पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य: इतिहास और पतन | Western Chalukya Empire: History and Downfall.

उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य का इतिहास (History of Post-Western Chalukya):

कल्याणी के चालुक्यवंश का उदय राष्ट्रकूटों के पतन के पश्चात् हुआ । इस वंश का इतिहास हम साहित्य तथा लेखों के आधार पर ज्ञात करते हैं । साहित्यिक ग्रन्थों में बिल्हण कृत ‘विक्रमांकदेवचरित’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिससे इस वश के सबसे प्रतापी शासक विक्रमादित्य षष्ठ के जीवन तथा उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है ।

रत्न के गदायुद्ध से इस काल के सामाजिक जीवन का जानकारी होता है । इसके अतिरिक्त इस वश के राजाओं तथा उनके सामन्तों के कन्नड़ भाषा के लेखों से तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है । इस साक्ष्यों में उन्हें वातापी के चालुक्यों का वंशज तथा अयोध्या का मूलवासी बताया गया है । विक्रमादित्य षष्ठ के कैथोल लेख में कहा गया है कि 59 चालुक्य राजाओं ने अयोध्या में राज्य किया, फिर वे दक्षिण चले गये ।

जयसिंह वल्लभ ने राष्ट्रकूटों को पराजित कर अपने वश का पुनरुद्धार किया था । गदायुद्ध थे सत्याश्रय तथा जयसिंह को अयोध्या का शासक बताते हुए राष्ट्रकूटों को परास्त कर दक्षिण में चालुक्य वंश की स्थापना का श्रेय जयसिंह को दिया गया है ।

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विक्रमांकदेवचरित में कहा गया है कि पृथ्वी से नास्तिकता को समाप्त करने के लिये ब्रम्हा ने अपने चुलुक (चुल्लू) से एक वीरपुरुष को उत्पन्न किया । इसी ने चालुक्य वंश की स्थापना की । कल्याण लेख (1025-26 ई॰) में भी ब्रह्मा को ही चालुक्यों का आदि पूर्वज कहा गया है ।

परवर्ती लेखों में इसका सम्बन्ध बादामी के चालुक्य वश के साथ स्थापित करते हुए इसे विक्रमादित्य द्वितीय के छोटे भाई, जिसका नाम अज्ञात है किन्तु जिसकी उपाधि ‘भीम पराक्रम’ की थी, का वंशज बताया गया है । चालुक्य कन्नड देश के मूल निवासी थे तथा अयोध्या के साथ उनका संबंध जोड़ना काल्पनिक लगता है । वे वातापी के चालुक्य कुल से ही संबंधित थे ।

उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य के राजनैतिक इतिहास (Political History of Post-Western Chalukya):

i. तैल अथवा तैलप द्वितीय:

कल्याणी के चालुक्यों का स्वतन्त्र राजनैतिक इतिहास तैल अथवा सैलप द्वितीय (973-997 ई॰) के समय से प्रारम्भ होता है । उसके पूर्व हमें कीर्त्तिवर्मा तृतीय, तेल प्रथम, विक्रमादित्य तृतीय, भीमराज, अययण प्रथम तथा विक्रमादित्य चतुर्थ के नाम मिलते है ।

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इनमें तैलप प्रथम, अम्पण प्रथम तथा विक्रमादित्य चतुर्थ के विषय में ही हमें कुछ पता है । ये सभी राष्ट्रकूटों के सामन्त थे । निलगुंड लेख से पता चलता है कि अम्पण ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय की कन्या से विवाह कर दहेज में विपुल सम्पत्ति प्राप्त कर लिया था ।

उसके पुत्र विक्रमादित्य चतुर्थ का विवाह कलचुरि राजा लक्ष्मणसेन की कन्या बोन्धादेवी के साथ सम्पन्न हुआ था । इसी से तैलप द्वितीय का जन्म हुआ । नीलकण्ठ शास्त्री का विचार है कि ये सभी शासक बीजापुर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र में शासन करते थे जो इस वंश की मूल राजधानी के पास में था ।

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि कल्याणी के चालुक्य वंश की स्वतन्त्रता का जन्मदाता तैलप द्वितीय था । वह विक्रमादित्य चतुर्थ तथा बोन्धादेवी से उत्पन्न हुआ था । पहले वह राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय की अधीनता मे बीजापुर में शासन कर रहा था ।

धीरे-धीरे उसने अपनी शक्ति का विस्तार करना प्रारम्भ किया । कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारियों जोट्टिग तथा कर्क द्वितीय के समय में राष्ट्रकूट वश की स्थिति अत्यन्त निर्वल पड़ गयी । महत्वाकांक्षी तैलप ने इसका लाभ उठाया । 973-74 ई॰ में उसने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेत पर आक्रमण कर दिया ।

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युद्ध में कर्क मारा गया तथा फूट राज्य पर तैलप का अधिकार हो गया । उसकी इस सफलता का उल्लेख खारोगटन अभिलेख में मिलता है । इसके बाद ने राष्ट्रकूट सामन्तों को अपने अधीन करने के लिये अभियान किया ।

शिमोगा (कर्नाटक) जिले के सोराव तालुक के सामन्त शान्तिवर्मा, जो पहले राष्ट्रकूट नरेश कर्क के अधीन था, ने तैलप की अधीनता स्वीकार की । गंग सामन्त पाचालदेव की युद्ध में उसने हत्या कर दी । इस युद्ध में उसे बेलारी के सामन्त भूतिगदेव से सहायता मिली थी । अत: प्रसन्न होकर तैलप ने भूतिगदेव को ‘आहवमल्ल’ की उपाधि प्रदान किया ।

वेलारी लेखों से नोलम्ब पल्लव के ऊपर उसका पूर्ण अधिकार प्रमाणित होता है । बनवासी क्षेत्र में सर्वप्रथम कलप तथा फिर उसके भाई सोभन रस ने तैलप की अधीनता स्वीकार की । बेलगाँव जिले में सान्दीत्त के रट्ट भी उसके अधीन हो गये । उसने दक्षिणी कोंकण प्रदेश की भी विजय की ।

यहाँ शिलाहार वंश का शासन था । दक्षिणी कोंकण के अवसर तृतीय अथवा उसके पुत्र रट्ट को तैलप ने अपने अधीन कर लिया । सेउण के यादववशी शासक भिल्लम द्वितीय ने भी तैलप की प्रपुसत्ता स्वीकार की । उसके सेनापति वारप ने लाट प्रदेश को जीता । इस प्रकार तैलप ने गुजरात के अतिरिक्त शेष सभी भागों पर अपना अधिकार जमा लिया जो पहले राष्ट्रकूटों के स्वामित्व में थे ।

चोलो तथा परमारों में संघर्ष:

राष्ट्रकूट प्रदेशों पर अधिकार करने के उपरान्त तैलप ने चोलों तथा परमारों से संघर्ष किया । एक लेख में उसे ‘चोल रूपी शैल के लिये इन्द्र के वज्र के समान’ बताया गया है । राष्ट्रकूटों से चोली की पुरानी शत्रुता थी । संभवत: तैलप भी सामन्त के रूप में चोलों के विरुद्ध लड़ चुका था ।

अत: स्वतंत्र राजा होने के वाद वह चोली का स्वाभाविक शत्रु बन गया । 980 ई॰ के लगभग उसने चोल शासक उत्तम चोल को पराजित कर दिया । उत्तम चोल के बाद राजराज प्रथम चोलवंश का शक्तिशाली राजा बना । उसने अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए गंगवाडि तथा नोलमवाडि को जीत लिया ।

ये प्रदेश पहले के अधिकार में थे । अत: तैलप इन पर अपना पैतृक अधिकार समझता था । संभवत: तैलप को राजराज से भी करना पड़ा । कोगील लेख (वेलारी जिले में स्थित) से पता चलता है कि ‘आहवमल्ल ने चोल नरेश को युद्ध में पराजित कर उसके 150 हाथियों को छीन लिया था ।’

चूँकि इस सम्बन्ध में चोल साक्ष्य मौन है, अत: हम निष्कर्ष निकाल सकते है कि तैलप ने राजराज को भी किसी युद्ध में पराजित किया होगा । चोली के बाद तैलप का मालवा परमार वश के साथ संघर्ष छिड़ा । उसका समकालीन परमार शासक मुंज था । इस संघर्ष का उल्लेख साहित्य तथा लेखों में मिलता है ।

मेरुतुंग कृत ‘प्रबन्धचिन्तामणि’ से ज्ञात होता है कि तैलप ने मुज के ऊपर छ बार आक्रमण किया किन्तु प्रत्येक वार पराजित हुआ । अन्तत: मुज ने एक सेना के साथ गोदावरी नदी पार कर तैलप के ऊपर आक्रमण किया । जब उसके पत्री रुद्रादित्य को इसके विषय में पता चला तो उसने आग में कूद कर आत्महत्या कर लिया, क्योंकि उसने मुझ को गोदावरी पार न करने की सलाह दे रखी थी ।

