कुशन साम्राज्य: इतिहास, युद्ध और डाउनफॉल | Kushan Empire: History, Wars and Downfall. Read this article in Hindi to learn about:- 1. कुषाणों का प्रारम्भिक इतिहास (Early History of Kushanas) 2. कुषाण राजवंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Kushan Dynasty) 3. उत्पत्ति तथा प्रसार (Origin and Exposure) and Other Details.
Contents:
- कुषाणों का प्रारम्भिक इतिहास (Early History of Kushanas)
- कुषाण राजवंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Kushan Dynasty)
- कुषाण राजवंश के उत्पत्ति तथा प्रसार (Origin and Exposure of Kushan Dynasty)
- कुषाणों के युद्ध तथा विजयें (Wars and Victories of Kushan Dynasty)
- कुषाणों के राज्यारोहण की तिथि (Date of Accession of Kushanas)
- कुषाणों के मूल्यांकन (Evaluation of Kushanas)
- कनिष्क के उत्तराधिकारी (Successor to Kanishka)
- कुषाण साम्राज्य के पतन के कारण (Causes for the Downfall of Kushan Empire)
1. कुषाणों का प्रारम्भिक इतिहास (Early History of Kushanas):
i. कुजुल कडफिसेस:
ADVERTISEMENTS:
यह इतिहास में कडफिसेस प्रथम के नाम से भी प्रसिद्ध है । उसकी विजयों के विषय में पान-कू के ग्रन्थ हाऊ-हान-शू तथा उसके सिक्कों से सूचना मिलती है । ज्ञात होता है कि उसने पार्थियनों पर आक्रमण कर किपिन तथा काबुल पर अधिकार कर लिया ।
इस प्रकार वह भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश का शासक बन बैठा । कुजुल के दो प्रकार के सिक्के मिलते हैं । प्रथम प्रकार के सिक्कों के मुखभाग पर काबुल के अन्तिम यवन शासक हर्मियस का नाम यूनानी लिपि में तथा पृष्ठभाग पर कुजुल का नाम खरोष्ठी लिपि में खुदा हुआ है ।
इन पर उसकी कोई राजकीय उपाधि नहीं है । दूसरे प्रकार के सिक्कों पर उसकी राजकीय उपाधियाँ, जैसे- ‘महाराजस महतस कुषण-कुयुल कफस’ (महाराज महान कुयुल कफ कुषाण का) उत्कीर्ण हैं । इस आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाला जाता है कि प्रारम्भ में कुजुल यवन नरेश हर्मियस के अधीन शासक था ।
परन्तु बाद में स्वतन्त्र हो गया । हर्मियस के पश्चात् काबुल क्षेत्र में पह्लवों की सत्ता कायम हुई । ऐसा लगता है कि पह्लवों को परास्त कर ही कुजुल ने काबुल तथा कान्धार पर अधिकार कर लिया था । इस प्रकार कुजुल के समय में कुषाण साम्राज्य के अन्तर्गत सम्पूर्ण अफगानिस्तान तथा गन्धार के प्रदेश सम्मिलित हो गये थे ।
ADVERTISEMENTS:
पार्थिया तथा काबुल की विजय से पश्चिमी विश्व के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया । कुजुल ने केवल ताँबे के सिक्के ही प्रचलित करवाये । उसके सिक्कों पर ‘धर्मथिदस’ तथा ‘धर्मथित’ (धर्म में स्थित) उत्कीर्ण है । इस आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था । साधारणत: कुजुल का शासन-काल 15 ईस्वी से 65 ईस्वी के बीच माना जाता है । उसकी मृत्यु 80 वर्ष की दीर्घायु में हुई थी ।
ii. विम कडफिसेस:
कुजुल कडफिसेस की मृत्यु के पश्चात् विम कडफिसेस राजा हुआ । वह कडफिसेस द्वितीय के नाम से भी जाना जाता है । चीनी ग्रन्थ ‘हाऊ-हान-शू’ से पता चलता है कि उसने ‘तिएन-चू’ की विजय की तथा वहाँ अपने एक सेनापति को शासन करने के लिये नियुक्त किया ।
‘तिएन-चू’ का समीकरण सिन्धु द्वारा सिंचित पंजाब क्षेत्र से स्थापित किया गया है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम विम कडफिसेस के समय में ही भारत में कुषाण सत्ता स्थापित हुई थी । विम कडफिसेस ने स्वर्ण तथा तांबे के सिक्के खुदवाये थे । उन पर यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों में लेख मिलते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
सिक्कों का विस्तार पश्चिम में आक्सस-काबुल घाटी से लेकर पूर्व में सम्पूर्ण सिन्ध क्षेत्र तक है । कुछ सिक्के भींटा, कौशाम्बी (प्रयाग), बक्सर तथा बसाढ़ (बिहार) से मिले हैं । सिक्कों के पृष्ठभाग पर खरोष्ठी लिपि में ‘महाराजस राजाधिराजस सर्वलोगइश्वरस महिश्वरस विम कडफिसेस त्रतरस’ (महाराज राजाधिराज सर्वलोकेश्वर महेश्वर विम कडफिसेस त्राता का) उत्कीर्ण मिलता है ।
इससे स्पष्ट होता है कि वह एक शक्तिशाली राजा था । सिक्कों पर शिव, नन्दी तथा त्रिशूल की आकृतियाँ मिलती हैं । इससे उसका शैव मतानुयायी होना भी सूचित होता है । उसने ‘महेश्वर’ की उपाधि धारण की थी ।
उसके विशुद्ध स्वर्ण सिक्कों से साम्राज्य की समृद्धि एवं सम्पन्नता सूचित होती है । प्लिनी के विवरण से पता चलता है कि उसके समय में भारत तथा रोम के व्यापारिक सम्बन्ध अत्यन्त विकसित थे । चीन के साथ भी उसका व्यापारिक संबन्ध था ।
मथुरा के पास माट नामक स्थान से सिंहासन पर विराजमान एक विशाल मूर्ति मिली है जिस पर ‘महाराज राजाधिराज देवपुत्र कुषानपुत्र षाहि वेम तक्षम’ लेख खुदा हुआ है । काशी प्रसाद जायसवाल इस लेख के वेम की पहचान विम कडफिसेस से ही करते हैं । यदि यह समीकरण स्वीकार कर लिया जाये तो यह कहा जा सकता है कि उसके समय में कुषाण साम्राज्य मथुरा तक फैला था । विम कडफिसेस ने सम्भवत: 65 ईस्वी से 78 ईस्वी तक शासन किया ।
सोटर मेगस:
पंजाब, कन्धार तथा कम्बुल घाटी क्षेत्र से अनेक ऐसे सिक्के मिले हैं जिनसे ‘सोटर मेगस’ की उपाधि वाले किसी अज्ञातनामा शासक के अस्तित्व का पता चलता है । इस शासक की पहचान सुनिश्चित नहीं है । कुछ विद्वान् इसे विम कडफिसेस ही मानते हैं ।
अधिक संभावना यह है कि वह विम कडफिसेस का राज्यपाल था जो तक्षशिला में शासन करता है । विम की मृत्यु के उपरान्त वह कुछ समय के लिये स्वतन्त्र हो गया तथा इसी बीच उसने अपने नाम के सिक्के चलवा दिये । कनिष्क के उदय के साथ उसकी स्वतन्त्रता का अन्त हो गया ।
2. कुषाण राजवंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Kushan Dynasty):
कुषाण वंश के प्रारम्भिक इतिहास के ज्ञान के लिये हमें मुख्यतः चीनी स्रोतों पर निर्भर करना पड़ता है । चीनी ग्रन्थों में ‘पान-कु’ कृत ‘सिएन-हान-शू’ तथा फान-ए कृत ‘हाऊ-हान-शू’ उपयोगी हैं । पहला प्रथम हनवंश का इतिहास तथा दूसरा परवर्ती हनवंश का इतिहास है ।
