दक्षिण भारत: भूमि तथा इतिहास स्रोत | South India: Land Description & Sources of History Sources.

दक्षिण भारत की भूमि (Land Description of South India):

विन्ध्यपर्वत से लेकर सुदूर दक्षिण में स्थित कन्याकुमारी तक का विशाल पठारी प्रदेश सामान्यत: दक्षिण भारत कहा जाता है । इसका आकार एक ऐसे त्रिभुज के समान है जिसका आधार विन्ध्यपर्वत, शीर्ष कन्याकुमारी तथा पश्चिमी और पूर्वी घाट दो भुजा में है ।

पश्चिमी और पूर्वी घाटों को क्रमश: अरब सागर और बंगाल की खाड़ी घेरे हुए हैं । पश्चिमी घाट अरब सागर के समीप कुण्डेवर्री दर्रे (महाराष्ट्र) से प्रारम्भ होकर समुद्री मार्गों के समानान्तर चलता हुआ कर्नाटक के दक्षिण में नीलगिरि तक फैला है ।

यह लगभग 1600 किलोमीटर लम्बा तथा 1066 से 1220 मीटर ऊँचा है । इसकी मुख्य पहाड़िया त्रिकूट, गोवर्धन, कृष्णगिरि, गोमान्त आदि हैं । प्राचीन साहित्य में पश्चिमी घाट के उत्तरी भाग को सह्याद्रि तथा दक्षिणी भाग को मलय पर्वत कहा गया है । पश्चिम की ओर से यह चाट एक विशाल समुद्री दीवार के समान दिखाई देता है ।

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इसे स्थान-स्थान पर अनेक दर्रे काटते हुए पठार तथा तटीय भागों के बीच आवागमन का मार्ग प्रशस्त करते हैं । उत्तर में स्थित दो दरों- थालघाट (583 मीटर ऊँचा) तथा भोर घाट (630 मीटर ऊँचा) से होकर ही रेल मार्ग निकाले गये है । दक्षिण में पालघाट का दर्रा (305 मीटर ऊंचा) है जो पूर्वी और पश्चिमी तट के वीच आवागमन सुगम करता है ।

पश्चिमी घाट तथा अरब सागर के बीच एक सकरा मैदान है जो कच्छ की खाड़ी से लेकर कन्याकुमारी तक फैला है । इसकी औसत चौड़ाई 64 किलोमीटर है । नर्मदा और ताप्ती के मुहाने के समीप यह 80 किलोमीटर चौड़ा है । इसका उत्तरी भाग कोंकण तथा दक्षिणी भाग मालाबार कहा जाता है ।

इसमें कोई बड़ी नदी नहीं है । पश्चिमी घाट में सोपारा, काँडला, भृगुकच्छ (भड़ौच), कल्याण, मर्मगओं (गोआ), मंगलोर, कालीकट तथा कोच्चि (कोचीन) जैसे प्रसिद्ध बन्दरगाह है । पश्चिमी तटवर्ती प्रदेश मसालों, कहवा, नारियल तथा रबड़ की खेती के लिये प्रसिद्ध है ।

पूर्वीघाट उड़ीसा के गंजाम जिले के महेन्द्रगिरि से प्रारम्भ होकर बंगाल की खाड़ी के समानान्तर चलते हुए तिरुनेल्वेलि जिले (तमिलनाडु) के कुलक्काल तक फैला है । रामायण में इस स्थान को भी महेन्द्र पर्वत कहा गया है । यह पश्चिमी घाट के समान न तो सपाट है और न ही ऊंचा । इसकी पर्वतमाला फूटी तथा नीची है ।

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किन्तु इसका मैदानी भाग पश्चिमी घाट के मैदानी भाग की अपेक्षा चौड़ा है। इसकी औसत 161 से 483 किलोमीटर है तथा इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्टे है । इसमें चावल की अच्छी पैदावार होती है । इसके उत्तरी भाग को उत्तरी सरकार तथा दक्षिणी भाग को कोरोमण्डल तट कहा जाता है ।

पर्वतमाला के टूटी-फूटी तथा नीची होने के कारण पठार तथा मैदानी भागों के बीच आवागमन में विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है । पूर्वीघाट की प्रमुख पहाड़िया श्रीशैल, पुप्पगिरि, वेंकतादि, ऊष्यमूक आदि है । यह घाट प्राकृतिक बन्दरगाहों के उपयुक्त नहीं है क्योंकि यह । की भूमि दलदल तथा नदियों के मुहानों के सामने की भूमि बालुई है ।

किन्तु जहाँ इस प्रकार की भूमि नहीं है वहाँ जहाज लंगर डाल सकते है । इस तट के कुछ प्रसिद्ध बन्दरगाह मसुलिपट्‌टनर कोरकै, कावेरीपसन, मद्रास आदि । नीलगिरि की पहाड़ियों में पश्चिमी तथा पूर्वी घाटी का मिलन होता है । नीलगिरि दकन के पठार का सबसे ऊँचा पर्वत है जिसकी सर्वोच्च चोटी दीदावेटा 2637 मीटर ऊँची है ।

