Read this article in Hindi to learn about:- 1. बादामी  का चालुक्य वंश का परिचय (Introduction to Chalukya Dynasty of Badami) 2. बादामी  का चालुक्य वंश का उत्पत्ति (Origin of Chalukya Dynasty of Badami) 3. राजनैतिक इतिहास (Political History).

बादामी  का चालुक्य वंश का परिचय (Introduction to Chalukya Dynasty of Badami):

ईसा की छठीं शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर चालुक्य वंश की जिस शाखा का आधिपत्य रहा उसका उत्कर्ष स्थल बादामी या वातापी होने के कारण उसे बादामी अथवा वातापी का चालुक्य कहा जाता है । इसी शाखा को ‘पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य’ भी कहा गया है ।

उनका उदय स्थल वर्तमान कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में स्थित बादामी (वातापी) नामक स्थान था । यहीं से छठीं शताब्दी में उन्होंने सम्पूर्ण दक्षिणापथ को राजनैतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया तथा उत्तर के हर्षवर्धन तथा दक्षिण के पल्लव शासकों के प्रबल विरोध के बावजूद उन्होंने लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिण पर अपना आधिपत्य कायम रखा ।

इतिहास के साधन:

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बादामी के चालुक्य वंश के इतिहास के प्रामाणिक साधन अभिलेख हैं । इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है । इनमें शक-संवत् 556 अर्थात् 634 ईस्वी की तिथि अंकित है । ऐहोल, आधुनिक कर्नाटक प्रान्त के बीजापुर जिले में स्थित है । यह लेख एक प्रशस्ति के रूप में है तथा इसकी भाषा संस्कृत है । लिपि दक्षिणी ब्राम्ही है । इस लेख के रचना कविकीर्त्ति ने की थी ।

यद्यपि इसमें मुख्य रूप से पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन हुआ है तथापि इससे हम उसके पहले का चालुक्य इतिहास तथा मलकेशिन् के समकालीन लाट, मालवा, गुर्जर आदि देशों के शासकों के विषय में ज्ञात करते है । हर्षवर्धन के साथ पुलकेशिन् के युद्ध पर भी यह लेख प्रकाश डालता है साहित्य की दृष्टि से भी इसका महत्व है ।

इसकी रचना कालिदास तथा भारवि की काव्य शैली पर की गयी हैं । प्रशस्ति के अन्त में लेखक ने यह दावा किया है कि उसने इसे लिखकर कालिदास तथा भारवि के समान यश प्राप्त किया है । ऐहोल के अतिरिक्त कुछ अन्य लेख भी मिलते हैं जो चालुक्यों के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

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i. बादामी के शिलालेख:

यह बादामी के किले में एक शिलाखण्ड के ऊपर खुदा हुआ है । इसकी खोज 1941 ईस्वी में हुई थी । इसमें शक संवत् 465 अर्थात् 543 ईस्वी की तिथि अंकित है । इसमें ‘बल्लभेश्वर’ नामक चालुक्य शासक का उल्लेख मिलता है जिसने बादामी के किले का निर्माण करवाया था तथा अश्वमेध आदि यश किये थे । इसकी पहचान पुलकेशिन् प्रथम से की जाती है ।

ii. महाकूट का लेख:

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यह स्थान बीजापुर जिले में स्थित है । इस लेख की तिथि 602 ईस्वी है । इसमें चालुक्यवंश की प्रशंसा की गयी है तथा उसके शासकों की बुद्धि, बल, साहस तथा दानशीलता का उल्लेख हुआ है । कीर्त्तिवर्मन् प्रथम की विजयों का विवरण इससे ज्ञात होता है ।

iii. हैदराबाद दानपत्राभिलेख:

यह शक संवत् 534 अर्थात 612 ईस्वी का है । यह तिथि पुलकेशिन् द्वितीय के तीसरे वर्ष की है । इस लेख से पता चलता है कि उसने युद्ध में सैकड़ौं योद्धाओं को जीता तथा ‘परमेश्वर’ की उपाधि ग्रहण किया था ।

उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त कर्नूल, तलमंचि, नौसारी, गढ़वाल, रायगढ़, पट्टडकल आदि स्थानों से बहुसंख्यक ताम्रपत्र एवं लेख प्राप्त हुए है । इनसे चालुक्यों का काञ्चि के पल्लवों के साथ संघर्ष तथा पुलकेशिन् द्वितीय के बाद के शासकों की उपलब्धियों का विवरण प्राप्त होता है ।

iv. विदेशी विवरण:

लेखों के साथ-साथ चीनी यात्री हुएनसांग तथा ईरानी इतिहासकार तावरी के विवरणों से भी चालुक्य वश के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है । हुएनसांग ने पुलकेशिन् द्वितीय की शक्ति की प्रशंसा तथा उसके राज्य की जनता की दशा का वर्णन किया । ताबरी के विवरण से ईरानी शासक खुसरो द्वितीय तथा पुलकेशिन् द्वितीय के बीच राजनयिक सम्बन्धों की सूचना मिलती है ।

बादामी  का चालुक्य वंश का उत्पत्ति (Origin of Chalukya Dynasty of Badami):

चालुक्य वंश की उत्पत्ति के विषय में पर्याप्त मतभेद है । विंसेन्ट स्मिथ उनकी उत्पत्ति मध्य एशिया की चप जाति से मानते है जो गुर्जरों की एक शाखा थी । परन्तु ऐसा मानने का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है । कुछ इतिहासकार उनका सम्बन्ध उत्तरापथ की चुलिक जाति से जोड़ते हैं जो सोग्डियनों से सम्बन्धित थी ।

चालुक्यों की उत्पत्ति-सम्बन्धी विदेशी मत मान्य नहीं है । बादामी अभिलेख में इस वंश को हारिती-पुत्र तथा मानव्य गोत्रीय कहा गया है । कालान्तर में चालुक्य शासक अपने को चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि चालुक्य स्वदेशी क्षत्रिय ही थे । चीनी यात्री हुएनसांग ने भी इस वश के शासक पुलकेशिन् द्वितीय को क्षत्रिय बताया है ।

डी॰सी॰ सरकार की मान्यता है कि चालुक्य कन्नड़ कुल से संबंधित थे तथा इस वंश का संस्थापक चत्क अथवा चलुक था । नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार इस राजवंश का मूल नाम ‘चल्क्य’ था । इसी में श्रुतिमाधुर्य के लिए एक स्वर जोड़ देने से चलुक्य बना ।

बाद में इसी के चालुक्य, चौलुक्य रूप हो गये । ऐसा प्रतीत होता है कि चुटुशातकर्णि, कदम्ब, राष्ट्रकूट आदि के समान चालुक्य भी किसी स्थानीय कुल से संबंधित थे । वे प्रारम्भ में कदम्ब राजाओं की अधीनता में कार्य करते थे । क्रमश: अपनी शक्ति बढ़ाकर उन्होंने राजनीतिक प्रभुता प्राप्त कर लिया ।

बादामी  का चालुक्य वंश का राजनैतिक इतिहास (Political History of Chalukya Dynasty of Badami):

i. पुलकेशिन् प्रथम:

बादामी के चालुक्य वंश का संस्थापक पुलकेशिन् प्रथम नामक व्यक्ति था । महाकूट अभिलेख में उसके पूर्व दो शासकों-जयसिंह तथा रणराग के नाम मिलते हैं परन्तु उनके शासन-काल के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि वे कदम्ब शासकों की अधीनता में बादामी में शासन करते थे ।

चालुक्य वंश के प्रारंभिक लेखों में तो जयसिंह की किसी भी उपलब्धि का उल्लेख नहीं है किन्तु बाद के कुछ लेख इसका विवरण देते है । जगदेकमल्ल के दौलताबाद लेख के अनुसार जयसिंह ने कदम्ब वश के ऐश्वर्य का अन्त किया ।