पान-कू के ग्रंथ से यू-ची जाति के हूण, शक तथा पार्थियन राजाओं के साथ संघर्ष का विवरण मिलता है तथा ज्ञात होता है कि यू-ची जाति पाँच कबीलों में विभक्त थी । फान-ए के ग्रन्थ ‘हाऊ-हान-शू’ से 25 ईस्वी से लेकर 125 ईस्वी तक यू-ची जाति का इतिहास ज्ञात होता है । इससे पता चलता है कि यू-ची कबीला कुई-शुआँग (कुषाण) सबसे शक्तिशाली था जिसके सरदार कुजुल कडफिसेस ने अन्य कबीलों को जीतकर एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण किया था ।
कुषाण वंश के प्रथम दो शासकों के इतिहास का अध्ययन हम उपर्युक्त चीनी ग्रन्थों के अतिरिक्त पह्लव शासक गोण्डोफर्नीज के तख्तेबाही अभिलेख तथा इन राजाओं द्वारा खुदवाये गये विविध प्रकार के सिक्कों के आधार पर भी करते हैं । कुषाण शासकों में विम कडफिसेस ने ही सर्वप्रथम भारत में स्वर्ण सिक्के प्रचलित करवाये थे ।
चीनी स्रोतों तथा सिक्कों से कडफिसेस राजाओं की विजयों तथा राज्य-विस्तार की सूचना मिलती है । कनिष्क तथा उनके उत्तराधिकारियों का इतिहास हमें मुख्य रूप से तिब्बती बौद्ध स्रोतों, संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों के चीनी अनुवाद तथा चीनी यात्रियों-फाहियान तथा हुएनसांग के विवरण से ज्ञात करते हैं ।
तिब्बती स्रोतों से पता चलता है कि कनिष्क खोतान के राजा विजयकीर्ति का समकालीन था तथा उसी की सहायता से उसने साकेत पर विजय किया था । संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों- श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र, संयुक्तरत्नपिटक तथा कल्पनामण्डिटीका के चीनी भाषा में हुए अनुवाद से हम कनिष्क की पूर्वी तथा उत्तरी भारतीय विजयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
कनिष्क तथा उसके वंशजों की विजयों एवं साम्राज्य-विस्तार का ज्ञान हमें उनके बहुसंख्यक लेखों तथा सिक्कों से भी प्राप्त होता है । कौशाम्बी, सारनाथ, मथुरा, सुई विहार, जेदा (उन्द), मनिक्याल आदि स्थानों से कनिष्क के लेख मिलते हैं । उसके उत्तराधिकारियों-हुविष्क तथा कनिष्क द्वितीय के लेख क्रमशः मथुरा तथा आरा (अटक) से प्राप्त होते हैं ।
उत्तर प्रदेश, बिहार तथा बंगाल के विभिन्न स्थानों से कनिष्क तथा उसके वंशजों के सिक्के प्राप्त हुये हैं । अभिलेखों तथा सिक्कों के प्रसार से जहाँ एक ओर उनका साम्राज्य विस्तार सूचित होता है वहीं दूसरी ओर राज्य की आर्थिक समृद्धि तथा धर्म के विषय में भी जानकारी मिलती है ।
चीनी यात्री फाहियान तथा हुएनसांग के विवरणों से भी कनिष्क के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है । उपर्युक्त स्रोतों के अतिरिक्त तक्षशिला (पाकिस्तान) तथा बेग्राम (अफगानिस्तान) से की गई खुदाइयों से भी कुषाण इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये उपयोगी सामग्रियाँ मिल जाती हैं ।
तक्षशिला की खुदाई 1915 ईस्वी में सर जॉन मार्शल द्वारा करवायी गयी थी । यहाँ से कुषाणकालीन सिक्के तथा स्मारक मिलते हैं । इन्हीं के आधार पर यह निश्चित करने में सहायता मिली कि कनिष्क कुल ने कडफिसेस कुल के बाद शासन किया था ।
बेग्राम में पहले हाकिन तथा फिर घिर्शमन द्वारा खुदाइयाँ करवायी गयी थीं । यहाँ से कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के सिक्के प्राप्त हुये हैं । इनके आधार पर कनिष्क कुल के इतिहास से सम्बन्धित कुछ तथ्य ज्ञात होते हैं ।
3. कुषाण राजवंश के उत्पत्ति तथा प्रसार (Origin and Exposure of Kushan Dynasty):
कुषाणों की उत्पत्ति तथा उनकी राष्ट्रीयता का प्रश्न एक विवाद का विषय है । कुछ विद्वान ‘कुषाण’ शब्द को कुल या वंश का सूचक मानते हैं जबकि कुछ अन्य लोगों का विचार है कि कुषाण नामक व्यक्ति इस वंश का संस्थापक अथवा आदि पुरुष था तथा उसी के नाम पर उसके वंशजों को कुषाण कहा गया ।
इसके विपरीत चीनी स्रोतों में कुषाण शब्द को प्रादेशिक संज्ञा माना गया है । इसी प्रकार कुषाणों की राष्ट्रीयता का प्रश्न भी विद्वानों के बीच विवाद का विषय है । विभिन्न विद्वान् उन्हें तुर्की, शकों, मंगोलों, हूणों आदि के साथ सम्बन्धित करते हैं ।
किन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं है । कुषाण यू-ची जाति की एक शाखा थे । यू-ची लोग प्रारम्भ में चीन के सीमावर्ती प्रदेशों-कानसू तथा निंग-सिया-में निवास करते थे । 165 ईसा पूर्व के लगभग हुड्ग-नु (हूण) नामक एक अन्य पड़ोसी जाति द्वारा पराजित किये जाने पर वे अपना मूल निवास-स्थान छोड़ने के लिये बाध्य हुये ।
अपने मूल निवास-स्थान से दक्षिण-पश्चिम की ओर जाते हुए इन्होंने इली नदी-घाटी में निवास करने वाली ‘वु-सुन’ नामक एक अन्य जाति पर आक्रमण कर उन्हें परास्त किया तथा उसके राजा की हत्या कर दी । पराजित वु-सुन जाति ने उत्तर की ओर भाग कर हुड्ग-नु (हूण) राज्य में शरण लिया । इसके बाद यू-ची लोग और आगे पश्चिम की ओर बढ़े ।
वे दो शाखाओं में बँट गये:
(i) छोटी शाखा- यह दक्षिण की ओर गयी और तिब्बत की सीमा में बस गई ।
(ii) मुख्य शाखा- यह दक्षिण-पश्चिम में आगे बढ़ती हुई सीर-दरया घाटी में रहने वाली शक जाति से जा टकराई । उसने शकों को खदेड़ दिया तथा वहाँ रहने लगी ।
परन्तु सीर-दरया में यू-ची लोग अधिक दिन तक नहीं रह सके । वु-सुन जाति, जिसके राजा की यू-ची ने इली घाटी में हत्या की थी, ने हुड्ग-नु की सहायता से मृत राजा के पुत्र के नेतृत्व में यू-ची जाति पर सीर-दरया घाटी में आक्रमण किया । इस बार यू-ची परास्त हुए तथा उन्हें सीर-दरया घाटी छोड़नी पड़ी । यहाँ से वे सुदूर पश्चिम की ओर बढ़ते हुए ‘ताहिया’ (बैक्ट्रिया) पहुँचे । ताहिया के निवासियों को उन्होंने बड़ी आसानी से परास्त कर अपने अधीन कर लिया ।
यू-ची ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया तथा आक्सस नदी के उत्तर में आधुनिक बोखारा (प्राचीन सोग्डियाना) में अपनी राजधानी बसाई । 125 ईसा पूर्व के लगभग चांगकियेन नामक चीनी राजदूत ने इसी स्थान में स्थित यू-ची राज्य की राजधानी की यात्रा की थी । चीनी इतिहासकार पान-कू, जिसने 24 ईसा पूर्व तक का प्रथम हनवंश का इतिहास लिखा है, के विवरण से ज्ञात होता है कि अब यू-ची लोग खानाबदोश न रहे और उनका साम्राज्य पांच प्रदेशों में विभक्त हो चुका था ।
(i) हिऊमी- यह संभवतः पामीर के पठार तथा हिन्दुकुश के बीच बसा हुआ वाकहान प्रदेश था ।
(ii) शु-आँग-मी- वाकहान तथा हिन्दूकुश के दक्षिण में स्थित चित्राल प्रदेश था ।