इसके दक्षिण की ओर अनामलाई पहाड़िया है जिन्हें पालघाट के दर्रे नीलगिरि से अलग करते है । दक्षिण के पठार की औमत ऊँचाई 487 से 762 मीटर तथा क्षेत्रफल सात लाख वर्ग किलोमीटर है । दक्षिण के निवासियों के आर्थिक तथा संस्कृतिक जीवन पर वहाँ की प्रसिद्ध नदियों ने गहरा प्रभाव डाला है ।

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यहाँ की प्रमुख नदियाँ नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा तथा कावेरी हैं । नर्मदा नदी मध्यभारत में ससड़ा पहाड़ियों की उत्तरी-पूर्वी चोटी पर अमरकटक पठार से निकलती है तथा यहां से पश्चिम की ओर बढ़ती हुई 1312 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई कच्छ की खाड़ी में गिरती है । यह नदी उत्तर तथा दक्षिण के बीच सदा विभाजक रेखा के रूप में रही है ।

गोदावरी का स्थान भारत की पवित्र नादियों में है तथा दक्षिण के लोग इसे गंगा अथवा गौतमी गंगा के नाम से जानते है । यह महाराष्ट्र के नासिक जिले में त्रिम्बक के व्रह्मगिरि नामक स्थान से निकलकर 1450 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है । इसके मार्ग में अनेक सुन्दर एवं दर्शनीय स्थल पड़ते हैं ।

कृष्णा नदी, गोदावरी की अपेक्षा छोटी है । इसकी लम्बाई 1280 किलोमीटर है । यह अरब सागर से लगभग चालीस मील की दूरी पर महाबालेश्वर के पास से निकलकर पहले दक्षिण की ओर बहती है । तत्पश्चात् कुरुन्दवद से आगे पूर्व की ओर मुड़ती हुई दक्षिण महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश से होती हुई अन्त में बंगाल की खाड़ी में समा जाती है । तुंगभद्रा, कृष्णा की मुख्य सहायक नदी है ।

अन्य सहायक नदियों घाटप्रभा तथा मलप्रभा हैं । तुंगभद्रा, कर्नाटक राज्य के शृंगेरी (शृंगगिरि या वाराह) पर्वत के अन्तर्गत तुंग तथा भद्र नामक दो पर्वतों से निकलने वाली दो नदियों के मिलन से उत्पन्न हुई धारा से बनती है । यह नदी उतर-पूर्व दिशा में चलती हुई आन्ध्र के कुर्नूल जिले के समीप कृष्णा नदी से मिल जाती है ।

कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों ने तमिल देश की उत्तरी सांस्कृतिक सीमा का निर्धारण किया है । इसी के दक्षिण स्थित प्रदेश को द्रविड देश अथवा तमिलहम् कहा गया है । अनेक बार दक्षिणापथ तथा आन्ध्र के राजाओं ने कृष्णा को पार कर तमिल राज्य में प्रवेश किया ।

इसी प्रकार तमिल देश के चोल तथा पल्लव शासकों ने भी कृष्णानदी को पारकर दक्षिण आन्ध्रप्रदेश के राज्यों को आक्रान्त किया । तुंगभद्रा नदी का आर्थिक दृष्टि से भी महत्व रहा है । इस पर बंधे हुए बांध से होयसल राज्य में जलापूर्ति की जाती थी । कावेरी नदी का तमिलवासियों के सास्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है ।

जिम प्रकार उत्तर के लोग गंगानदी को पवित्र मानते है, उसी प्रकार तमिलवासी कावेरी को पवित्र मानते है । तमिल साहित्य में स्थान-स्थान पर उसकी पवित्रता के गुणगान करते हुए उसके प्रति स्तुति के भाव प्रकट किये गये हैं । वस्तुत: तमिल संस्कृति का विकास इसी नदीं के काँठे में हुआ । इसे पल्लवों की वल्लभा कहा गया है ।

यह कर्नाटक के कुर्ग जिले में तलकावेरी के पास ब्रह्मगिरि से निकलती है तथा दक्षिण कर्नाटक रख तमिलनाडु को अपने जल से सींचती हुई तजोर जिले में अनेक धाराओं में फूटकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है । यह 760 किलोमीटर लम्बी है । कम्बनी, हेमावती, अकीवती आदि इसकी सहायक दिया है ।

इनके द्वारा कावेरी नदी सदा जलवती रहती है । सिचाई के साधन के रूप में इस नदी का सर्वाधिक महत्व था । चोल राजाओं ने इसका भरपूर उपयोग किया । इसी के तट पर कावेरीपतन नामक प्रसिद्ध बन्दरगाह था ।दक्षिण की प्रमुख नदियों-गोदावरी, नर्मदा तथा कावेरी को सम्पूर्ण भारतवासी पवित्र मानते थे । इनकी गणना गंगा, यमुना, सरस्वती तथा सिंधु के साथ करते हुए स्नान के समय इनके आवाहन का विधान था ।