इस बार मुंज पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया । बताया गया है कि कारागार में उसकी निगरानी के लिये तैल की अधेड़ उस की विधवा वहन मृणालवती को रखा गया था । मुज उससे प्रेम करने लगा था । उसने कारागार से निकल भागने की गुप्त योजना तैयार की और इसे मृणालवती को बता दिया ।

किन्तु उसने मुंज के साथ छल किया तथा उसकी योजना का रहस्योद्‌घाटन कर दिया । फलस्वरूप मुंज को कारागार में कठोर यातनायें देने के पश्चात् तैलप ने उसका सिर काट दिया । कैथोम ताम्रपत्रों से भी इस घटना का उल्लेख मिलता है । इनके अनुसार त्रैल ने उत्पल धुन को, जिसने हूणों, मारवों तथा चेदियों के विरुद्ध सफलता प्राप्त की थी, बन्दी बना लिया था’ ।

गडन लेख से सूचना मिलती है कि तेल ने वीर मुंज को तलवार च मौत के घाट उतार दिया था । इसी प्रकार यादव भिल्लम द्वितीय के सामगनेर दानपत्र से पता चलता है कि उसने तैल की ओर से मुंज के विरुद्ध युद्ध किया था ।

इसके अनुसार भिल्लम ने ‘युद्ध क्षेत्र में लक्ष्मी को प्रताड़ित किया क्योंकि उसने महाराज मुंज का साथ दिया था तथा उसे रणरगभीम की साध्वी पत्नी बनने पर मजबूर कर दिया ।’ यहाँ रणरंगभिम ‘आहवमल्ल’ का समानार्थी है जो तैल द्रितीय का ही नाम था । इस विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि तैलप ने युद्ध क्षेत्र में परमार नरेश को पराजित कर उसकी हत्या कर दी ।

इस प्रकार तैलप एक महान् शक्तिशाली शामक था जिसने अपने साम्राज्य का चतुर्दिक् विस्तार किया । अनुसार उसने ‘चालुक्य वंश की प्रनिष्ठा को पुन: स्थापित कर दिया तथा पश्चिम वर्षों तक सुख एवं शान्तिपूर्वक पृथ्वी पर शासन किया । वह यद्वानों का महान् संरक्षक भी था तथा उसने कन्नड़ भाषा की उप्रति में योगदान दिया ।

सत्याश्रय:

 

तैलप का उत्तराधिकारी सत्याश्र्य हुआ । वह भी अपने पिता के ही समान महत्वाकांक्षी एवं साम्राज्यवादी शासक था । राजा बनने के बाद उसने अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया । सर्वप्रथम उसने उत्तरी कोंकण के शीलाहारवंशी शासक अपराजित तथा गुर्जरनरेश चामुण्डराज के विरुद्ध सफलतायें प्राप्त की ।

परन्तु परमार शासक सिन्धुराज ने उसे हराकर उन प्रदेशों को पुन: अपने अधिकार में कर लिया जिसे तैलप ने उसके भाई मुन्ज से जीता था । सत्याश्रय का मुख्य शत्रु चोल नरेश राजराज प्रथम था जिसका वेंगी के चालुक्यों पर प्रभाव था । 1006 ई॰ में सत्याश्रय ने वेंगी पर आक्रमण किया । उसे प्रारम्भिक सफलता मिली तथा उसकी सेना ने गुन्टूर जिले पर अधिकार जमा लिया ।

चोल शामक राजराज ने अपने पत्र राजेन्द्र को एक विशाल सेना के साथ पश्चिमी चालुक्यों पर आक्रमण करने को भेजा । राजेन्द्र की सेना वीजापुर जिले में दोनूर तक बढ़ आई तथा उसने सम्पूर्ण देश को लूटा एवं स्त्रियों, बच्चों और ब्राह्मणों की हत्या कर दी । उसने वनवासी पर अधिकार किया तथा मान्यखेत को ध्वस्त कर दिया ।

वेंगी में स्थित चोल सेना हैदराबाद के 45 मील उत्तर-पश्चिम में कील्लिपाक्कई (कुल्पक) नामक स्थान तक वढ़ आई तथा उसने वहां के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार सत्याश्रय को दोनों मोची पर असफलता मिली । वह वेंगी छोड़ने के लिए बाध्य हुआ । किन्तु अपनी इस असफलता से सत्याश्रय निराश नहीं हुआ ।

उसने पुन शक्ति जुटाई तथा चोलों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया तथा चोलों सेनापति चन्दरिन को युद्ध में मार डाला । सत्याश्रय ने चोल सेनाओं को अपने राज्य में बाहर भगाया तथा उन्हें तुंगभद्रा के दक्षिण तक खदेड़ दिया । उसने दक्षिण की ओर कुर्नुल तथा गुन्टूर जिले तक के प्रदेश पर पुन अपना अधिकार जमा लिया । गुन्टूर जिले के बपतल नामक स्थान से 1006 ई॰ का उसका एक लेख मिलता है जो इस भाग में उसके अधिकार की पुष्टि करता है ।

ii. विक्रमादित्य पंचम:

सत्याश्रय ने 1008 ई॰ तक राज्य किया । संभवत: उसका कोई पुत्र नहीं धा । अत: उसके बाद उसका भतीजा विक्रमादित्य पंचम राजा बना । वह दशवर्मा का बड़ा पुत्र था । लेखों से उसकी किसी भी उपलब्धि की सूचना हमें नहीं मिलती । केषोम लेख में उसे यशम्बी तथा दानशील शासक बताया गया है । उसने 1015 ई॰ तक राज्य किया ।

iii. जयसिंह द्वित्तीय:

विक्रमादित्य के बाद उसका भाई जयसिंह द्वितीय शासक बना । उसने कई युद्ध किये । मालवा के परमार शासक भोज ने उसके राज्य पर आक्रमण किया तथा लाट और कोंकण पर अधिकार कर लिया । परन्तु बाद में जयसिंह ने उसे पराजित कर पुन: अपने प्रदेशों पर अधिकार कर लिया ।

उसके समय में पुन: चोलों के साथ युद्ध छिड़ा । वेंगी पर इस समय चोलों का प्रभाव था । 1019 ई॰ में वहाँ के शासक विमलादित्य की मृत्यु के बाद उसके चोल राजकुमारी कुन्दवै देवी से उत्पन्न पुत्र राजराज तथा उसके सौतेले भाई विष्णुवर्धन विजयादित्य सप्तम के बीच शासन के लिए चोल राजराज के समर्थक थे ।

अत: जयसिंह ने विजयादित्य की सहायता के लिये तुंगभद्रा नदी पार कर बेलारी पर ओर भेजीं । पहली सेना ने राजेन्द चोल के नेतृत्व में मस्की के युद्ध में जयसिंह को पराजित कर उसे तुंगभद्रा के उत्तर में भगा दिया ।

दूसरी सेना को भी वेंगी में सफलता मली तथा विजयादित्य युद्ध में पराजित हो भाग खड़ा हुआ । राजेन्द्र ने वेंगी में राजराज को गद्दी बैठा राज्यों को मीमा स्वीकार कर ली युद्ध के विषय में हम सूचना नहों को उपाधि ग्रहण की । जयसिंह द्वितय ने 1043 ई॰ तक शासन किया ।

iv. सोमेश्वर प्रथम:

जयसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम 1043 ई॰ में राजा हुआ । उसने अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानान्तरित किया तथा वहाँ अनेक सुन्दर भवन बनवाये । सौतेले भाई विष्णुवर्धन विजयादित्य सप्तम के वीच शासन के लिये संघर्ष छिड़ाने विजयादित्य की सहायता के लिये वेगी पर आक्रमण किया । जयसिंह ने कर लिया । उसका आमना करने के लिये राजेन्द्र चोल ने दो सेनायें ऐसा लगता है कि चोल सेना इसके वाद जयसिंह ने लग । इस समय साहित्य तथा 1043 ई॰ तक शासन किया ।

v. सोमेश्वर प्रथम:

जयसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम 1043 ई॰ में राजा हुआ । उसने अपनी राजधानी मान्यखेत से कल्याणी में स्थानान्तरित किया तथा वहीं अनेक सुन्दर भवन बनवाये । विल्हण के अनुसार उसने कल्याण नगर को इतना सजाया कि वह संसार के सभी नगरों में श्रेष्ठ वन गया ।