(iii) कुई-शुआंग (कुषाण)- यह चित्राल तथा पंजषिर के बीच बसा हुआ था ।
(iv) हि-तुन (हित-सुन)- यह पंजषिर में स्थित परवान था ।
(v) काओ-फु- इससे तात्पर्य काबुल के प्रदेश से है ।
फान-ए द्वारा लिखे गये परवर्ती हनवंश के इतिहास से पता चलता है कि इस विभाजन के 100 वर्षों के वाद कुई-शुआंग के सरदार (याबगू) क्यू-त्सियु-क्यो ने अन्य चारों राज्यों को विजित कर उन्हें एक शक्तिशाली राजतन्त्र के अन्तर्गत संगठित कर दिया तथा स्वयं राजा (बांग) बन बैठा ।
क्यु-त्सियु-क्यो का समीकरण कुजुल (कुसुलक) से किया जाता है जो कडफिसेस प्रथम की एक उपाधि थी । अत: कुषाण शाखा का यह राजा कुजुल कडफिसेस अथवा कडफिसेस प्रथम ही था । इस शाखा के राजाओं ने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है ।
4. कुषाणों के युद्ध तथा विजयें (Wars and Victories of Kushan Dynasty):
कनिष्क एक महान् विजेता था जिसने कडफिसेस साम्राज्य को बहुत अधिक विस्तृत किया ।
उसके युद्ध तथा विजयों का विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है:
a. पूर्वी भारत की विजय:
वाराणसी के पास सारनाथ से कनिष्क के शासन के तीसरे वर्ष का अभिलेख प्राप्त हुआ है । बिहार तथा उत्तर बंगाल से उसके शासन काल के बहुसंख्यक सिक्के मिलते है । ‘श्रीधर्मापिटकनिदानसूत्र’ के चीनी अनुवाद से पता चलता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह परास्त किया तथा हर्जाने के रूप में एक बहुत बड़ी रकम की माँग की ।
परन्तु इसके बदले में वह अश्वघोष लेखक, बुद्ध का भिक्षा-पात्र तथा एक अद्भुत मुर्गा पाकर ही संतुष्ट हो गया । स्पूनर ने पाटलिपुत्र की खुदाई के दौरान कुछ कुषाण सिक्के प्राप्त किये थे । सिक्कों का एक ढेर बक्सर (भोजपुर जिला) से मिला है । वैशाली तथा कुम्रहार से भी कुषाण सिक्के मिलते हैं ।
बोधगया से हुविष्क के समय का मृण्मूर्तिफलक मिला है । ये सब बिहार पर कनिष्क के अधिकार की पुष्टि करते हैं । बिहार के आगे बंगाल के कई स्थानों, जैसे- तामलुक (ताम्रलिप्ति) तथा महास्थान से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं ।
दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा प्रान्त के मयूर-भंज, शिशुपालगढ़, पुरी गंजाम आदि से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं । किन्तु मात्र सिक्कों के प्रसार से ही कनिष्क के साम्राज्य-विस्तार का निष्कर्ष निकाल लेना युक्तिसंगत नहीं लगता । सिक्के व्यापारिक प्रसंग में भी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाये जाते थे ।
तथापि पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार पर कनिष्क का अधिकार सुनिश्चित है । हाल ही में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ. के. के. सिनहा तथा बी. पी. सिंह के निर्देशन में बलिया जिले के खैराडीह नामक स्थान पर खुदाई की गयी है जिसके परिणामस्वरूप एक अत्यन्त समृद्धिशाली कुषाणकालीन बस्ती का पता चला है ।
घाघरा नदी के तट पर स्थित यह नगर एक प्रमुख व्यापारिक स्थल रहा होगा । इससे भी पूर्वी उत्तर प्रदेश पर कुषाणों का आधिपत्य प्रमाणित होता है और यह कनिष्क के काल में ही संभव हुआ होगा । कौशाम्बी तथा श्रावस्ती से प्राप्त बुद्ध प्रतिमाओं की चरण-चोटियों पर उत्कीर्ण अभिलेखों में कनिष्क के शासन-काल का उल्लेख मिलता है । कौशाम्बी से कनिष्क की एक मुहर भी मिली है । इन प्रमाणों से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने उपर्युक्त प्रदेशों की विजय की थी ।
b. चीन के साथ युद्ध:
चीनी तुर्किस्तान (मध्य एशिया) के प्रश्न पर कनिष्क तथा चीन के बीच युद्ध छिड़ा । चीनी स्रोतों से ज्ञात होता है कि 73 ईस्वी से 94 ईस्वी के बीच चीन का प्रसिद्ध सेनापति पानचाऊ अपने हनवंशी नरेश के आदेशों पर चीनी तुर्किस्तान की विजय के लिये प्रस्तुत हुआ ।
उसने खोतान, काशगर, कच्छ की विजय की तथा पामीर के उत्तर-पूर्व में चीनी आधिपत्य कायम किया । 88 अथवा 90 ईस्वी में यू-ची नरेश (कनिष्क) ने 70 हजार अश्वारोहियों की एक विशाल सेना सुंग-लिन् पर्वत के पार चीनियों से युद्ध के लिये भेजी ।
चीनी इतिहासकार युद्ध का कारण यह बताते हैं कि कनिष्क ने चीनी सेनापति के पास अपना एक दूत भेज कर हन राजकुमारी से विवाह की माँग की । पान-चाऊ ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया । इस पर रुष्ट होकर कनिष्क ने उसके राज्य पर चढ़ाई कर दी ।
परन्तु कनिष्क असफल रहा और पान-चाऊ ने उसकी सेना को परास्त कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । कनिष्क की इस असफलता का संकेत एक भारतीय अनुश्रुति में भी किया गया है जिसके अनुसार उसने यह घोषित किया था कि- ‘मैंने उत्तर को छोड़कर अन्य तीन क्षेत्रों को जीत लिया है ।’
परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कनिष्क ने शीघ्र ही अपनी पराजय का बदला ले लिया । हुएनसांग हमें बताता है कि- ‘गन्धार प्रदेश के राजा कनिष्क ने प्राचीन काल में सभी पड़ोसी राज्यों को जीत कर एक विस्तृत प्रदेश पर शासन किया । सुंग-लिन पर्वत के पूर्व में भी उसका अधिकार था ।’
यहाँ सुंग-लिन के पूर्व के प्रदेश से तात्पर्य चीनी तुर्किस्तान से ही है जिसमें यारकन्द, खोतान तथा काशगर सम्मिलित थे । प्रो. बेली को खोतान से एक पाण्डुलिपि मिली जिसमें बहलक (बैक्ट्रिया) के शासक ‘चन्द्र कनिष्क’ का उल्लेख हुआ है ।
इससे भी कनिष्क का खोतान पर अधिकार प्रमाणित होता है । चीनी तुर्किस्तान के अतिरिक्त बैक्ट्रिया, ख्वारिज्म तथा तुखारा पर भी उसका अधिकार था । चीनी स्रोतों से विदित होता है कि पार्थिया के शासक ने कनिष्क के ऊपर आक्रमण किया किन्तु कनिष्क से उसे पराजित कर दिया ।
c. पश्चिमोत्तर प्रदेशों की विजय:
कनिष्क के शासन काल के ग्यारहवें वर्ष का अभिलेख सुई बिहार से मिला है । इससे यह प्रमाणित होता है कि अपने शासन के ग्यारहवें वर्ष में उसने निचली सिन्धु घाटी को जीत लिया था । इसी वर्ष का एक लेख जेद्दा (उन्द-पेशावर) से मिला है । कपिशा में कनिष्क के अधिकार की पुष्टि हुएनसांग करता है ।