दक्षिण भारत की प्राकृतिक विशिष्टता ने यहाँ के इतिहास तथा संस्कृति को प्रभावित किया है । इस विशिष्टता के परिणामस्वरूप गोदावरी के दक्षिण में एक ऐसी संस्कृति विकसित हुई जो उत्तर की आर्य संस्कृति से भिन्न थी । इसे ‘द्रविड़ संस्कृति’ नाम दिया जाता है ।

बहुत समय तक यहां आर्य संस्कृति का प्रवेश नहीं हो पाया । कुछ विद्वान् भारत में द्रविड़ तत्व का अस्तित्व आर्य तत्व से भी पहले सिद्ध करते है । उत्तर-पश्चिम में द्रविड़ परिवार की एक भाषा ‘ब्राहुई’ का पता चलता है । तमिलदेश में आर्य संस्कृति का प्रवेश संगमकाल के कुछ पूर्व हुआ ।

परम्परा के अनुसार ऋषि अगसत्य ने दक्षिण में आर्य संस्कृति को पहुँचाने का कार्य किया । यह निश्चित नहीं है कि द्रविड़ जातियों की उत्पत्ति किस मूल प्रजाति से हुई । उनमें चूँकि विभिन्न रूप-रंग वाले लोग है, अत: उन्हें विभिन्न प्रभेदों वाली जातियों के सम्मिश्रण से ही उत्पन्न माना जा सकता है ।

भाषा विज्ञान के आधार पर द्रविड़ जाति में समभूमध्यसागरीय मानव प्रकार (प्रोटोमेडीटरेयिन) के तत्व अधिक पाये जाते है । इसके अतिरिक्त तमिलदेश में आरमेनियन (आरर्मेनाएड) तथा केरल में अल्पाइन-आरमेनियन मानव प्रकारों के तत्व भी दृष्टिगोचर होते है ।

दक्षिण में कई भाषाओं का प्रचलन था । आन्ध्र में तेलगु तथा तमिलक्षेत्र के पश्चिम में कन्नड़ और मलयालम् का बोल-वाला था । तमिल भाषा भी बोली जाती थी । इसे सम्बद्ध कुछ अन्य बोलियों जैसे कोडगु, कुई, ओरनगोन्डी आदि का भी द्रविड क्षेत्र में प्रचलन था । संस्कृत तथा द्रविड़ भाषा परिवार के अनेक शब्द एक दूसरे से समता रखते है ।

द्रविड के अतिरिक्त दक्षिण में दो अन्य भाषा परिवार भी थे-हिन्द-आर्य (इन्डो आर्यन) तथा आस्टो-एशियाई । प्रथम वर्ग में मराठी की गणना की जा सकती है जबकि द्वितीय के अन्तर्गत मुण्डा, खरियां, जुआंग, सवर, गवद तथा कुर्क को सम्मिलित किया जा सकता है ।

प्राचीन काल का दक्षिण भारत दो भागों में विभाजित था:

(i) दक्षिणापथ अथवा दकन:

इसके अन्तर्गत उत्तर में नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा (कर्नाटक राज्य) नदी तक का सम्पूर्ण प्रदेश सम्मिलित था । प्राचीन साहित्य में दक्षिणापथ की सीमा दक्षिण में महिषमण्डल तक बताई गयी है । विस्तृत अर्थ में इस शब्द का प्रयोग विन्ध्य पर्वत तथा दक्षिणी समुद्र (हिन्द महासागर) के बीच स्थित विशाल भूप्रदेश के लिये किया गया है ।

भरत नाट्‌यशास्त्र में ‘दक्षिणस्य समुद्रस्य विन्धयस्य चान्तरे’ कहकर दक्षिणापथ की सीमा को अभिव्यक्त किया गया है । मत्स्य पुराण में इसकी उत्तरी सीमा कारुष (पूर्वी विन्धय की कैमूर पहाड़ियों के आसपास का क्षेत्र) बताई गयी है । राजशेखर कृत काव्यमीमासा में दक्षिणापथ को माहिष्मती तथा नर्मदा के परे माना गया है- (माहिष्मत्या: परतो दक्षिणापथ:) ।

परवर्ती चालुक्य लेखों में रामेश्वरम् के सेतु से नर्मदा नदी तक के प्रदेश को दक्षिणापथ कहा गया है (सेतु नर्मदा मध्यम् दक्षिणापथम) । इसी प्रकार ‘पेतुवत्थु-टीका’ में दक्षिणापथ के अन्तर्गत तमिल प्रदेश को भी सम्मिलित कर लिया गया है । पेरीप्लस के लेखक ने बेरीगाजा अर्थात भडौंच से परे प्रदेश के । ‘दचिनाबेडीज’ (दक्षिणापथ) कहा है ।

