चालुक्य साम्राज्य: संस्कृति, साहित्य और धर्म | Chalukya Empire: Culture, Literature and Religion in Hindi.
चालुक्य साम्राज्य के दौरान संस्कृति (Culture during Chalukya Empire):
बादामी के चालुक्यों ने लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिणापथ पर शासन किया । वे धर्मनिष्ठ हिन्दू थे और उन्होंने धर्मशास्त्रों के अनुसार शासन किया । प्राचीन शास्त्रों में विहित राजतंत्र प्रणाली इस युग में भी सर्वप्रचलित शासन पद्धति थी ।
समूचे प्रशासनतन्त्र का केन्द्र बिन्दु सम्राट होता था । इस वंश के सम्राट परमेश्वर, महाराजाधिराज, परमभट्टारक, सत्याश्रय, श्रीपृथ्वीबल्लभ, श्रीबल्लभ जैसी विशाल उपाधियाँ ग्रहण करते थे । उन्होंने अश्वमेध, वाजपेय आदि अनेक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया ।
राजपद आनुवंशिक होता था । सम्राट प्रशासन की विविध समस्याओं में व्यक्तिगत रुचि लेता था तथा अपने साम्राज्य का दौरा किया करता दी । वहाँ उसके स्कन्धावार लगाये जाते थे । इस प्रकार वह नाममात्र का शासक नहीं होता था अपितु उसकी सत्ता वास्तविक थी ।
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याज्ञवल्ल महीत्साह को राजा का प्रथम गुण बताते है । चालुक्य शासकों में यह गुण विद्यमान था । युद्ध के अवसर पर सम्राट स्वयं सेना का संचालन करता था । सामान्यत सम्राट के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र ही राजसिंहासन का उत्तराधिकारी होता था किन्तु उसके अवयस्क होने की स्थिति में सम्राट का भाई शासन का भार ग्रहण करता था । कीत्तिवर्मन् प्रथम के भाई मंगलेश ने इसी प्रकार राजसिंहासन प्राप्त किया ।
इस युग में रानियों का भी महत्व था । राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था । उन्हें पुराण, रामायण, महाभारत, दण्डनीति सहित समस्त शास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी । हम उन्हें ताम्रपत्र प्रचलित करवाते हुए तथा दान देते हुए पाते । अपने पतियों के साथ वे स्कन्धावार में भी जाती थीं । वे विदुषी एवं दानशील होती थीं ।
विक्रमादित्य प्रथम के बड़े भाई चन्द्रादित्य की रानी विजयाभट्टारिका ने अपने नाम से दो ताम्रपत्र लिखवाये थे । वह एक अच्छी कवयित्री भी थी । विजयादित्य ने अपनी छोटी बहन कुमकुम देवी के कहने पर एक विद्वान् ब्राह्मण को एक दान में दिया था । कीर्तिवर्मन् द्वितीय की महारानी महादेवी उसके साथ रक्तपुर के स्कन्धावार में उपस्थित थी ।
चालुक्य लेखों में किसी मन्त्रिपरिषद का उल्लेख नहीं मिलता । प्रशासन में राजपरिवार के सदस्य ही मुख्यत: शामिल थे । राजा अपने परिवार के विभिन्न सदस्यों को उनकी योग्यतानुसार प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करता था । इससे उसे परिवार के सदस्यों का पूरा समर्थन मिल जाता था ।
