जम्मू-कश्मीर पर शासन करने वाले राजवंशों और राजाओं के बारे में जानने के लिए इस लेख को पढ़ें। | Read this article to learn about the Dynasties and Kings that rule the Jammu and Kashmir.
कश्मीर के हिन्दू-राज्य का इतिहास हमें कल्हण की रजतरंगिणी से ज्ञात होता है । कल्हण जाति का ब्राह्मण था । उसका पिता चम्पक कश्मीर नरेश हर्ष का मंत्री था । यह ज्ञात नहीं है कि कल्हण स्वयं किसी राजकीय पद पर था या नहीं । इस ग्रन्थ की रचना उसने जयसिंह (1127-1159 ई॰) के शासन-काल में पूरी की थी । इसमें कुल आठ तरंग तथा आठ हजार के लगभग श्लोक है । इसकी रचना महाभारत की शैली के आधार पर की गयी है । प्रथम तीन तरंगों में कश्मीर का प्राचीन इतिहास है । चौथे, पाँचवें तथा छठें तरंगों में कार्कोट तथा उत्पल वंशों का इतिहास है । बाद के सातवें तथा आठवें तरंगों में लोहार वश का इतिहास वर्णित है ।
चौथे से आठवें तरंगों का वर्णन अपेक्षाकृत प्रामाणिक है । इसमें लेखक ने घटनाओं का तिथि-क्रमानुसार वर्णन किया है । वह पुरातात्विक साक्ष्यों का भी उपयोग करता है । कल्हण के विवरण में निष्पक्षता है । वह शासकों के गुणों के साथ-साध अवगुणों का भी स्पष्टत: उल्लेख करता है । राजकर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचारों का भी उसने वर्णन किया है ।
राजनीति के अतिरिक्त इसमें नैतिक शिक्षायें भी मिलती है । कल्हण आधुनिक इतिहास-लेखन की विधियों से पूर्णतया परिचित था । उसका प्रन्ध वस्तुत: संस्कृत भाषा में ऐतिहासिक घटनाओं के क्रमबद्ध लेखन का प्रथम सफल प्रयास माना जा सकता है ।
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राजनैतिक इतिहास:
मौर्यकाल में कश्मीर अशोक के साम्राज्य का अंग था जिसने वहाँ श्रीनगर की स्थापना की थी । अशोक के पुत्र जालीक को कश्मीर में हिन्द्व-सभ्यता के प्रचार का श्रेय दिया जाता है । कुषाण साम्राज्य का भी यह एक प्रान्त था तथा कनिष्क के समय में वहाँ कुण्डलवन नामक स्थान में चतुर्थ बौद्ध संगीति हुई थी ।
हूणनरेश मिहिरकुल ने भी मगधराज बालादित्य से पराजित होने पर कश्मीर में शरण ली तथा वही के शासक की हत्या कर एक वर्ष तक शासन किया था । कश्मीर का राज्य हर्ष के साम्राज्य में सम्मिलित नहीं था ।
1. कार्कोट वंश (Carcot Dynasty):
सातवीं शताब्दी में दुर्लभवर्द्धन् नामक व्यक्ति ने कश्मीर में कार्कोट राजवंश की स्थापना की । वह गोनन्दवंश के अन्तिम राजा बालादित्य का एक पदाधिकारी था । इस वश ने कार्कोट वंश के पूर्व कश्मीर में शासन किया था। वह एक शक्तिशाली राजा था । हुएनसांग हमें बताता है कि उसके काल में तक्षशिला, सिंहपुर, उरशा, पुंच तथा राजपूताना कश्मीर राज्य के अंग थे । उसने लगभग 36 वर्षों तक राज्य किया ।
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दुर्लभवर्द्धन का पुत्र तथा उत्तराधिकारी दुर्लभक (632-682 ईस्वी) हुआ जिसने ‘प्रतापादित्य’ की उपाधि ग्रहण की । उसने प्रतापपुर नामक नगर की स्थापना की । उसके तीन पुत्र हुये-चन्द्रापीड, तारापीड तथा मुक्तापीड जिन्हें क्रमश वजादित्य, उदयादित्य तथा ललितादित्य भी कहा जाता है । दुर्लभक ने 50 वर्षों तक राज्य किया। उसके बाद चन्द्रापीड राजा हुआ जो एक पवित्र एवं नेक शासक था ।
नौ वर्षों के शासन के पश्चात् उसकी मृत्यु हो गयी । तत्पश्चात् तारापीड राजा बना जिसे कल्हण ने क्रूर तथा निर्दयी राजा वताया है । चार वर्षों के अल्पकालीन शासन के वाद उसकी मृत्यु हो गयी । इसके पश्चात् मुक्तापीड शासक बना ।