इस प्रकार विस्तृत अर्थ में तो दकन के अन्तर्गत सम्पूर्णे दक्षिण भारत को सम्मिलित कर लिया गया था किन्तु सकुचित अर्थ में दक्षिणापथ की परिधि में सुदूर दक्षिण के तमिल राज्यों की गणना नहीं की गयी है । रामायण तथा महाभारत में दक्षिणापथ का जो उल्लेख हुआ है उससे ध्वनित होता है कि दक्षिणापथ में द्रविड़ देश शामिल नहीं था । रामायण द्रविड़ तथा दक्षिणापथ दोनों का अलग-अलग उल्लेख करता है ।

महाभारत में वर्णन मिलता है कि सहदेव ने सुदूर दक्षिण के पाण्ड्य राज्य को जीतने के वाद दक्षिणापथ को जीता था । इससे स्पष्ट है कि दक्षिणापथ द्रविड़ देश से भिन्न था । महाभारत में दक्षिणापथ की स्थिति विदर्भ बरार तथा कोशल (महानदी की ऊपरी घाटी) के दक्षिण में बताई गयी है ।

(ii) सुदूर दक्षिण:

इस भाग के अन्तर्गत तुंगभद्रा नदी के दक्षिण का समस्त भूभाग सम्मिलित था । इस भाग को द्रविड़ अथवा तमिल देश कहा जाता था । अति प्राचीन काल से यहाँ चोल, चेर तथा पाण्ड्य राज्यों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है । पेरीप्लस में इस भाग को राजरका दमिलकम्) कहा गया है । इस तिकोने भूभाग में कृष्णा, तुगभद्रा, कावेरी तथा उसकी सहायक नदियां बहती हैं ।

दक्षिण भारत की इतिहास स्रोत (History Source of South India):

दक्षिण भारत के इतिहास के अध्ययन के लिये हमें उतनी अधिक सामग्री नहीं मिलती जितनी उत्तर भारत के इतिहास के सम्बन्ध में प्राप्त होती है । अधिकांश इतिहास लेखकी ने दक्षिण भारत की उपेक्षा सी की है । इतिहासकार स्मिथ का कथन इस सम्बन्ध में उचित ही प्रतीत होता है कि ‘प्राचीन भारत के अब तक के इतिहासकारों ने इस प्रकार इतिहास लिखा है जैसे दक्षिण का अस्तित्व ही न हो ।’

यद्यपि इतिहासकार स्मिथ का यह कथन सही है कि अधिकांश इतिहासकारों की दृष्टि में दक्षिण भारत का अस्तित्व ही नहीं था तथापि हम देश के इस महत्वपूर्ण भूभाग के इतिहास के पुनर्निर्माणार्थ अनेक साहित्यिक और पुरातात्विक सामाग्रियों प्राप्त करते है । साथ ही साथ विदेशी विवरणों से भी इसके लिये उपयोगी सूचनायें प्राप्त हो जाती हैं ।

अत: हम साधनों का वर्गीकरण तीन भागों में कर सकते है:

(i) साहित्य:

इसके अन्तर्गत हम सर्वप्रथम वैदिक साहित्य तथा प्राचीनतम महाकाव्यों-रामायण और महाभारत का उल्लेख कर सकते है । ऋग्वेद में एकाध छिट-फुट उल्लेखों के अतिरिक्त दक्षिण के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिलती । इसके एक मन्त्र में ‘दक्षिणापदा’ (दक्षिण की दिशा में पैर) का प्रयोग किया गया है । किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि इस शब्द में वास्तविक तात्पर्य क्या है ।

इस ग्रन्थ में दक्षिण की किसी जाति, नदी, पर्वत आदि का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है । अतः यही मानना उचित लगता है कि पूर्व वैदिक आर्य दक्षिण भारत से परिचित नहीं थे । किन्तु कुछ ब्राह्मण ग्रन्थों में हम दक्षिण भारत का उल्लेख प्राप्त करते है । ऐतरेय ब्राह्मण में कुरुपञ्चाल से परे प्रदेश को ‘दक्षिणादिश’ कहा गया है । इसमें विदर्भ राज्य तथा वहाँ के राजा भीम का उल्लेख मिलता है ।

शतपथ ब्राह्मण ‘रेवोत्तरस चाक्रपाटवस्थपति’ नामक एक अधिकारी का नाम मिलता है जिसे शृंजयों ने अपने राज्य से खदेड़ दिया था । विद्वानों का विचार है कि यहाँ रेवोत्तरस से तात्पर्य ‘रेवा अर्थात् नर्मदा के उत्तर का निवासी’ है किन्तु यह संदिग्ध । वैयाकरण पाणिनि (छठी-पांचवी शती ईसा पूर्व) दक्षिणी भारत से परिचित थे जैसा कि अष्टाध्यायी के कुछ उल्लेखों से स्पष्ट होता है ।

इसमें एक स्थान पर ‘दक्षिणात्य’ शब्द का प्रयोग मिलता है तथा अश्मक एवं कलिंग जनपदों का उल्लेख किया गया है । वौधायन धर्मसूत्र तथा बौद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात एवं विनयपिटक में ‘दक्षिणापथ’ का उल्लेख मिलता है । बौधायन ने दक्षिण भारतीय समाज में प्रचलित कुछ रीति-रिवाजों का भी उल्लेख किया है, जैसे मामा और बुआ की कन्या के बीच वैवाहिक सम्बन्ध ।

