चोल साम्राज्य: चोल साम्राज्य के दौरान प्रशासन, साहित्य और कला | Chola Empire: Administration, Literature and Art during Chola Empire in Hindi.
चोल साम्राज्य के दौरान प्रशासन (Administration during Chola Empire):
चोल संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसकी शासन-व्यवस्था है । चोल सम्राटों ने एक विशिष्ट शासन व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें प्रबल केन्द्रीय नियन्त्रण के साथ ही साथ बहुत अधिक मात्रा में स्थानीय स्वायत्तता भी थी ।
चोल प्रशासन के अध्ययन के लिये मुख्यतः लेखों पर निर्भर करना पड़ता है । साथ ही साथ इस काल के साहित्य तथा विदेशी यात्रियों के विवरण से भी न्यूनाधिक जानकारी मिल जाती है ।
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सम्राट:
चोल साम्राज्य अपने उत्कर्ष काल में सम्पूर्ण दक्षिण भारत में फैला हुआ था । अन्य युगों की भाँति इस समय भी शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक ही था, किन्तु राजा के अधिकारों, आचरण एवं उसकी शान-शौकत में पहले से अधिक वृद्धि हो गयी ।
उसका अभिषेक एक भव्य राजप्रासाद में होता था और यह एक प्रभावशाली उत्सव हुआ करता था । चोल शासक अपना राज्याभिषेक तंजोर, गंगैकोण्डचोलपुरम्, चिदम्बरम्, कान्चीपुम् आदि स्थानों में किया करते थे । वे ‘चक्रवर्तिगल’, त्रिलोक सम्राट जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियाँ ग्रहण करते थे ।
मन्दिरों में सम्राट की प्रतिमा भी स्थापित की जाती थी तथा मृत्यु के वाद दैव रूप में उसकी पूजा होती थी । तंजोर के मन्दिर में सुन्दर चोल (परान्तक द्वितीय) तथा राजेन्द्र चोल की प्रतिमायें स्थापित की गयी थीं । सम्राट बहुसंख्यक कर्मचारियों, सामन्तों एवं परिचारकों से घिरा रहता था ।
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चीनी लेखक चाऊ-जू-कुआ सम्राट के भोज का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है- ‘राजकीय भोजों के समय राजा तथा उसके दरबार के चार मंत्री राजसिंहासन के नीचे खड़े होकर अभिवादन करते हैं । तत्पश्चात् वहां उपस्थित सभी लोग संगीत, गीत और नृत्य प्रारम्भ कर देते हैं । राजा शराब नहीं पीता है, किन्तु वह मांस खाता है । देशी प्रथा के अनुसार वह सूती वस्त्र पहनता है । अपनी मेज के लिये तथा रक्षक के रूप में कार्य करने के लिये उसनें हजारों नर्तकी लड़कियों को नियुक्त कर रखा है । प्रतिदिन तीन हजार लड़कियां बारी-बारी से उसकी सेवा में लगी रहती हैं ।’ इससे स्पष्ट है कि सम्राट की दिनचर्या काफी शान-शौकत ये परिपूर्ण थी ।
सम्राट के आदेश अक्सर मौखिक होते थे जो उसके पदाधिकारियों द्वारा विभिन्न प्रान्तों में सावधानीपूर्वक लिखकर पहुँचा दिये जाते थे । सम्राट प्रायः अपने जीवन-काल में ही युवराज का चुनाव कर लेता था जो उसके वाद उसका उत्तराधिकारी बनता था । सम्राट के कार्यों में सहायता देने के लिये परिचारकों तथा शासन के प्रमुख विभागों का प्रतिनिधित्व करने वाले मन्त्रियों का एक वर्ग होता था ।
इसके अतिरिक्त उसका अपना कार्यालय भी होता था । चोल सम्राट निरंकुश नहीं होता था तथा धर्म तथा आचार के विरुद्ध कार्य नहीं करता था । वह कानून का निर्माता न होकर सामाजिक नियमों एवं व्यवस्था का प्रतिपालक होता था ।
सार्वजनिक हित के कार्यों, जैसे-मन्दिर निर्माण, कृषि-योग्य भूमि तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था, विद्यालयों तथा औषधालयों की स्थापना आदि में उसकी विशेष रुचि होती थी । राजपरिवार के अन्य सदस्य, दरबारी अधिकारी आदि सभी सम्राट के आदर्श का अनुकरण करते थे । धार्मिक मामलों में सम्राट राजगुरुओं की परामर्श से ही कार्य करता था ।
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अधिकारी-तंत्र:
चोल प्रशासन में एक सुविस्तृत अधिकारी-तन्त्र था जिसमें विभिन्न दर्जे के पदाधिकारी होते थे । केन्द्रीय अधिकारियों की कई श्रेणियाँ होती थीं । सबसे ऊपर की श्रेणी को ‘पेरुन्दनम्’ तथा नीचे की श्रेणी को ‘शिरुदनम्’ कहा जाता था । लेखों में कुछ उच्चाधिकारियों को ‘उडनकूट्टम्’ कहा गया है जिसका अर्थ है- सदा राजा के पास रहने वाला अधिकारी ।
नीलकंठ शास्त्री के अनुसार ये राजा के निजी सहायक थे जो राजा तथा नियमित कर्मचारी-तन्त्र के बीच सम्पर्क का कार्य करते थे । उनका कार्य सम्बन्धित विभागों के कर्मचारियों को राज्य की नीति बताना तथा राजा को प्रान्तों की आवश्यकताओं से अवगत कराना था ।
राज्य के प्रबन्ध में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी । समाज में अधिकारियों का अलग वर्ग होता था । अधिकारियों के पद आनुवंशिक होने लगे थे तथा नागरिक और सैनिक अधिकारियों में कोई स्पष्ट अन्तर नहीं था । उनकी नियुक्ति तथा पदोन्नति के नियमों के विषय में ज्ञात नहीं है ।
पदाधिकारियों को नकद वेतन के स्थान पर भूमिखण्ड (जीवित) दिये जाते थे । चोल लेखों से पदाधिकारियों की कार्य-प्रणाली पर प्रकाश पड़ता है । पता चलता है कि सम्राट जब किसी विषय पर निर्णय देता था तो उससे सम्बन्धित सभी अधिकारी उपस्थित रहते थे ।
सर्वप्रथम ‘ओलै’ नामक पदाधिकारी राजा के आदेशों का कच्चा मसौदा तैयार करता था । इसकी जांच ‘ओलैनायगम्’ नामक वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा की जाती थी । तत्पश्चात् इन आदेशों को स्थायी पंजियों में लिपिबद्ध कर सम्बंधित विभागों तक पहुंचा दिया जाता था ।
स्थानीय प्रशासन:
प्रशासन की सुविधा के लिये विशाल चोल-साम्राज्य छः प्रान्तों में विभाजित था । प्रान्त को ‘मण्डलम्’ कहा जाता था जिसका शासन एक वायसराय के हाथ में होता था । इस पद पर प्रायः राजकुमारों की ही नियुक्ति की जाती थी । किन्तु कभी-कभी इस पद पर वरिष्ठ अधिकारियों अथवा पराजित किये गये राजाओं की भी नियुक्ति हो जाती थी ।
मण्डलम् के शासकों के पास अपनी सेना तथा न्यायालय होते थे । कालान्तर में यह पद आनुवंशिक हो गया । प्रत्येक मण्डलम् में केन्द्रीय सरकार का एक प्रतिनिधि रहता था जो मण्डलीय शासक की गतिविधियों पर दृष्टि रखता था । मण्डलम् का विभाजन कई ‘कोट्टम्’ अथवा ‘वलनाडु’ में हुआ था जो आजकल की कमिश्नरियों के बराबर होते थे ।
प्रत्येक कोट्टम् में कई जिले होते थे । जिले की संज्ञा ‘नाडु’ थी । नाडु की सभा को ‘नाट्टार’ कहा जाता था जिसमें सभी गाँवों तथा नगरों के प्रतिनिधि होते थे । इसका मुख्य कार्य भू-राजस्व का प्रबन्ध करना था । इसे किसी भू-राजस्व में छूट दिला देने का भी अधिकार था ।
नाडु अपने नाम से दान देते तथा अक्षयनिधियाँ प्राप्त करते थे । नाट्टार को भूमि का वर्गीकरण करने तथा तदनुसार राजस्व निर्धारित करने का भी काम सौंपा गया था । इसे किसी भूराजस्व में छूट दिला देने का भी अधिकार था । कभी-कभी यह मन्दिर का प्रबन्ध भी करती थी ।
कुलोतुंग के शासन काल के दसवें वर्ष के नाट्टार ने तीर्थमलै मन्दिर (सेलम जिला) का प्रबन्ध देखने के लिये पुजारी की नियुक्ति की थी । करिकाल कालीन लेख से पता चलता है कि वाणगप्पाडि के नाडु को वालैयूरनक्कर योगवाणर के मन्दिर का प्रबन्ध सौंपा गया था ।
कुछ स्थानों में नाट्टार को अन्य संघटनों तथा राजकीय पदाधिकारियों के साथ मिलकर न्याय प्रशासन एवं अन्य कार्यों में सहयोग करते हुए पाते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि शान्ति व्यवस्था कायम करने अथवा भूमि का प्रबन्ध करने के उद्देश्य से विभिन्न नाडुओं को मिलाकर संगठन बनाये जाते थे ।
कुलोतुंग तृतीय के समय में तिरुवारंगलुम् मन्दिर के एक लेख में सम्पूर्ण नाडु के एक संगठन का उल्लेख मिलता है । राजराज प्रथम के एक लेख में बारह नाडुओं की महासभा की चर्चा है । नाडु के ‘निर्दोष पाँच सौ’ तथा मुखिया का भी उल्लेख हुआ है । नाडु के खर्च के लिये ‘नाडुविनियोगम्’ नामक कर लिया जाता था ।