काबुल के वार्दाक से शक संवत् 151 तिथि वाला हुविष्क का एक लेख मिला है जो अफगानिस्तान के ऊपर कुषाण सत्ता को प्रमाणित करता है । यह विजय भी कनिष्क के समय में ही की गयी होगी । कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि उसका कश्मीर पर अधिकार था । इसके अनुसार उसने यहाँ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया था ।
d. दक्षिण भारत:
साँची से कनिष्क संवत् 28 का एक लेख मिला है । यह वासिष्क का है तथा बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है । वासिष्क की किसी भी उपलब्धि का ज्ञान हमें नहीं है । उसका शासन मात्र चार वर्षों का था । अत: कहा जा सकता है कि यह भूभाग कनिष्क द्वारा ही विजित किया गया होगा । साँची लेख में ‘वासु’ नामक किसी राजा का उल्लेख मिलता है । यह संभवतः कनिष्क के समय में मालवा का उपराजा रहा होगा ।
ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि दक्षिण में कम से कम विध्यपर्वत तक कनिष्क का साम्राज्य विस्तृत था । साँची के एक अन्य लेख में ‘वास’ नामक किसी राजा का उल्लेख मिलता है । वह संभवतः कनिष्क के समय में मालवा का उपराजा था ।
e. साम्राज्य तथा शासन:
अपनी अनेकानेक विजयों के द्वारा कनिष्क ने अपने लिये एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया । उसके विभिन्न लेखों तथा सिक्कों के आधार पर हम उसकी साम्राज्य सीमा का निर्धारण कर सकते हैं । उसका साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पश्चिम में उत्तरी अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं विहार तक विस्तृत था ।
राजतरंगिणी से जहाँ कश्मीर पर उसका अधिकार सूचित होता है वहीं सुई-बिहार तथा साँची के लेख सिन्ध, मालवा, गुजरात, राजस्थान के कुछ भाग तथा उत्तरी महाराष्ट्र पर उसके अधिकार की पुष्टि करते हैं । इसी प्रकार कौशाम्बी, श्रावस्ती, सारनाथ आदि के लेख पूर्वी उत्तर प्रदेश पर उसके आधिपत्य की सूचना देते हैं ।
यह एक अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य था । पुरुषपुर (पेशावर) इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी । कनिष्क के शासन-प्रबन्ध के विषय में हमें बहुत कम पता है । वह एक शक्ति सम्पन्न सम्राट था । लेखों में उसे ‘महाराजराजाधिराजदेवपुत्र’ कहा गया है । ‘देवपुत्र’ की उपाधि से यह सूचित होता है कि वह अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था ।
यह उपाधि उसने चीनी सम्राटों के अनुकरण पर ग्रहण की होगी क्योंकि चीनी सम्राट भी अपने को ‘स्वर्गपुत्र’ कहते थे । टामस का विचार है कि ‘देवपुत्र’ कुषाणों की शासकीय उपाधि नहीं थी अपितु यह प्रजा द्वारा प्रदान की गयी थी । इसी कारण इसका सिक्कों पर अंकन नहीं मिलता ।
आर. एस. शर्मा के अनुसार इसके माध्यम से उन्होंने अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का प्रयास किया । रोमन शासकों के अनुकरण पर कुषाण राजाओं ने भी मृत शासकों की स्मृति में मन्दिर तथा मूर्तियाँ (देवकुल) बनवाने की प्रथा का प्रारम्भ किया था ।
‘राजाधिराज’ की उपाधि से सूचित होता है कि कुषाण सम्राट के अधीन कई छोटे-छोटे राजा शासन करते थे । प्रयाग लेख से सूचित होता है कि कुषाण शासक देवपुत्र के अतिरिक्त षाहि तथा षाहानुषाहि की उपाधियाँ भी धारण करते थे ।
‘षाहि’ सामन्त तथा ‘षाहानुषाहि’ स्वामी सूचक उपाधि है । इस प्रकार प्रशासन में सामन्तीकरण की प्रक्रिया का प्रारम्भ शाक-कुषाण काल से ही होता दिखाई पड़ता है । कालान्तर में गुप्त सम्राटों ने इसी प्रकार की विशाल उपाधियाँ ग्रहण कीं ।
कनिष्क अपने विस्तृत साम्राज्य का निरंकुश शासक था । प्रशासन की सुविधा के लिये उसने साम्राज्य को अनेक क्षत्रपियों में विभाजित किया था । बड़ी क्षत्रपी के शासक को ‘महाक्षत्रप’ तथा छोटी क्षत्रपी के शासक को ‘क्षत्रप’ कहा जाता था ।
उसके अभिलेखों में अनेक क्षत्रपों के नाम मिलते हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने साम्राज्य का शासन क्षत्रपों की सहायता से करता था । सारनाथ के लेख में महाक्षत्रप खरपल्लान तथा क्षत्रप बनस्पर का उल्लेख मिलता है ।
खरपल्लान मथुरा में महाक्षत्रप था तथा बनस्पर वाराणसी में क्षत्रप की हैसियत से शासन करता था । उत्तर-पश्चिम में लल्ल तथा लाइक उसके क्षत्रप थे । पश्चिमोत्तर भाग में कपिशा तथा तक्षशिला उसके शासन के केन्द्र रहे होंगे । क्षत्रप के पद पर अधिकतर विदेशी व्यक्तियों की ही नियुक्ति होती थी, जैसा कि उनके नाम से पता चलता है । कुछ क्षत्रप आनुवंशिक होते थे । कभी-कभी एक ही प्रदेश के ऊपर दो क्षत्रप एक साथ शासन करते थे ।
इस प्रकार एक ही प्रान्त पर दो शासक नियुक्त करने की विचित्र प्रथा का प्रारम्भ कुषाणों के समय देखने को मिलता है । समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख से पता चलता है कि कुषाण राज्य में ‘विषय’ तथा ‘भुक्ति’ जैसी प्रशासनिक इकाइयाँ होती थीं ।
सामान्य नागरिकों के समान क्षत्रप भी बुद्ध प्रतिमाओं की स्थापना करते तथा दानादि देते थे । किन्तु उनके वेतन तथा कार्यकाल के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है । मथुरा सम्भवत: उसके शासन का मुख्य केन्द्र था तथा दूसरा प्रशासनिक केन्द्र वाराणसी में था ।
कनिष्क के लेखों में किसी सलाहकारी परिषद् का उल्लेख नहीं मिलता । कुषाण लेखों में हम पहली बार ‘दण्डनायक’ तथा ‘महादण्डनायक’ जैसे पदाधिकारियों का उल्लेख पाते हैं । संभवतः वे सैनिक अधिकारी थे । ग्रामों का शासन ‘ग्रामिक’ द्वारा चलाया जाता था जिसका उल्लेख मथुरा लेख में मिलता है । संभवतः उसका प्रमुख कार्य राजस्व वसूल करके केन्द्रीय कोष में जमा करना होता था । किन्तु ऐसा लगता है कि कनिष्क का शासन अधिकांशतः सैनिक शक्ति पर आधारित था और इसलिये वह स्थायी नहीं हो सका ।
f. कनिष्क का अन्त:
कनिष्क के अन्तिम दिनों के विषय में हमें निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है । संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों के चीनी अनुवाद में उसकी मृत्यु सम्बन्धी जो अनुश्रुति सुरक्षित है उससे पता चलता है कि उसकी अतिशय लोलुपता, निर्दयता तथा महत्वाकांक्षा से प्रजा में भारी असंतोष फैल गया ।
निरन्तर युद्धों के कारण उसके सैनिक तंग आ गये तथा उसके विरुद्ध एक विद्रोह उठ खड़ा हुआ । एक बार जब वह उत्तरी अभियान पर जा रहा था, मार्ग में बीमार पड़ा । उसी समय उसके सैनिकों ने लिहाफ से उसका मुँह ढंककर मुग्दरों से पीटकर उसे मार डाला ।