कात्यायन, (ई॰ पू॰ चौथी शताब्दी) जो अष्टाध्यायी के टीकाकार थे, ने नासिक के साथ-साथ सुदूर दक्षिण में स्थित चोल, पाण्ड्य, केरल आदि राज्यों का उल्लेख किया है । रामायण तथा महाभारत में भी हम दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों, पर्वतों, वनों, नदियों आदि का उल्लेख प्राप्त करते है ।

रामायण के किष्किन्धाकाण्ड में पाण्ड्य राज्य तक के दक्षिण भारत का उल्लेख किया गया है । दण्डकारण्य अर्थात दण्डकवन का भी उल्लेख मिलता है जो पार्जिटर के अनुसार- ‘बुन्देलखण्ड से लेकर कृष्णा नदी तक फैले हुए वन प्रदेशे का सामान्य नाम था ।’

नदियों में हमें कृष्णा, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, ताम्रपार्णि तथा पर्वतों में महेन्द्र तथा जनपदों में विदर्भ, कलिंग, आन्ध्र, चोल, पाण्ड्य, केरल आदि का उल्लेख मिलता है । इसी प्रकार महाभारत में भी दक्षिण भारत के अनेक जनपदों, पर्वतों, नदियों, वनों आदि के साथ-साथ अगस्ल ऋषि का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने दक्षिण में सर्वप्रथम आर्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया ।

इस सबसे स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत के वर्तमान स्वरूप के समय (चौथी शताब्दी ईस्वी) तक दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हो चुका था । ज्ञात होता है कि इस समय दक्षिण में अनेक तीर्थ स्थल थे जिन्हें उत्तर के लोग पवित्र मानते थे ।

सुदूर दक्षिण के तमिल इतिहास तथा संस्कृति पर प्रकाश डालने वाली प्राचीनतम रचना ‘रचना साहित्य’ है । इसे ईसा की प्रथम दो शताब्दियों की रचना माना जाता है । इसके अध्ययन से द्रविड़ देश के तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन की अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाती है ।

संगम काल की समाप्ति अर्थात् तीसरी शताब्दी के वाद से लेकर छठीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिण भारत का इतिहास जानने के लिये हमारे पास साधनों का अभाव है । इस काल को साहित्यिक गतिविधियों की दृष्टि से अन्धयुग कहा जाता है ।

छठीं शताब्दी के पश्चात् हमें दक्षिण से कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त होने लगते है जिनसे तत्कालीन इतिहास तथा संस्कृति से सम्बन्धित रोचक तथ्य उपलब्ध हो जाते हैं । दक्षिण भारत के प्रसिद्ध राजवंशों-चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव एवं चोल के शासनकाल में रचित कुछ कृतियाँ तत्कालीन जनजीवन पर प्रकाश डालती हैं ।

बिल्हण द्वारा रचित ‘विक्रमांकदेवचरित’ से कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के जीवन चरित तथा उसके समय की घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है । पल्लवकाल में रचित संस्कृत तथा तमिल भाषा के ग्रन्थ उस काल के लिये उपयोगी है ।

महाकवि सीड्ढल द्वारा विरचित ‘अवन्तिसुन्दरी कथासार’ पल्लव नरेश सिंहविष्णु तथा उसके समकालीन नरेशों और उनके समय के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन की अच्छी झाँकी प्रस्तुत करता है । महेन्द्रवर्मन् प्रथम कृत ‘मत्तविलासप्रहसन’ कापालिकों एवं बौद्ध भिक्षुओं के कारण उत्पन्न सामाजिक स्थिति का व्यंगपूर्ण एवं मनोरंजक विवरण प्रस्तुत करता है ।

साथ ही साथ इसमें पुलिस तथा न्याय शासन में व्याप्त भ्रष्टाचारों की ओर भी परीक्षरूप से संकेत किया गया है । तमिल ग्रन्थों में ‘नन्दिक्कलम्बक्रम’ उल्लेखनीय है जो नन्दिवर्मन् तृतीय के जीवनवृत और उपलब्धियों पर प्रकाश डालता है ।

जैनग्रन्थ ‘लोक विभाग’ में सिंहवर्मन् के राज्य तथा शासन का विवरण है । बौद्ध साख ‘महावंश’ के अध्ययन से हम प्रारम्भिक पल्लव शासकों की तिथि-निर्धारित करने में सहायता प्राप्त करते हैं । चोलवंश का इतिहास जानने के लिये भी कुछ साहित्यिक ग्रन्थ उपयोगी हैं ।

चोलों का प्रारंभिक इतिहास हम संगम-साहित्य से जानते है । बाद की रचनाओं में जयन्गोण्डार कृत ‘कलिंगत्तुपराणि’ कुलोत्तुंग प्रथम की वंशपरम्परा तथा उसके समय में कलिंग पर होने वाले आक्रमण का विवरण देता है । शक्किलार कृत ‘पेरियपुराणम’, जिसकी रचना कुलोत्तुंग के समय में की गयी, से उस काल की धार्मिक दशा का ज्ञान होता है ।

