी इसके साथ कठोरता से निपटने का निर्णय लिया और पिछले शासकों से विरासत में मिले आम दमनकारी साधनों का प्रयोग किया । यद्यपि तेलंगाना में भारतीय सेना ने साम्यवादी विद्रोहियों के खिलाफ अपनी ”पुलिस कार्यवाही” जारी रखी, पश्चिम  बंगाल में सी.पी.आई के नेताओं को बिना मुकदमा चलाए जेल में डालने के लिए जनवरी 1948 में एक नया सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया, जिस पर मार्च में प्रतिबंध लगा दिया गया ।

इस दबाव के कारण, पार्टी ”रूसी मार्ग” अपनाने वाले पोलित ब्यूरो और ‘चीनी मार्ग’ अपनाने वाले आंध्र नेताओं के बीच विभाजित हो गई, तथा 9 मई 1949 की प्रस्तावित रेलवे की हड़ताल विफल होने के बाद इस विवाद  में विशेष रूप से काफी कड़वाहट आ गई ।

सितंबर 1950  के अंत तक, तीन अग्रणी नेताओं, अजय घौष, एस.ए. डांगे और एस.बी., घाटे ने दोनों रणनीतियों की कठोर आलोचना की, जिनका कहना था कि किसी भी रणनीति में भारत की वस्तुगत परिस्थिति पर ध्यान नहीं दिया गया था ।

परिणामस्वरूप सी.पी.आई की नीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए जिसे अक्टूबर 1951 में कलकत्ता में हुई थर्ड पार्टी कांग्रेस में समर्थन दिया गया । इसमें एक नए ”सुनियोजित मार्ग” (tactical line)  की घोषणा की गई, तेलंगाना आंदोलन को वापस ले लिया गया, किसानों, श्रमिकों और मध्य वर्ग के बीच एक व्यापक मोर्चा बनाने पर सहमति दी गई, और 1951-52 के आगामी आम चुनावों में भाग लेने का निर्णय लिया । इस प्रकार भारत के साम्यवादियों ने विद्रोही रणनीति छोड़कर संवैधानिक लोकतंत्र को अपना लिया ।

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