यह कथा कहाँ तक सही है, यह नहीं कहा जा सकता तथापि इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि इस महान् कुषाण सम्राट का अन्त दु:खद रहा । कनिष्क ने कुल 23 वर्षों तक राज्य किया । यदि हम उसके राज्यारोहण की तिथि 78 ईस्वी मानें तो तदनुसार उसकी मृत्यु 101 ईस्वी के लगभग हुई ।
विम कडफिसेस के पश्चात् कुषाण शासन की बागडोर कनिष्क के हाथों में आयी । कनिष्क निश्चित रूप से भारत के कुषाण राजाओं में सबसे महान् है । उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में उसका नाम प्रभामण्डल से युक्त है । उसके लगभग बारह अभिलेख तथा बहुसंख्यक स्वर्ण एवं ताम्र मुद्रायें प्राप्त हुई हैं ।
बौद्ध साहित्य, अभिलेख तथा सिक्कों के आधार पर हम उसके इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं । कनिष्क की उत्पत्ति, वंश तथा प्रारम्भिक जीवन अन्धकारपूर्ण है । यह भी स्पष्ट नहीं है कि पूर्ववर्ती कडफिसेस राजाओं से उसका कोई सम्बन्ध था अथवा नहीं । स्टेनकोनो जैसे कुछ विद्वानों की धारणा है कि कनिष्क यू-ची का छोटी शाखा से सम्बन्धित था तथा भारत में खोतान से आया था ।
किन्तु चीनी ग्रन्थों में कनिष्क के वंशज वायुदेव को ‘ता-यू-ची’ (बड़ी यू-ची) का शासक बताया गया है । इसी प्रकार कनिष्क की उत्पत्ति तथा वंश-परम्परा पूर्णतया अनुमानपरक ही है । हाल ही में उत्तरी अफगानिस्तान के रवाता नामक स्थान से कनिष्क का एक लेख मिला हैं जिसमें उसकी वंशावली दी गयी है ।
लेख में कनिष्क की उपाधि ‘देवपुत्र’ मिलती है तथा इसमें उसे विम कडफिसेस का पुत्र कहा गया है । उसे साकेत, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र आदि का विजेता बताया गया है । कनिष्क द्वारा संवत प्रवर्तन का भी उल्लेख है । यदि इस लेख को प्रामाणिक माना जाय तो कनिष्क की वंशावली संबंधी विवाद समाप्त हो जायेगा ।
5. कुषाणों के राज्यारोहण की तिथि (Date of Accession of Kushanas):
दुर्भाग्यवश हमें किसी भी साक्ष्य से उसके राज्यारोहण की निश्चित तिथि का ज्ञान नहीं होता । फलस्वरूप कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि का निर्धारण भारतीय इतिहास का सर्वाधिक विवादास्पद प्रश्न रहा है । आज भी इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना कठिन है ।
इस विषय में कुछ प्रमुख मत इस प्रकार हैं:
(1) फ्लीट तथा कनेडी के अनुसार कनिष्क दोनों कडफिसेस राजाओं के पहले हुआ था । वह 58 ईसा पूर्व में गद्दी पर बैठा तथा उसने जिस सम्वत् की स्थापना की कालान्तर में वह विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ । परन्तु उपर्युक्त मत मार्शल द्वारा तक्षशिला की खुदाई में प्राप्त हुए पुरातत्वीय प्रमाणों के आधार पर खण्डित हो जाता है । तक्षशिला की खुदाई में ऊपरी सतह से कनिष्क-परिवार की तथा निचली सतह से कडफिसेस-परिवार की मुद्रायें मिली हैं जिससे कनिष्क परिवार कडफिसेस परिवार से परवर्ती सिद्ध होता है ।
पुन: कनिष्क के लेख, मुद्राओं तथा हुएनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि कनिष्क का गन्धार प्रदेश पर अधिकार था । परन्तु चीनी साक्ष्यों द्वारा प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के द्वितीय चरण में गन्धार प्रदेश पर इन-मो-फू का अधिकार प्रमाणित होता है । चीनी ग्रन्थ कडफिसेस प्रथम को ही कुषाण शाखा का पहला राजा बताते हैं ।
(2) रमेशचन्द्र मजूमदार के अनुसार कनिष्क 248 ईस्वी में गद्दी पर बैठा था और उसने त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि सम्वत् का प्रवर्तन किया । आर. जी. भंडारकर कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 278 ईस्वी में रखते हैं ।
परन्तु कनिष्क को इतना बाद में ले जाने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है । कुषाण लेखों से ज्ञात होता है कि कनिष्क काल के 98वें वर्ष में वासुदेव मथुरा पर शासन कर रहा था । यदि इस तिथि को त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि सम्वत् की तिथि माना जाय तो इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि 346 (98 + 248) ईस्वी में वासुदेव मथुरा का शासक था । परन्तु गुप्त अभिलेखों से पता चलता है कि मथुरा इस तिथि के पूर्व ही गुप्तों के अधिकार में आ चुका था ।
पुराणों के विवरण से पता चलता है कि गुप्तों के पूर्व यहाँ नागवंश का शासन था । तिब्बती अनुश्रुतियों में कनिष्क को खोतान नरेश विजयकीर्ति का समकालीन बताया गया है । विजयकीर्ति का समय द्वितीय शताब्दी ईस्वी के पहले का है । इन प्रमाणों के प्रकाश में हम कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 248 ईस्वी नहीं मान सकते । ये ही तर्क भण्डारकर की 278 ईस्वी की तिथि के विरुद्ध भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं ।
(3) मार्शल, स्टेनकोनों तथा स्मिथ आदि कुछ विद्वान् कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 125 ईस्वी बताते हैं । घिर्शमन् नामक विद्वान् ने कनिष्क की तिथि 144 ईस्वी निकाली है । यह मत पूर्वी अफगानिस्तान के बेग्राम नामक स्थान की खुदाई से प्राप्त हुए कुषाण अवशेषों पर आधारित है । यहाँ से वासुदेव नामक राजा के सिक्के मिलते हैं जिसकी पहचान वासुदेव प्रथम से की गयी है ।
घिर्शमन् के अनुसार यह नगर ससानी नरेश शापुर प्रथम द्वारा 240 ईस्वी से 250 ईस्वी के बीच विनष्ट कर दिया गया । इसके साथ ही कुषाण साम्राज्य का अन्त हुआ । वासुदेव की तिथि 74 से 98 तक मिलती है । इस प्रकार कनिष्क द्वारा प्रवर्तित संवत् की तिथि 144 ईस्वी के लगभग निकलती है । बैजनाथ पुरी ने इस तिथि का समर्थन किया है । परन्तु कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ईस्वी के मध्य में रखने में विरुद्ध कुछ ठोस आपत्तियाँ है जिनकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते ।
शकक्षत्रप रुद्रदामन् (130-150 ईस्वी) के जूनागढ़ अभिलेख से सिन्धु-सौवीर पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है । वह महाक्षत्रप था जो किसी अन्य शासक की अधीनता स्वीकार नहीं कर सकता था । इधर सुई बिहार (सिन्धु-क्षेत्र) से प्राप्त कनिष्क का अभिलेख निचली सिन्धु घाटी पर उसका अधिकार सिद्ध करता है ।