बुन्द्वमित्र के चीरशोलियम् से वीर राजेन्द्र के समय की कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का शान होता है । कुछ प्रसिद्ध उलाओं (शृंगार एवं वीर रस प्रधान जीवनचरित) से कुलोत्तुंग द्वितीय तथा राजराज द्वितीय के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है । बौद्ध ग्रन्थ महावंश में परान्तक की पाण्ड्य विजय तथा राजेन्द्र प्रथम की सिंहल विजय का वृतान्त सुरक्षित है । तमिल साहित्य की एक विधा ‘कौवे’ भी है ।

इस प्रकार का साथ णण्डिक ‘कौवे’ है जो पाण्ड्य शासकों के युद्धों का विवरण देता है । किन्तु इनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है । कन्नड़ भाषा में लिखे गये ग्रन्थों में पम्प रचित ‘विक्रमार्जुनीय विजय’ अथवा भारत तथा रन द्वारा लिखे गये ‘गदा युद्ध’ से समसामयिक राष्ट्रकूट तथा चालुक्य इतिहास से सम्बंधित कुछ बातें ज्ञात होती है, यद्यापि ये ग्रन्थ महाकाव्य के रूप में है ।

इनके लेखकों ने अपने कुछ पात्रों का सम्बन्ध राजाओं के साथ जोड़ने का प्रयास किया है तथा इस माध्यम से कई ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण के दिया है । पम्प कन्नड़ साहित्य का सर्वश्रेष्ठ कवि था जो राष्ट्रकूटों के सामन्त वेन्यूत्नवाड के चालुक्य शासक अरिकेसरिन् द्वितीय का दरवारी कवि था ।

उसने इन्द्र तृतीय के उत्तरी अभियान के सम्बन्ध में कुछ विवरण दिया है । इस युद्ध में अरिकेसारिन सम्मिलित हुआ था । पम्प ने अपने आश्रयदाता के पराक्रम की तुलना अर्जुन से की है । वह हमें बताता है कि अरिकेसरिन् के पिता नरसिंह ने गुर्जर नरेश महीपाल को बन्दी बना लिया था ।

(ii) विदेशी लेखकों और यात्रियों के विवरण:

समय-समय पर भारत की यात्रा पर आने वाले विदेशी लेखकों तथा यात्रियों के विवरणों से भी दक्षिण भारतीय इतिहास जानने में सहायता मिलती है । इस दृष्टि से हम सर्वप्रथम यूनानी राजदूत मेगस्थनीज का उल्लेख कर सकते है जो चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा में उपस्थित हुआ था । वह लिखता है कि सुदूर दक्षिण के पाण्ड्य राज्य की शासिका पाण्ड्या, हेराक्लीज की पुत्री थी । उसका राज्य 365 ग्रामों का संगठन था ।

प्रत्येक ग्राम को प्रतिदिन राजकोष के निमित्त कर देना पड़ता था । ‘पेरीप्लस’ नामक ग्रन्थ (प्रथम शताब्दी ईस्वी) के अज्ञातनामा यूनानी लेखक का विवरण दक्षिण भारत के सम्बन्ध में सबसे अधिक प्रामाणिक है क्योंकि उसने प्रत्यक्ष जानकारी के आधार पर लिखा है । वह केरल तथा तमिल देश में स्थित पूर्वीघाट के प्रमुख वन्दरगाहों तथा भारत और रोम के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्धों का विवरण देता है ।

इसी प्रकार टालमी का ‘भूगोल’ भी दक्षिण के इतिहास के लिये उपयोगी ग्रन्थ है । इसमें भी पूर्वीतट तथा उसमें भी दूरस्थ स्थानों की व्यापारिक गतिविधियों पर प्रकाश पड़ता है । ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत का पूर्वी द्वीप समूह तथा हिन्द-चीन के देशों के साथ गहरा सांस्कृतिक और आर्थिक सम्बन्ध था ।

टालमी का विवरण भी प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर लिखा गया होने के कारण विश्वासनीय है । इसके अतिरिक्त स्ट्रेवो, प्लिनी आदि लेखकों के विवरण भी दक्षिण के सम्बन्ध में कुछ सूचनायें प्रदान करते है किन्तु वे सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होने के कारण अधिक विश्वसनीय नहीं लगते ।

चीनी यात्रियों में हुएनसांग (सातवीं शताब्दी ईस्वी) का विवरण दक्षिण के इतिहास के लिये सबसे अधिक उपयोगी है । उसने दक्षिण के विभिन्न स्थानों में कुछ समय तक निवास कर अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति के विषय में विवरण प्रस्तुत किया ।

इससे चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय तथा पल्लव शासक परसिंहवर्मन् प्रथम के शासन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती है । हुएनसांग पुलकेशिन् की वीरता तथा उसके शासन की प्रशंसा करता है । काञ्चि के विषय में लिखते हुए वह कहता है कि ‘वहाँ एक सौ से अधिक मठों में दस हजार भिक्षु रहते थे तथा लोग विद्या के प्रेमी थे ।’