कल्याणी के चालुक्यों के कैथोम लेख का कथन है कि उसने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण एवं उसके पुत्र इन्द्र को पराजित किया था । किन्तु ये विवरण अलंकारिक लगते है । वस्तुत: जयसिंह की स्थिति सामन्त जैसी थी । उसके उत्तराधिकारी रणराग के विषय में तो हमें कोई सूचना नहीं मिलती । दुर के लेख में उसे चीर शासक कहा गया है । वह भी अपने पिता के समान कदम्बों के अधीन कोई स्थानीय अधिकारी रहा होगा ।

वातापी के चालुक्यों को सामन्त-स्थिति से स्वतंत्र स्थिति में लाने वाला पहला शासक पुलकेशिन् प्रथम था । वह रणराग का पुत्र तथा उत्तराधिकारी हुआ । इसका उल्लेख पोलिकैशिन्, पीलेकेशिन, पुलिकैशिन् आदि नाम में भी हुआ है । उसने वातापी में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया तथा उसे अपनी राजधानी बनायी । उसने वातापी के आस-पास के क्षेत्र को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया ।

ऐहोल लेख में उसके वातापी के ऊपर अधिकार तथा अश्वमेध यज्ञ करने का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि वातापी का दुर्गीकरण करवाकर तथा उसके समीपवर्ती भागों पर अधिकार कर उसने कदम्बों की अधीनता से अपने को मुक्त कर दिया तथा अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा अपनी प्रभुसत्ता को घोषित किया । इस प्रकार चालुक्य राज्य का वास्तविक संस्थापक पुलकेशिन् प्रथम ही था ।

अपनी महानता के अनुरूप पुलकेशिन् प्रथम ने सत्याश्रय तथा रणविक्रम जैसी उपाधियों धारण कीं । उसे श्रीपृथ्वीवल्लभ अथवा श्रीवल्लभ भी कहा गया है । उसने अश्वमेध, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया तथा वह मनुस्तृति, इतिहास, पुराण, रामायण, महाभारत आदि का गाता था । उसकी तुलना ययाति, दिलीप आदि पौराणिक शासकों से की गयी है ।

महाकूट अभिलेख में उसकी तुलना विष्णु से करते हुए उसे पूद्धी की राय मानने वाला तथा ब्राह्मणों का आदर करने वाला बताया गया है । उसका विवाह बटपुर परिवार की कन्या दुलभदेवी के साथ आ था । पुलकेशिन् प्रथम ने 535 ईस्वी से 566 ईस्वी तक राज्य किया । बादामी से 543 ई॰ का उसका एक लेख मिला ।

ii. कीर्त्तिवर्मन् प्रथम:

पुलकेशिन् के दो पुत्र थे- कीर्त्तिवर्मन प्रथम तथा मंगलेश । उसकी मृत्यु के बाद कीर्तिवर्मन प्रथम (566-67-597-98 ई॰) शासक बना । उसने के पैतृक साम्राज्य को और अधिक किया । उसके पुत्र पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल अभिलेख से पता चलता है कि उसने वनवासी के कदम्ब, कोंकण के तथा बल्लरी-कर्नूल क्षेत्र के नलवंशी शासकों को पराजित कर उनके राज्यों को जीत लिया था ।

इस लेख के अनुसार ‘वह नलों, मौर्यों तथा कदम्बों के लिये कालरात्रि के समान था । वह परस्त्री से विमुख हो गया था तथापि शत्रु की राजलक्ष्मी ने उसे आकर्षित किया । अपने पराक्रम से उसने विजयश्री को प्राप्त किया । मदमस्त हाथी के समान उसने कदम्ब वश को कदम्ब वृक्ष की भाँति उखाड़ फेंका ।’

इससे स्पष्ट है कि उसकी सबसे महत्वपूर्ण विजय कदम्बों को जीतना थी । उसके द्वारा जीता गया कदम्ब शासक संभवत अजयवर्मा था । कदम्बों की राजधानी वनवासी पर उसने अधिकार कर लिया । नलवंश के लोग संभवत: नलवाड़ी में शासन करते थे जो आधुनिक वेल्लारी तथा कर्नूल जिलों की भूमि में फैला हुआ था ।

