चोल राजवंश: इतिहास, युद्ध और शासक | Chola Dynasty: History, Wars and Rulers in Hindi.
चोल राजवंश का परिचय (Introduction to Chola Dynasty):
कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों से लेकर कुमारी अन्तरीप तक का विस्तृत भूभाग प्राचीन काल में तमिल प्रदेश का निर्माण करता था । इस प्रदेश में तीन प्रमुख राज्य थे-चोल, चेर तथा पाण्ड्य । अति-प्राचीन काल में इन तीनों राज्यों का अस्तित्व रहा है ।
अशोक के तेरहवें शिलालेख में इन तीनों राज्यों का स्वतन्त्र रूप से उल्लेख किया गया है जो उसके साम्राज्य के सुदूर दक्षिण में स्थित थे । कालान्तर में चोलों ने अपने लिये एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया । उनके उत्कर्ष का केन्द्र तंजौर था और यही चोल साम्राज्य की राजधानी थी ।
चोल इतिहास के साधन (Tools of Chola History):
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i. साहित्य:
चोल राजवंश का इतिहास जानने के लिए अनेक साहित्यिक गुणों का उपयोग करते हैं । इनमें सर्वप्रथम संगम साहित्य (100-250 ई॰) का उल्लेख किया जा सकता है । उसके अध्ययन से प्रारम्भिक चोल शासक करिकाल की उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं । पाण्ड्य तथा चेर राजाओं के साथ उसके सम्बन्धों का भी ज्ञान होता है ।
जयंगोण्डार के कलिंगत्तूपराणि से कुलोतुंग प्रथम की वंश-परम्परा तथा उसके समय में कलिंग पर किये जाने वाले आक्रमण का परिचय मिलता है । ओट्टक्कुट्टम् की विक्रमचोल, कुलीतुंग द्वितीय तथा राजराज द्वितीय के सम्बन्ध में रची गयी उलायें (श्रुंड्गार प्रधान जीवन-चरित) उनके विषय में कुछ ऐतिहासिक बातें बताती हैं ।
शेक्किलार द्वारा रचित ‘पेरियपुराणम्’, जो कुलोत्तुंग द्वितीय के काल में लिखा गया था, के अध्ययन से तत्कालीन धार्मिक दशा का ज्ञान प्राप्त होता है । बुधमित्र के व्याकरण ग्रन्थ ‘वीरशोलियम्’ से वीरराजेन्द्र के समय की कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का ज्ञान मिलता है । बौद्धग्रन्थ महावंश से परान्तक की पाण्ड्य विजय तथा राजेन्द्र प्रथम की लंका विजय का विवरण ज्ञात होता है ।
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ii. अभिलेख:
चोल इतिहास के सर्वाधिक प्रामाणिक साधन अभिलेख है जो बड़ी संख्या में प्राप्त हुये हैं । इनमें संस्कृत, तमिल, तेलगू तथा कन्नड भाषाओं का प्रयोग हुआ है । विजयालय (859-871 ई॰) के बाद का चोल इतिहास मुख्यतः अभिलेखों से ही जाना जाता है । राजराज प्रथम ने अभिलेखों द्वारा अपने पूर्वजों के इतिहास को संकलित करने तथा अपने काल की घटनाओं और विजयों को लेखों में जोड़ने की प्रथा प्रारम्भ किया ।
इसका अनुकरण बाद के राजाओं ने किया । उसके समय के लेखों में लेडन दानपत्र तथा तन्जोर मन्दिर में उत्कीर्ण लेख उल्लेखनीय हैं । तंजोर के लेख उस मन्दिर की व्यवस्था पर प्रकाश डालते हैं । राजेन्द्र प्रथम के समय के प्रमुख लेख तिरुवालंगाडु तथा करन्डै दानपत्र है जो उसकी उपलब्धियों का विवरण देते हैं ।
ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेख राजराज तृतीय के समय का तिरुवेन्दिपुरम् अभिलेख है । यह चोल वंश के उत्कर्ष का तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत करता है । इसमें होयसल राजाओं के प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित की गयी है जिनकी सहायता से चोलवंश का पुनरुद्धार सम्भव हो सका था । राजाधिराज प्रथम के समय के मणिमंगलम् अभिलेख से उसकी लंका विजय तथा चालुक्यों के साथ संघर्ष की सूचना मिलती है । यह वीर राजेन्द्र की उपलब्धियों पर भी प्रकाश डालता है ।
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iii. सिक्के:
लेखों के अतिरिक्त धवलेश्वरम् से चोलों के स्वर्ण सिक्कों का एक ढेर मिला है । इनसे उनकी समृद्धि का ज्ञान होता है । राजाधिराज प्रथम के कुछ सिक्के लंका से प्राप्त हुये है जिनसे वहीं उसके अधिकार की पुष्टि होती है । दक्षिणी कनारा से उसके कुछ रजत सिक्के मिले हैं । सामान्यतः चोल सिक्कों से सम्पूर्ण दक्षिण भारत के ऊपर उनका आधिपत्य प्रकट होता है ।
iv. विदेशी विवरण:
चीनी स्रोतों से चोल तथा चीनी राजाओं के बीच राजनयिक सम्बन्ध की सूचना मिलती है । चीन की एक अनुश्रुति के अनुसार राजराज प्रथम तथा कुलीतुंग प्रथम के काल में एक दूत-मण्डल चीन की यात्रा पर गया था । चीनी यात्री चाऊ-जू-कूआ (1225 ई॰) के विवरण से चोल देश तथा वही की शासन व्यवस्था से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण बातें ज्ञात हो जाती है । पेरीप्लस तथा टालमी के ग्रन्थ में भी चोल देश का उल्लेख मिलता है ।
चोल राजवंश का राजनैतिक इतिहास (Political History of Chola Dynasty):
चोल राजवंश का प्रारम्भिक इतिहास अन्धकारपूर्ण है । संगम युग (लगभग 100-250 ई॰) में चोलवशी नरेश दक्षिण में शक्तिशाली थे । इस काल के राजाओं में करिकाल (लगभग 190 ई॰) का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है । संगम साहित्य में उसकी उपलब्धियों का विवरण मिलता है ।
वह एक वीर योद्धा था जिसने समकालीन चेर एवं पाण्ड्य राजाओं को दबाकर रखा । उसके बाद चोलों की राजनीतिक शक्ति क्षीण हो गयी तथा नवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक उनका इतिहास अन्धकारपूर्ण हो गया । यह संभवतः तमिल देश पर पहले कलभ्रों तथा फिर पल्लवों के आक्रमणों के कारण हुआ ।