हुएनसांग के कुछ बाद भारत की यात्रा करने वाले यात्री इत्सिंग के विवरण में भी दक्षिण का उल्लेख मिलता है । उसने साठ बौद्ध भिक्षुओं की जीवनी लिखी है । मात्वान् लिन् नामक चीनी लेखक चालुक्य शासकों-विनयादित्य एवं विजयादित्य के चीन के साथ सांस्कृतिक सम्बन्धों का उल्लेख करता है ।

चीनी इतिहास से पता चलता है कि आठवीं शती में चीन तथा पल्लव राज्य और ग्यारहवीं शती में चोल राज्य के बीच राजदूतों का आदान-प्रदान होता था । इसके वाद भी चीन तथा दक्षिण भारत के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार सम्बन्ध चलता रहा और चीनी जहाज स्वतत्रतापूर्वक भारतीय समुद्र में आते थे । मंगोल सम्राट कुवलैखाँ ने दक्षिण भारत के राजाओं के पास अनेक दूत भेजे थे ।

तेरहवीं शती के चीनी लेखक चाऊ-जू-कुआ के विवरण से चोलों की न्याय-व्यवस्था पर प्रकाग पड़ता है । इसी प्रकार यूरोपीय यात्री मार्कोपोलो तेरहवीं शती) ने दक्षिण के लोगों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों, धर्म आदि के विषय में विवरण प्रस्तुत किये है ।

पाण्ड्य वंश से सम्बन्धित उसके कुछ उल्लेख उपयोगी है । दक्षिण भारत के सम्बन्ध में मुसलमान लेखकों ने भी कुछ विवरण प्रस्तुत किये हैं किन्तु उनका सम्बन्ध प्राचीन इतिहास से न होकर मध्यकाल से है जो इस पुस्तक का विषय-वस्तु नहीं है ।

(iii) पुरातत्व:

दक्षिण भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में पुरातात्विक साक्ष्य अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी सामग्री प्रदान करते है । इसके अन्तर्गत हम अभिलेख, सिक्के तथा प्राचीन स्मारकों की गणना कर सकते है । अभिलेख दक्षिण भारत के इतिहास जानने के प्रामाणिक साधन है ।

दक्षिण के सबसे प्रारम्भिक अभिलेख अशोककालीन है जो आन्ध्र प्रदेश में एर्रगुंडि, मास्की, राजुल मण्डगिरि तथा कर्नाटक में ड़ह्मगिरि, सिद्धपुर, जटिग रामेश्वरम्, गोविमठ, पालकिगुण्डु आदि स्थानों से प्राप्त होते हैं । ये सुदूर दक्षिण में चोल, चेर तथा पाण्ड्य राज्यों के अस्तित्व की सूचना देते है । इनसे हम अशोक की दक्षिणी सीमा के विषय में भी जानकारी प्राप्त करते हैं किन्तु दक्षिण भारत के इतिहास से सम्बन्धित कोई भी महत्वपूर्ण वात इनसे सूचित नहीं होती है ।

मौर्य साम्राज्य के पतनीपरान्त सातवाहनों के समय से दक्षिण भारत के लेख प्रचुरता से मिलने लगते है । सातवाहन लेखों में नासिक से प्राप्त गुहालेखों का विशेष महत्व है जिनसे हम इस वश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियों एवं उसके व्यक्तित्व एवं चरित्र की विस्तुत: जानकारी प्राप्त करते हैं ।

कलिंग नृपति खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख उसके ज्ञान का एकमात्र सोत है । सातवाहनों के बाद दक्षिणापथ एवं सुदूर दक्षिण में शासन करने वाले प्राय सभी राजवंशों के अभिलेख प्राप्त होते है । वाकाटक लेखों में पूना तथा रिद्धपुर ताम्रपत्राभिलेख तथा अजन्ता से प्राप्त गुहाभिलेख का महत्व है ।

अजन्ता लेख इस वश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों पर प्रकाश डालता है । बादामी के चालुक्य वंश के इतिहास का सबसे अधिक महत्वपूर्ण साधन पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है । यह दक्षिणी व्राह्मीलिपि तथा संस्कृत भाषा में अंकित है ।

इस प्रशास्ति का रचयिता रविकीर्ति था । इसके अध्ययन से हम पुलकेशिन् की उपलब्धियों के साथ-साथ उसके समय तक चालुक्य इतिहास तथा समकालीन लाट, मालव, गुर्जर आदि के राजाओं के साथ पुलकेशिन् के सम्बन्धों के विषय में गान प्राप्त होता है । अन्य लेखों में बादामी का शिलालेख, महाकूट अभिलेख, हैदरायाद, दानपत्राभिलेख आदि का उल्लेख किया जा सकता है ।