नाडु के अन्तर्गत अनेक ग्राम संघ थे जिन्हें ‘कुर्रम्’ कहा जाता था । व्यापारिक नगरों में ‘नगरम्’ नामक एक सभा होती थी । व्यापारियों की संस्थाओं (श्रेणियों) को सरकार की ओर से मान्यता प्राप्त थी । उनके पास अपनी भी थी जिससे वे अपनी सुरक्षा करते थे । बड़े नगरों में अलम कुर्रम् गठित किये जाते थे जिन्हें ‘तनियूर’ अथवा ‘तंकर्रम्’ कहा जाता था । प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम-सभा होती थी ।
न्याय व्यवस्था:
चोल साम्राज्य में न्याय के लिये नियमित न्यायालयों को गठन किया गया था । लेखों में ‘धर्मासन’ तथा ‘धर्मासन-भट्ट’ का उल्लेख मिलता है । धर्मासन से तात्पर्य सम्भवतः सम्राट के न्यायालय से है । न्यायालय के पंडितों को ‘धर्मभट्ट’ कहा गया है जिनकी परामर्श से विवादों का निर्णय किया जाता था ।
दीवानी तथा फौजदारी का अन्तर बहुत अधिक स्पष्ट नहीं है । अपराधों में सामान्यतः जुर्माने होते थे । नरवध तथा हत्या के लिये व्यवस्था थी कि अपराधी पड़ोस के मन्दिर में अखण्डदीप जलवाने का प्रबन्ध करे । यह एक प्रकार का प्रायश्चित था ।
किन्तु मृत्युदण्ड दिये जाने के भी उदाहरण प्राप्त होते है । राजद्रोह भयंकर अपराध था जो स्वयं राजा द्वारा देखा जाता था । इसमें अपराधी को मृत्युदण्ड के साथ ही साथ उसकी सम्पति भी जब्त कर ली जाती थी ।
तेरहवीं शती के चीनी लेखक चाऊ-जू-कुआ चोल दण्ड-व्यवस्था का इस प्रकार विवरण देता है- ‘जब प्रजा में कोई व्यक्ति अपराध करता है तो राजा का कोई मंत्री उसे दण्ड देता है । सामान्य अपराध होने पर अपराधी को एक लोहे के चौखट में बाँध कर उसे पचास, सत्तर या सौ दण्डे मारे जाते है । जघन्य अपराधों में अपराधी का सिर काट दिया जाता अथवा हाथी के पैर तले कुचलवा कर दण्ड दिया जाता है ।’
कभी-कभी लोगों को आत्मदाह द्वारा सम्पत्ति का स्वामित्व सिद्ध करना पड़ता था । अग्नि तथा जल द्वारा दीव्य परीक्षाओं का भी विधान था । गवाहियाँ भी ली जाती थीं । पशुओं की चोरी के अपराध में व्यक्ति की सम्पत्ति जब्त कर मन्दिर को दिये जाने के उदाहरण मिलते हैं । इस प्रकार चोल न्याय-प्रशासन सुसंगठित एवं निष्पक्ष था ।
भूमि तथा राजस्व:
चोल राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था । भूमिकर ग्राम-सभायें एकत्र करके सरकारी खजाने में जमा करती थीं । इसके लिये चोल शासकों ने समस्त भूमि की माप करायी तथा उसकी उत्पादकता के आधार पर कर का निर्धारण किया ।
यह आधे से लेकर चौथाई भाग तक होता था । राजराज प्रथम तथा कुलोतुंग प्रथम के समय में क्रमशः एक और दो बार भूमि की माप कराई गयी थी । भूमि की बारह से भी अधिक किस्मों का उल्लेख मिलता है । प्रत्येक ग्राम तथा नगर में रहने के स्थान, मन्दिर, तालाब, कारीगरों के आवास, श्मशान आदि सभी प्रकार के करों से मुक्त थे । इसी प्रकार पिंडारि (ग्राम्य-देवी) के लिये बकरों की बलि का स्थान, कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार, रजक, बढ़ई आदि के निवास स्थानों को भी करमुक्त रखा गया था ।
राजस्व विभाग की पंजिका को ‘वारित्पोत्तगककणक्क’ कहा जाता था जिसमें सभी प्रकार की भूमि के ब्योरे दर्ज किये जाते थे । कृषकों को यह सुविधा थी कि वे भूमिकर नकद अथवा द्रव्य के रूप में चुकाये । चोलों के स्वर्ण सिक्के ‘कलंजु’ या ‘पोन्’ कहे जाते थे ।
अकाल आदि दैवी आपदाओं के समय भूमिकर माफ कर दिया जाता था । दक्षिण में तालाब ही सिंचाई के प्रमुख साधन थे जिनके रख-रखाव की जिम्मेदारी ग्राम सभाओं की होती थी । तालाबों की मरम्मत के लिये ‘एरिआयम्’ नामक कर भी वसूल किया जाता था । कभी-कभी करों को वसूलते समय जनता के साथ कठोर व्यवहार किया जाता था जिससे उन्हें भारी कष्ट होता था ।
लोगों को पानी में डुबो देने अथवा धूप में खड़ा कर देने का भी उल्लेख मिलता है । एक स्थान पर उल्लेख मिलता है कि तंजोर के कुछ ब्राह्मण लगान चुकाने में असमर्थ होने पर अपनी जमीनें छोड़कर गाँव से भाग गये तथा उनकी जमीने पड़ोस के मन्दिर को बेंच दी गयीं ।