कश्मीर के शासकों में ललितादित्य मुक्तापीड (लगभग 724-760 ईस्वी) सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ । वह एक साम्राज्यवादी शासक था । यशोवर्मन के साथ सन्धि कर उसने तिब्बतियों को पराजित किया । 733 ईस्वी के लगभग उसने
चीनी शासक के दरबार में दूतमण्डल भेजा था । तिब्बतियों के अतिरिक्त उसने कम्बोजों, तुर्कों आदि को भी पराजित किया । परन्तु उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता कन्नौज नरेश यशोवर्मन् को पराजित करना था । इसके फलस्वरूप उसका कन्नौज तथा उसके सीमावर्ती क्षेत्र पर अधिकार हो गया । कल्हण उसकी दिग्विजय का वर्णन करता है ।
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उसके अनुसार ललितादित्य कन्नौज जीतने के वाद पूर्वी समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से होता हुआ कलिंग पहुँचा । गौड़नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की । इसके बाद कर्नाटक को रौंदता हुआ वह कावेरी नदी के तट पर पहुँच गया । यहाँ से विजय करता हुआ वह द्वारका (काठियावाड़) गया । अवन्ति तथा अन्य राज्यों को जीतता हुआ वह उत्तर-पश्चिम के पहाड़ी क्षेत्र में पहुँच गया ।
कल्हण उसे अरवों की विजय का भी श्रेय देता है। यह विवरण कितना ऐतिहासिक है, हम कह नहीं सकते तथापि इतना निश्चित है कि ललितादित्य अपने समय का एक शक्तिशाली राजा था । उसकी विजय ने कश्मीर राज्य को गुप्तों के बाद भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया ।
विजेता होने के साथ-साथ वह एक महान् निर्माता भी था जिसने कश्मीर को भव्य नगरों, मन्दिरों और मूर्तियों से सजाया । सूर्य का प्रसिद्ध मार्तण्ड-मन्दिर उसी के द्वारा बनाया गया था जिसके सुन्दर भग्नावशेष आज भी वर्तमान है ।
इसका निर्माण एक विशाल प्रागण में किया गया है । बीच में गर्भगृह तथा उसके चारों ओर स्तम्भयुक्त प्रदक्षिणापथू मिलता है । मन्दिर के स्तम्भों तथा दीवारों पर विविध मूष्त यी उत्कीर्ण है । यह मन्दिर कश्मीर की स्थापत्य तथा तक्षण कला का सुन्दर उदाहरण है ।
मुक्तापीड की मृत्यु के बाद उसके वश की अवनति प्रारम्भ हो गयी । इस वश का अन्तिम शक्तिशाली राजा जयापीड (विनयादित्य) हुआ । आठवीं शती के अन्त में उसने कन्नौज के शासक वजायुध को पराजित किया । कल्हण उसे निर्दयी तथा धनलोलुप शासक कहता है । 810 ईस्वी में उसकी मृत्यु के साथ ही कार्कोट वंश के शासन की समाप्ति हुई ।
2. उत्पल वंश (Utpal Dynasty):
कार्कोट वंश के वाद कश्मीर में उत्पल वश का शासन स्थापित हुआ । इस वश का पहला राजा अवन्तिवर्मन् (855-883 ईस्वी) था । अवन्तिवर्मन एक लोकोपकारी शासक था जिसने कृषि की उन्नति के लिये सिचाई की उत्तम व्यवस्था करायी । उसकी राजसभा मैं अनेक विद्वान् निवास करते थे ।
उसने अवन्तिपुर नामक नगर की स्थापना की तथा कई मन्दिरों का भी निर्माण करवाया । उसके अभियन्ता सुय्य ने सिंचाई के लिये नहरों का निर्माण करवाया था । अवन्तिवर्मन् का उत्तराधिकारी शंकरवर्मन् (885-902 ईस्वी) हुआ । उसने दार्वाभिसार (झेलम तथा चिनाव के बीच स्थित) त्रिगर्त (कांगड़ा) तथा गुर्जर की विजय की ।
वह एक क्रूर तथा अत्याचारी शामक था जिसने जनता पर भारी-भारी कर लगाये । इन सबके फलस्वरूप जनजीवन त्रस्त हो गया । शंकरवर्मन् के बाद गोपालवर्मन् (902-904 ईस्वी) कश्मीर का राजा बना । वह एक दुर्बल शासक था । उत्पलवंश के बाद के शासक अत्यन्त अयोग्य एवं अत्याचारी हुये जिसके परिणामस्वरूप शासनतन्त्र शिथिल पड़ता गया ।