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राजा के आदेश प्राय: मौखिक होते थे जिन्हें सचिव लिपिबद्ध कर संबद्ध अधिकारियों या व्यक्तियों के पास भेज देते थे । लेखों में महासान्धिविग्रहिक, विषयपति, ग्रामकूट, महत्तराधिकारिन् आदि केन्द्रीय पदाधिकारियों के नाम दिये गये हैं । इस युग में सामन्तवाद का भी अस्तित्व था ।
चालुक्य शासकों ने विजित प्राप्तों में अपने अधीन सामन्तों को शासन करने का अधिकार दिया था । अनुप, सिन्द, सेन्दक, बाण, गंग, तेलगु-चोड आदि चालुक्यों के सामन्त थे । वे समय-समय पर सम्राट को कर देते थे तथा युद्धों के समय अपनी-अपनी सेनायें लेकर सम्राट की सेवा में उपस्थित होते थे ।
सामन्त अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्रतापूर्वक शासन करते थे । सामन्त अपने नाम के आगे कृत्पादपद्मोपजीवी विरुद लगाते थे । उनकी अलग राजधानी होती थी नहीं वे अपने दरबार लगाते थे । इनके अपने अलग मन्त्री तथा अन्य अधिकारी होते थे । नगर को चट्टण या पुरा कहा जाता था ।
‘पट्टणस्वामी’ तथा ‘नगरसेट्टि’ का उल्लेख मिलता है । कुछ नगर विशेष महत्व के थे । बड़े नगरों में तीन बड़ी-बड़ी सभायें होती थीं जिनमें प्रत्येक को ‘महाजन’ कहा जाता था । पहली सभा नगर के सामान्य कार्यों, दूसरी ब्राह्मण निवासियों तथा तीसरी नगर सेट्टियों की सभा थी । नगर सभाओं की स्थिति निगमों जैसी थी । इन्हें सम्पत्ति का क्रय-विक्रय करने तथा छोटे-मोटे विवादों को हल करने का अधिकार था ।
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नगर सभाओं में प्रबन्ध समितियाँ भी होती थीं जो दैनिक प्रशासन चलाती थीं । किन्तु समितियों के सदस्यों के निर्वाचन अथवा उनकी संख्या के विषय में कोई सूचना नहीं मिलती । इस प्रकार प्रशासन उत्तरोत्तर विकेन्द्रित होता जा रहा था । राजकुल के सदस्यों को विभिन्न भागों में राज्यपाल बनाया जाता था ।
ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी । कुछ लेखों में ग्राम के अधिकारी को ‘गामुंड’ कहा गया है । उसकी निमुक्ति केन्द्र द्वारा होती थी । कीझिवर्मन् द्वितीय के समय के दो गामुन्हो के विषय में हमें सुचना मिलती है जिन्होंने एक-एक जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था । इसके अतिरिक्त ‘महाजन’ का भी उल्लेख मिलता है जो ग्राम शासन में सहायता करते थे ।
वे गांवों के प्रशासक तथा सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का नियंत्रण करते थे । विजयादित्य के एक लेख से पता चलता है चेनियूर ग्राम का शासन महाजन (महत्तर) ही चलाते थे । विक्रमादित्य के समय के लश्मेश्वर लेख से सरकार तथा ग्राम संस्थाओं के सम्बन्धी की कुछ जानकारी होती है ।
पता चलता है कि स्थानीय संस्थाओं के शासन में सरकारी हस्तक्षेप बहुत अधिक था तथा उनका संचालन राजाज्ञाओं द्वारा ही होता था । ऐसा पता चलता है कि समाज के विभिन्न समुदायों में काफी मेलजोल था तथा वे परस्पर सहयोग से कार्य करते थे ।
अग्रहारों का प्रशासन ब्राह्मणों के जिम्मे था । गाँव के कर्मचारियों को पारिश्रमिक के रूप में कुछ जमीन दी जाती थी । कारीगरों तथा व्यापारियों की अपनी श्रेणियाँ होती थीं जो अपनी आर्थिक स्थिति के कारण काफी महत्वपूर्ण थीं ।