यदि भूस्वामी भूमिकर नहीं देता था तो कुछ समय के बाद उसकी भूमि दूसरे के हाथ बेंच दी जाती थी । राजेन्द्र चोल के समय में यह अवधि तीन वर्ष तथा कुलोतुंग के समय में दो वर्ष की थी । बकाये कर पर ब्याज भी लिया जाता था । चोल इतिहास के परवर्ती युग में केन्दीय शक्ति के निर्बल होने पर स्थानीय पदाधिकारी मनमाने ढंग से प्रजा का उत्पीड़न करने लगे ।
जनता द्वारा अन्यायपूर्ण करों के विरुद्ध विद्रोह किये जाने के उदाहरण भी प्राप्त होते है । राजराज तृतीय तथा कुलोतुंग प्रथम के काल में इस प्रकार के विद्रोह किये गये । भूमिकर के अतिरिक्त व्यापारिक वस्तुओं, विभिन्न व्यवसायों, खानों, वनों, उत्सवों आदि पर भी कर लगते थे । आर्थिक जुर्माने से भी राज्य को बहुत अधिक धन प्राप्त होता था ।
नगरों में बेची जाने वाली वस्तुओं पर कर वसूल करने का काम ‘नगरम्’ द्वारा किया जाता था । एक लेख में तट्टोपाट्टम् (स्वर्णकारों), नमक (उप्पायम्), जल स्रोतों (ओल्लूकुनीर पाट्टाम्), बाट-माप (इर्डेवरि) दुकानों (इंगाडिपाट्टम्) आदि करों का उल्लेख मिलता है जिन्हें वसूल करने का अधिकार ‘नगरम्’ को ही था । नगर की सभा को ‘नगरत्तार’ कहा जाता था जिसमें व्यापारिक समुदाय के लोग शामिल थे । राज्य की आय का व्यय अधिकारीतन्त्र, निर्माण-कार्यों, दान, यज्ञ महोत्सव आदि पर होता था ।
चोल लेखों में विभिन्न प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है, जैसे- आयम (राजस्व), कुडिमै (लगान), मरमज्जाडि (वृक्षकर), किडाककाशु (नर पशु पर लगने वाला कर), पाडिकावल (गांव की रक्षा के लिये लिया जाने वाला कर), वाशल्तिरमम् (द्वारकर), मनैइरै (भवन-कर), कडैइरै (दुकानों पर लगने वाला कर), आजीवकक्काशु (आजीवकों पर लगने वाला कर), पेवरि (तेलियों से लिया जाने वाला कर), मगन्मै (कुम्हार, लुहार, सुनारों आदि से लिया जाने वाला कर) आदि । अनेक करों का अर्थ स्पष्ट नहीं है । राजस्व विभाग के प्रमुख अधिकारी ‘वरित्पोत्तगकक’ कहलाते थे जो अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के आय-व्यय का हिसाब रखते थे ।
सैन्य संगठन:
चोल राजाओं ने एक विशाल संगठित सेना का निर्माण किया था । उनके कुल सैनिकों की संख्या एक लाख पचास हजार के लगभग थी । उसके पास अश्व, गज एवं पैदल सैनिकों के साथ ही साथ एक अत्यन्त शक्तिशाली नौसेना भी थी । इसी नौसेना के सहायता से उन्होंने श्रीविजय, सिंहल, मालदीव आदि द्वीपों की विजय की थी ।
नौ विद्या संबंधी लेखों या पुस्तकों में चोल नाविकों द्वारा प्रकट किये गये विचारों को 15-16वीं शती के उनके अरब उत्तराधिकारी मान्य प्रमाण के रूप में उद्धृत करते थे । चोल शासक स्वयं कुशल योद्धा थे और वे अधिकतर व्यक्तिगत रूप से युद्धों में भाग लिया करते थे । सेना के कई दल थे ।
लेखों में बडपेर्र (पदाति सैनिक), बिल्लिगल (धर्नुधारी सैनिक), कुदिरैच्चेवगर (अश्वारोही सैनिक), आनैयाटककलकुंजिरमल्लर (गजसेना) आदि का उल्लेख मिलता है । कुछ सैन्यदल नागरिक कार्यों में भी भाग लेते थे तथा मन्दिरों आदि को दान दिया करते थे ।
कुछ सैनिक सम्राट की सेवा में निरन्तर उपस्थित रहते थे तथा उसकी रक्षा के लिये अपने प्राण तक न्योछावर कर सकते थे । ऐसे सैनिकों को ‘वेलैक्कारर’ कहा गया है । सैनिक सेवाओं के बदले में राजस्व का एक भाग अथवा भूमि देने की प्रथा थी । चोल सैनिक अत्यधिक अनुशासित एवं प्रशिक्षित होते थे ।
चोल सैनिक क्रूर तथा निर्दयी भी होते थे । विजय पाने के बाद शत्रुओं की वे हत्या कर देते थे । यहाँ तक कि स्त्रियों तथा बच्चों को भी नहीं छोड़ा जाता था । शत्रुनगरों को भी वे ध्वस्त कर देते थे । पाण्ड्य तथा पश्चिमी चालुक्य राज्यों में उनका व्यवहार इसी प्रकार का रहा ।
इस प्रकार चोल शासन-व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन युग की यह एक उत्कृष्ट शासन-प्रणाली थी जिसमें केन्द्रीय नियन्त्रण तथा स्थानीय स्वायत्तता साथ-साथ वर्तमान रही ।