नवीं शती के मध्य में (850 ई॰ के लगभग) चोलसत्ता का पुनरुत्थान हुआ । इस समय विजयालय नामक एक शक्तिशाली चोल राजा को पल्लवों के सामन्त के रूप में उरैयूर (त्रिचनापल्ली) के समीपवर्ती क्षेत्र में शासन करता हुआ पाते है । उरैयूर ही चोली का प्राचीन निवास-स्थान था ।
इस समय पल्लवों तथा पाण्ड्यों में निरन्तर संघर्ष चल रहे थे । पाण्ड्यों की निर्बल स्थिति का लाभ उठाकर विजयालय ने तंजोर पर अधिकार जमा लिया तथा वहाँ उसने दुर्गा देवी का एक मन्दिर बनवाया । विजयालय ने लगभग 871 ईस्वी तक राज्य किया ।
i. आदित्य प्रथम:
यह विजयालय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था । प्रारम्भ में वह पल्लव नरेश अपराजित का सामन्त था तथा उसने श्रीपुरंबियम् के युद्ध में अपने स्वामी को पाण्दयों के विरुद्ध सहायता प्रदान की थी । इस युद्ध में पाण्ड्यों की शक्ति नष्ट हो गयी परन्तु अपराजित अपनी विजयी का उपभोग नहीं कर सका ।
आदित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दी तथा तोण्डमण्डलम् को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया । इसके वाद उसने पाण्ड्यों से कोंगू प्रदेश छीन लिया तथा पश्चिमी गडगों को अपनी अधीनता में रहने के लिए बाध्य किया । उसने अपने पुत्र परान्तक का विवाह चेर वंश की राजकुमारी के साथ किया । आदित्य ने कावेरी नदी के दोनों किनारों पर शैव मन्दिर बनवाये थे ।
ii. परान्तक प्रथम:
यह आदित्य प्रथम का पुत्र था और उसकी मृत्यु के बाद शासक बना । उसने अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति को जारी रखा । उसने मदुरा के पाण्ड्य शासक राजसिंह द्वितीय पर आक्रमण किया । पाण्ड्य नरेश ने सिंहल के राजा की सहायता प्राप्त की परन्तु परान्तक ने दोनों की सम्मिलित सेनाओं को बेघर के युद्ध में हरा दिया ।
मदुरा पर परान्तक का अधिकार हो गया तथा उसने ‘मदुरैकोण्ड’ की उपाधि ग्रहण की । उसने पल्लवों की बची-खुची शक्ति को समाप्त किया, और बैदुम्बों तथा बाँणों को जीता । इस प्रकार 930 ई॰ तक परान्तक ने पश्चिमी घाट के चेर-राज्य को छोड्कर उत्तरी पेन्नार से कुमारी अन्तरीप तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अपना एकछत्र अधिकार स्थापित कर लिया ।
परन्तु परान्तक को अपने शासन-काल के अन्त में राष्ट्रकूटों से पराजित होना पड़ा । राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने गड्गराज्य को जीतने के बाद चोल राज्य पर आक्रमण किया । तक्कोलम् के युद्ध में उसने चोल सेना को बुरी तरह परास्त कर तोण्डमण्डलम् पर अधिकार कर लिया । इससे परान्तक की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा ।
उसका साम्राज्य छिद्र-भिन्न हो गया क्योंकि उत्तर तथा दक्षिण के सामन्तों ने इस विपत्ति का लाभ उठाते हुए अपनी-अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी । परान्तक की मृत्यु के बाद लगभग तीस वर्षों (955-985 ई॰) का काल चोल राज्य के लिए दुर्बलता एवं अव्यवस्था का काल रहा । उसके उत्तराधिकारी मन्दरादित्य की रुचि धार्मिक कार्यों में अधिक थी ।
उसकी मृत्यु के समय (957 ई॰ के लगभग) चोल राज्य अत्यन्त संकुचित हो गया । इसके बाद परान्तक द्वितीय 957-973 ई॰) राजा बना । उसने अपने पुत्र आदित्य द्वितीय को युवराज बनाया । उसने वीर पाण्ड्य को पराजित किया तथा उसकी सेना ने सिंहल पर भी आक्रमण किया । परान्तक द्वितीय के शासन-काल के अन्त तक चोली ने राष्ट्रकूटों से तोण्डमण्डलम् को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया ।
iii. राजराज प्रथम:
चोल साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक परान्तक द्वितीय (सुन्दर चोल) का पुत्र अरिमोलिवर्मन् था जो 985 ई॰ के मध्य ‘राजराज’ के नाम से गद्दी पर बैठा । उसका तीस वर्षीय शासन (985-1015 ई॰) चोल राज्य का सर्वाधिक गौरवशाली युग है ।
वस्तुतः राजराज के समय से चोल राज्य का इतिहास समस्त तमिल देश का इतिहास बन जाता है । वह एक साम्राज्यवादी शासक था जिसने अपनी अनेकानेक विजयों के फलस्वरूप लघुकाय चोल राज्य को एक विशालकाय साम्राज्य में परिणत कर दिया ।
राजराज की उपलब्धियां:
राज्यारोहण के बाद राजराज ने कुछ वर्षों तक अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ किया । तत्पश्चात् उसने दिग्विजय के निमित्त अपना सैनिक अभियान प्रारम्भ किया ।
इनका विवरण इस प्रकार है:
(a) केरल पाद्यदय तथा सिंहल की विजय:
राजराज ने दक्षिण में केरल, पाण्ड्य तथा सिंहल राजाओं के विरुद्ध अभियान किया । सबसे पहले उसने केरल के ऊपर आक्रमण कर वहाँ के राजा रविवर्मा को त्रिवेन्द्रम् में पराजित किया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में ‘काण्डलूर शालैकलमरुत्त’ की उपाधि ग्रहण की ।
इसके बाद उसका पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण हुआ । यही का राजा अमरभुजंग था । तिरुवालगाडु ताम्रपत्रों से सूचित होता है कि राजराज ने अमरभुजंग को पराजित कर बन्दी बना लिया, उसकी राजधानी मदुरा को जीत लिया तथा विलिन्द के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया ।