लेखों से तत्कालीन कर प्रणाली का भी कुछ संकेत मिलता है । लक्ष्मेश्वर लेख में भूमि तथा भवन कर का जिनके पास अपने मकान नहीं थे उन्हें भी अपनी स्थिति के अनुसार कर देने पड़ते थे । पुलकेशिन् द्वितीय के हैदराबाद दानपत्र में निधि, उपनिधि (निक्षेप) विलप्त लगान का बन्दोबस्त तथा उपरिकर (अधिभार) का उल्लेख मिलता है ।
सत्याश्रय शिलादित्य के नौसारी दानपत्र में उद्रंग तहवजारी) तथा परिकर (चुंगी) का उल्लेख हुआ है । इन करों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर भी लिये जाते थे । सामयिक कर भी होते थे । जैसे पुलकेशिन् द्वितीय ने बाण राज्य को जीतने के बाद वहाँ के लोगों पर त्रेरेषोन’ ( के रूप अए कर) लगाया था ।
विशेष अवसरों पर विद्यालय, मन्दिर आदि कुछ संस्थाओं के निर्वाह के लिये अनाज के रूप में उगाही की जाती थी । कुछ लेखों में सिद्धाय पन्नाय दण्डाय का उल्लेख मिलता है । परम्परागत करों को सिद्धाय कहते थे । पन्नाय से तात्पर्य पण्य से प्राप्त आय या चुगी से है ।
दण्डाय जुर्माने के रूप से प्राप्त होने वाली आय को कहते थे । कुछ विशेष अवसरों पर करों में छूट दिये जाने का भी विधान था । चालुक्य नरेश उदार प्रशासक थे तथा उन्होंने विभिन्न नगरों को दान दिये थे ।
चालुक्य साम्राज्य के दौरान साहित्य (Literature during Chalukya Empire):
चालुक्य शासकों के काल में साहित्य, धर्म एवं कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई । हुएनसांग चालुक्य राज्य के लोगों को विद्या का व्यसनी बताता है । चालुक्य लेखों में संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है और यह उसके अत्यधिक विकसित स्वरूप को प्रकट करता है ।
महाकूट तथा ऐहोल के लेख क्रमश: गद्य एवं पद्य के विकसित होने के प्रमाण है । महाकूट लेख के गट की तुलना बाणभट्ट के गद्य से की जा सकती । इसी प्रकार ऐहोल का प्रशस्तिकार कालिदास तथा भारवि की बराबरी करने का दावा करता है ।
पुलकेशिन् द्वितीय के सामन्त गंगराज दुर्वीनीत ने ‘शब्दावतार’ नामक व्याकरण गन्ध की रचना की तथा किरातार्जुनीय के पन्द्रहवें सर्ग पर टीका लिखी । उसने प्रमाद की पहत्कथा का संस्कृत अनुवाद भी प्रस्तुत किया था । इस काल के अन्य विद्वानों में पंडित उदयदेव तथा सोमदेवसूरि थे । उदयदेव जैन मतानुयायी तथा प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य थे ।
उनका ग्रन्थ जैनेन्द-ण्याकरण कहा जाता है । सोमदेवसूरि ने खशस्तिलकचघ्र तथा दीतिवाक्यामृत नामक प्रसिद्ध ग्रन्थों का प्रणयन किया था । प्रथम जैन धर्म से सम्बन्धित रचना है तथा दूसरे का सम्बन्ध राजनीति से है ।
चीनी यात्री हुएनसांग भी यहाराष्ट्र के लोगों के विद्या-प्रेम की प्रशंसा करता है । विजयादित्य के एक अभिलेख से पता चलता है कि चालुक्यों की राजधानी बादामी में चौदह विद्याओं में पारंगत हजारों बाह्मण निवास करते थे ।
चालुक्य साम्राज्य के दौरान धर्म (Religion during Chalukya Culture):