यदि हम कनिष्क को 125 अथवा 144 ईस्वी में शासन करते हुए मानें तो वह रुद्रदामन का समकालीन सिद्ध होता है । ऐसी स्थिति में दोनों का सिन्ध क्षेत्र पर एक साथ आधिपत्य कैसे सम्भव हो सकता है । जो विद्वान् कनिष्क की तिथि 144 ईस्वी में निर्धारित करते हैं उनका मत है कि कनिष्क ने सुई बिहार को रुद्रदामन् की मृत्यु के बाद (150 ईस्वी के बाद) जीता होगा । सुई बिहार का लेख उसके राज्यकाल के ग्यारहवें वर्ष का है ।
यदि उसके राज्यारोहण की तिथि 144 ईस्वी मानी जाये तो तदनुसार सुई बिहार पर उसका अधिकार 144 + 11 = 155 ईस्वी में हुआ था । किन्तु यदि हम रुद्रदामन् के उत्तराधिकारियों के इतिहास पर विचार करें तो यह मत तर्कसंगत नहीं प्रतीत होगा ।
रुद्रदामन् के बाद दामघसद तथा फिर जीवदामन् प्रथम ने शासन किया । सिक्कों से स्पष्ट है कि वे दोनों रुद्रदामन् के समान ‘महाक्षत्रप’ थे । जीवदामन् ने 180 ईस्वी के लगभग तक स्वतन्त्र शासक के रूप में राज्य किया ।
इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि सुई बिहार अथवा रुद्रदामन् द्वारा विजित कोई अन्य प्रदेश इस समय तक शकों के अधिकार से बाहर चला गया हो । ऐसी स्थिति में यह स्वीकार कर सकना कठिन है कि कनिष्क ने सुई बिहार क्षेत्र की विजय रुद्रदामन् के उत्तराधिकारियों को हरा कर की होगी ।
इसके विपरीत इस बात की संभावना अधिक है कि रुद्रदामन् ने ही कुषाणों से सिन्ध-सौवीर का राज्य छीना होगा । वर्ष 61 से 66 तक का कनिष्क कुल का कोई लेख नहीं मिलता है । इससे लगता है कि यह कुषाण सत्ता के ह्रास का काल रहा और इसी बीच रुद्रदामन् ने उत्तर भारत की विजय की होगी । किन्तु कनिष्क को दूसरी शती (130-144) में रखने की स्थिति में यह निष्कर्ष संभव नहीं होगा ।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कनिष्क के अभिलेखों में दी गयी तिथियों के क्रम से यह पता चलता है कि वे किसी सम्वत् की तिथियाँ हैं । दूसरे शब्दों में कनिष्क के अभिलेख उसे किसी सम्बत के प्रवर्तन का श्रेय प्रदान करते हैं ।
परन्तु हमें द्वितीय शताब्दी ईस्वी में प्रचलित होने वाले किसी भी सम्वत् का ज्ञान नहीं है । ऐसी दशा में कनिष्क को द्वितीय शताब्दी में रखने का मत निर्बल पड़ जाता है । घिर्शमन् ने जो बेग्राम के सिक्कों वाले वासुदेव की पहचान वासुदेव प्रथम से की है, वह तर्कसंगत नहीं लगती । वासुदेव प्रथम के लेखों से पता चलता है उसका राज्य उत्तर प्रदेश में ही सीमित था तथा मथुरा उमका केन्द्र धा ।
बेग्राम से वासुदेव के जो सिक्के मिलते हैं वे उत्तर प्रदेश में नहीं मिलते । यह दोनों वासुदेवों को भिन्न-भिन्न व्यक्ति सिद्ध करता है । इस बात का भी कोई विश्वसनीय आधार नहीं है कि बेग्राम नगर को शापुर प्रथम ने ही नष्ट किया हो । वासुदेव प्रथम कुषाण वंश का अन्तिम राजा रहा हो, यह भी मान्य नहीं है क्योंकि सिक्कों से उसके बाद शासन करने वाले कुछ राजाओं के नाम मिलते हैं जैसे-कनिष्क द्वितीय, वासुदेव द्वितीय आदि ।
अत: शापुर प्रथम को वासुदेव प्रथम का समकालीन मानकर निकाला गया निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं है । पुनश्च यदि कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 144 ईस्वी मानी जाय तो तदनुसार उसका शासन 144 + 23 = 167 ईस्वी में समाप्त होता है । ऐसी दशा में वह सातवाहन राजाओं, वासिष्ठीपुत्र पुतुमावी तथा शिवश्री शातकर्णि का समकालीन होता है ।
हमें ज्ञात होता है कि इन दोनों शासकों का कार्दमक शकों के साथ युद्ध हुआ । यदि कनिष्क 167 ईस्वी तक शासन करता तो उसका किसी सातवाहन शासक के साथ संघर्ष अवश्यमेव हुआ होता । किन्तु हम उसके लेखों अथवा सातवाहन लेखों में सातवाहन-कुषाण संघर्ष का कोई संकेत नहीं पाते । इस प्रमाण से भी यह सिद्ध हो जाता है कि कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 144 ईस्वी नहीं हो सकती ।
(4) फर्ग्गुसन, ओल्डेनबर्ग, थामस, बनर्जी, रैप्सन, हेमचन्द्र रायचौधरी जैसे कुछ विद्वान कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78 ईस्वी मानते हैं । उनके अनुसार कनिष्क 78 ईस्वी से शक संवत् का प्रवर्तक था ।
चूंकि इस संवत का प्रयोग पश्चिमी भारत के शक क्षत्रपों ने, जो पहले कनिष्क की अधीनता स्वीकार करते थे, अपने लेखों तथा सिक्कों में चतुर्थ शती से अन्त तक किया, अत: उनके साथ निरन्तर सम्बद्ध रहने के कारण इस संवत् को बाद में शक-संवत् कहा गया ।
पहले इस संवत का कोई नाम नहीं था तथा केवल संख्या में ही इसका उल्लेख होता था । कुषाण तथा क्षत्रप लेखों एवं सिक्कों में भी इसके लिये केवल संख्या का ही उल्लेख मिलता है । इस संवत् को पाँचवीं शती के बाद से भारतीय लेखों में ‘शक-संवत्’ अथवा ‘शक-काल’ नाम प्रदान कर दिया गया । इस प्रकार मूलतः कनिष्क द्वारा प्रवर्तित संवत् ही शक-संवत् के नाम से विख्यात हो गया ।
जे. डूब्रील ने 78 ईस्वी के मत के विरुद्ध दो मुख्य आपत्तियां प्रकट की हैं:
(i) कडफिसेस प्रथम 50 ईस्वी में गद्दी पर बैठा । यदि कनिष्क 78 ईस्वी में राजा बना तो दोनों कडफिसेस राजाओं के लिये मात्र 28 वर्ष का समय शेष रह जाता है । इतने अल्पकाल में दोनों कैसे शासन कर सकते थे ।
(ii) तक्षशिला से प्राप्त चिरस्तूप लेख में 136 की तिथि अंकित है जो सम्भवत: विक्रम संवत् की है । अत: इसका निर्माण 78 ईस्वी (136-58) में हुआ होगा । यह कडफिसेस द्वितीय के काल का है । इस प्रकार कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78 ईस्वी में नहीं रखी जा सकती । किन्तु उपर्युक्त दोनों आपत्तियाँ निर्बल हैं ।
इनका खण्डन हम इस प्रकार कर सकते हैं:
a. कडफिसेस प्रथम की तिथि 50 ईस्वी निश्चित नहीं है । यदि यह मान भी लिया जाय कि कडफिसेस 50 ईस्वी में गद्दी पर बैठा तो भी 28 वर्षों का काल दोनों के लिये कम नहीं है क्योंकि कडफिसेस प्रथम ने 80 वर्ष की दीर्घायु तक राज्य किया । उसका उत्तराधिकारी राजा होने के समय काफी प्रौढ़ रहा होगा । इस प्रकार 28 वर्षों की अवधि दोनों के लिये पर्याप्त थी ।
b. तक्षशिला चिरस्तूप लेख में कुषाण शासक को ‘देवपुत्र’ कहा गया है । यह उपाधि कडफिसेस परिवार के शासकों की न होकर कनिष्क परिवार के शासकों की है । अत: यह लेख कडफिसेस द्वितीय के काल का नहीं लगता ।