राजराज के शासन के बीसवें वर्ष का एक लेख मिलता है जिससे सूचित होता है कि उसने मदुरा नगर को ध्वस्त कर दिया, कोल्लम्, कोल्लदेश तथा कोण्डुगोलूर के राजाओं को पराजित किया और उसने समुद्र के शासक से अपनी सेवा करवाई थी ।
केरल तथा पाण्ड्य राज्यों को जीतने के पश्चात् राजराज ने सिंहल की ओर ध्यान दिया । यहाँ का शासक महिन्द (महेन्द्र) पंचम था । वह केरल तथा पाण्ड्य शासकों का मित्र था तथा उसने राजराज के विरुद्ध केरल नरेश भास्करवर्मा का साथ दिया था ।
नीलकण्ठ शास्त्री का अनुमान है कि इन तीनों राज्यों ने चोल नरेश के विरुद्ध एक संघ बना लिया था । अतः केरल तथा पाण्ड्य की विजय के पश्चात् राजराज सिंहल की ओर उन्मुख हुआ । उसने एक नौसेना के साथ सिंहल पर चढाई की । सिंहलनरेश महिन्द पंचम पराजित हुआ । चोल सेना ने अनुराधापुर को ध्वस्त कर दिया तथा सिंहल द्वीप के उत्तरी भाग पर राजराज का अधिकार हो गया ।
तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों में इस सफलता का काव्यात्मक विवरण इस प्रकार मिलता है- ‘राम ने बन्दरों की सहायता से सागर के आर-पार एक पुल बनाया तथा घड़ी कठिनाई से लंका के राजा का बध किया । किन्तु यह शासक राम से भी अधिक प्रतापी सिद्ध हुआ क्योंकि उसकी शक्तिशाली सेना ने जलपोतों से समुद्र पार किया तथा लड़ा के राजा को जला दिया ।’
सिंहल पर अधिकार करने के बाद राजराज ने वहाँ अपना एक प्रान्त स्थापित किया । चोलों ने अनुराधापुर के स्थान पर पोलोन्नरुव को अपनी राजधानी बनाई तथा इसका नाम ‘जननाथ मंगलम्’ रख दिया । राजराज ने सिंहल में भगवान शिव के कुछ मन्दिरों का निर्माण भी करवाया था । राजराज ने उपरोक्त प्रदेशों को संभवतः 989-993 ई॰ के बीच जीता था ।
(b) पश्चिमी गंगों की विजय:
सिंहल को जीतने के बाद राजराज ने मैसूर क्षेत्र के पश्चिमी गंगों को जीता । उसके शासन के छठें वर्ष का एक लेख कर्नाटक से मिला है जिसमें उसे ‘चोल नारायण’ कहा गया है । इससे पता चलता है कि उसने नोलम्बों तथा गंगों को पराजित किया था । इस प्रकार उसका गंगवाडी, तडिगैवाडि तथा नोलम्बवाडी के ऊपर अधिकार हो गया ।
(c) कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध:
चोलनरेश उत्तम चोल के समय से ही चोलों तथा पश्चिमी चालुक्यों में अनबन थी । चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय ने संभवतः उत्तम चोल को पराजित भी कर दिया था । तैलप के वाद सत्याश्रय चालुक्य वंश की गद्दी पर बैठा । राजराज ने उसके समय में चालुक्यों पर आक्रमण कर दिया ।
तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों से पता चलता है कि सत्याश्रय राजराज की विशाल सेना का सामना नहीं कर सका तथा युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ । करन्दै दानपत्र से पता चलता है कि चोल हाथियों ने तुंगभद्रा के तट पर भारी उत्पात मचाया तथा चालुक्य सेनापति केशव युद्ध में बन्दी बना लिया गया ।
राजेन्द्र के कन्याकुमारी लेख से भी पता चलता है कि राजराज ने चालुक्यों को पराजित किया था । सत्याश्रय के होट्टर लेख (1007 ई॰) से सूचित होता है कि राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल ने नौ लाख की विशाल सेना लेकर दोनूर (बीजापुर जिला) तक के प्रदेश को रौंद डाला था ।
उसने पूरे प्रदेश में भारी लूट-पाट की, स्त्रियों, बच्चों तथा ब्राह्मणों का संहार किया तथा कई दुर्गों को नष्ट कर दिया था । किन्तु बाद में सत्याश्रय ने चोल सेनाओं को खदेड़ दिया तथा अपने राज्य पर पुन अधिकार कर लिया । इस प्रकार इस अभियान में चोलों को अतुल सम्पत्ति मिली । चोल राज्य की उत्तरी सीमा तुंगभद्रा नदी तक विस्तृत हो गयी ।
(d) वेंगी के पूर्वी चालुक्य राज्य में हस्तक्षेप:
राजराज के समय में वेंगी राज्य की आन्तरिक स्थिति अत्यन्त संकटपूर्ण थी । 973 ई॰ के लगभग वहाँ चोडभीम ने दानार्णव की हत्याकर सिंहासन पर अधिकार जमा लिया तथा उसके दो पुत्रों-शक्तिवर्मा तथा विमलादित्य-को वेंगी से निकाल दिया । इन्होंने राजराज के दरबार में शरण ली ।
राजराज ने वेंगी के अपदस्थ राजकुमारों (शक्तिवर्मन् एवं विमलादित्य) को भीम के विरुद्ध संरक्षण दिया । भीम ने वेंगी में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद तोण्डमण्डम् पर आक्रमण कर दिया । राजराज ने उसे पराजित कर बन्दी बना लिया तथा शक्तिवर्मन् को वेंगी का राजा बनाया ।
अब वेंगी उसका संरक्षित राज्य बन गया । राजराज की इस सफलता से क्षुब्ध होकर कल्याणी के चालुक्य नरेश सत्याश्रय ने 1006 ई॰ के लगभग वेंगी पर आक्रमण कर दिया । राजराज ने उसके विरुद्ध दो सेनायें भेजी । प्रथम सेना का नेतृत्व उसके पुत्र राजेन्द्र ने किया तथा उसने पश्चिमी चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया ।
इस सेना ने बनवासी पर अधिकार कर लिया तथा मान्यखेट को ध्वस्त किया । दूसरी चोल सेना ने वेंगी पर आक्रमण किया । वहाँ उसने हैदराबाद के उत्तर-पश्चिम में कुल्पक के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । सत्याश्रय को विवश होकर वेंगी छोड़ना पड़ा और बड़ी कठिनाई से वह अपने राज्य को बचा पाया ।
चोल-सेना उसके राज्य से अतुल सम्पत्ति लेकर वापस लौटी । इस प्रकार शक्तिवर्मन् वेंगी पर शासन करता रहा, लेकिन वह पूर्णतया चोलों पर ही आश्रित रहा । राजराज ने अपनी कन्या कुन्दवां देवी का विवाह उसके छोटे भाई विमलादित्य के साथ कर दिया जिससे दोनों के सम्बन्ध और अधिक मैत्रीपूर्ण हो गये ।