चालुक्य ब्राह्मण धर्मानुयायी थे तथा उनके कुल-देवता विष्णु थे । उसके अतिरिक्त वे लोग शिव की भी पूजा करते थे । वाराह उसका परिवारिक चिन्ह था । चालुक्य राजाओं के अधिकांश लेख विष्णु के वाराह अवतार की आराधना से प्रारम्भ होते हैं ।
बादामी के कुछ रिलीफ चित्रों ये शेष-शयया पर लक्ष्मी के साथ शयन करते हुए नरसिंह आदि रूपों ये विश्व का अंकन मिलता है । कुछ चालुक्य शासकों ने ण्रमभागवन की भी उपाधि ग्रहण किया था । विष्णु तथा शिव के साथ-साथ अन्य पौराणिक देवी-देवताओं की पूजा का भी व्यापक प्रचलन था । वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान होता धा तथा ब्राह्मणों को दान दिये जाते थे ।
परन्तु स्वयं ब्राह्मण धर्मानुयायी होने पर भी चालुक्य बंश शासक धर्मसादृष्णु थे । उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने दक्षिणापथ में जैन तथा बौद्ध धर्मों के विकास को प्रोत्साहन दिया । चालुक्य लेखों से पता चलता है कि उन्होंने जैन साधुओं तथा शिक्षकों को दान दिये । ऐहोल अभिलेख का रचयिता रविकीर्त्ति जैन था जिसे द्वितीय ने संरक्षण प्रदान किया था ।
उसने वहाँ जिनेन्द्र का एक मन्दिर बनवाया था जिसे जेगुती-मन्दिर कहा जाता । विजयादित्य, विक्रमादित्य द्वितीय आदि चालुक्य राजाओं ने विद्वानों को हुस्कृत किया तथा जैन-मन्दिर के निर्माण अथवा निर्वाह के लिये धन दान दिया था । बादामी तथा ऐहोल की गुफाओं में तीर्थद्रन्री की प्राप्त होती है । ब्राह्मण तथा जैन धर्मों की अपेक्षा बौद्ध धर्म हौन अवस्था था ।
फिर भी चालुक्य राज्य में अनेक बौद्ध मठ तथा विहार थे जिनमें हीनयान तथा महायान दोनों ही सम्प्रदायों के भावुक निवास करते थे । हुएनसांग, जो स्वयं पुलकेशिन् द्वितीय के समय महाराष्ट्र गया था, ने बादामी में पाँच अशोक खूप देखे थे । वह चालुक्य राज्य में बौद्ध मठों की संख्या ‘100 से अधिक बताता है जिनमें पांच हजार निवास करते थे ।’
चालुक्य साम्राज्य की कला और वास्तुकला (Art and Architecture of Chalukya Empire):
चालुक्य शासन में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई । इस समय जैनों तथा बौद्धों के अनुकरण पर हिन्दू देवताओं के लिये पर्वत-गुफाओं को काटकर मन्दिर बनवाये गये । चालुक्य मन्दिरों के उत्कृष्ट नमूने बादामी, ऐहोल तथा पत्तडकल से प्राप्त होते है ।
i. बादामी:
बादामी में पाषाण को काटकर चार स्तम्भयुक्त मण्डप बनाये गये हैं । इनमें से तीन हिन्दू तथा एक जैन धर्म संबन्धित है । प्रत्येक में स्तम्भ-युक्त बरामदा, मेहराब-युक्त हाल तथा एक छोटा वर्गाकार गर्भगृह, पाषाण में गहराई से काटकर बनाये गये हैं ।
इनमें से एक वैष्णव वरीमदे में विष्णु की दो रिलीफ मूर्तियाँ-एक अनन्त पर बैठी हुई तथा दूसरी नरसिंह रूप की-प्राप्त होती है । इन गुफाओं की वास्तु तथा उकेरी अत्यन्त उच्चकोटि की है । प्रत्येक चबूतरे पर उड़ते हुए गणों के विभिन्य मुद्राओं में उत्कीर्ण चित्र अत्यन्त उल्लेखनीय है ।