इस प्रकार 78 ईस्वी के विरुद्ध जो शंकायें उठाई गयी हैं वे सबल नहीं हैं । अत: विभिन्न मत-मतान्तरों के बीच 78 ईस्वी में ही कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि रखना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है, वैसे इसे भी अन्तिम रूप से निर्णीत नहीं माना जा सकता ।
इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि ए. एच. दानी ने पेशावर के शैखान-ढेरी नामक स्थान की खुदाई से प्राप्त कुषाणकालीन अवशेषों के आधार पर जो रेडियों कार्बन तिथियाँ निकाली हैं उनसे भी कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि द्वितीय शताब्दी की अपेक्षा प्रथम शताब्दी ईस्वी में ही निर्धारित होती है ।
कनिष्क की तिथि की समस्या पर विचार करने के लिये 1913 तथा 1960 ई. में लन्दन में दो अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किये गये । द्वितीय सम्मेलन में आम सहमति 78 ई. के पक्ष में ही बनी । इसके समापन भाषण में ए. एल. बाशम ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78 ई. में रखने के पक्ष में एक नया तर्क प्रस्तुत किया । इसके अनुसार कनिष्क की तिथि 78 ई. न मानने की स्थिति में यह बता सकना कठिन होगा कि गन्धार तथा पंजाब में किस संवत् का प्रचलन था ।
हमें सम्पूर्ण उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत में, जो दीर्घकाल तक शक-कुषाणों की अधीनता में थे, शक संवत् के प्रचलन का प्रमाण मिलता है । मात्र उपरोक्त दो प्रदेशों में ही इसका प्रचलन नहीं मिलता । किन्तु यदि कनिष्क के लेखों की तिथि को शक-संवत् से समीकृत कर दिया जाये तो हमें पंजाब और गन्धार में संवत् का अभाव नहीं दिखाई देगा ।
6. कुषाणों के मूल्यांकन (Evaluation of Kushanas):
कनिष्क की उपलब्धियों को देखते हुये हम उसे भारतीय इतिहास के महान् सम्राटों में स्थान दे सकते हैं । वह एक महान् विजेता, साम्राज्य-निर्माता तथा विद्या एवं कला-कौशल का उदार संरक्षक था । गंगाघाटी में एक साधारण क्षत्रप के पद से उठकर उसने अपनी विजयी द्वारा एशिया के महान राजाओं में अपना स्थान बना लिया ।
वह एक कुशल सेनानायक तथा सफल प्रशासक था । अशोक के समान उसने भी बौद्ध धर्म के प्रचार में अपने साम्राज्य के साधनों को लगा दिया । उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में उसका वही स्थान है जो दक्षिणी बौद्ध परम्पराओं में अशोक का ।
वह कभी भी धर्मान्ध अथवा धार्मिक मामलों में असहिष्णु नहीं हुआ तथा बौद्ध धर्म के साथ-साथ दूसरे धर्मों का भी सम्मान किया । इस प्रकार कनिष्क में चन्द्रगुप्त जैसी सैनिक योग्यता तथा अशोक जैसा धार्मिक उत्साह देखने को मिलता है ।
कनिष्क एक विदेशी शासक था, फिर भी उसने भारतीय संस्कृति में अपने को पूर्णतया विलीन कर दिया । उसने भारतीय धर्म, कला एवं विद्वता को संरक्षण प्रदान किया और इस प्रकार उसने मध्य तथा पूर्वी एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रवेश का द्वार खोल दिया ।
7. कनिष्क के उत्तराधिकारी (Successor to Kanishka):
कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र वासिष्क कुषाण-वंश का राजा हुआ । उसने कनिष्क संवत् 24 से 28 (102-106 ईस्वी) अर्थात् चार वर्षों तक शासन किया । उसके राज्यकाल के दो अभिलेख-मथुरा (कनिष्क सं. 24) तथा साँची (कनिष्क सं. 28) प्राप्त हुए हैं ।
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उसका साम्राज्य मथुरा से पूर्वी मालवा तक विस्तृत था । उसका समीकरण 41 संवत् के आरा अभिलेख के वाझेष्क तथा राजतरंगिणी के ‘जुष्क’ के साथ किया जाता है । वासिष्क के पश्चात् हुविष्क (कनिष्क सं. 28 से 62 तक) शासक हुआ ।
उसका साम्राज्य कनिष्क के समान ही विशाल था । उसके सिक्के उतर में कपिशा से लेकर पूर्व में बिहार तक के क्षेत्र से मिले हैं । स्वर्ण तथा ताँबे के अनेक प्रकार के सिक्कों से उसके साम्राज्य की शान्ति एवं समृद्धि सूचित होती है ।
उसका एक लेख काबुल के पास वर्दक से मिला है जिससे ज्ञात होता है कि पश्चिम में अफगानिस्तान तक का क्षेत्र उसके साम्राज्य में था । उसके समय में कुषाण सत्ता का प्रमुख केन्द्र पेशावर से हटकर मथुरा हो गया । उसने मथुरा को अनेक स्मारकों से सजाया । उसका व्यक्तिगत झुकाव ब्राह्मण धर्म की ओर था ।
उनके सिक्कों पर शिव, स्कन्द, कुमार, विशाख, महासेन आदि देवताओं की आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं । वह बौद्ध तथा जैन मतानुयायियों के प्रति भी सहिष्णु था । मथुरा में उसने एक सुन्दर विहार का निर्माण करवाया था तथा कश्मीर में ‘हुष्कपुर’ नामक नगर की स्थापना करवाई थी । हुविष्क के पश्चात् कनिष्क द्वितीय (कनिष्क सं. 62 से 67 तक) राजा हुआ ।
उसका उल्लेख आरा लेख में हुआ है । वह वासिष्क का पुत्र था । ऐसा प्रतीत होता है कि उसने कुछ समय तक हुविष्क के साथ मिलकर शासन किया था । उसने ‘महाराज’, ‘राजाधिराज’, ‘देवपुत्र’ तथा तत्कालीन रोमीय राजाओं के अनुकरण पर कैसर (सीजर) आदि उपाधियों ग्रहण की थीं ।
कनिष्क-कुल का अन्तिम महान् सम्राट वासुदेव (कनिष्क सं. 67 से 98 तक) हुआ । इसके अधिकांश अभिलेख मथुरा तथा उसके निकटवर्ती भागों से ही मिले हैं । लगता है कि इस समय से पश्चिमोत्तर प्रदेश पर से कुषाणों का प्रभाव क्रमशः कम होने लगा तथा अब कुषाण सत्ता का केन्द्र मथुरा के समीपवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित होने लगा ।
वासुदेव शैव मतानुयायी था । उसकी मुद्राओं पर शिव तथा नन्दी की आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं । वासुदेव के साथ ही कनिष्क-कुल का अन्त हुआ । इस वंश के राजाओं ने लगभग 99 वर्षों तक शासन किया । इनका विशाल साम्राज्य बैक्ट्रिया से बिहार तक फैला था । वे धर्म सहिष्णु थे तथा उन्होंने भारतीय संस्कृति को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया तथा उत्तरी भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना की ।
परवर्ती कुषाण:
वासुदेव के बाद कुषाणों का इतिहास अन्धकारपूर्ण है । सिक्कों से कुछ कुषाण राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं । उन्होंने द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्ध से तृतीय शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक शासन किया । उन्हें परवर्ती अथवा उत्तर-कुषाण कहा गया है । उसका इतिहास अपने-आप में पूर्ण तथा स्वतन्त्र है ।