वेंगी को अपना संरक्षित राज्य बना लेने के बाद राजराज ने कलिंग राज्य को भी जीत लिया । अपने शासन के अन्त में राजराज ने मालदीव को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया । इस द्वीप की विजय उसने अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से की थी । अपनी विजयों के परिणामस्वरूप राजराज ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया ।
उसके साम्राज्य में तुंगभद्रा नदी तक का सम्पूर्ण दक्षिण भारत, सिंहल तथा मालदीव का कुछ भाग शामिल था । इस प्रकार वह अपने समय के महानतम् विजताओं एवं साम्राज्य निर्माताओं में से था । अपनी महानता को सूचित करने के लिये उसने चोल-मार्त्तण्ड, राजाश्रय, राजमार्त्तण्ड, अरिमोलि, चोलेन्द्रसिंह जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियाँ धारण कीं ।
(e) सांस्कृतिक उपलब्धियाँ:
महान् विजेता के साथ-साथ राजराज कुशल प्रशासक तथा महान् निर्माता भी था । उसने समस्त भूमि की नाप कराई तथा उचित कर निर्धारित किया । विभिन्न मण्डलों में योग्य अधिकारियों की नियुक्ति की गयी । उसने एक स्थायी सेना तथा विशाल नौसेना का गठन किया ।
लेखों से उसके कई सामन्तों तथा अधिकारियों की सूचना मिलती है । उसने सोने, चाँदी तथा ताँबे के विभिन्न प्रकार के सिक्कों का प्रचलन करवाया था । राजराज ने अपने पुत्र राजेन्द्र को युवराज बनाया तथा उसके ऊपर शासन की कुछ जिम्मेदारी सौंप दी ।
राजेन्द्र ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक सैनिक तथा प्रशासनिक दायित्वों का निर्वाह किया । वह शिव का अनन्य भक्त था तथा उसने अपनी राजधानी में राजराजेश्वर का भव्य मन्दिर बनवाया था । दक्षिणी भारत के इतिहास के वैभवशाली युग का यह आज तक सर्वोत्तम स्मारक है तथा तमिल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है ।
किन्तु राजा के रूप में यह सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था । उसने श्रीविजय के शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोतुंगवर्मन् को नागपट्टम में एक बौद्ध विहार बनवाने के लिये उत्साहित किया तथा स्वयं एक विष्णु-मन्दिर का भी निर्माण करवाया था । उसने बौद्ध विहार को ग्राम दान में दिया तथा जैन धर्म को भी प्रोत्साहन प्रदान किया ।
इस प्रकार राजराज एक महान् विजेता, साम्राज्य निर्माता, कुशल प्रशासक, निर्माता तथा धर्मसहिष्णु सम्राट था । राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से उसका शासन काल चोल वंश के चर्मोत्कर्ष को व्यक्त करता है ।
iv. राजेन्द्र प्रथम:
यह राजराज प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था और उसकी मृत्यु के बाद 1014-15 ई॰ में चोल राज्य की गद्दी पर बैठा । वह अपने पिता के समान एक महत्वाकाँक्षी एवं साम्राज्यवादी शासक था । उसकी सैनिक उपलब्धियों की सूचना उसके विभिन्न लेखों से मिल जाती है ।
a. सिंहल की विजय:
राजराज प्रथम ने सिंहल पर आक्रमण कर वहाँ के कुछ प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था । किन्तु संमूर्ण सिंहल पर उसका अधिकार नहीं हो पाया था । अन्तः उसके पुत्र राजेन्द्र ने सिंहल विजय का कार्य पूरा किया । वहाँ का शासक महिन्द पञ्चम बन्दी बनाकर चोल राज्य भेज दिया गया जहाँ बारह वर्षों के बाद उसकी मृत्यु हो गयी । सम्पूर्ण सिंहल पर राजेन्द्र का अधिकार हो गया ।
करन्दै ताम्रपत्रों में उसकी इस विजय का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है जिसके अनुसार राजेन्द्र ने लंका के राजा के मुकुट, रानी, पुत्री, सम्पूर्ण सम्पत्ति, वाहन, इन्द्र का निर्मलहार (जो पाण्ड्य राजा द्वारा वहाँ धरोहर रखा गया था) आदि के ऊपर अपना अधिकार कर लिया ।
महावंश से भी इस विजय की पुष्टि होती है जिसके अनुसार राजेन्द्र ने लंका पर पूर्ण अधिकार करने के पश्चात् वहाँ के बौद्ध विहार को नष्ट कर दिया तथा सम्पूर्ण कोष अपने साथ उठा ले गया । महावंश से पता चलता है कि महिन्द के पुत्र कस्सप ने छः माह के कड़े प्रतिरोध के बाद सिंहल के दक्षिणी भागों को पुनः अपने अधिकार में कर लिया ।
b. केरल तथा पाण्ड्य राज्यों की विजय:
राजेन्द्र ने पाण्ड्य तथा केरल राज्यों को जीतकर उन्हें एक अलग राज्य में परिणत कर दिया । तिरुवालंगाडु के ताम्रपत्र केरल तथा पाण्ड्य राज्यों के विरुद्ध राजेन्द्र की सफलताओं का उल्लेख करते हैं । उसके सेनापति दण्डनाथ ने एक विशाल सेना के साथ पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के शासक को बुरी तरह पराजित कर दिया । उसने अपने एक पुत्र को दोनों स्थानों का वायसराय बनाया तथा उसे ‘चोलपाण्ड्य’ की उपाधि प्रदान की । इस राज्य का मुख्यालय मदुरा में था ।
c. पश्चिमी चालुक्यों से संघर्ष:
1020-21 ई॰ के लगभग राजेन्द्र ने वेंगी के चालुक्य राज्य की ओर ध्यान दिया । वहाँ विमलादित्य के दो पुत्रों-विजयादित्य सप्तम तथा राजराज-में राजसिंहासन के लिये संघर्ष चल रहा था । विजयादित्य का समर्थन कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय तथा कलिंग के पूर्वी गंग शासक कर रहे थे ।
राजेन्द्र ने उनके विरुद्ध राजराज के पक्ष का समर्थन किया । जयसिंह द्वितीय ने देंगी पर आक्रमण कर विजयवाड़ा पर अधिकार कर लिया । इससे राजराज की स्थिति संकटग्रस्त हो गयी । फलस्वरूप राजेन्द्र चोल ने जयसिंह पर दोतरफा हमला किया ।