इस वंश का एक लेख बस्तर (म॰ प्र॰) की सीमा पर स्थित पीड़ागढ़ नामक स्थान से मिला है । इससे सूचित होता है कि पाँचवीं शती के अन्तिम चरण में इस वंश को अनेक ध्वसात्मक परिवर्तन झेलने पड़े थे । सम्भव है इसका सकेत चालुक्यी के आक्रमण से ही हो । मौर्यों का कोंकण प्रदेश पर शासन था ।

उनकी राजधानी पुरी (एलीफैन्टा के समीप स्थित धारापुरी) को ‘पश्चिमी समुद्र की लक्ष्मी’ कहा गया है । कोंकण विजय के फलस्वरूप उसका गोवा पर अधिकार हो गया जिसे उस समय रेवति द्वीप कहा गया था । ऐहोल लेख में कहा गया है कि कीसिवर्मन् ने कदम्बों के एक संघ को भंग कर दिया था ।

इस संघ में कदम्बों के अतिरिक्त गंग तथा सेन्द्रक वंशों के शासक सम्मिलित थे । मंगलेश के महाकूट अभिलेख में कीर्त्तिवर्मन् को वंग, अंग, कलिंग, मगध, मद्रक, केरल, गंग, मूषक, पाण्ड्य, चोलिय, वैजयन्ती आदि के राजाओं को पराजित करने का श्रेय प्रदान किया गया है परन्तु यह विवरण मात्र अतिश्योक्ति है ।

नल, मौर्यों तथा कदम्बों आदि को जीतकर चालुक्य सत्ता का चतुर्दिक् विस्तार कर दिया । उसके विस्तृत साम्राज्य में आधुनिक महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेशों के भूभाग सम्मिलित थे । अपनी महानता के अनुरूप उसने भी सत्याश्रय, पृथ्वीवल्लभ आदि उपाधियाँ ग्रहण कीं तथा वैदिक यश किये । उसे त्रातापी का प्रथम निर्माता कहा गया है जिससे स्पष्ट होता है कि उसने इस नगर को सुन्दर मन्दिरों तथा भवनों से सजाया था ।

iii. मंगलेश:

कीर्तिवर्मन् प्रथम की मृत्यु के समय उसका पुत्र पुलकेशिन् द्वितीय अवयस्क था । अत: उसके छोटे भाई मंगलेश ने पुलकेशिन् के संरक्षक के रूप में चालुक्य शासन की वागडोर सम्हाली । वह भी एक महत्वाकांक्षी शासक था जिसने कीर्त्तिवर्मन् की विस्तारवादी नीति को जारी रखा ।

मंगलेश के नेनूर दानपत्र तथा महाकूट स्तम्भलेख से पता चलता है कि उसने कलचुरि शासक बुद्धराज पर आक्रमण किया । बुद्धराज गुजरात, खानदेश तथा मालवा में शासन करता था । कलचुरि नरेश युद्ध में पराजित हुआ ।

महाकूट लेख के अनुसार ‘मंगलेश ने उत्तर भारत की विजय की इच्छा से सर्वप्रथम बुद्ध को पराजित कर उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया । तत्पश्चात् विजय का धर्मस्तम्भ स्थापित करने के निमित्त उसने अपनी माता से आज्ञा ली तथा मुकुटेश्वरनाथ के मन्दिर में दान दिये । यहाँ ‘बुद्ध’ से तात्पर्य कलचुरि नरेश बुद्धराज से ही है । नेरुर दानपत्र से पता चलता है कि बुद्धराज के पास गज, अश्व, पैदल सेना तथा सम्पत्ति थी किन्तु वह मंगलश द्वारा पराजित हुआ तथा भाग गया । इसी प्रकार ऐहोल लेख में कहा गया है कि मंगलेश ने कलचुरियों पर विजय प्राप्त की तथा ‘उसके घुड़सवार सेना के चलने से इतनी अधिक धूल उठी कि वह पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रों तक छा गयी ।’

किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह आक्रमण एक धावा मात्र था और यद्यपि उसे लूट का बहुत-सा धन प्राप्त हुआ तथापि चालुक्य-राज्य की सीमा में बहुत कम वृद्धि हुई । बुद्धराज ने पुन अपनी खोई हुई शक्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली क्योंकि उसके लेखों से पता चलता है कि इस आक्रमण के तत्काल वाद अर्थात् 609-10 ईस्वी के लगभग वह पूर्ण राजकीय ऐश्वर्य एवं वैभव के साथ शासन कर रहा था ।

मंगलेश को दूसरी सफलता कोंकण प्रदेश में मिली । इसकी राजधानी रेवती द्वीद थी । पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल लेख, परवर्ती चालुक्य लेखों तथा मंगलेश के नेरुर दानपत्र से इस सफलता की सूचना मिलती है । ऐहोल लेख में वर्णित है कि विजय की इच्छा रखने वाले खगलेश ने पताकाओं से युक्त अपनी सेना द्वारा रेवती द्वीप को चारों ओर से घेर लिया था ।

चमकती हुई पताकाओं की परछाई के समुद्र में पड़ने पर ऐसा लगता था मानों उसकी आज्ञा पाकर वरुण की सेना तत्काल चली आई हो । परवर्ती चालुक्य लेखों से पता चलता है कि मंगलेश की सेना अत्यन्त विशाल थी और वह समस्त द्वीपों पर अधिकार कर सकने में समर्थ था । उसकी सेना ने नावों का एक पुल पार कर रेवती द्वीप पर आक्रमण किया था ।

नेरुर दानपत्र से सूचित होता है कि मंगलेश ने चालुक्यवंश के किसी स्वामिराज को, जो अठारह युद्धों का विजेता था, मार डाला था । यह स्वामिराज कीर्त्तिवर्मा द्वारा रेवतीद्वीप में नियुक्त किया गया उपराजा (गवर्नर) था जिसने संभवत: मंगलेश के राजा बनने पर विद्रोह कर दिया ।

मंगलेश ने सफलतापूर्वक इस विद्रोह को कुचल दिया । स्वामिराज मारा गया तथा मंगलेश ने अपनी ओर से ध्रुवराज इन्द्रवर्मा को रेवतीद्वीप का उपराजा बना दिया । इस प्रकार कोंकण प्रदेश में उसने अपनी सत्ता पुन सुदृढ़ कर लिया ।

मंगलेश वैष्णव धर्मानुयायी था तथा उसे चरमभागवत कहा गया है । मंगलेश ने रणविछगन्त, श्रीपृथ्वीवल्लभ जैसी उपाधियाँ ग्रहण कीं । वह महान् निर्माता भी था । उसने बादामी के गुहा-मन्दिर का निर्माण पूरा करवाया जिसका प्रारम्भ कीर्तिवर्मा के समय में हुआ था । इसमें भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित की गयी थी ।

इस अवसर पर मंगलेश ने प्रभूत दान वितरित किया । किन्तु वह धर्मसहिष्णु था और उसने मुकुटेश्वर के शैव मन्दिर को भी दान दिया था । लेखों में उसकी दानशीलता, विद्वता एवं चरित्र की काफी प्रशंसा की गयी है । इस प्रकार मंगलेश एक महान् विजेता तथा साम्राज्य-निर्माता था जिसके समय में चालुक्यों की शक्ति  एवं प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई ।

किन्तु मंगलेश का उदात्त चरित्र एवं उसकी निर्मल प्रतिष्ठा उसके जीवन के अन्तिम दिनों के आचरण से कलंकित हो उठी । इस सम्बन्ध में हमारी जानकारी का एकमात्र साधन ऐहोल का लेख है । इससे पता चलता है कि ‘उसके बड़े भाई के पुत्र, पुलकेशिन्, जो नहुष के समान उदार था तथा जिसकी अभिलाषा लक्ष्मी भी करती थी, ने जब देखा कि इस कारण उसका चाचा उससे ईर्ष्या रखता है तो उसने देश छोड़ देने का निश्चय किया । किन्तु उसने मंत्र तथा उत्साह शक्ति से सभी ओर से मगलेश को निर्वल कर दिया जिसके फलस्वरूप मंगलेश को इन तीनों चीजों-अपने पुत्र को राज्य साँपने के प्रयत्न, विशाल राज्य तथा अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा ।’