i. कनिष्क तृतीय:
परवर्ती कुषाण राजाओं से सर्वप्रथम वासुदेव के बाद हमें एक तीसरे कनिष्क का पता चलता है जिसने सम्भवत: 180 से 210 ईस्वी तक राज्य किया । बैक्ट्रिया, अफगानिस्तान, गन्धार, सीस्तान, पंजाब आदि से उसके बहुसंख्यक सिक्के मिलते हैं जो इस बात की सूचना देते हैं कि उसने दीर्घकाल तक शासन किया था ।
सतलज के पूर्व से उसके सिक्के नहीं मिलते । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अब कुषाणों का शासन मथुरा अथवा उत्तर प्रदेश से समाप्त हो गया था । कनिष्क तृतीय के शासन के अन्त तक कुषाण राज्य केवल पंजाब, कश्मीर, सीस्तान, अफगानिस्तान तथा बैक्ट्रिया तक ही सीमित रहा ।
कनिष्क के सिक्कों पर उसके कुछ प्रान्तीय क्षत्रपों के नामांश प्राप्त होते हैं, जैसे ‘वासु’, ‘विरू’, ‘मही’ आदि । अल्तेकर ने इन्हें वासुदेव, विरुपाक्ष तथा महीश्वर बताया है । वासुदेव संम्भवत: उसका पुत्र था तथा विरुपाक्ष और महीश्वर उसके भाई रहे होंगे ।
वासुदेव सीस्तान में तथा विरुपाक्ष एवं महीश्वर क्रमशः पंजाब और अफगानिस्तान में क्षत्रप थे । क्षत्रपों के हिन्दू नाम से स्पष्ट है कि इस समय तक कुषाणों के भारतीयकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी थी । सिक्कों पर क्षत्रपों का उल्लेख उनके बढ़ते हुए प्रभाव का द्योतक है ।
ii. वासुदेव द्वितीय:
अल्तेकर के अनुसार कनिष्क तृतीय के बाद वासुदेव द्वितीय राजा हुआ । वह कनिष्क तृतीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था । शिव तथा नन्दी प्रकार के सिक्के, जिन पर ‘वासु’ नाम उत्कीर्ण है, बैक्ट्रिया तथा अफगानिस्तान से मिले हैं ।
इससे पता लगता है कि उसका अधिकार इसी भाग में था तथा सीस्तान और पंजाब में उसके राज्यपाल स्वतन्त्र हो गये थे । उसने सम्भवत: 210 ईस्वी से 230 ईस्वी तक राज्य किया । वासुदेव द्वितीय के समय तक कुषाण साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी ।
भारत में अनेक जातियों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी । मथुरा तथा पद्मावती में नागवंशों का उदय हुआ । नागवंश के अतिरिक्त यौधेय, मालव, कुणिन्द आदि गणराज्यों ने भी अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी । पश्चिमोत्तर सीमाओं पर ईरान के ससैनियन राजाओं के आक्रमण प्रारम्भ हुये । क्रमशः ससैनियन नरेशों ने पश्चिमोत्तर सीमाओं पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार भारत के आंतरिक तथा उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों से कुषाण-सत्ता का अन्त हुआ ।
अब यह सिद्ध हो चुका है कि ससैनियनों द्वारा पराजित कुषाण नरेश वासुदेव द्वितीय ही था, न कि वासुदेव प्रथम । उसके सिक्के प्रथम वासुदेव से इस अर्थ से भिन्न हैं कि उन पर यूनानी का अधिक विकृत रूप मिलता है, मोनोग्राम भिन्न है तथा क्षत्रपों के नामांश भी अंकित हैं ।
ससैनियनों ने वासुदेव द्वितीय को परास्त कर उसके शिव तथा नन्दी प्रकार के सिक्कों को ग्रहण कर लिया । इन सिक्कों को ससैनियन-कुषाण-सिक्के कहा जाता है । इनके अग्रभाग ससैनियन तथा पृष्ठ भाग परवर्ती कुषाण सिक्कों की भाँति हैं ।
8. कुषाण साम्राज्य के पतन के कारण (Causes for the Downfall of Kushan Empire):
कुषाण साम्राज्य के पतन के कारणों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । इतना तो निश्चित ही है कि कुषाणों का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था ।
संक्षेप में इस सम्बन्ध में दिये गये विभिन्न मत इस प्रकार हैं:
(i) राखाल दास बनर्जी के अनुसार कुषाण सत्ता का विनाश गुप्तवंश के उदय के कारण हुआ था । परन्तु यह मत निराधार है क्योंकि समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि उत्तरी भारत में गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पहले ही कुषाण शासन समाप्त हो चुका था ।
(ii) काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि पंजाब तथा मध्य प्रदेश में कुषाणों का पतन भारशिव नागों के उदय के कारण हुआ । भारशिव नागों के कार्य को प्रवरसेन प्रथम के नेतृत्व में वाकाटकों ने पूरा किया । परन्तु अल्तेकर ने इस मत का खण्डन किया है तथा बताया है कि भारशिवों अथवा वाकाटकों का कुषाणों से कोई सम्बन्ध नहीं था ।
(iii) अल्तेकर का विचार है कि यौधेयों ने कुणिन्द, अर्जुनायन आदि गणराज्यों की मदद से कुषाणों को परास्त कर सतलज नदी के पार खदेड़ दिया। परन्तु अल्तेकर महोदय का यह मत यौधेयों के सिक्कों पर आधारित है । उनके सिक्कों पर ‘जयमन्त्रधर’ तथा ‘यौधेयानाम् जय:’ मुद्रालेख उत्कीर्ण मिलता है जिससे उनकी विजयों की सूचना मिलती है परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि ये विजयें उन्होंने कुषाणों के विरुद्ध ही प्राप्त की होंगी ।
(iv) घिर्शमन् महोदय ने बेग्राम की खुदाई में मिले अवशेषों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि वासुदेव के शासन-काल के अन्त में ससैनियन नरेश शापुर प्रथम ने कुषाण साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया । कुषाण पूर्णतया उखाड़ फेंके गये तथा शापुर प्रथम ने पश्चिमोत्तर प्रदेशों पर अधिकार कर लिया ।
ससैनियनों के आक्रमणों ने पूर्वी प्रदेशों के सामन्तों को विद्रोह करने तथा स्वतन्त्र होने का अच्छा अवसर प्रदान किया । परन्तु धिर्शमन् का मत वासुदेव के साथ ही कुषाणों का अन्त मान लेता है जबकि सिक्कों से उसके बाद के कुछ राजाओं के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है । ऐसी स्थिति में कुषाणों के पतन का शापुर प्रथम के आक्रमण के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ना तर्कसंगत नहीं लगता ।
इन विभिन्न मतों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि नागों, यौधेयों, तथा ससैनियनों इन सभी ने कुषाण सत्ता की समाप्ति में कुछ न कुछ योगदान दिया था । इसी प्रकार जुआन-जुआन जाति के उत्तर की ओर से होने वाले आक्रमण से भी कुषाणों को बड़ा धक्का लगा । इस प्रकार इन अभी कारणों के संघात से ही कुषाण साम्राज्य का पतन सम्भव हुआ ।