चोलों की शासन-व्यवस्था का मूल्यांकन करते हुये इतिहासकार नीलकण्ठ शास्त्री लिखते हैं- ‘एक योग्य नौकरशाही तथा सक्रिय स्थानीय संस्थाओं के बीच, जो विविध प्रकार से नागरिकता की भावना का पोषण करती थीं, शासन-निपुणता तथा शुद्धता का एक उच्च स्तर प्राप्त कर लिया गया था, जो सम्भवतः किसी हिन्दू राज्य द्वारा प्राप्त सर्वोच्च स्तर था ।’
चोल साम्राज्य के दौरान साहित्य (Literature during Chola Empire):
चोल राजाओं का शासनकाल तमिल भाषा एवं साहित्य के विकास के लिये प्रसिद्ध है । तमिल लेखकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध जयंगोन्दार था । वह चोल शासक कुलोतुंग प्रथम का राजकवि था और उसने ‘कलिंगत्तुपर्णि’ नामक ग्रन्थ की रचना की । इसमें कुलोतुंग के कलिंग-युद्ध की घटनाओं का वर्णन है ।
कुलोतुंग तृतीय के शासन-काल में प्रसिद्ध कवि कम्बन् हुआ जिसने ‘तामिल रामायण’ अथवा ‘रामावतारम्’ की रचना की । यह तमिल साहित्य का महाकाव्य है । इसकी कथा बाल्मीकि रामायण की कथा से मिलती-जुलती है । अन्य ग्रन्थों में शेक्किल्लार का ‘पेरियपुराणम्’, पुलगेन्दि का नलवेम्ब, तिरुक्तदेवर का ‘जीवक चिन्तामणि’, तोलामोल्लि का शूलामणि आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
चोल शासकों ने अमृतसागर तथा बुद्धमित्र जैसे प्रसिद्ध जैन तथा बौद्ध विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया था । अमृतसागर ने याप्परुंगलम् तथा याप्परुंगलक्कारिगै नामक दो प्रामाणिक ग्रन्थ छन्दशास्त्र पर लिखा । बुद्धमित्र की प्रमुख कृति वीर-शोल्लियम् है ।
वह चोल शासक वीरराजेन्द्र को महान् तमिल विद्वान् बताता है । चोल काल में वैष्णव लेखकों ने अपने ग्रंथ संस्कृत में लिखे । ऐसे लेखकों में नाथमुनि, यामुनाचार्य तथा रामानुज के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
चोल साम्राज्य के दौरान कला और स्थापत्य (Art and Architecture during Chola Empire):
चोलवंशी शासक उत्साही निर्माता थे और उनके समय में कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई । चोलयुगीन कलाकारों ने अपनी कुशलता का प्रदर्शन पाषाण-मन्दिर एवं मूर्तियां बनाने में किया है । द्रविड़ वास्तु शैली का जो प्रारम्भ पल्लव काल में हुआ उसका चरमोत्कर्ष इस काल में देखने को मिलता है ।
चोलकाल दक्षिण भारतीय कला का स्वर्ण युग कहा जा सकता है । कलाविद् फर्ग्गुसन के अनुसार चोल कलाकारों ने ‘दैत्यों के समान कल्पना की तथा जैहारियों के समान उसे पूरा किया’ । चोलकालीन मन्दिरों के दो रूप दिखाई देते हैं । प्रथम के अन्तर्गत प्रारम्भिक काल के वे मन्दिर है जो पल्लव शैली से प्रभावित है तथा बाद के मन्दिरों की अपेक्षा काफी छोटे आकार के है ।
दूसरे रूप के मन्दिर अत्यन्त विशाल तथा भव्य है । इनमें हम द्रविड़ शैली का पूर्ण परिपाक पाते हैं । चोल शासकों ने अपनी राजधानी में बहुसंख्यक पाषाण मन्दिरों का निर्माण करवाया । चोल काल के प्रारम्भिक स्मारक पुडुक्कोट्टै जिले से प्राप्त होते है । इनमें विजयालय द्वारा नार्त्तामिलाई में बनवाया गया चोलेश्वर मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है ।
यह चोल शैली का एक सुन्दर नमूना है । इसमें एक वर्गाकार प्राकार के अन्तर्गत एक वृत्ताकार गर्भगृह बना हुआ है । प्राकार तथा गर्भगृह के ऊपर विमान है । यह चार मंजिला है । प्रत्येक मंजिल एक दूसरे के ऊपर क्रमशः छोटी होती हुई बनायी गयी है । नीचे की तीन मंजिले वर्गाकार तथा सबसे ऊपरी गोलाकार है ।
इसके ऊपर गुम्बदाकार शिखर तथा सबसे ऊपरी भाग में गोल कलश स्थापित है । सामने की ओर घिरा हुआ मण्डप है । बाहरी दीवारों को सुन्दर भित्तिस्तम्भों से अलंकृत किया गया है । मुख्य द्वार के दोनों ओर ताख में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । मुख्य मन्दिर के चारों ओर खुले हुए बरामदे में सात छोटे देवस्थान है जो मन्दिर ही प्रतीत होते हैं । ये सभी पाषाण-निर्मित है ।
