गौतम बुद्ध और भगवान महावीर के विचारों में मतभेद | Differences in the Views of Gautama Buddha and Lord Mahavira.
बुद्ध तथा महावीर दोनों छठीं शताब्दी ईसा पूर्व की धार्मिक क्रान्ति के अग्रदूत थे । यह सत्य है कि इन दोनों ने वैदिक कर्मकाण्डों तथा वेदों की अपौरुषेयता का समान रूप से विरोध किया । अहिंसा तथा सदाचार पर दोनों ने बल दिया तथा दोनों ही कर्मवाद, पुनर्जन्म तथा मोक्ष में विश्वास रखते थे । दोनों विचारकों ने अपने-अपने मतों के प्रचार के लिए भिक्षु संघों की स्थापना की थी ।
परन्तु इन समानताओं के बावजूद बुद्ध तथा महावीर के विचारों में निम्नलिखित अन्तर स्पष्ट रूप से देखे जा सकते है:
(1) गौतम बुद्ध ने मध्यम-मार्ग का उपदेश दिया, वे मोक्ष के लिये कठोर साधना एवं कायाक्लेश में विश्वास नहीं करते थे । इसके विपरीत महावीर ने मोक्ष के लिये घोर तपस्या तथा शरीर-त्याग आवश्यक बताया ।
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(2) बौद्ध धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता बुद्ध ने सृष्टि की सभी वस्तुओं को अनित्य बताया । महावीर आत्मा में विश्वास करते थे । उनके अनुसार अत्मायें अनन्त है तथा सृष्टि के कण-कण में जीवों का वाम होता है ।
(3) कर्मवाद तथा मोक्ष सम्बन्धी दोनों के विचार भिन्न-भिन्न है । जैन मत कर्म को एक भौतिक तत्व के रूप में मानता है, जबकि बौद्ध मत इच्छा द्वारा किये गये कार्य को ही कर्म कहता है । इसी प्रकार जैन मत के अनुसार मोक्ष का अर्थ शरीर-विनाश है जबकि बौद्धों के अनुसार निर्वाण इस जीवन में भी प्राप्त हो सकता है । स्वयं बुद्ध का जीवन इसका प्रमाण है ।
(4) महावीर ने बुद्ध की अपेक्षा अहिंसा तथा अपरिग्रह पर अधिक बल दिया है ।
(5) महावीर ने भिक्षुओं को नग्न रहने का उपदेश दिया । इसके विपरीत गौतम बुद्ध नग्नता के घोर विरोधी थे । उन्होंने भिक्षुओं को यथोचित वस्त्र धारण किये रहने का अदेश दिया था ।
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(6) गौतम बुद्ध ने जाति-पाँति जैसी सामाजिक कुरीतियों का जितने प्रबल शब्दों में खण्डन किया, महावीर ने नहीं । सामाजिक विषयों में महावीर के विचार ब्राह्मणों से बहुत कुछ मिलते-जुलते थे ।
कुछ विद्वानों का विचार है कि जैन तथा बौद्ध-ये दोनों ही धर्म वैदिक धर्म के सुधारवादी स्वरूप थे तथा इस प्रकार उनमें कोई नवीनता नहीं थी । परन्तु आधुनिक शोधों के आधार पर इस प्रकार का मत खण्डित हो चुका है । सत्य यह है कि इन दोनों ही मतों पर अवैदिक विचारधारा का पर्याप्त प्रभाव था ।
जैन धर्म तो स्पष्टतः अवैदिक श्रमण विचारधारा से उद्भूत हुआ था । जैनियों की नास्तिकता, कर्म तथा आवागमन के सिद्धान्त में विश्वास, संसार के प्रति उनका निराशावादी दृष्टिकोण तथा तपस्या एवं कायाक्लेश पर अतिशय बल देना उन्हें निश्चित रूप से वैदिक परम्परा के विरुद्ध कर देता है ।
इसी प्रकार बौद्ध धर्म की साधना-पद्धति, कर्म के सिद्धान्त तथा संसार के प्रति निवृत्ति-मार्गी दृष्टिकोण के ऊपर श्रमण विचारधारा का ही प्रभाव परिलक्षित होता है । इन दोनों धर्मों ने ब्राह्मणों की सामाजिक उत्कृष्टता को स्पष्ट रूप से चुनौती दी तथा उनके दो मूलभूत सिद्धान्तों-यज्ञीय कर्मकाण्ड तथा जातिवाद-का खुलकर विरोध किया ।
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यद्यपि उपनिषदों में भी यज्ञों की आलोचना की गयी है परन्तु उपनिषद् न तो पूर्णरूप से वेदों की प्रामाणिकता का खण्डन करते है और न ही ब्राह्मणों की सामाजिक श्रेष्ठता के दावे का ही विरोध करते हैं-जैसा कि बौद्ध तथा जैन मतों में देखने को मिलता है । अतः इन धर्मों को वैदिक धर्म का सुधारात्मक स्वरूप नहीं कह सकते ।