दूसरी शैलगुफा है जिसे मालेगिट्टी कहा जाता है । इसका गर्भगह वर्गाकार है । मण्डप तथा बरामदे में एकाश्मक स्तम्भ लगे है जो मूर्ति शिल्प, कोनियों तथा कारनिस अभिप्राय से सजाये गये है । श्फा मन्दिरों का बाहरी भाग तो सादा है किन्तु भीतरी दीवारों पर विभिन्न प्रकार की सुन्दर-सुन्दर चित्रकारियों प्राप्त होती ।
ii. ऐहोल:
ऐहोल को ‘मन्दिरों का नगर’ कहा जाता है और यहाँ कम से कम 70 मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते है । इनका निर्माण 450-600 ई॰ के बीच हुआ । इसी समय उत्तरी भारत में गुप्त मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा आर्य शिखर शैली (नागर) का प्रभाव दक्षिण में पहुँचा ।
यही कारण है कि ऐहोल के मन्दिरों में नागर तथा द्रविड़ शैलियों का मिश्रण मिलता है । अधिकांश मन्दिर विष्णु तथा शिव के है । ऐहोल का विष्णु मन्दिर अभी तक सुरक्षित अवस्था में है । यहाँ के हिन्दू गुहा-मन्दिरों में सबसे सूर्य का एक मन्दिर है जो ‘लाढ़ खाँ’ के नाम से प्रसिद्ध है ।
यह 50 वर्ग फीट में बना है तथा इसकी छत चिपटी है । छत में एक छोटा वर्गाकार गर्भ-गृह तथा द्वारमण्डप बने हुए हैं । मन्दिर पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण में दीवारों से घिरा हुआ है । पूर्व में स्तम्भयुक्त खुला बरामदा है । गर्भगृह पिछली दीवार से जुड़ा हुआ है । गर्भ-गृह के सामने स्तम्भों पर टिका हुआ बरामदा तथा एक विशाल सभा-कक्ष है । छत बड़े पत्थरों से बनाई गयी है ।
इस मन्दिर में शिखर नहीं मिलता । पर्सी ज्ञाउन का विचार है कि मूलत: यह विशाल सभामण्डप रहा होगा जिसे बाद में मन्दिर का रूप दे दिया गया । मन्दिर के बीच में नन्दी की विशाल मूर्ति स्थापित है किन्तु अन्य भाग वैष्णव लक्षणों से युक्त है ।
लाढ़ खाँ मन्दिर से भिन्न दुर्गा का मन्दिर है जो 60’ × 36’ के आकार का है । इसका निर्माण लाढ़ खाँ के एक शती बाद हुआ । इसे बौद्ध चैत्य को ब्राह्मण मन्दिर के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास माना जा सकता है ।
इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर किया गया है तथा इसकी चिपटी छत जमीन से 30 फीट ऊँची है । गर्भगृह के ऊपर एक शिखर है तथा बरामदे में प्रदक्षिणापथ बनाया गया है । बाहरी स्तम्भों में अनेक पर देवमूर्तियाँ वनी हुई हैं । अधिष्ठान तथा स्तम्भों के अलकरण द्रविड़ शैली जैसे है ।
इस प्रकार नागर शैली के शिखर तथा द्रविड़ वास्तु क विविध तत्वों से बना यह मन्दिर उत्तर तथा दक्षिण की वास्तुताला के समन्वय का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है । मूर्तिकारी की दृष्टि से यह लाड़ खाँ से अधिक सुन्दर है ।
ऐहोल का हच्चीमल्लीगुड्डी मन्दिर अधिकांशत: दुर्ग मन्दिर के ही समान है लेकिन यह छोटे आकार का है । इसके गर्भगृह तथा मण्डप के बीच बना हुआ अन्तराल इसकी नवीन विशेषता है । ऐहोल के सबसे बाद का मन्दिर ‘मेगुती नेन मन्दिर’ है जिसे रविकीर्ति द्वारा 634 ई॰ में बनवाया गया ।