पश्चिम में जयसिंह की सेना मास्की में पराजित हुई तथा तुंगभद्रा दोनों के राज्यों की सीमा मान ली गयी । वेंगी में भी चोल सेना को सफलता मिली । जयसिंह का उम्मीदवार कई युद्धों में बुरी तरह परास्त किया गया ।
d. कलिंग की विजय:
चोल सेना वेंगी को जीतने के बाद कलिंग में घुस गयी जहाँ उसने विजयादित्य के मित्र कलिंग के पूर्वी गंग शासक मधुकामानव (1019-38 ई॰) को दण्डित किया । नीलकंठ शास्त्री के अनुसार राजेन्द्र की कलिंग विजय का उद्देश्य गंगा-घाटी की ओर अभियान करके अपनी विशाल शक्ति का प्रदर्शन करना था ।
e. गंगाघाटी में अभियान:
कलिंग से चोल सौनिकों ने गंगा घाटी के मैदानों में व्यापक अभियान किया । राजेन्द्र चोल के इस पूर्वी अभियान का विवरण भी तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों में मिलता है । इससे पता चलता है कि उसने अपने पुत्र विक्रमचोल के नेतृत्व में एक विशाल सेना उत्तरी-पूर्वी भारत की विजय के लिये भेजी ।
विक्रम चोल ने उड़ीसा, बस्तर, इन्द्ररथ तथा दक्षिण कोशल राज्यों को जीता । इसके बाद उड़ीसा तथा बंगाल के बीच स्थित दण्ड-भुक्ति पर आक्रमण कर वही के शासक धर्मपाल को उसने पराजित किया । यह बंगाल का कोई स्थानीय शासक था जो पालनरेश महीपाल का सम्बन्धी रहा होगा ।
तत्पश्चात् विक्रमचोल ने दक्षिणी राठ के राजा रणशूर तथा पूर्वीबंगाल के गोविन्दचन्द्र को भी जीत लिया । ये दोनों भी सामन्त शासक थे । गोविन्दचन्द्र को जीतने के बाद उसने बंगाल के पाल शासक महीपाल के ऊपर आक्रमण कर उसे भी पराजित कर दिया । पराजित पाल नरेश युद्ध क्षेत्र से भाग गया ।
इस अभियान का उद्देश्य गंगा नदी का पवित्र जल लाना था । कहा जाता है कि बंगाल के पराजित शासकों ने अपने सिर पर लाद कर गंगाजल चोल राज्य में पहुँचाया । गंगाघाटी के अभियान की सफलता पर राजेन्द्र ने ‘गंगैकोण्ड’ की उपाधि धारण की तथा इसके उपलक्ष में उसने गंगैकोण्डचोलपुरम् (त्रिचनापल्ली जिले में) नामक एक नयी राजधानी की स्थापना की । उत्तरी-पूर्वी भारत के इस सफल सैन्य अभियान द्वारा राजेन्द्र ने उत्तर भारत के राजाओं के बीच अपनी शक्ति का पदर्शन कर दिया तथा चोलों की धाक सम्पूर्ण देश में जम गयी ।
f. दक्षिण-पूर्व एशिया की विजय:
राजेन्द्र चोल केवल भारतीय भूभाग में दिग्विजय करने से ही संतुष्ट नहीं हुआ । भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी विजय-वैजन्ती फहराने के उपरान्त उसने दक्षिणी-पूर्वी एशिया में सैन्य अभियान किया । उसने श्रीविजय (शैलेन्द्र) राज्य को जीतने के लिए एक शक्तिशाली नौसेना भेजी ।
इस राज्य के अन्तर्गत मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा तथा अन्य द्वीप सम्मिलित थे । उसका यह अभियान भी पूर्णतया सफल रहा । शैलेन्द्र शासक संग्राम विजयोतुंगवर्मन् पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया । चोल सेना ने कडारम् तथा श्रीविजय को जीत लिया ।
शैलेन्द्र नरेश ने चोल शासक की अधीनता में रहने का वचन दिया तथा इस आश्वासन पर उसका राज्य वापस लौटा दिया गया । इस सैन्य अभियान का विवरण तिरुवालंगातु ताम्रपत्र में मिलता है जिसके अनुसार राजेन्द्र ने शक्तिशाली नौसेना के साथ समुद्र पार करके कटाह को जीत लिया था (अवजित्य कराट्टमुन्नतैर्न्निज- दण्डैरभिलंघितार्णयः) ।
राजेन्द्र के शासन काल के आठवें वर्ष में उत्कीर्ण करन्डै ताम्रपत्रों में भी इस विजय की चर्चा मिलती है । इससे यह भी सूचित होता है कि कम्बुज के शासक ने उसके साथ सन्धि स्थापित करने के लिये प्रार्थना की थी । राजेन्द्र चोल द्वारा श्रीविजय राज्य पर आक्रमण किये जाने तथा उसे जीतने का क्या उद्देश्य था- इस विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं ।
के॰ आर॰ हाल का अनुमान है कि चोल राज्य तथा चीन के बीच व्यापारिक सम्बन्ध में यह राज्य एक कड़ी का कार्य करता था । अतः राजेन्द्र ने श्रीविजय को जीतना आवश्यक समझा । नीलकण्ठ शास्त्री तथा रमेशचन्द्र मजूमदार जैसे विद्वानों का विचार है कि उस समय चोलों का दक्षिणी-पूर्वी एशिया के देशों के- साथ व्यापार सम्बन्ध बढ़ता जा रहा था ।
इस सम्बन्ध में श्रीविजय का राज्य बाधा उत्पन्न कर रहा था । अतः राजेन्द्र ने इस राज्य पर आक्रमण कर दक्षिणी-पूर्वी द्वीपों के साथ अपने राज्य के व्यापारिक सम्बन्ध को निर्विघ्न बना लिया । श्रीविजय के साथ-साथ चोल सेना ने अंडमान-निकोबार, अराकान तथा पेगू (बर्मा में स्थित) के राज्यों को भी जीत लिया था ।
g. विद्रोहों का दमन:
राजेन्द्र चोल को अपने शासन के अन्तिम दिनों में पाण्ड्य तथा केरल राज्यों के विद्रोह का सामना करना पड़ा । ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय राजेन्द्र अपने राज्य से दूर दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों की विजय में लगा हुआ था उसी समय उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए इन राज्यों ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया ।