इस प्रकार का दूसरा मन्दिर कन्ननूर का बालसुब्रह्मण्य मन्दिर है जिसे आदित्य प्रथम ने बनवाया था । इसकी समाधियों की छतों के चारों कोनों पर हाथियों की मूर्तियों हैं । विमान के शिखर के नीचे बना हुआ हाथी सुब्रह्मण्यम् का वाहन है । इसी समय का एक अन्य मन्दिर कुम्बकोनम् में बना ‘नागेश्वर मन्दिर’ है ।
इसकी बाहरी दीवारों की ताखों में सुन्दर मूर्तियों बनाई गयी हैं । गर्भगृह के चारों ओर अर्द्धनारी, ब्रह्मा, दक्षिणामूर्ति के साथ-साथ बहुसंख्यक मनुष्यों की मूर्तियाँ ऊंची रिलीफ में बनी हैं जो अत्यधिक सुन्दर है । मानव मूर्तियों या तो दानकर्त्ताओं की हैं या समकालीन राजकुमारों तथा राजकुमारियों की है ।
आदित्य प्रथम के ही समय में तिरुक्कट्टलै के सुन्दरेश्वर मन्दिर का भी निर्माण हुआ । इसके परकोटे में गोपुरम् बना हुआ है, विमान दुतल्ला है तथा इसमें एक अर्द्धमण्डप भी है । इस मन्दिर में द्रविड़ शैली की सभी विशेषतायें देखी जा सकती है ।
परान्तक प्रथम के राज्य-काल में निर्मित श्रीनिवासनब्स का कोरगनाथ मन्दिर चोल मन्दिर निर्माण-कला के विकास के द्वितीय चरण को व्यक्त करता है । यह कुल मिलाकर 50 फीट लम्बा है । इसका वर्गाकार गर्भगृह 25 फीट का है तथा सामने की ओर का मण्डप 25′ × 20′ के आकार का है ।
मण्डप के भीतर चार स्तम्भों पर आधारित एक लघु कक्ष हैं । मण्डप तथा गर्भगृह को जोड़ते हुए अन्तराल बनाया गया है । मन्दिर का शिखर 50 फीट ऊँचा है । गर्भगृह की बाहरी दीवार में बनी ताखों में एक पेड़ के नीचे भक्तों, सिंहों तथा गणों के साथ बैठी हुए दुर्गा की दक्षिणामूर्ति तथा विष्णु एवं ब्रह्मा की खड़ी हुई मूर्तियों उत्कीर्ण मिलती है ।
दुर्गा के साथ लक्ष्मी तथा सरस्वती की मूर्तियों भी मिलती है । सभी तक्षण अत्यन्त सुन्दर है । इस प्रकार वास्तु तथा तक्षण दोनों की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट कलाकृति है । चोल स्थापत्य का चरमोत्कर्ष त्रिचनापल्ली जिले में निर्मित दो मन्दिरों-तंजौर तथा गंगैकोण्डचोलपुरम् के निर्माण में परिलक्षित होता है । तंजौर का भव्य शैव मन्दिर, जो राजराजेश्वर अथवा बृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध है, का निर्माण राजराज प्रथम के काल में हुआ था ।
भारत के मन्दिरों में सबसे बडा तथा लम्बा यह मन्दिर एक उत्कृष्ट कलाकृति है जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को द्योतित करती है । इसे द्रविड़ शैली का सर्वोत्तम नमूना माना जा सकता है । इसका विशाल प्रांगण 500′ × 250′ के आकार का है ।
इसके निर्माण में ग्रेनाइट पत्थरों वन प्रयोग किया गया है । मन्दिर चारों ओर से एक ऊंची दीवार से घिरा है । मन्दिर का आकर्षण गर्भगृह के ऊपर पश्चिम में बना हुआ लगभग 200 फीट ऊँचा विमान हैं । इसका आधार 82 वर्ग फुट है । आधार के ऊपर तेरह मंजिलों वाला पिरामिड के आकार का शिखर 190 फीट ऊंचा है । मन्दिर का गर्भगृह 44 वर्ग फीट का है जिसके चतुर्दिक् 9 फीट चौड़ा प्रदक्षिणापथ निर्मित है ।
प्रदक्षिणा-पथ की भीतरी दीवारों पर सुन्दर भित्तिचित्र बने हैं । गर्भगह के भीतर एक विशाल शिवलिंग स्थापित है जिसे अब वृहदीश्वर कहा जाता है । प्रवेशद्वार पर दोनों ओर साख में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ बनी है । मन्दिर के वहिर्भाग में विशाल नन्दी की एकाश्मक मूर्ति बनी है ।
मन्दिर की दीवारों में बने ताखों में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ वनी हुई है । इस प्रकार भव्यता तथा कलात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से यह दक्षिण भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्दू स्मारक है । पर्सी ब्राउन के शब्दों में ‘इसका विमान न केवल द्रविड़ शैली की सर्वोत्तम रचना है अपितु इसे समस्त भारतीय स्थापत्य की कसौटी भी कहा जा सकता है ।’