वह एक विजेता था । उसकी विजयी का एक विवरण नान्देर (हैदराबाद) के लेख में मिलता है जिसके अनुसार सोमेश्वर ने मगध, कलिंग और अंग के शत्रु राजाओं की हत्या कर दी, कोंकण पर आक्रमण कर वहाँ के राजाओं को अपने पैरों पर गिरने के लिये विवश किया, मालवा के राजा ने अपनी राजधानी धारा में हाथ जोड़कर उससे याचना की, उसने चोल शासक को युद्ध में पराजित किया तथा वेंगी और कलिंग के राजाओं को अपनी ओर मिला लिया ।

इसी लेख में उसके सेनापति नागवर्म का उल्लेख है । बताया गया है कि वह राजा का दाहिना हाथ था । इसे विन्ध्याधिपतिमल्ल, धाराबर्वादपीत्पाटन, मारसिहमर्दन, शिरच्छेदन, चक्रकूट-कालकूट जैसी उपाधियाँ प्रदान की गयी है । यद्यपि यह विवरण अतिरंजित है तथापि इसके कुछ अंशों को प्रामाणिक माना जा सकता है । सोमेश्वर की विजयों का कालक्रम निर्धारित करना कठिन है ।

चोलों में युद्ध-नान्देर लेख के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सुदूर दक्षिण के चोलों के साथ उसका दीर्घकालीन संघर्ष हुआ । जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वेंगी में उत्तराधिकार को लेकर चालुक्यों तथा चोलों में पहले से ही अनवन थी । राजराज नरेन्द के राज्यारोहण (1022 ई॰) के बाद से ही वेंगी की स्थिति ठीक नहीं थी ।

उसका सौतेला भाई विजयादित्य उसका प्रवल प्रतिद्वन्दी था । चालुक्य विजयादित्य तथा चोल राजराज का समर्थन कर रहे थे । सोमेश्वर ने भी विजयादिता का साथ दिया । उसने एक सेना उसकी सहायता के लिये वेंगी भेजी । इसकी सहायता से विजयादित्य ने चोल समर्थित राजराज को गद्दी से हटाकर वेंगी के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया ।

राजराज ने चोली के राज्य में शरण ली । राजेन्द्र चोल ने तीन सेनानायकों के नेतृत्व में अपनी तीन सेनाओं को चाहक्यी के विरुद्ध भेजा । चोल तथा चालुक्य सेनाओं मेँ पहला सघर्ष कालिदिन्हि (कृष्णा जिले में स्थित) में हुआ । यह युद्ध अनिर्णीत रहा तथा किसी पक्ष को सफलता नहीं मिली ।

इसी समय राजेन्द्र की मृक्ष हो गयी तथा उसका पुत्र राजाधिराज चोलवंश की गद्दी पर बैठा । वेंगी में चोल सत्ता पुन कायम करने के उद्देश्य से उसने स्वयं सेना का नेतृत्व करते हुए चालुक्यों के विरूद्ध अभियान किया। कृष्णा नए। के तट पर धान्यकटक में उसका पश्चिमी चालुक्य सेनाओं से युद्ध हुआ । इस वार चोल विजयी रहे ।

विजयादित्य तथा सोमेश्वर का पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय युद्धक्षेत्र ऊ भाग गये और चेंगी पर चोली ने अधिकार कर लिया । ऐसा प्रतीत होता है कि चोल बहुत समय तक देंगी में नहीं रुक सके तथा वाद में उनके समर्थित राजा राजराज ने सोमेश्वर की अधीनता स्वीकार कर लिया । धान्यकटक के युद्ध में विजयी होने के वाद राजाधिराज चालुक्य राज्य में कील्लिपाकै (नलगोडा स्थित कुलणका तक जा पहुँचा । किन्तु यहाँ चालुक्यों ने उसका कड़ा प्रतिरोध किया जिससे वह और आगे नहीं बढ़ पाया ।

चोल-चालुक्यों के वीच अगला युद्ध पुण्डर (कृष्णा नदी के वायें तट पर स्थित) में हुआ। इस युद्ध में चालुक्यों की ओर से तेलगू राजा विच्चय ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी । किन्तु उसके माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों को चोल सैनिकों ने पकड़ लिया । साथ ही साध चालुक्यों के दूसरे सेनापतियों तथा हाधियों को भी बन्दी बना लिया ।

जब आहवमल्ल ने दया की भीख मांगने के लिये अपने दूत चोलनरेश के स्कन्धावार में भेजा तो उन्हें अपमानित किया गया तथा उनके शरीर पर ‘आहवमल्ल घूर्णित कायर है’ अंकित कर वापस भेज दिया गया । युद्ध में चोली की विजय हुई तधा पुण्डर नगर को लूट-पाट करने के वाद ध्वस्त कर दिया गया। उसके खण्डहरों पर गर्भ का हल चलवाया गया ।

चोल सैनिकों ने मणन्दिपैं नगर को भी जला दिया । बताया गया है कि चोलों ने चालुक्यों के अनेक सेनापतियों के सिर काट लिये तथा येनगिरि में अपना विजयस्तम्भ स्थापित किया । सोमेश्वर ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा किन्तु चोल नरेश ने अत्यन्त अपमानजनक दृग से उसे अस्वीकार कर दिया । चोल सेना ने आगे चढ़ते हुए राजधानी कल्याणी को भी जीत लिया तथा उसे जला दिया । इस विजय के उपलक्ष्य में राजाधिराज ने विजयद की उपाधि ग्रहण की ।

कल्याणी को जलाने के वाद चोल नरेश अपने साध द्वारपालक की एक सुन्दर मूर्ति उठा ले गया तथा उसे दारासुरम मन्दिर (तंजोर जिला) के प्रवेश द्वार पर स्थापित किया गया । इसके ऊपर तमिल भाषा में यह लेख खुदा हुआ है- उदैयार श्रीविजयराजेन्द्रदेव द्वारा कल्याणपुरम को जला देने के वाद लाया गया द्वारापालक ।

चोल नरेश राजाधिराज ने अपने छोटे भाई राजेन्द्र द्वितीय, जो अभी युवराज था, की सहायता से पुन सोमेश्वर के ऊपर आक्रमण किया । दोनों सेनाओं में कोप्पम नामक स्थान पर पुन संघर्ष हुआ । परवर्ती चोल लेखों से पता चलता है कि इसमें भी चोल सैनिकों ने कई चालुक्य सेनापोतयों को धराशायी कर दिया। सोमेश्वर पराजित होकर भाग गया ।

चालुक्यों की वहुत सारी सम्पत्ति, वाहनों तथा स्त्रियों पर चोलों ने अधिकार कर लिया । विजयी राजेन्द्र ने युद्ध क्षेत्र में भी अपने को सम्राट घोषित किया तथा कोल्लापुर तक वढ़ते हुए वहाँ अपना विजय स्तम्भ स्थापित कर दिया । तत्पश्चात् वह अपनी राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम् वापस लौट आया ।

सोमेश्वर अधिक समय तक इस पराभव को सहन नहीं कर सका तथा अपने अपमान का बदला लेने के लिये उसने चोलों के विरुद्ध पुन: कमर कसी । वेंगी में राजराज की मृत्यु के बाद उसन विजयादित्य सप्तम् के पुत्र शक्तिवर्मा द्वितीय को राजा बनाया तथा उसकी रक्षा के लिये अपने सेनापति चामुण्डराज के नेतृत्व में एक बड़ी सेना रखी ।

तत्पश्चात सोमेश्वर ने अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा मालवा के राज्य जयसिंह के नेतृत्व में एक सेना गंगवाड़ी पर आक्रमण करने को भेजी । राजेन्द्र द्वितीय ने अपने पुत्रों राजमहेन्द्र तथा वीर राजेन्द्र को दोनों ही मोची पर चालुक्यों का मुकावला करने के लिये भेजा । वेंगी के युद्ध में चामुण्डराज तथा शक्तिवर्मा मारे गये । गंगवाडि में भी वीर राजेन्द्र ने चालुक्य आक्रमणकारियों को खटेड दिया तथा तुंग और भद्रा नदियों के संगम पर स्थित कुड़ेलसगमम् के युद्ध में उन्हें बुरी तरह पराजित किया गया ।

इस प्रकनरल सोमेश्वर ने कोप्पम् युद्ध में हुए अपने अपमान का बदला लेने के लिये जो अभियान प्रारम्भ किया उसमें उसे सफलता नहीं मिली । राजेन्द्र द्वितीय का उत्तराधिकारी वीर राजेन्द हुआ । उसके समय में भी चालुक्यों से संघर्ष चलता रहा ।

शत होता है कि सोमेश्वर ने चोलों के विरुद्ध पूर्व तथा पश्चिम दोनों ही दिशाओं में मोर्चेबन्दी की । पूर्व में उसने अपने सामन्त धारा के परमारवशी जननाथ के नेतृत्व में एक सेना तैनात की तथा पश्चिम की ओर युद्ध करने के लिये विजयादित्य को भेजा । किन्तु वीर राजेन्द्र ने दोनों ही मोर्चों पर सफलता पाई ।