उन्हें अनेक सामन्तों-चेर, वेनाड, कूपक आदि-से भी सहायता मिली । इन विद्रोहियों का नेतृत्व पाण्ड्य नरेश सुन्दर पाण्ड्य ने किया । किन्तु राजेन्द्र विचलित होने वाला नहीं था । उसने कठोर रुख अपनाते हुए अपने पुत्र युवराज राजाधिराज को इन्हें दबाने के लिये भेजा । राजाधिराज ने कई राजाओं एवं सामन्तों की हत्या कर दी तथा विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया ।
1041 ई॰ में सिंहल नरेश विक्रमाबाहु के नेतृत्व में सिंहल ने स्वतन्त्र होने की चेष्टा की । राजेन्द्र ने राजाधिराज को एक सेना के साथ सिंहल पर आक्रमण करने को भेजा । ज्ञात होता है कि राजाधिराज ने युद्ध में सिंहलनरेश का सिर काट लिया तथा वहीं के विद्रोह का अत्यन्त बर्बरतापूर्वक दमन कर दिया ।
h. पश्चिमी चालुक्यों में पुनः संघर्ष:
राजेन्द्र को अपने शासन के अन्त में वेंगी के प्रश्न पर पश्चिमी चालुक्यों से पुनः संघर्ष करना पड़ा । चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने वेंगी पर आक्रमण कर चोल सत्ता को चुनौती दी । उसने राजेन्द्र द्वारा संरक्षित वेंगी नरेश राजराज के विरुद्ध उसके सौतेले भाई विजयादित्य को वेंगी की गद्दी पर आसीन करने का प्रयास किया ।
राजेन्द्र इस समय तक काफी वृद्ध हो चुका था । अतः उसने अपने तीन सेनापतियों को चालुक्यों के विरुद्ध भेजा । चोलों तथा चालुक्यों की सेनाओं के बीच कालिदिदि में एक युद्ध हुआ जो निर्णायक नहीं रहा । इसी बीच राजेन्द्र की मृत्यु हो गयी । कालान्तर में उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी राजाधिराज ने कई युद्धों में चालुक्य सेनाओं को पराजित कर वेंगी में अपनी स्थिति पुनः सुदृढ़ कर लिया ।
इस प्रकार राजेन्द्र चोल की सेना ने अपनी विजय-वैजयन्ती गंगा से सिंहल द्वीप तक तथा बंगाल की खाड़ी के पार जावा, सुमात्रा एवं मलय प्रायद्वीप पर फहरा दिया । यह उसकी अद्भुत सैनिक सफलता थी जो प्राचीन इतिहास में सर्वथा बेजोड़ है । निःसन्देह वह प्राचीन भारत के महानतम विजेताओं में एक था ।
उसके समय में चोल साम्राज्य शक्ति तथा विस्तार की दृष्टि से उन्नति की चोटी पर पहुँच गया । विजेता होने के साथ-साथ वह एक महान् निर्माता भी था । उसने सिंचाई के लिये सोलह मील लम्बा एक भव्य तालाब खुदवाया था । वह शिक्षा एवं साहित्य का महान् उन्नायक भी था ।
उसने वैदिक साहित्य के अध्ययन के लिये एक विशाल विद्यालय की भी स्थापना करवायी थी । वह युद्ध-क्षेत्र में जितना महान् था, शान्ति-काल में उतना ही कर्मठ था । राजेन्द्र चोल की मृत्यु 1044 ई॰ के लगभग हुई ।
चोलवंश के इतिहास में राजराज तथा उसके पुत्र उत्तराधिकारी राजेन्द्र चोल की उपलब्धियाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । इनके शासन काल में चोल साम्राज्य राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से उन्नति की पराकष्ठा पर पहुँच गया तथा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का अधिकारी बना । वस्तुतः ये दोनों शासक ही चोल शक्ति के मुख्य निर्माता थे ।
v. राजाधिराज प्रथम:
राजेन्द्र चोल का पुत्र तथा उत्तराधिकारी राजाधिराज प्रथम हुआ । वह 1018 ई॰ से ही युवराज के रूप में अपने पिता के सैनिक एवं प्रशासनिक कार्यों में सहायता देता रहा था । राजा होने पर उसे चतुर्दिक् विद्रोहों का सामना करना पड़ा परन्तु उसने बड़ी सफलतापूर्वक अपने राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित किया ।
राजाधिराज ने पाण्ड्य, केरल तथा सिंहल के विद्रोही शासकों को पराजित किया । उसने अपने पिता की विस्तारवादी नीति को जारी रखा । वेंगी में उसने पश्चिमी चालुक्यों की सेना को सोमेश्वर के पुत्र विक्रमादित्य के नेतृत्व में परास्त किया । तत्पश्चात् चोल-सेना ने पश्चिमी चालुक्य-राज्य पर आक्रमण किया ।
सर्वप्रथम उसने कुल्पक के दुर्ग पर अधिकार कर उसमें आग लगा दिया । चालुक्य सामन्तों एवं सेनापतियों को जीतते हुए चोलसेना कृष्णा नदी के तट पर जा पहुंची । वहाँ पून्डूर के युद्ध में राजाधिराज ने चालुक्य-सेना को बुरी तरह परास्त किया । उसने यादगीर पर अधिकार कर लिया तथा चालुक्यों की राजधानी कल्याणी को लूटा ।
वहाँ उसने अपना ‘वीराभिषेक’ किया तथा ‘विजयराजेन्द्र’ की उपाधि धारण की । कल्याणी से वह निशानी के रूप में द्वारपालक की एक सुन्दर प्रतिमा उठा ले गया । परन्तु 1050 ई॰ तक पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने चोल सेनाओं को अपने राज्य से बाहर भगा दिया । उसने वेंगी के चालुक्य शासक राजराज को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिये विवश किया । कलिंग को भी उसने अपने प्रभाव क्षेत्र में किया ।
चोल नरेश राजाधिराज ने अपने छोटे भाई युवराज राजेन्द्र द्वितीय की सहायता से सोमेश्वर के विरुद्ध दूसरा सैनिक अभियान किया । कोप्पम के युद्ध में (1052-53 ई॰) राजाधिराज लड़ता हुआ मारा गया । परन्तु उसके भाई राजेन्द्र द्वितीय ने सोमेश्वर की सेना को बुरी तरह परास्त कर दिया । राजेन्द्र ने युद्ध-क्षेत्र में ही अपना अभिषेक किया । वह कोल्हापुर तक बढ़ा और वहाँ अपना विजयस्तम्भ स्थापित करने के बाद अपनी राजधानी वापस लौट आया ।
vi. राजेन्द्र द्वितीय:
यह राजाधिराज का छोटा भाई था और उसकी मृत्यु के बाद राजा बना । उसके शासन-काल में भी चोल-चालुक्य संघर्ष चलता रहा । सोमेश्वर ने वेंगी की गद्दी पर विजयादित्य सप्तम के पुत्र शक्तिवर्मन् द्वितीय को आसीन किया तथा उसकी मदद के लिए चामुण्डराज के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी ।