गंगौकोण्डचोलपुरम् के मन्दिर का निर्माण राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल के शासन-काल में हुआ । उसने यहाँ बृहदीश्वर नामक भव्य शैव मन्दिर का निर्माण करवाया । इसकी योजना तंजौर मन्दिर के ही समान है लेकिन दोनों में कुछ विषमता भी मिलती है ।
यह 340 फीट लम्बा तथा 110 फीट चौडा है । इसका आठ मंजिला पिरामिडाकार विमान 100 वर्ग फीट के आधार पर बना है तथा 86 फीट ऊंचा है । विमान के ऊपर गोल खूपिका है । मन्दिर का मुख्य प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है जिसके बाद 175′ × 95′ के आकार का महामण्डप है ।
मण्डप तथा गर्भगृह को जोड़ते हुए अन्तराल बनाया गया है । मण्डप एवं अन्तराल की दोनों छतें सपाट है । अन्तराल के उत्तर तथा दक्षिण की ओर दो प्रवेशद्वार बने है जिनसे होकर गर्भगृह में पहुँचा जाता है । मण्डप 250 पंक्तिबद्ध स्तम्भों के आधार पर बना है । मण्डप के स्तम्भ अलंकृत तथा आकर्षक है ।
मन्दिर की बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ एवं विविध प्रकार के अलकरण उत्कीर्ण है जो तजौर मन्दिर की अपेक्षा अधिक सुन्दर एवं कलापूर्ण है । तंजोर तथा गंगैकोडचोलपुरम् के मन्दिर चोल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करते हैं । इनमें द्रविड़ वास्तु के विमान निर्माण योजना की भव्यता, तकनीक तथा अलकरण की पराकाष्ठा भी परिलक्षित होती है ।
साथ ही साथ ये चोल सम्राटों की महानता एवं गौरवगाथा को आज भी सूचित कर रहे हैं । राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों के समय में भी मन्दिर निर्माण की परम्परा कायम रही । इस समय कई छोटे-छोटे मन्दिरों का निर्माण किया गया ।
इनमें मन्दिर की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारियों एवं भव्य मूर्तियों उत्कीर्ण है । राजराज- द्वितीय तथा कुलोतुंग तृतीय द्वारा बनवाये गये क्रमशः दारासुरम का ऐरावतेश्वर का मन्दिर तथा त्रिभुवन का कम्पहरेश्वर का मन्दिर अत्यन्त भव्य एवं सुन्दर है ।
इन मन्दिरों का निर्माण भी तंजौर मन्दिर की योजना पर किया गया है । ऐरावतेश्वर मन्दिर का शिखर पांच तल्ला जिसका सबसे ऊपरी तल्ला पाषाण के स्थान पर ईटी से बनाया गया है । विमान के सामने मण्डप तथा उसके आगे अग्रमण्डप बनाये गये है ।
ये पहियेदार रथ की भाँति है जिन्हें हाथी खींच रहे है । मण्डपों में अलंकृत स्तम्भ लगाये गये है । उत्तर की ओर अम्मन मन्दिर तथा दक्षिण की ओर एक दूसरा स्तम्भयुक्त मण्डप है । मन्दिर की बाहरी दीवार में बने आलों में मूर्तियाँ उत्कीर्ण है जो वृहदीश्वर मन्दिर जैसी ही है । मण्डप का ऊपरी भाग नटराज सभा कहा जाता है ।
इसमें बने आलों में ऋषि-मुनियों की शान्त एवं उपदेश देती हुई मुद्रा में मूतियाँ उकेरी गयी हैं । कालान्तर में इस मन्दिर का प्रभाव कोणार्क के सूर्य मन्दिर पर पड़ा । वास्तु तथा तक्षण दोनों ही दृष्टियों से यह मन्दिर उल्लेखनीय हैं ।
कम्पहरेश्वर, जिसे त्रिभुवनेश्वर भी कहा जाता है, की योजना भी ऐरावतेश्वर मन्दिर के ही समान है । इसमें मूर्तिकारी की अधिकता है । मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से भी अच्छी हैं । नीलकण्ठ शास्त्री ने इसे चूर्तिदीर्घा कहा है । परवर्ती चोल कला पर चालुक्य, होयसल तथा पाण्डत्र कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।
परिस्वरूप मन्दिरों के विमान तथा गोपुरम् की रचना में पहले से विभिन्नता मिलती है । विमान के पास शाला प्रकार का अम्मन् मन्दिर बनाया जाने लगा जो इस काल की नई विशेषता है । यह वस्तुतः देवी मन्दिर है । गोपुरम् में नया अन्तर यह आया कि इनमें कई तल्ले बनने लगे तथा इनकी ऊँचाई बढ़ गयी । कभी-कभी ये विमान से भी ऊँचे हो जाते थे । स्तम्भ पतले किन्तु अधिक अलंकृत बनाये जाने लगे ।
स्थापत्य के साथ-साथ तक्षण-कला के क्षेत्र में भी चोल कलाकारों ने सफलता प्राप्त की । उन्होंने पत्थर तथा धातु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया । प्रारम्भिक मूर्तियां पल्लव शैली से प्रभावित है किन्तु दसवीं शती से इनमें विशिष्टता दिखाई देती है । आकृतियां इतने उधार के साथ बनाई गयी हैं कि व दीवाल के सहारे सजीव खड़ी प्रतीत होती हैं ।