वेंगी में चालुक्य सेनायें पराजित हुई तथा पश्चिम में तुगभद्रा नदी के तट पर हुए युद्ध में भी चोलों ने सोमेश्वर की सेना को पराजित कर उसे भारी क्षति पहुँचाई । किन्तु सोमेश्वर निराश नहीं हुआ तथा पुन शक्ति जुटाकर वीर राजेन्द्र के पास अपना सदेशवाहक भिजवाकर कुड़लमंगमम् मे ही पुन युद्ध करने की चुनौती दी । चोल सम्राट अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा वह निश्चित स्थान एवं समय पर चालुक्यों से मुठभेड़ के लिये उपस्थित हुआ । किन्तु सोमेश्वर इस युद्ध में नहीं आया यद्यपि उसकी सेनायें पहुँच गयी थी ।

वीर राजेन्द्र ने एक माह तक उसकी प्रतीक्षा करने के पश्चात् चालुक्य सेनाओं पर धावा बोल दिया । विजयश्री उसे ही मिली तथा चालुक्य सेनाओं को पराजय का मुख देखना पड़ा । इस विजय के उपलक्ष्य में वीर राजेन्द्र ने तुंगभद्रा के तट पर अपना विजय स्तम्भ स्थापित किया ।

इसके बाद उसने अपनी सेना लेकर वेंगी की ओर प्रस्थान किया । यहाँ चालुक्यों की ओर से युन्द्व करने के लिये विजयादित्य तथा राजराज उपस्थित थे तथा चोलों की ओर से युवराज राजेन्द्र (जो वाट में कुलोतुग प्रथम के नाम से राजा बना) ने युद्ध किया ।

कृष्णा नदी के किनारे बेजवाड़ा में (1067-68 ई॰) चोलों तथा चालुक्यों के बीच अन्तिम संघर्ष हुआ । ईसमें भी चालुक्यों की पराजय हुई तथा उनके कई सेनापति मार डाले गये । बताया गया है कि चालुक्य सेनापतियों के सिर काटकर गंगैकोंडचोलपुरम् की दीवारों पर टाँग दिया गया । इस विजय के उपरान्त वीर राजेन्द्र ने अपने हाथियों को गोदावरी नदी का जल पिलाया तथा तत्पश्चात् कलिगंम को पार करते हुए अपनी सेना को चक्रकुट तक भेजा ।

वेंगी पर उसका पूर्ण अधिकार हो गया जिसे विजयादित्य को साँपने के वाद वह अपनी राजधानी आया । इस प्रकार प्रत्येक बार सोमेश्वर को चोलों से पराजित होना पड़ा । किन्तु चालुक्य राज्य पर अधिकार करने का स्वप्न चोल पूरा नहीं कर पाये’ इसके विपरीत सोमेश्वर कम से कम कुछ समय के लिये वेंगी के ऊपर अपना अधिकार रख सकने में सफल हो गया ।

अन्य उपलब्धियां:

सोमेश्वर को चोलों के विरुद्ध निश्चित सफलता भले न मिली हो किन्तु अन्य क्षेत्रों में उसका अभियान पूर्णतया सफल हुआ तथा उसने अपने समकालीन कई शक्तियों को नतमस्तक किया । नान्देर लेख से पता चलता है कि उसके सेनापति कालिदास के पुत्र मधुसूदन ने कोंकण तथा मालवा में विजय प्राप्त किया था ।

इसी प्रसंग में सेउण (यादव वंशी शासक) तथा विन्ध्य के राजा मल्ल का भी उल्लेख मिलता है जिनके विरुद्ध उसके सेनापति नागवर्म ने पुन्द्व किया था । सेउण डर कर भाग गया तथा मल्ल का सिर नागवर्म ने काट लिया था । ऐसा प्रतीत होता है कि कोंकण नरेश सेग्ण तथा मल्ल, मालवा के परमार शासक भोज के सहायक थे तथा भोज पर आक्रमण करने के पूर्व उन्हें दण्डित करना आवश्यक था । कोंकण प्रदेश पर इस समय शिलाहार वंश का शासन था । वे पराजित किये गये तथा वहाँ सोमेश्वर का अधिकार हो गया ।

सेउण की पहचान यादववंशी भिल्लम तृतीय से की जाती है । मल्ल संभवत विन्ध्य के समीपवर्ती क्षेत्र में शासन करता था । इन्हें पराजित करने के पश्चात् सोमेश्वर का मालवा के परमारों के साथ संघर्ष हुआ । इस युद्ध में उसे गुजरात के चालुक्य शासक भीम तथा त्रिपुरी के कलचुरि शासक कर्ण से भी सहायता प्राप्त हुई थी ।

परमारों की राजधानी धारा नगरी के ऊपर आन्कमण कर उसने वहाँ के राजा भोज को आत्मसमर्पण करने के लिये मजबूर कर दिया । नागँ लेख से पता चलता है कि चालुक्यों ने धारा को जला दिया तथा माडव पर अधिकार जमा लिया । विक्रमांकदेवचरित से भी सूचना मिलती है कि सोमेश्वर ने धारा पर आक्रमण किया तथा भोज पराजित होकर नगर छोड़कर भाग गया ।

भोज के बाद जयसिंह तथा उदयादित्य के बौच गद्दी के लिये युद्ध छिड़ा । उसमें सोमेश्वर ने जयसिंह की सहायता करके उसे गदी पर बैठा दिया । किन्तु कुछ काल बाद उदयादित्य ने चोलों की मदद से जयसिंह को हटाकर पुन मालवा के सिंहासन पर अधिकार कर लिया ।

सोमेश्वर ने अपने उत्तरी अभियान में गुजरात के चालुक्य शासक भीम तथा त्रिपुरी के कलचुरि शासक कर्ण को भी पराजित किया । ये दोनों पहले उसके मित्र थे और मालवा के विरुद्ध संघर्ष में इन्होंने सोमेश्वर की सहायता की थी । लगता है कि बाद में इनके सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गये जिसके कारण सोमेश्वर को इन दोनों के विरुद्ध अभियान करना पड़ा ।

मध्यप्रदेश के आधुनिक बस्तर के समीपवर्ती क्षेत्रों में नागवंश का शासन था । का राजा धारावर्ष था जिसकी राजधानी चक्रकूट में थी । उसके विरुद्ध भी सोमेश्वर को सफलता मिली । नान्देर लेख से इसका प्रमाण मिलता है जहाँ सोमेश्वर के सेनापति नागवर्मा को चक्रकूट-कालकूट की उपाधि दी गयी है ।

सोमेश्वर के अभियानों में वारगल के काकतीय शासक, प्रोल प्रथम तथा उसके पुत्र बेट ने सहायता की थी । अत: सोमेश्वर ने पुरस्कर स्वरूप उसे अन्यकीण्ड विषय की जागीर प्रदान कर दी । प्रोल प्रथम सोमेश्वर का सामन्त बना रहा । इसके अतिरिक्त सोमेश्वर ने अपनी शक्ति का विस्तार विदर्भ, कोशल तथा कलिंग तक किया ।

कलिंग में इस समय गंगवशी वजहस्त पंचम का शासन था जो सोमेश्वर द्वारा पराजित किया गया । नान्देर लेख में उसके सेनापति नागवर्म को ‘मारसिंहमदमर्दन’ कहा गया है । इससे सूचित होता है कि उसने मारसिंह नामक किसी राजा को पराजित किया था । एक अन्य लेख में उसे सामन्त अंक भी मारसिंह को हराने का दावा करता है ।

मारसिंह प्रभु नामक किसी राजा के शक संवत् 971 तथा 985 (1045 तथा 1062-63 ई॰) के लेख मिलते है । इसे सोमेश्वर की पत्नी लीला देवी का पिता बताया गया है । इस शासक की पहचान नागवर्म तथा अंक द्वारा पराजित शासक से की जाती है । ऐसा प्रतीत होना है कि पराजित होने के याद उसने अपनी कन्या का विवाह सोमेश्वर के साथ कर दिया होगा ।

इस प्रकार सोमेश्वर प्रथम महान् विजेता तथा साम्राज्य निर्माता था । चोलों के सिवाय अन्य सभी मोची पर उसे सफलता प्राप्त हुई । चोलों से पराजित होने के वाद भी उसके साम्राज्य की सीमा क्षतिग्रस्त नहीं हुई । उसका विशाल साम्राज्य वि३यपर्वत से तुंगभद्रा तक फैला था । उसमें अदम्य साहस तप उत्साह था जिससे उसने अपने सेनापतियों तथा पुत्र विक्रमादित्य को भी प्रेरणा थी । उसने 25 वर्षों तक राज्य किया ।