उसने अपने दो पुत्रों-विक्रमादित्य तथा जयसिंह-को गंगवाडि में चोल राज्य पर आक्रमण करने को भेजा । चोल नरेश राजेन्द्र ने अपने पुत्र राजमहेन्द्र तथा भाई वीर राजेन्द्र के साथ दोनों मोर्चों पर सोमेश्वर का प्रतिरोध किया ।
वेंगी में उसकी सेना ने चामुण्डराज तथा शक्तिवर्मन् को पराजित किया तथा वे दोनों मार डाले गये । गंगवाडि के चालुक्य आक्रमणकारी कुड्डल संगमम् (तुंग तथा भद्रा के संगम पर स्थित कूड्डलि) के युद्ध में परास्त किये गये तथा उन्हें चोल राज्य से भागना पड़ा । इस प्रकार सोमेश्वर दोनों ही मोर्चों पर बुरी तरह असफल रहा ।
इस असफलता के कुछ दिनों बाद राजेन्द्र द्वितीय तथा उसके पुत्र राजमहेन्द्र की मृत्यु (लग 1063-64 ई॰) हो गयी । वह अपने साम्राज्य को सुरक्षित रख सकने में सफल रहा । यह राजेन्द्र द्वितीय के पश्चात् राजा हुआ । इसके समय में भी चोल-चालुक्य संघर्ष चलता रहा । चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने उसके राज्य पर पूर्व तथा पश्चिम दोनों ओर से आक्रमण किया । वीर राजेन्द्र की सेना ने देंगी में चालुक्यों को हराया ।
पश्चिम में तुंगभद्रा के तट पर उसने सोमेश्वर की सेना को 1066 ई॰ के लगभग बुरी तरह परास्त किया । सोमेश्वर ने पुनः अपनी सेना संगठित की तथा चोल शासक को कुड्डल-संगमम में युद्ध के लिये चुनौती दिया । वीर राजेन्द्र वहाँ गया परन्तु सोमेश्वर स्वयं युद्ध-क्षेत्र में उपस्थित नहीं हुआ । वीर राजेन्द्र ने पुनः चालुक्य सेना को बुरी तरह हराया तथा तुंगभद्रा नदी के तट पर विजय-स्तम्भ स्थापित किया ।
तत्पश्चात वेंगी में उसने विजयादित्य को परास्त किया । उसने कृष्णा नदी पार कर कलिंग पर आक्रमण किया । वहां भी पश्चिमी चालुक्यों एवं उनके सहायकों से उसका भीषण युद्ध हुआ । इसी बीच 1068 ई॰ में सोमेश्वर प्रथम ने तुंगभद्रा में डूबकर आत्महत्या कर ली । उसके उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय के काल में वीर राजेन्द्र ने उसके राज्य पर आक्रमण किया ।
सोमेश्वर द्वितीय का छोटा भाई विक्रमादित्य चोलनरेश वीर राजेन्द्र से जा मिला । उसने अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य के साथ कर दिया और उसे वेंगी के चालुक्य राज्य के दक्षिणी भाग का राजा बनवा दिया । विक्रमादित्य ने उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर दिया ।
वीर राजेन्द्र ने सिंहल नरेश विजयबाहु प्रथम के विरुद्ध सैनिक अभियान किया । विजयवाहु पराजित हुआ तथा उसने भागकर वातगिरि में शरण ली । उसने श्रीविजय में कडारम् को जीतने के लिये भी एक नौसेना भेजी । 1070 ई॰ के लगभग उसकी मृत्यु हो गयी ।
वीर राजेन्द्र का पुत्र अधिराजेन्द उसके बाद चोलवंश का शासक हुआ, परन्तु एक वर्ष के भीतर ही वह वेंगी के पूर्वी चालूक्य वंशी राजेन्द्र द्वारा अपदस्थ कर दिया गया । 1070 ई॰ में राजेन्द्र, कुलोंतुंग प्रथम के नाम से चोलवंश की गद्दी पर ।
vii. कुलोतुंग प्रथम:
यह पूर्वी चालुक्य नरेश राजराज का पुत्र था किन्तु उसमें चोल रक्त का मिश्रण था । उसकी माता राजेन्द्र चोल की कन्या थी । उसका स्वयं का विवाह कोप्पम् युद्ध के विजेता राजेन्द्र द्वितीय की पुत्री से हुआ था । कुलीतुंग प्रथम ने अपने विद्रोहियों को दबाकर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लिया ।
वह अपने समय का एक शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ । उसने पश्चिमी चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ को नंगिलि में पराजित कर गंगवाडि पर अधिकार जमा लिया । इसी बीच (1072-73 ई॰) त्रिपुरी के हैहय शासक यश कर्ण ने उसके वेंगी राज्य पर आक्रमण किया किन्तु इसका कोई परिणाम नहीं निकला ।
परन्तु सिंहल के राजा विजयवाहु ने कुलोतुंग के विरुद्ध अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया । 1072-73 ई॰ में उसने अपना अभिषेक किया तथा कुलोतुंग को उसकी स्वाधीनता स्वीकार करना पड़ा । कालान्तर में दोनों के बीच सन्धि हो गयी तथा कुलोतुंग ने अपनी एक पुत्री का विवाह सिंहल राजकुमार के साथ कर दिया ।
कुलोतुंग को पाण्ड्य तथा केरल राजाओं के भी विद्रोहों का सामना करना पड़ा । वह एक शक्तिशाली सेना के साथ दक्षिणी अभियान पर गया जहाँ कई बार युद्धों में उसने पाण्ड्य और केरल के राजकुमारों को परास्त कर उन्हें अपनी अधीनता में रहने के लिए बाध्य किया ।
परन्तु इन प्रदेशों का प्रशासन उसने स्थानीय शासकों के हाथों में छोड़ दिया । 1077 ई॰ में 72 सौदागरों का एक चोल दूत-मण्डल चीन गया । 1088 ई॰ के सुमात्रा से प्राप्त एक तमिल लेख से पता चलता है कि श्रीविजय में तमिल सौदागरों की एक श्रेणी निवास करती थी ।
वेंगी के विजयादित्य सप्तम की मृत्यु के बाद कुलीतुंग ने अपने पुत्रों को वहाँ वायसराय के रूप में शासन करने को भेजा । 1110 ई॰ के लगभग कलिंग राज्य में विद्रोह हुआ । कुलोतुंग ने अपने सेनापति करुणाकर तोण्डैमान के नेतृत्व में एक सेना वहाँ भेजी । कलिंग नरेश अनन्तवर्मन् पराजित हुआ तथा उसने भागकर जान बचायी । चोलसेना अपने साथ लूट का अतुल धन लेकर लौटी ।