चारों ओर अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी । दशवीं शती (939 ईस्वी) में यशस्कर नामक एक सामान्य कुलोत्पन्न किन्तु विद्वान् व्यक्ति ने कश्मीर का शासन सम्हाला । उसने देश में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना की । कृषि तथा व्यापार की प्रगति हुई ।
कल्हण यशस्कर के गुणों की प्रशंसा करता है । 948 ईस्वी में उसकी मृत्यु हुई । 980 ईस्वी में उत्पलवंश की रानी दिद्दा एक अत्यन्त महत्वाकांक्षिणी शासिका हुई । उसने राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित की तथा विद्रोहियों का दमन किया ।
किन्तु वह एक दुराचारिणी महिला थी जिसके जीवन का नैतिक स्तर अत्यन्त गिरा हुआ था । उसके समय में निरन्तर विद्रोह होते रहे । 1003 ईस्वी में उसकी मृत्यु के बाद उसका भतीजा संग्रामराज शासक बना । उसने कश्मीर में लोहारवंश की स्थापना की ।
3. लोहार वंश (Lohar Dynasty):
इस वंश का संस्थापक राजा संग्रामराज (1003-1028 ईस्वी) था । उसने अपनी मंत्री तुंग को भटिण्डा के शाही शासक त्रिलोचनपाल की ओर से महमूद गजनवी से लड़ने के लिये भेजा, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली । कश्मीर वापस आने पर तुंग की हत्या कर दी गयी । संग्रामराज के बाद अनन्त कुछ शक्तिशाली राजा हुआ ।
उसने सामन्तों के विद्रोह को दबाया तथा दर्दों एवं मुसलमानों के आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया । उसकी धर्मनिष्ठा रानी सूर्यमती ने प्रशासन को सुधारने में उसकी सहायता की । अनन्त का उत्तराधिकारी कलश हुआ । प्रारम्भ में वह लम्पट और दुराचारी था, किन्तु अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उसने योग्यतापूर्वक शासन-संचालन किया ।
लोहारवंश के राजाओं में कलश के पुत्र हर्ष का नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि वह स्वयं विद्वान्, कवि एवं कई भाषाओं तथा विद्याओं का ज्ञाता था । कल्हण उसका आश्रित कवि था । अपनी विद्वता के कारण वह दूसरे राज्यों में भी प्रसिद्ध हुआ परन्तु शासक के रूप में वह क्रूर तथा अत्याचारी था ।
कल्हण उनके अत्याचारों का वर्णन करता है । वह सुख-सुविधाओं तथा शान-शौकत पर पानी की तरह धन बहाता था । उसकी फिजूलखर्ची के परिणामस्वरूप राज्य में आर्थिक सकट उत्पन्न हो गया जिसको दूर करने के लिये हर्ष ने प्रजा की धारा- भारी कर लगाये तथा बलपूर्वक उन्हें वसूल करवाया ।
इन सबका फल यह हुआ कि सामन्तों ने लोहारवंश के उच्छल तथा सुस्सल नामक दो भाईयों के नेतृत्व में विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया । चतुर्दिक् अशान्ति और अव्यवस्था फैल गयी जिसको दबाने के प्रयास में हर्ष 1101 ईस्वी में मार डाला गया ।
हर्ष की मृत्यु के बाद कश्मीर का इतिहास अराजकता, अव्यवस्था एवं षड्यन्त्रों का इतिहास है । राजतरगिणी से उच्छल, सुस्सल, भिक्षाचर तथा जयसिंह आदि राजाओं के नाम ज्ञात होते है । जयसिंह इस वश का अन्तिम शासक था जिसने 1128 ईस्वी से 1155 ईस्वी तक शासन किया । उसने यवनों को पराजित किया ।
कल्हण की राजतरंगिणी का विवरण जयसिंह के शासन के साथ ही समाप्त हो जाता है । इसके बाद लगभग दो शताब्दियों तक कश्मीर में हिन्दू शासन चलता रहा । अन्ततोगत्वा 1339 ईस्वी में वहाँ मुस्लिम-शासन की स्थापना हुई ।