विजेता होने के साथ-साथ वह उच्चकोटि का निर्माता भी था । कल्याणी में अपनी राजधानी स्थापित करने के वाद उसने उसे भव्य भवनों से अलंकृत कर संसार का सुरम्य नगर बना किया । छिल्हण के अनुसार उसने स्वेच्छा से तुंगभद्रा नदी के जल में एवं कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर दी ।

किल्हण इसका कारण कोई असाध्य रोग बताता है, जबकि कुछ अन्य विद्वानों का विचार है कि उसने चोली से निरन्तर पराजित होने के उपरान्त निराशा में आत्महत्या कर ली होगी । वास्तविकता जो भी हो, वह निश्चयत कल्याणी के चालुक्य वश के महानतम शासकों में था ।

vi. सोमेश्वर द्वितीय:

सोमेश्वर प्रथम के बाद उसका बड़ा पुत्र सोमेश्वर द्वितीय (1068-1076 ई॰) राजा बना । उसका छोटा भाई विक्रमादित्य प्रारम्भ से ही महत्वाकांक्षी था । चोलनरेश वीर राजेन्द्र ने सोमेश्वर प्रथम के राज्य पर आक्रमण किया । सोमेश्वर के भाई विक्रमादित्य ने कुछ सामन्तों के साथ चोलनरेश से सन्धि कर ली ।

वीर राजेन्द्र ने अपनी एक पुत्री का विवाह उससे कर दिया तथा सोमेश्वर द्वितीय पर दबाव डालकर विक्रमादित्य को चालुक्य राज्य के दक्षिणी भाग पर युवराज के रूप में शासन करने का अधिकार दिला दिया । इस तरह चालुक्य राज्य दो भागों में विभाजित हो गया । ऐसा लगता है कि सोमेश्वर ने पुन अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली तथा चोल सेनाओं को अपने राज्य के बाहर भगा दिया । उसके एक लेख से सूचित होता है कि उसकी घुड़सवार सेना ने वीर राजेन्द्र चोल को कल्याणी से खदेड़ दिया ।

इसके बाद सोमेश्वर तथा विक्रमादित्य के सम्बन्ध कुछ समय के लिये मधुर हो गये । 1074 ई॰ के नियल्गी लेख में कहा गया है कि महामण्डलेश्वर विक्रमादित्य बकापुर से भुवनैकमल्ल (सोमेश्वर) की सेवा कर रहा था । सोमेश्वर ने मालवा के परमार राजा जयसिंह पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया जिससे वह उसकी अधीनता स्वीकार करने लगा । इस युद्ध में कलचुरि शासक कर्ण ने सोमेश्वर की सहायता की थी । किन्तु कुछ समय बाद चाहमानों के सहयोग से मालवा ने पुन स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली ।

सोमेश्वर तथा विक्रमादित्य के सम्बन्ध अधिक समय तक सौहार्दपूर्ण नहीं रह सके । 1070 ई॰ में चोल शासक वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद वहाँ सिंहासन के लिये अधिराजेन्द तथा कुलीतुंग के बीच संघर्ष छिड़ गया । विक्रमादित्य अधिराजेन्द का साला था । अत: उसने हस्तक्षेप करके उसे चोल राज्य की गद्दी पर आसीन करवा दिया ।

किन्तु अधिराजेन्ट विद्रोह में मारा गया तथा कुलीतुंग चोलवंश का राजा बना । सोमेश्वर ने अपने भाई विक्रमादित्य के विरुद्ध अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये कुलोतुंग के साथ मंत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिया। दोनों ने सम्मिलित रूप से विक्रमादित्य के ऊपर आक्रमण कर दिया ।

चोलों ने गंगवाडी का प्रदेश छीन लिया किन्तु इस युद्ध में विक्रमादित्य ने सोमेश्वर को बन्दी बना लिया। उसे कारागार में डाल दिया गया तथा 1076 ई॰ में विक्रमादित्य ने अपने को सम्राट घोषित कर दिया । सोमेश्वर के अन्तिम दिनों के ‘विषय में ज्ञात नहीं है । संभवत: कारागार में ही उसकी मृत्यु हो गयी ।

vii. विक्रमादित्य षष्ठ:

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, विक्रमादित्य सोमेश्वर प्रथम का कनिष्ठ पुत्र तथा सोमेश्वर द्वितीय का छोटा भाई था । बिल्हण के विवरण से पता चलता है कि वह सोमेश्वर के पुत्रों में सबसे योग्य धा पिसके कारण सोमेश्वर इसे ही ‘युवराज’ बनाना चाहता था । किन्तु सोमेश्वर द्वितीय के रहते यह सम्भव नहीं हो पाया ।

विक्रमादित्य प्रारम्भ में गंगवाडी तथा बनवासी पर सामन्त की हैसियत से शामन करता था । वह प्रारम्भ से ही महत्वाकाँक्षी था । अनुकूल अवसर पाकर अन्तत: उसने कल्याणी के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया । हैदरावाद संग्रहालय में सुरक्षित दो दानपत्रों से भी इसका समर्थन होता है जिनके विवरण के अनुसार विक्रमादित्य ने अपने बाहुबल से सोमेश्वर से राजलक्ष्मी को ग्रहण कर लिया था ।

1076 ई॰ में अपने राज्यारोहण के समय उसने एक संभवत: का प्रवर्तन किया जिसे ‘चालुक्य-विक्रम-संवत्’ कहा जाता है । इतिहास में वह विक्रमादित्य षष्ठ के नाम से प्रसिद्ध है । विक्रमादित्य के इक्यावन वर्षों के शासनकाल में सर्वत्र इसी संवत् का प्रयोग मिलता है । इसके बाद भी करीब पचास वर्षों तक यदा-कदा इस संवत् का प्रयोग होता रहा । शास्त्री के अनुसार टम संवत् की निश्चित तिथि 11 फरवरी, 1076 ई॰ को पड़ती है ।

जयसिंह का विद्रोह तथा उसकी पराजय:

विक्रमादित्य षष्ठ के राज्यारोहण के बाद चोल-चालुक्य संघर्ष कुछ काल तक रुका रहा । उसका शासन-काल सामान्यत: शान्तिपूर्ण रहा । 1083 ई॰ में उसके छोटे भाई जयसिंह तृतीय ने विद्रोह किया । प्रारम्भ में दोनों के सम्बन्ध अच्छे थे तथा सोमेश्वर द्वितीय के साथ युद्धों में जयसिंह ने विक्रमादित्य का ही साथ दिया था । सिंहासन प्राप्त करने के वाद विक्रमादित्य ने जयसिंह को वनवासी का उपराजा बना दिया था ।

उसके अधिकार में बेलोन, पुलगिरे तथा कचूर के भी प्रान्त थे । लगता है जयसिंह इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ तथा उसने सम्राट बनने की योजना बनानी प्रारम्भ कर दी । बिल्हण ने घटनाक्रम का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है ।

विक्रमादित्य के एक विश्वासपात्र सलाहकार ने उससे मिलकर जयसिंह की गतिबिधियों के बिषय में बताते हुए कहा कि ‘वह धर्म का मार्ग त्याग कर प्रजा के ऊपर अत्याचार कर रहा है, अपनी सैनिक शक्ति बढ़ा रहा है, अटवी (जंगली) जातियों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर रहा है, उसने द्रविड़ राजा के पास उपहारों सहित अपना दूत भेजकर उसे अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया है तथा वह शीघ्र ही भेज कर भी जयसिंह की विद्रोही कार्यवाहियों विक्रमादित्य को हार्दिक क्लेश पहुंचा तथा उसकी कमजोरी समझा ।

वह एक सेना लेकर युद्ध के उद्देश्य से कृष्णा नदी के तट तक आ पहुँचा । वहाँ अनेक मांडलिक (सामन्त) भी उसके साथ मिल गये । उसकी सेना ने जनता को आतंकित करना, लूटना तथा बन्दी बनाना प्रारम्भ कर दिया । विक्रमादित्य के पास प्रतिरक्षा में हथियार उठाने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं था । अत: वह भी सेना के साथ युद्ध के लिये प्रस्तुत हुआ । दोनों की सेनाओं मैं युद्ध छिड़ गया ।

प्रारम्भ में जयसिंह की गजसेना को कुछ सफलता मिली किन्तु अन्तत: विक्रमादित्य ने स्थिति सम्हाल ली । युद्ध में जयसिंह पराजित हुए तथा भाग गया । बाद में वह बन्दी बनाकर विक्रमादित्य के समक्ष लाया गया । बिल्हण के विवरण से पता चलता है कि विक्रमादित्य ने उसके प्रति उदारता का व्यवहार किया तथा स्वत्रंत कर दिया ।

होयसलों के साथ युद्ध:

जयसिंह से निपटने के पश्चात विक्रमादित्य को होयसलों के संकट का सामना करना पड़ा । होयसल पहले चालुक्यों के अधीन थे तथा उनका राज्य चालुक्यों तथा चोलों के राज्यों के बीच पक अन्तस्थ राज्य के रूप में स्थित था । उनकी राजधानी सोसेबूर (द्वारसमुद्र) में थी । विक्रमादित्य के समकालीन होयसल वंश के शासक- विनयादित्य, उसका पुत्र एरेयंग तथा एरेयंग के पुत्र बल्लाल प्रथम और विष्णुबर्धन थे ।

विनयादित्य तथा उसके पुत्र एरेयंग ने चोलों के विरुद्ध युद्ध में विक्रमादित्य की सहायता की थी । किन्तु शान्तिपूर्वक तथा धीरे-धीरे वे अपनी शक्ति का विस्तार भी करते रहे । बल्लाल प्रथम के समय तक उनका राज्य काफी बढ़ गया था किन्तु अब भी (1100-1110 ई॰) होयसल चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करते रहे ।

वल्लाल की उपाधि ‘त्रिभुवनमल्ल’ की मिलती है । इससे सूचित होता है कि वह विक्रमादित्य का सामन्त था । किन्तु उसके छोटे भाई बिट्टिग, जो वाद में विष्णुवर्धन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के समय में स्थिति बदल गयी तथा होयसलों ने चालुक्यों की दासता का जुआ उतार फेका तथा विष्णुवर्धन ने इस वंश को स्वतन्त्र कर लिया ।

वह एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था जिसने अपने राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ किया । 1116 ई॰ में उसने गंगवाडि के चोल प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया । उसने पाण्ड्यों तथा कदम्बों का सहयोग प्राप्त किया और उत्तर में कृष्णा नदी तक के चालुक्य राज्य को जीत लिया ।

विक्रमादित्य ने जब विष्णुवर्धन की धृष्टता के विषय में सुना तो अत्यन्त क्रुद्ध हुआ तथा उसने अपने सेनापति जगद्देव (जो मालव नरेश उदयादित्य का पुत्र था) के नतृत्व में एक सेना उसका सामना करने के लिये भेजी ।

होयसल लेखों से पता चलता है कि विष्णुवर्धन तथा जगदेव की सेनाओं के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ । यह दावा किया गया है कि विष्णुवर्धन ने जगदेव की सेना में ऐप्सा कुहराम मचाया कि सम्पूर्ण संसार अचम्भित रह गया तथा वह अपने सप्तांग (राज्य) को खो बैठा । किन्तु यह विवरण काफी अतिरजित है । वास्तविकता यह लगती है कि पहले युद्ध में विष्णुवर्धन को सफलता मिली जिससे उसका उत्साह और बढ़ गया ।

अब विक्रमादित्य स्वयं उससे युद्ध के लिये प्रस्तुत हुआ । सर्वप्रथम उसने पाएको तथा कदम्बों को अपनी ओर मिलाया । तत्पश्चात् उसे विष्णुवर्धन की सेनाओं के साथ के युद्ध करने पड़े । श्रवणवेलगोला के लेख (1118 ई॰) से पता चलता है कि विष्णुवर्धन के सेनापति ने विक्रमादित्य की सेनाओं पर, जिसका नेतृत्व बारह सामन्त कर रहे थे, कण्णेगल में रात्रि के समय जोरदार आक्रमण कर उसकी सेना तथा सामग्रियों को भारी क्षति पहुँचायी । किन्तु बाद में चालुक्यों को सफलता मिली ।

विक्रमादित्य ने विष्णुवर्धन को परास्त कर अपने राज्य से बाहर निकाल दिया । इसके बाद उसने विष्णुवर्धन के सहायकों को भी दण्डित किया । गोवा पर आक्रमण कर उसे लूटा गया और हवा आग लगा दी गयी । होयसलों के विरुद्ध युद्ध में उसे अपने सामन्त शासको-जगदेव तथा अचुगि द्वितीय-से बहुत अधिक राहायता मिली ।

सिन्द लेखों में विक्रमादित्य की इस सफलता का विवरण मिलता है जिसके अनुसार यार्वभौम सम्राट विक्रम के आदेश से रणसिंह, प्रखर किरणों वाले तप्त सूर्य के समान अचुंगी ने होयसलों को बाहर निकाल दिया, गोवे पर अधिकार कर लिया, लक्ष्मण की युद्ध में हत्या कर दी, पाण्ड्यों का वीरता के साथ पीछा किया, मेलपों को तितर-वितर कर दिया तथा कोंकण को घेर लिया ।

आचुंगी के पुत्र पेर्मादिदेव के विषय में वर्णित है कि उसने ‘पृथ्वी के सबसे भयकर होयसल राजा को शक्तिविहीन कर दिया’ और सदा अपराजेय रहने का यश प्राप्त किया । वह उपद्रवी विट्टिग (विष्णुवर्धन) के पहाडी दरी तक रजा पहुंचा तथा उसे लूटा, दोरसमुद्र को घेर लिया तथा वेलुपुर तक लगातार उसका पीछा करता रहा । वेलुपुर पर उसने अधिकार कर लिया ।

पेर्मराजा अपनी तलवार से उसे खदेड़ते हुए पाहाडि के दर्रे तक पहुंच गया तथा सभी बाधाओं को पार कर संसार में यश अर्जित किया । 1122 ई॰ में हसलूर नामक स्थान पर भी चालुक्य-होयसल सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमें गंगनरेश चालुक्यों की ओर से लड़ता हुआ मारा गया ।

इसी प्रकार होसवीतू नामक स्थान पर हुए एक अन्य युद्ध में विजयश्री चालुक्यों को मिली । हम 1122-23 ई॰ में विक्रमादित्य को जयन्तिपुर तथा वनवासी के एक स्कन्धावार में देखते है । ऐसा पतीत होता है कि उसने दक्षिण में होयसलों के विरुद्ध मोर्चा स्वयं सम्हाला था ।

अन्ततोगत्वा होयसल पराजित हुए । इस प्रकार विष्णुवर्धन की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं पर पानी फिर गया तथा विक्रमादित्य के जीवन काल तक वह उसकी अधीनता में रहने को विवश हुआ होयसलों के ऊपर अपनी विजय के उपलक्ष्य में विक्रमादित्य ने विष्णुवर्धन की उपाधि धारण की ।

मालवा के विरुद्ध अभियान:

विक्रमादित्य ने मालवा के पमारों के विरुद्ध भी अभियान किया । उसके राज्यारोहण के पहले ही मालवा में उत्तराधिकार के युद्ध तथा गुज्‌रात के चालुक्यों और मध्य भारत के चेदियों के आक्रमण के कारण मालवा में अराजकता फैली हुई थी ।

भोज की मृत्यु क वाद विक्रमादित्य ने अपने पिता के कहने पर मालवा की राजनीति में हस्तक्षेप किया तथा वही उसके पुत्र जयसिंह को राजा बनाया जयसिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी उदयादित्य हुआ जो विक्रमादित्य का समकालीन शासक धा । पहले विक्रमादित्य से उसके सम्बन्ध ठीक थे जो बाद में बिगड़ गये ।

फलस्वरूप विक्रमादित्य ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया । रायवाग लेख से पता चलता है कि विक्रमादित्य ने उदयादित्य की शक्ति का विनाश कर डाला तथा धारा नगरी को भस्म कर दिया । उदयादित्य सम्भवत: युद्ध में ही मारा गया । उसके तीन पुत्र थे- लक्ष्मणदेव, नरवर्मा तथा जगद्देव ।

कुछ विद्वान् लक्ष्मणदेव तथा जगदेव को एक ही मानते है । उदयादित्य के वाद उसके पुत्रों से उत्तराधिकार-युद्ध छिड़ा । इसमें विक्रमादित्य ने जगदेव का समर्थन किया । उसने एक सेना मालवा में पुन: भेजकर उसे राजा बनवा दिया । वाद में दोनों के सम्बन्ध अत्यन्त सौहार्दपूर्ण हो गये जिसके फलस्वरूप विक्रमादित्य ने जगद्देव को अपने पास बुलवा लिया ।

वेंगी का अधिग्रहण:

होयसलों के विरुद्ध अपने संघर्ष के साथ ही साथ विक्रमादित्य वेंगी के प्रश्न पर चोल नरेश कुलोतुंग के विरुद्ध युड करने की बात सोचता रहा । विजयादित्य की मृत्यु के कई वर्षों बाद तक कुलोतुंग के पुत्रों ने देंगी पर उपराजाओं के रूप में शामन किया ।