इसका निर्माण एक अलंकृत अधिष्ठान पर हुआ है जिसमें गर्भगृह, स्तम्भयुक्त मण्डप तथा अन्तराल है । स्तम्भों के शीर्षभार का अलंकरण काफी सुन्दर है । यह द्रविड़ शैली का मन्दिर है । इसे भूमि से सीधे ऊपर ढाँचा खड़ा कर बनाया गया है । मन्दिर के प्रवेश के लिये मुखमण्डप बनाया गया है । दुर्भाग्यवंश इसकी रचना अधूरी रह गयी है ।
iii. पत्तडकल:
बादामी तथा ऐहोल के मन्दिरों के अतिरिक्त पत्तडकल में भी चालुक्य मन्दिरों के सुन्दर नमूने मिलते हैं । यहाँ दस मन्दिर प्राप्त होते हैं जिनमें चार उत्तरी (नागर) तथा छ: दक्षिणी (द्रविड़) शैली में बने हैं ।
इनका विवरण इस प्रकार है:
(i) उत्तर (नागर) शैली के मन्दिर- पापनाथ, जंबू, लिंग, कर सिद्धेश्वर तथा काशी विश्वनाथ ।
(ii) दक्षिणी (द्रविड़) शैली के मन्दिर- संगमेश्वर, विरुपाक्ष, मल्लिकार्जुन, गल्पनाथ, सुमेश्वर तथा जैन मन्दिर ।
उत्तरी शैली में बना ‘पापनाथ का मन्दिर’ तथा दक्षिणी शैली में बने ‘विरूपाक्ष’ तथा ‘संगमेश्वर मन्दिर’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इनमें उत्तरी शैली में बना पापनाथ का मन्दिर तथा दक्षिणी शैली में बने विरूपाक्ष तथा संगमेश्वर मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
नागर-द्रविड़ शैलियों का प्रयोगात्मक प्रयोग सर्वप्रथम पापनाथ मन्दिर में ही देखने को मिलता है । 90’ की ऊँचाई वाले इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँची चौकी पर किया गया है । इसके चारों ओर घेरते हुए ऊँची स्तम्भयुक्त दीवार बनाई गयी है । इसमें कार्निसे बनी है । मन्दिर में गर्भगृह, अन्तराल, मण्डप तथा मुखमण्डप है । प्रदक्षिणापथ द्रविड़ शैली में बना है मन्दिर की दीवारें मोटी तथा भारी-भरकम है ।
इसका अन्तराल काफी विस्तृत है । छत सपाट है तथा पूर्व में छोटे आकार का शिखर नागर शैली में बना है । इसके हर तीसरे मोड़ पर आमलक बैठाये गये है । किन्तु विशालता के बावजूद इस मन्दिर की योजना उन्नत नहीं है ।
द्रविड शैली के मन्दिरों में संगमेश्वर तथा विरुपाक्ष उल्लेखनीय हैं । संगमेश्वर को विजयादित्य (696-733 ई॰) के समय में बनवाया गया था । इसकी योजना वर्गाकार है तथा इसमें खुला हुआ मण्डप है । विमान पल्लव मन्दिरों के विमान से मिलता-जुलता है । इसके अर्धस्तम्भों के दोनों सिरों पर गर्भगृह के दोनों तरफ दुर्गा तथा गणेश के मन्दिर बने हुए है ।
पत्तडकल के सभी मन्दिरों में विरूपाक्ष का मन्दिर सर्वाधिक सुन्दर तथा आकर्षक है । इसका निर्माण विक्रमादित्य द्वितीय की एक रानी ने 740 ई॰ के लगभग करवाया था तथा इसके निर्माता वास्तुकार गण्ड को ‘त्रिभुवनाचार्य’ की उपाधि से विभूषित किया गया था ।
मटर प्रकार से घिरे एक विशाल प्रांगण में स्थित है जिसमें 16 छोटे मन्दिर भी है । इसमें गोपुरम् भी बना है । काल में सर्वप्रथम इसी मन्दिर में गोपुरम् मिलता है । मन्दिर का विमान चार तल्ला है । शिखर के उपर कलश स्थित है । मण्डप तथा प्रदक्षिणापथ कातची के कैलाशनाथ मन्दिर की योजना पर बनाये गये है ।