कल्याणी के चालुक्य वंश का इतिहास मुख्यत: कैथोम, मीरज, निलगुण्ड आदि से प्राप्त दानपत्राभिलेखों से जाना जाता है । राष्ट्रकूट वंश के लेखों में सामनागढ़, राधनपुर, वनिदिन्दोरी, साजन, काम्बे तथा संगली के लेखों का उल्लेख किया जा सकता है । पल्लव राज्यओं के लेख प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में मिलते हैं तथा मन्दिरों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं आदि पर उत्कीर्ण है ।

प्रारम्भिक लेखों में मैडवोलु तधा हीरहडगल्ली के लेख उपयोगी है । बाद के लेखों में उदयेन्दिरम दानपत्र, कशागुडी दानपत्र, वाहुर, पल्लवरम्, पन्नग्ग्ला, वैकुण्ठपेरुमाल आदि के लेखों का उल्लेख किया जा सकता है जिनसे इस वश के शासकों की उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है । चोल शासकों ने भी अनेक अभिलेख उत्कीर्ण करवाये थे ।

इनमें संस्कृत, तमिल, तेलगू कन्नड़, सभी भाषाओं का प्रयोग हुआ है । प्रमुख चोल लेख लेडन दानपत्र, तन्नोर लेख, तिरुवालगाडु तथा करन्डें के दानपत्र तथा तिरुवेन्दपुरम् और उत्तर मेरूर अभिलेख हैं । राजेन्द तृतीय के समय में उत्कीर्ण कराया गया तिरुवेन्दपुरम् का लेख ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।

इसमें न केवल चोलों के उत्कर्ष अपितु उनके पराभव का भी तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है । यह होयसल राजाओं के प्रति कृतज्ञता शापित सुविकासित ग्राम शासन की लेख अत्यन्त उपयोगी हैं । इनके अध्ययन से पाण्ड्य शासकों के विषय में जानकारी होती है ।

पुरातत्व के अन्तर्गत दूसरा प्रमाण सिक्कों का है किन्तु दक्षिण भारतीय इतिहास के ज्ञान के लिये सिक्कों से बहुत अधिक सहायता नहीं मिलती है । अधिकांश सिक्के तिथि रहित है तथा उनमें प्रयुक्त लक्षणों के आधार पर ही हम राजवंशों के विषय में जानते है । सातवाहन राजाओं ने अपने सिक्कों के लिये शीशे का प्रयोग किया ।

इन पर उत्कीर्ण मुद्रालेखों में जिन राजा के नाम मिलते है, पुराणों से भी उनकी पुष्टि होती है । उनके कुछ सिक्कों पर ‘दो पतवारों वाले जहाज’ का लक्षण मिलता है । इससे सूचित होता है कि उस समय समुद्री व्यापार काफी विकसित था । महाराष्ट्र के नासिक जिले के जोगलथम्बी से प्राप्त सिक्कों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ने शक क्षत्रप नहपान  को पराजित किया था ।

वादामी के चालुक्यों के सिवकों पर ‘वाराह’ लक्षण मिलता है । कल्याणी के चालुक्य शासकों- जयसिंह, जगदेकमल्ल, सोमेश्वर प्रथम तथा तेल तृतीय के स्वर्ण सिक्कों से उनके काल की आर्थिक समृद्धि की सूचना मिलती है । पल्लवों के कुछ सिक्कों पर नाव का चित्र मिलता है जो उनके समय के समुद्री व्यापार की प्रगति का द्योतक माना जा सकता है ।

चोल राजाओं ने सोने, चाँदी तथा ताँवे के सिक्के प्रचलित करवाये थे । ये उनकी प्रभुसत्ता, गौरव तथा उनके समय की आर्थिक प्रगति के परिचायक है । सुदूर दक्षिण के कई स्थानों से रोमन सम्राटों जैसे आगस्टस, नीरों, टाइवेरियस आदि के स्वर्ण सिक्के मिलते हैं । इनसे सूचित होता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में भारत तथा रोम के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्पर्क था ।

लेख तथा सिक्कों के अतिरिक्त दक्षिण के विभिन्न स्थानों से वहुसंख्यक मन्दिर, मूर्तियाँ, भवनों, स्मारकों आदि के अवशेष मिलते है जिनसे सभ्यता के विविध पक्षों की अच्छी जानकारी होती है । मन्दिरों, मूर्तियों आदि से जहाँ एक ओर जनता की धार्मिक आस्था का पता चलता है वहीं दूसरी ओर हिन्दू कला के पर्याप्त रूप से विकसित होने का भी प्रमाण मिलता है ।

तन्जोर का राजराजेश्वर मन्दिर द्रविड शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है । पल्लव काल के भी अनेक मन्दिर प्राप्त होते हैं । विभिन्न स्थानों से बौद्ध विहारों के भी उदाहरण मिलते है । अजन्ता की गुफाओं के चित्र, चित्रकला के विकास के चर्मोत्कर्ष को सूचित करते हैं । पल्लव तथा चोलकाल की वैष्णव तथा शिव की वहुसंख्यक मूर्तियाँ इन धर्मों की लोकप्रियता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं ।

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