उनके अंग-प्रत्यंग को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ गढ़ा गया है । कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों में देवी-देवताओं की मूर्तियों ही अधिक हैं, यद्यपि छिट-पुट रूप से मानव मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं । चूंकि चोलवंश के अधिकांश शासक उत्साही शैव थे, अतः इस काल में मूर्तियों का निर्माण ही अधिक हुआ । पाषाण मूर्तियों से भी अधिक धातु (कांस्य) मूर्तियों का निर्माण हुआ ।
इसमें देवताओं, सन्तों तथा भक्त राजाओं की मूर्तियों बनायी गयीं । सर्वाधिक सुन्दर मूर्तियों नटराज (शिव) की है जो बहुत बड़ी संख्या में मिलती है । ये आज भी दक्षिण के कई स्थानों पर विद्यमान है जिनकी पूजा होती है । त्रिचनापल्ली के तिरुभरंगकुलम् से नटराज की एक विशाल कांस्य प्रतिमा मिली है जो इस समय दिल्ली संग्रहालय में हैं ।
इसी जिसे के तिरुवलनकडु से शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की एक मूर्ति मिलती है जो मद्रास संग्रहालय में सुरक्षित है । इसमें नारी तथा पुरुष की शारीरिक विशेषताओं को उभारने में कलाकार को विशेष सफलता मिली है । इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, भूदेवी, राम-सीता, कालियानाग पर नृत्य करते हुए बालक कृष्ण तथा कुछ शैव सन्तों की मूर्तियाँ भी प्राप्त होती है जो कलात्मक दृष्टि से भव्य एवं सुन्दर है ।
चोल कलाकारों ने धातु मूर्तियों के निर्माण में एक विशिष्ट विधा का प्रचलन किया है । चोल मूर्तिकला मुख्यतः वास्तु कला की सहायक थी और यही कारण है कि अधिकांश मूर्तियों का उपयोग मन्दिरों को सजाने में किया गया । केवल धातु मूर्तियाँ ही स्वतंत्र रूप से निर्मित हुई है ।
बृहदीश्वर मन्दिर की चौकी, भित्तिकाओं आदि पर शिव के विविध रूपों, जैसे-विष्णु अनुग्रह, भिक्षातट, वीरभद्र, दक्षिणामूर्ति चन्द्रशेखर, वृषभारूढ, त्रिपुरान्तक आदि की मूर्तियों उकेरी गयी है । त्रिपुरान्तक मूर्ति के माध्यम से शिल्पी राजराज के पराक्रम को उद्घाटित करता हुआ जान पड़ता है । देवियों तथा विष्णु के विविध रूपों की मूर्तियों भी यहाँ मिलती है । लौकिक मूर्तियाँ भी वनाई गयी हैं ।
नृत्य की 108 मुद्राओं को नर्तकियों के माध्यम से यहाँ प्रदर्शित किया गया है । गंगैकोन्डचोलपुरम् स्थित वृहदीश्वर मन्दिर की मूर्तियाँ यद्यपि कम हैं, फिर भी अधिक कलात्मक एवं भावपूर्ण है । शिव की ‘चण्डेशानुग्रह मूर्ति’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है ।
इसमें भक्त चण्डेश के ऊपर शिव कृपा के दृश्य को अत्यन्त कुशलतापूर्वक गढा गया है । दारासुरम मन्दिर तो मूर्तियों का विशाल संग्रह ही है जहाँ नार-शास्त्र की समस्त मुद्राओं का अंकन किया गया है । मन्दिर की चौकी पर अंकित कुछ अलंकरण इतने लोकप्रिय बने कि उनका प्रभाव जावा के बोरोबुदुर मन्दिर पर पड़ा ।
वास्तु तथा तक्षण के साथ-साथ चोल काल में चित्रकला का भी विकास हुआ । इस युग के कलाकारों ने मन्दिरों की दीवारों पर अनेक सुन्दर चित्र बनाये है । अधिकांश चित्र वृहदीश्वर मन्दिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मिलते है । ये अत्यन्त आकर्षक एवं कलापूर्ण हैं ।
चित्र प्रमुखतः पौराणिक धर्म से सम्बन्धित है । यहाँ शिव की विविध लीलाओं से सम्बन्धित चित्रकारियों प्राप्त होती है । एक चित्र में राक्षस का वध करती हुई दुर्गा तथा दूसरे में राजराज को सपरिवार शिव की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है ।
इस प्रकार चोल राजाओं के शासन-काल में राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से तमिल देश की महती उन्नति हुई । वस्तुतः स्थानीय प्रशासन, कला, धर्म तथा साहित्य के क्षेत्र में इस समय तमिल देश जितना अधिक उत्कर्ष पर पहुँचा उतना बाद के काली में कभी भी नहीं पहुँच सका ।