इस विवरण से स्पष्ट है कि मंगलेश के शासन के अन्त में उरमें तथा उसके भतीजे पुलकेशिन् द्वितीय के बीच गृह-युद्ध छिड़ा । ऐहोल अभिलेख से पता चलता है कि पुलकेशिन् के वयस्क होने पर भी मंगलेश उसे शासन साँपने को प्रस्तुत नहीं था और वह अपने पुत्र को राजा बनाना चाहता था तथा संभवत: उसने अपने पुत्र को ‘युवराज’ बना भी दिया ।

इसके फलस्वरूप पुलकेशिन् को अपने अधिकार से वंचित होना पड़ा । पुलकेशिन् ने अपने चाचा का राज्य छोड़कर अन्यत्र शरण ली तथा कुछ समय पश्चात् शक्ति जुटा कर उसने मंगलेश पर आक्रमण कर दिया । इस प्रकार इस पुन्द्व में मंगलेश मार डाला गया तथा अन्तत पुलकेशिन् द्वितीय ने अपने सभी विरोधियों को परास्त कर राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया । इस प्रकार मंगलेश का अन्त दुखद रहा । मंगलेश ने 597-98 ई॰ से 610 ई॰ तक राज्य किया ।

iv. पुलकेशिन् द्वितीय:

चालुक्य वश के शासकों में वह सर्वाधिक योग्य तथा शक्तिशाली था । अपने चाचा मंगलेश तथा उसके समर्थकों की हत्या कर वह 609-10 ई॰ में वातापी के चालुक्य वंश की गद्दी पर बैठा । पुलकेशिन् द्वितीय और मंगलेश के बीच होने वाले गृहयुद्ध के परिणामस्वरूप चालुक्य राज्य में चारों ओर अराजकता और अव्यवस्था फैल गयी । जिस समय पुलकेशिन् राजा बना उसके सभी ओर विपत्ति के बादल मँडरा रहे थे ।

ऐहोल लेख में कहा गया है कि चव पुलकेशिन् ने मंगलेश का छत्र भंग किया, तब संसार अरिकुल के अधकार से ढँक गया । स्थानीय सामन्तों ने अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी । यहाँ तक कि चालुक्य राज्य की राजधानी वातापी पर आध्यायिक तथा गोविन्द नामक दो शासकों ने आक्रमण करने की योजना बनाई और वे भीमरथी नदी के उत्तरी तट तक बढ़ आये । परन्तु सौभाग्य से पुलकेशिन् द्वितीय में वे सभी गुण विद्यमान थे जो तत्कालीन परिस्थितियों से निपटने के लिये आवश्यक होते ।

उसके सामने दो तात्कालिक उद्देश्य थे:

(a) अपने गृह-राज्य की बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना ।

(b) स्वाधीन हुए सामन्तों को पुन अपनी अधीनता में लाना ।

पुलकेशिन् ने अत्यन्त कुशलता के साथ इन दोनों ही उद्देश्यों को पूरा किया । उसने न केवल अपने पैतृक साम्राज्य में अपना नियंत्रण सुदृढ़ किया अपितु अनेकानेक विजयी के द्वारा उसका चतुर्दिक् विस्तार भी किया ।

पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियाँ:

पुलकेशिन् की उपलब्धियों का विवरण हमें ऐहोल लेख से प्राप्त होता है जो एक प्रशस्ति के रूप में है । सर्वप्रथम उसने भीमरथी नदी के उत्तर में आप्पायिक को परास्त किया तथा उसके सहयोगी गोविन्द को अपनी ओर मिला लिया ।