1092-93 में विक्रमचोल ने वेंगी की गद्दी संभाली । इसके बाद दक्षिण कलिंग का शासक, जो वेंगी के अधीन था, ने विद्रोह कर दिया तथा उसकी सहायता कोलनु (कोलेर झील) के सामन्त ने की । यद्यपि विक्रमचोल ने इस विद्रोह को कुचल दिया तथापि उसके राज्य में अशान्ति फैल गयी ।

संभव है इसे भड़काने में विक्रमादित्य का ही हाथ रहा हो । इन दोनों के बीच युद्ध का विवरण प्राप्त नहीं होता । परन्तु 1118 ई॰ में कुलोसुग ने वेगी से अपने शासक विक्रम चोल को वापस बुला लिया । इसके साथ ही वेंगी में अराजकता फैल गयी । विक्रमादित्य ने इस स्तिथी का लाभ उठाया । उसके सेनापति अनन्तपाल ने वहाँ का शासन सम्हाल लिया ।

ऐसा प्रतीत होता है कि वेंगी पर अधिकार करने के पूर्व अनन्तपाल को वहाँ के चोल उपराजा तथा उसके सामन्तों के साथ कड़ा संघर्ष करना पड़ा था । 1115 ई॰ से द्राक्षाराम तथा अन्य तेलुगु प्रदेशों में चालुक्य संवत की तिथि वाले लेख मिलने लगते हैं ।

इसी समय हम वेंगी के चालुक्य राज्य के कुछ अन्य भागों में भी विक्रमादित्य के सेनापतियों को शासन करते पातें है । 1127 ई॰ में कोंडपल्लि (कृष्णा जिला) में अनन्तपाल का भतीजा गोविन्ददण्डनायक शासन कर रहा था । ज्ञात होता है कि वहाँ अधिकार करने के पूर्व उसे चोलराज तथा उसके सहायकों के साथ घोर युद्ध करना पड़ा था ।

द्राक्षाराम के लेखों में चालुक्य-विक्रम संवत् 57 अर्थात 1132-33 ई॰ तक की तिथियाँ अंकित है । एक लेख में कील्लिपाके के शासक मल्ल का पुत्र नम्बिराज अपने को षड़सेहस्वदेव का सामन्त कहता है । स्पष्टत: यहाँ चालुक्यों से ही तात्पर्य है । पीठारपुरम् से प्राप्त 1202 ई॰ के लेखों में बताया गया है कि कुलोत्तुंग ने पचास वर्षों तक पचद्रविड़ों तथा आन्ध्र पर शासन किया ।

तत्पश्चात् विक्रमचोल दक्षिण में बोल राज्य में शासन करने के निमित्त चला गया और देंगी में अराजकता फैल गयी (नेगी-भूमिता-नायक-रहिरजाता) । अत: यह स्पष्ट है कि विक्रमादित्य के काल में देंगी से चोल-शक्ति का अन्त हो गया और उसका वहाँ अधिकार स्थापित हो गया ।

अन्य कुछ-विक्रमादित्य की कुछ अन्य विजयों के विषय में भी हमें लेखों से जानकारी मिलती है । पता चलता है कि विक्रमादित्य ने कोंकण प्रदेश की भी विजय की थी । वहाँ पाण्ड्य कामदेव, विक्रमादित्य के सामन्त के रूप में शासन करता था ।

करहाटक के शिलाहार, नासिक के यादव तथा अनुमकोंड के काकतीय भी उसकी अधीनता स्वीकार करते थे । कुछ बाद के लेखों में विक्रमादित्य को कश्मीर, नैपाल, सिध, गुर्जर, आभीर, तुरुष्क, मरू, वग, विदर्भ आदि को जीतने वाला बताया गया है । विल्हण ने भी इसे मलय पर्वत, चोल, परमार, गौड़, काम- रूप, केरल, काची, वेंगी, चक्रकूट आदि का विजेता वताया है।

विज्ञानेश्वर के अनुसार वह हिमालय से लेकर रामेश्वरम् तक तथा बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब मागर तक का सार्वभौम शासक था । किन्तु ये विवरण नितान्त अतिरंजित है, अन हम अक्षरश इन पर विश्वास नहीं कर सकते । इस प्रकार विक्रमादित्य एक शक्तिशाली शासक था । उसकी राजधानी कल्याणी में थी ।

वह प्राय राजधानी से बाहर भी रहता था । कल्याणी के वाद अनन्तपुर या वननासी नगर का महत्व था । इसके अतिरिक्त पीनुगुप्पे, पतगिरि, पोट्‌टलकेरे, वालकुण्डे, मान्यकेर, जननाथपुरम् आदि नगरों का भी सम्राट के अस्थाई निवास स्थान के रूप में उल्लेख मिलता है । रक कुशल योद्धा तथा साम्राज्य निर्माता होने के साथ-साथ वह साहित्य तथा कला का महान् उप्रायक था ।

विल्हण के अनुसार उसे सभी लिपियों का शान था तथा वह एक कवि पव अच्छा वक्ता था । उसे योग्य सेनानायकों, सामन्तों तथा विद्वानों की सेवायें प्राप्त थीं । इनमें अनन्तपाल, गोविन्द, नाय्यिदण्डाधिष, नारायण, वामन, लक्कन, कालिदास, सुरेश्वर पण्डित तथा सोमेश्वर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

अनन्तपाल उसके सबसे अधिक विश्वासपात्र व्यक्तियों में से थे जिसका उल्लेख कई लेखों में प्राप्त होता है । पहले वह पुलिगेरे तथा वेल्वोल का शासक बनाया गया । कालान्तर में उसका पद और प्रतिष्ठा चढ़ती गयी तथा उसे वनवासी का भी शासक दाना दिया गया ।

गोविन्द उसका भाजा था जिसकी गणना एक प्रमुख सेनापति के रूप में थी । उसे ही चोलदेश को विजित कर धन तथा हाथियों को छीनने का श्रेय दिया गया है । नम्बिदण्डाधिय, नारायण, वामन तथा लक्कन ये सभी अनन्तपाल के भाई थे । ये सभी योग्य सेनापति थे और विक्रमादित्य की सेवा में सदैव उपस्थित रहते थे ।

सोमेश्वर भी एक महत्वपूर्ण सेनापति था जिसकी वीरता की प्रशसा गडग लेख में मिलती है । इस प्रकार उसके सभी मत्री तथा सेनापति शूरवीर होने के साथ-साथ विद्वान् भी थे । विक्रमादित्य की कई रानिया थी । इनमें से कुछ ने शासन कार्य में भी भाग लिया ।

लहमीमहादेवी दम्बल तथा 18 अग्रहारों पर शामन करती थी, मलयमतिदेवी किरियकरेयूर के अग्रहार का प्रशासन देख रही थी तथा मावल देवी नरेयगल अग्रहार की शासिका थी । इसी प्रकार जक्कला देवी को इगुडिगे ग्राम तथा मैललमहादेवी को कण्णवल्ले में शामन करने के लिये नियुक्त किया गया था ।

विक्रमादित्य ने अपने नाम पर विक्रमपुर नामक एक नया नगर वसाया तथा भगवान विष्णु का एक मन्दिर पवू एक विशाल झील का भी निर्माण करवाया था । उसने अनेक तमिल व्राह्मणों को अपने राज्य में रखा तथा उन्हें भूमि एवं धन दान में दिये । नीरगुन्ड ताम्रपत्र से पता चलता है कि 1087 ई॰ में जब वह कल्याणी में था तब उसने पाँच सौ तमिल ब्राह्मणों को नीरगुन्द का पूरा गाँव दान में दिया था ।

इसके छत्तीस वर्ष बाद उन्हें एक दूसरा गाँव दान में दिया गया । इसको सूचित होता है कि उसके मन में तमिल देश के ब्राह्मणों के प्रति काफी लगाव था। इसके दो कारण हो सकते है । पहला यह कि उसकी एक पट्टरानी चोलवश की कन्या थी तथा दूसरा यह कि वह अपने प्रतिद्वन्द्वी चोल शासक कुलोत्तुग से धार्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता था ।

अपने शासन के वाइसवें वर्ष में उसने तुंगभद्रा नदी के तट पर एक मन्दिर तथा एक दूसरी संस्था के लिये दान दिया था, नर्मदा के तट पर जुलापुरुष दान दिया तथा 1105 ई॰ में चन्दटेवी के तट पर उसने अन्य दान दिये थे । उसके समकालीन दो वामराशिदेव तथा अवन्तशिवटेव के नाम लेखों में मिलते हैं ।

उसकी राजसभा में विक्रमाक देव चरिह के रचयिता विल्हण तथा मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर निवास करते थे । विल्हण उसके राजकवि थे । मूलत वे कश्मीर के निवासी थे । उनके पिता का नाम ज्येष्ठकलश तथा माता का नाम नागादेवी था । विद्याध्ययन के पश्चात् वे देशाटन के लिये निकले । मथुरा, कनौज, प्रयाग, काशी, अन्हिलवाड़ आदि स्थानों का भ्रमण करते हुए अन्ततोगत्वा वे कल्याणी पहुंचे ।