मन्दिर के सामने नन्दि-मण्डप बना है । इसके चारों ओर वेदिका तथा एक तोरणद्वार है । मन्दिर की बाहरी दीवार में स्तम्भ जोड़कर सुन्दर ताख बनाये गये है जिनमें मूर्तियाँ रखी हुई है । ये शिव, नाग, नागिन तथा रामायण से लिये गये दृश्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं ।
विख्यात कलाविद् पर्सी ब्राउन के शब्दों में १इवरूपाक्ष मन्दिर प्राचीन काल की उन दुर्लभ इमारतों में से एक है जिनमें उन मनुष्यों की भावना अब भी टिकी हुई है जिन्होंने इसकी कल्पना की तथा अपने हाथों से निर्मित किया ।
इसके निर्माता कलाकार का नाम ‘श्रीगुण्डन अनिवारिताचारी’ मिलता है जो नगर योजना तैयार करने, राजमहलों, गाड़ियों, पलगों आदि का निर्माण करने में अत्यन्त निपुण था । उसे चालुक्य सम्राट ने ‘तेंकानादिशेय सूत्राधिकारी’ (दक्षिण भारत का वास्तुविद्) की उपाधि से सम्मानित किया था मन्दिर की दीवारों पर उत्खचित रामायण के दृश्यों का शिल्पी वही था ।
विरुपाक्ष मन्दिर पर पल्लव शैली का प्रभाव सुस्पष्ट है । मन्दिर में उत्कीर्ण एक लेख में कहा गया है कि इसका निर्माण विक्रमादित्य द्वितीय द्वारा पल्लवों पर तीन बार विजय पाने की स्मृति में उसकी पत्नी द्वारा बनवाया गया था । संभव है विक्रमादित्य अपने साथ काञ्चि से कुछ निपुण वास्तुकारों को अपनी राजधानी लाया हो तथा उन्हीं के सहयोग से विरुपाक्ष मन्दिर बनवाया गया हो ।
वास्तुकला के साथ-साथ चालुक्य काल में मूर्तिकला का भी विकास हुआ । मूर्तियों पर गुप्त तथा पल्लव शैली का प्रभाव दिखाई देता है । अधिकांश मूर्तियों का निर्माण मंदिरों को सजाने के लिये किया गया । गुफा स्तम्भों तथा छतों पर बड़ी संख्या में मूर्तियाँ चित्रित की गयी है । इनमें पौराणिक कथायें है ।
बादामी की गुफा संख्या-1 में नटराज शिव की 16 भिन्न-भिन्न मुद्राओं में मूर्ति उकेरी गयी है जो काफी सुन्दर है । महिषमर्दिनी, अर्धनारीश्वर, हरिहर आदि की मूर्तियाँ भी मिलती हैं । इनके अतिरिक्त गजलक्ष्मी, पार्वती, मनुष्य, काल्पनिक पशु आदि भी बनाये गये है ।
दूसरी तथा तीसरी गुफाओं में भी मनोहर अंकन मिलते हैं । विष्णु के विविध अवतारी रूपों को कलात्मक ढंग से प्रदर्शित किया गया है । ऐहोल तथा पत्तडकल मन्दिरों में भी मूर्ति शिल्प की अधिकता है । कुछ पर वेंगी शैली का भी प्रभाव है । संगमेश्वर मन्दिर में विष्णु, शिव आदि की मूर्तियाँ मिलती हैं ।
विरुपाक्ष मन्दिर का मूर्ति शिल्प अद्वितीय है । यही शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु की मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर एवं कलात्मक ढंग से बनाई गयी हैं । रामायण के दृश्यों का भी मनोहर अंकन हुआ है । मल्लिकार्जुन मन्दिर में कृष्ण लीला से संबंधी अंकन है ।
अजन्ता तथा एलोरा दोनों ही चालुक्यों के राज्य में विद्यमान थे । संभवत: यहाँ की कुछ गुफायें इसी काल की है । अजन्ता के एक गुहाचित्र में पुलकेशिन् द्वितीय कोर संभवत: फारसी दूत-मण्डल का स्वागत करते हुए दिखाया गया है । बादामी गुहा मण्डपों में भी चित्रकारियों प्राप्त होती है जिनमें अजन्ता शैली का अनुपालन किया गया है ।