संभवत: ये दोनों दक्षिणी महाराष्ट्र के स्थानीय शासक थे जिन्होंने तत्कालीन परिस्थिति का लाभ उठाकर अपनी शक्ति आजमाने का प्रयास किया था । इन दोनों को परास्त कर पुलकेशिन् ने राजधानी में अपनी स्थिति मजबूत कर ली । तत्पश्चात् उसने अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया ।

कदम्ब राज्य की विजय-पुलकेशिन् का सबसे पहले कदम्बों के साथ संघर्ष हुआ । कदम्बों के राज्य पर कीर्त्तिवर्मा के समय में ही चालक्यों का अधिकार हो गया था । ऐसा प्रतीत होता है कि मंगलेश तथा पुलकेशिन् के बीच हुए गृहयुद्ध से चालुक्य राज्य में जो राजनैतिक अव्यवस्था फैली उसका लाभ उठाते हुए कदम्बों ने अपने को चालुक्यों की अधीनता से मुक्त कर दिया ।

अत: पुलकेशिन् ने कदम्बों पर आक्रमण कर उसकी सेना ने बनवासी नगर को घेर लिया । ऐहोल लेख से पता चलता है कि वनवासी को ध्वस्त कर दिया गया । लेख में इस घटना का काव्यात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा गया है कि त्रनवासी का वैभव इन्द्रपुरी के समान था और वरदा नदी की ऊँचे तरंगों पर कूजते हंसों की मेखला उसकी शोभा बढ़ाती थी ।

जब पुलकेशिन् की सेना रूपी समुद्र द्वारा चारों ओर से घेरा गया तो वनवासी का भूमिदुर्ग समुद्र में एक टापू की भाँति दिखाई देने लगा । इस प्रकार यह अभियान पूर्णतया सफल रहा तथा कदम्ब राज्य पर पुलकेशिन् का अधिकार हो गया ।

यह वात इस तथ्य से भी सिद्ध हो जाती है कि इसी समय के आस-पास कदम्बवंश के शासक इतिहास से ओझल हो जाते है । कदम्ब राज्य की स्वतंत्रता का अन्त हुआ तथा इसे चालुक्य राज्य में मिला लिया गया । पुलकेशिन् ने कदम्ब राज्य को अपने सामन्तों-आलुपों तथा सेन्द्रकों-में बाँट दिया ।

तप तथा गंग-कदम्बों को जीतने के द्वारा पुलकेशिन् ने आलुपों तथा गंगों के विरुद्ध अभियान किया । ऐहोल लेख के अनुसार ‘उसने आलुपों तथा गंगों को अपनी आसन्न सेवा का अमृतपान कराया था ।’ आलुप दक्षिणी कब्रड़ जिसे ये शासन करते थे । गंगों से तात्पर्य तलकांड के र्पाश्चमी गंगों से है जिनका राज्य भागवाह्मि नाम से जाना जाता है ।

आलुप संभवत: कदम्बों के सामन्त थे तथा कदम्बों की पराजय के बाद उन्होंने पुलकेशिन् की अधीनता स्वीकार कर ली । जित अनुप शासक कुन्दवर्म्मरस था । इसके वाद पुलकेशिन् ने गंगनरेश दुर्वीनीत को भी अपनी अधीनता मानने के लिये मजबूर कर दिया । उसने अपनी पुत्री का विवाह पुलकेशिन् के साथ कर दिया ।

कोंकण प्रदेश की विजय-अनुप तथा गंगों को जीतने के उपरान्त पुलकेशिन् ने कोंकण प्रदेश पर आक्रमण किया । यहाँ मौर्यों का शासन था वे बड़ी आसानी से परास्त कर दिये गये । तत्पश्चात पुलकेशिन् ने उनकी राजधानी पुरी (धारापुरी), जिसे ‘पश्चिमी समुद्र की लक्ष्मी’ कहा गया है, के ऊपर सैकड़ों नौकाऔं के साथ आक्रमण किया ।

लेख में कहा गया है कि ये नौकायें मदमस्त हाथियों की भांति दिखाई दे रही थीं । पुरी की पहचान बम्बई के समीप एलिफैन्टा द्वीप पर स्थित ‘धारापुरी’ से की जाती है । यह उस समय का प्रसिद्ध समुद्री बन्दरगाह था । पुलकेशिन् ने वहाँ अपना अधिकार कर लिया ।