1015 ई॰ तक कुलोतुंग प्रथम अपने साम्राज्य को सुरक्षित बनाये रखने में समर्थ रहा । केवल सिंहल का राज्य ही उसके साम्राज्य के बाहर था । परन्तु उसके शासनकाल के अन्त में मैसूर एवं वेंगी में विद्रोह उठ खड़े हुए । 1018 ई॰ के लगभग विक्रमादित्य षष्ठ ने वेंगी पर अधिकार कर लिया तथा इसी समय होयसलों ने मैसूर से चोल सेना को बाहर खदेड़ कर वहाँ अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी । इस प्रकार कुलोतुंग प्रथम का राज्य केवल तमिल-प्रदेश तथा कुछ तेलगू-क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया ।
कुलोत्तुग प्रथम चोल वंश का एक महान् शासक था । उसका दीर्घकालीन शासन कुल मिलाकर समृद्धि एवं सफलता का काल रहा । उसने प्रजाहित को व्यक्तिगत हितों से ऊपर रखा तथा इसके लिये अनेक सुधार किये ।
चोल लेखों एवं परम्पराओं में उसे ‘शुंगम् तविर्त्त’ (करों को हटाने वाला) कहा गया है जिससे उसकी लोकोपकारिता सूचित होती है । अपने शासन के अन्त में उसने शान्तिपूर्वक राज्य किया । उसने चिदम्बरम् के मन्दिर तथा श्रीरंम् की समाधि का वर्द्धन करवाया । 1120 ई॰ के लगभग उसकी मृत्यु हुयी ।
viii. विक्रम चोल:
यह कुलोतुंग का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था जिसने 1120 ई॰ से 1133 ई॰ तक शासन किया । 1126 ई॰ में विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद उसने वेंगी पर पुनः अपना अधिकार कर लिया । उसने 1133 ई॰ के लगभग गोदावरी नदी तट पर विक्रमादित्य के उत्तराधिकारी सोमेश्वर तृतीय की सेना को परास्त किया । गंगवाडि पर आक्रमण कर उसने कोलर जिले पर अधिकार कर लिया ।
ix. कुलोतुंग द्वितीय:
विक्रम चोल के बाद उसका पुत्र कुलोतुंग द्वितीय 1133 ई॰ में राजा बना तथा 1150 ई॰ तक शान्तिपूर्वक शासन करता रहा । उसकी कोई राजनीतिक उपलब्धि नहीं है । उसने चिदम्बरम् के मन्दिर के नवीनीकरण एवं संवर्धन का कार्य जारी रखा । कुलोतुंग ने इस मन्दिर के प्रांगण से गोविन्दराज की प्रतिमा को हटवाकर समुद्र में फिंकवा दिया ।
x. राजराज द्वितीय:
यह कुलोतुंग द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था जिसने लगभग 1150 ई॰ से 1173 ई॰ तक शासन किया । उसके समय में चारों ओर शक्तिशाली सामन्तों का उदय हुआ । उसका राज्य सम्पूर्ण तेलगू प्रदेश, कोंगूनाद के अधिकांश भागों तथा गंगवाडि के पूर्वी भाग तक फैला हुआ था । उसके कोई पुत्र नहीं था । अतः 1166 ई॰ में उसने विक्रमचोल के पौत्र (पुत्री के पुत्र) राजाधिराज द्वितीय को अपना युवराज नियुक्त किया ।
xi. राजाधिराज द्वितीय:
यह राजराज का उत्तराधिकारी था जिसने 1173 ई॰ से 1178 ई॰ तक शासन किया । इस समय पाण्ड्य वंश में कुलशेखर तथा वीर पाण्ड्य के बीच उत्तराधिकार के लिये संघर्ष छिड़ा हुआ था । राजाधिराज ने वीर पाण्ड्य का पक्ष लिया तथा कुलशेखर का समर्थन लंका के राजा पराक्रमबाहु ने किया । राजाधिराज को सफलता मिली तथा उसने वीर को पाण्ड्यों का राजा बनाया । परन्तु इससे चोलों को कोई लाभ नहीं हुआ ।
xii. कुलोतुंग तृतीय:
यह राजाधिराज का उत्तराधिकारी था परन्तु राजाधिराज के साथ उसका सम्बन्ध अज्ञात है । वह चोल वंश का अन्तिम महान् शासक था । 1182 ई॰ में उसने वीरपाण्ड्य को पराजित किया तथा उसे अपनी अधीनता में रहने के लिये बाध्य किया । कुलोतुंग ने होयसल तथा चेर राजाओं को भी जीतकर अपनी अधीनता में किया ।
कुछ समय बाद पाण्ड्यों ने जटावर्मन् कुलशेखर के नेतृत्व में पुन विद्रोह किया । 1205 ई॰ में कुलोतुंग ने पापड़ राज्य पर आक्रमण किया । उसकी सेना ने मदुरा को लूटा तथा पाण्ड्यों के अभिषेक मण्डल को ध्वस्त कर दिया ।
परन्तु कुलशेखर को उसका राज्य पुन वापस कर दिया गया । कुलोतुंग ने तेलगू-चोडों को भी दबाकर अपने नियन्त्रण में रखा । उसने 1218 ई॰ तक शासन किया । उसका काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये भी प्रसिद्ध है ।
xiii. राजराज तृतीय:
कुलोतुंग का उत्तराधिकारी राजराज तृतीय एक निर्बल राजा था । उसके राज्य में चतुर्दिक् विद्रोह एवं अराजकता फैल गयी । पाण्ड्य नरेश सुन्दर ने उसके राज्य पर आक्रमण उसे बन्दी बना लिया परन्तु होयसल नरेश नरसिंह द्वितीय की सहायता से उसे मुक्ति मिली ।
तेल्लारु के युद्ध में उसे यादव सरदार कोप्पेरुंजिंग ने परास्त कर बन्दी बना लिया । 1231 ई॰ में होयसल सेना की सहायता से वह पुनः अपनी स्वतन्त्रता एवं राज्य पाने में सफल हुआ । राजराज किसी प्रकार 1256 ई॰ तक राज्य करता रहा, परन्तु उसका अधिकार नाममात्र का ही रहा ।
xiv. राजेन्द्र तृतीय:
यह चोल वंश का अन्तिम शासक था । उसने चोल-शक्ति का पुनरुद्धार करने का प्रयास किया । उसने पाण्ड्यों पर आक्रमण कर सुन्दरपाण्ड्य द्वितीय को पराजित किया । परन्तु चालुक्य नरेश सोमेश्वर तृतीय ने पाण्ड्यों का साथ दिया जिससे राजेन्द्र के प्रयास सफल न हो सके । उसने एक युद्ध में राजेन्द्र को परास्त किया तथा बाद में उससे सन्धि कर ली ।
1251 ई॰ में पाण्ड्य वंश का शासन जटावर्मन सुन्दरपाण्ड्य नामक एक शक्तिशाली राजा के हाथ में आया । उसने चालुक्य, होयसल तथा काकतीय राज्यों को जीता ओर चोल शासक राजेन्द्र तृतीय को अपनी अधीनता में रहने के लिये बाध्य किया ।
इसके बाद 1279 ई॰ तक वह पाण्ड्य नरेश के सामन्त की हैसियत से शासन करता रहा । 1279 ईस्वी में उसे पाण्ड्य शासक कुलशेखर के हाथों पुनः पराजित होना पड़ा । इसके साथ ही चोल-राज्य तथा शासन का अन्त हुआ । पाण्ड्य नरेश कुलशेखर समस्त चोलमण्डल का सार्वभौम शासक बन बैठा ।