विक्रमादित्य ने उन्हें अपना सभापण्डित बनाया और स्वयं उन्हें विद्यापति की उपाधि से अलंकृत किया । अपनी रचना में उन्होंने विक्रमादित्य के उदात्त चरित्र का चित्रण किया है । उनके अनुसार विक्रमादित्य के राज्य में सुख, शान्ति तथा समृद्धि व्याप्त थी । प्रजा संतुष्ट थी तथा सर्वत्र सुरक्षा का वातावरण था ।

लोग रात में अपने घरों के दरवाजे बन्द करने की परवाह नहीं करते थे । उसने रामराज्य की पुन स्थापना की । विज्ञानेश्वर, विक्रमादित्य के मंत्री थे उन्होंने अपने शासक तथा उसकी राजधानी की काफी प्रशंसा की है । उनके अनुसार विक्रमादित्य जैसा महान् राजा, कल्याण जैसा नगर एवं विज्ञाननेश्वर जैसे विद्वान् न तो कभी हुए हैं और न ही भविष्य में होंगे ।

विक्रमादित्य ने पचास वर्षों तक शासन किया । इस दीर्घकालीन शासन में चतुर्दिक् शान्ति स्वयं सुव्यवस्था के फलस्वरूप साहित्य एवं ललित कलाओं के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई । ज्ञात होता है कि उसने लंका के शासक विजयबाहु के दरवार में उपहारों के साथ 1076-77 ई॰ में अपना एक दूत भेजकर उससे मैत्री-सम्बन्ध स्थापित किया था । रसकी मृत्यु 1126 ई॰ में हुई । उसे कल्याणी के चालुक्य वंश का महानतम शासक कहा जा सकता है ।

viii. सोमेश्वर तृतीय:

विक्रमादित्य षष्ठ के पश्चात् कल्याणी के चालुक्य वंश की अवनति प्रारम्भ हुई । उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर तृतीय चालुक्य राजवंश का शासक बना । उसने ‘भूलोकमल्वा’ तथा ‘त्रिभुवनमत्का’ जैसी उपाधियाँ ग्रहण कीं । कुछ लेखों में उसकी एक उपाधि ‘जर्वश चक्रवर्त्ती’ की भी मिलती हैं ।

उसने भी अपने पिता के समान एक संवत् का प्रवर्त्तन किया जिसे ‘भूलोकमल्लवर्ष’ नाम दिया गया है । किन्तु उसने अपने लेखों में विक्रमसंवत् का प्रयोग जारी रखा । किन्तु वह एक निर्वल शासक था जिसके समय में चालुक्य साम्राज्य की अवनति प्रारम्भ हो गयी ।

चोल शासक विक्रम ने देंगी पर पुन अधिकार कर लिया । 1133 ई॰ में गोदावरी नदी के तट पर चोलों ने सोमेश्वर की सेना को बुरी तरह परास्त किया । द्राक्षाराम से प्राप्त एक लेख से पता चलता है कि वेलेनाटी चोड गोंक द्वितीय ने चालुक्यों की सेना को भगा दिया । इस युद्ध में सोमेश्वर के दो प्रसिद्ध सेनापतियों-गोविन्द तथा लक्ष्मण भी पराजित किये गये तथा गोंक ने उनके घोड़े, ऊँट तथा भारी मात्रा में स्वर्ण पर अपना अधिकार कर लिया था ।

इसी समय होयसल भी स्वतन्त्र हो गये । उनका शासक विष्णुवर्धन प्रारम्भ में तो सोमेश्वर की अधीनता स्वीकार करता था । सिन्दिगेर लेख (1137 ई॰) में विष्णुवर्धन को चालुक्यमणि मडलिक-चूड़ामणि कहा गया है । किन्तु सोमेश्वर के शासन के अन्त में उसने गगवाडी, नोलम्बवाडी तथा वनवासी को चालुक्यों से छीन लिया । 1137 ई॰ तक हम उसे पूर्ण राजकीय उपाधियों के साथ शासन करते हुए पाते है । किन्तु अब भी वह नाम मात्र के लिये चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करता था ।

सोमेश्वर तृतीय ने 1126 ई॰ से 1138 ई॰ तक शासन किया । विजयों की अपेक्षा उसकी रुचि शान्ति के कार्यों में अधिक थी । वह स्वयं बड़ा विद्वान् था जिसने ‘मानसोल्लास’ नामक शिल्पशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की थी । धार्मिक कार्यों में भी उसकी गहरी रुचि थी । उसने ब्राह्मणों तथा मन्दिरों को दान दिया था ।

 

ix. जगदेकमल्ल द्वितीय:

सोमेश्वर तृतीय के दो पुत्र थे- जगदेकमल्ल द्वितीय तथा तैल तृतीय । सर्वप्रथम जगदेकमल्ल द्वितीय शासक बना । उसने 1138 ई॰ से लेकर 1151 ई॰ तक शामन किया । लेखों में उसके त्रिभुवनमल्ल, प्रताप-चक्रवर्तिन, पेर्माडिदैव आदि नाम भी दिये गये है । उनके काल में भी विष्णुवर्धन के चालुक्य राज्य पर आक्रमण जारी रहे तथा उसने बंकापुर को अपनी राजधानी बनाकर गंगवाडी, नोलम्बवाडी, हंगल तथा कृष्णानदी के हुलिगिरे प्रदेशों पर अपना अधिकार जमा लिया था ।

लेकिन ऐसा लगता है कि जगदेकमल्ल द्वितीय के समय तक चालुक्य साम्राज्य सुरक्षित चचा रहा तथा होयसल उसकी अधीनता मानते रहे । चित्तलदुर्ग लेख (1143 ई॰) में कहा गया है कि उसने चोलों तथा होयसलों को जीता था ।

1147 ई॰ के मृत्युमें लेख से पता चलता है कि जगदेकमल्ल की आशा पाकर वर्म्म दण्डाधिप ने होयसल नरेश के ऊपर प्रबल आक्रमण किया तथा उसका पीछा किया । इससे स्पष्ट होता है कि जगदेकमल्ल अपने साम्राज्य को किसी न किसी प्रकार बचाये रखने में सफल रहा ।

 

 

तैल तृतीय:

जगदेकमल्ल द्वितीय के वाद उसका छोटा भाई तैल तृतीय राजा बना । वह अत्यन्त निर्बल शासक था । उसके काल में होयसल, कलचुरि, यादव आदि सामन्तों ने अपनी-अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी । अनमकोंड अभिलेख से पता चलता है कि काकतीय शासक प्रोल ने युद्ध में उसे बन्दी बना लिया किन्तु बाद में दया करके उसे मुक्त कर दिया । इस प्रकार चालुक्य राज्य अत्यन्त जर्जर हो गया । अन्तत कलचुरि वंशी विज्जल ने कल्याणी पर अधिकार कर लिया ।

उत्तरकालीन पश्चिमी चालुक्य वंश का विनाश (Downfall of Post-Western Chalukya Dynasty):

चालुक्य वंश का अन्तिम शासक तैल तृतीय का पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ (1181-1 189 ई॰) हुआ । वह कुछ शाक्तशाली था और उसने कल्याणी को पुन जीत लिया । लेखों में उसे ‘चालुक्याभरण श्रीमतप्रैलोक्यमल्ल भुजवलवीर’ कहा गया है ।

संभवत: ‘भुजबलवीर’ की उपाधि उसने कलचुरियों के विरुद्ध सफलता के उपलक्ष्य में ही धारण की थी एक लेख में उसे ‘कलचुरिकुल का उन्मूलन करने वाला’ (कलचूर्यकुल निर्मूलता) कहा गया है । इस प्रकार सोमेश्वर ने चालुक्य वंश की प्रतिष्ठा को पुन स्थापित कर दिया । कुछ समय तक वह अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहा ।

परन्तु उसके राज्य में चतुर्दिक् विद्रोह उठ खड़े हुए और वह अपनी स्थिति स म्भाल नहीं सका । उसके अधीन कई सामन्तों जैसें देवगिरि के यादव, द्वारसमुद्र के होयसल आदि ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी । 1190 ई॰ के लगभग देवगिरि के यादवों ने उसे परास्त कर चालुक्य राजधानी कल्याणी पर अधिकार कर लिया ।

होयसल बल्लाल द्वितीय ने भी चालुक्य सेनापति कहा को पराजित कर दिया । साम्राज्य के दक्षिणी भागों पर होयसलों का अधिकार स्थापित हुआ तथा सोमेश्वर न भागकर वनवासी में शरण ली । संभवत: वहीं रहते हुए उसका प्राणान्त हुआ । इसके साथ ही कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्त हो गया ।

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