लाट, मालव तथा गुर्जर प्रदेश:

ऐहोल लेख से पता चलता है कि पुलकेशिन् ने लाट, मालव तथा गुर्जर प्रदेशों को भी जीत लिया था । लाट राज्य, दक्षिणी गुजरात में स्थित था । इसकी राजधानी नवसारिका (बड़ौदा स्थित नौसारी) में थी । वहाँ अधिकार करने के बाद पुलकेशिन् ने अपने वश के ही किसी व्यक्ति को लाट प्रदेश का शासक नियुक्त कर दिया । ऐहोल लेख मालवा को भी पुलकेशिन के अधीन मानता है ।

किन्तु नीलकंठ शास्त्री इसे स्वीकार नहीं करते । उनके अनुसार इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मालवा कभी पुलकेशिन् के अधीन था । गुर्जर संभवत: भड़ौच के गुर्जरों से संबंधित थे जिनका राज्य किम तथा माही नदियों के बीच स्थित था । इस विजय के परिणामस्वरूप पुलकेशिन् द्वितीय के साम्राज्य की उत्तरी सीमा माही नदी तक जा पहुँची ।

हर्ष में युद्ध:

जिस समय पुलकेशिन् द्वितीय दक्षिणापथ में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था उसी समय उत्तरी भारत में हर्षवर्धन अनेक राजाओं को जीतकर अपनी अधीनता में करने में व्यस्त था हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा नर्मदा नदी तक जा पहुंची ।

ऐसी स्थिति में दोनों नरेशों के बीच संघर्ष अवश्यंभावी हो गया । फलस्वरूप हर्ष और पुलकेशिन के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ जिसमें हर्ष की पराजय हुई ।

इस युद्ध के विषय में दो प्रमाण मिलते हैं: 

(1) पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल से प्राप्त अभिलेख जिसके अनुसार अपार ऐश्वर्य द्वारा पालित सामन्तों की मुकुट मणियों की आभा से आच्छादित हो रहे थे चरण कमल जिसके, युद्ध में हाथियों की सेना के मारे जाने के कारण जो भयानक दिखाई दे रहा था । ऐसे हर्ष के आनन्द को उसने (पुलकेशिन् ने) भय से विगलित कर दिया ।

(2) हुएनसांग का यात्रा-विवरण जिसके अनुसार अपने राज्यारोहण के बाद लगातार छ: वर्षों तक हर्ष ने अनेक युद्ध किये । उसने कई शक्तियों को पराजित किया । परन्तु ‘मो-हो-ल-च-अ’ अर्थात् महाराष्ट्र का शासक बड़ा वीर और स्वाभिमानी था । उसने हर्ष की अधीनता नहीं पानी । यहाँ चीनी यात्री ने जिस राजा का उल्लेख किया है उससे स्पष्टत: तात्पर्य पुलकेशिन् से ही है ।

‘जीवनी’ से पता चलता है कि ‘राजा शीलादित्य अपने सेनानायकों की अचूक सफलता तथा अपने कौशल पर गर्व करते हुए आत्मविश्वास के साथ स्वयं सेना का नेतृत्व सम्हालते हुए इस राजा से लड़ने के लिये गया । किन्तु वह उसे पराजित अथवा अधीन चनाने में असफल रहा, यद्यपि उसने पचभारत से सेना तथा सभी देशों के सर्वश्रेष्ठ सेनानायकों को एकत्रित किया था ।’ यह पुलकेशिन् द्वितीय की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण उपलब्धि थी ।

यहाँ उल्लेखनीय है कि कुछ विद्वान् पुलकेशिन् द्वितीय द्वारा हर्ष की पराजय की वात स्वीकार नहीं करते । उनके अनुसार ऐहोल लेख के रचयिता रविकीर्ति का विवरण एकांगी है । हुएनसांग के कथन से मात्र यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हर्ष पुलकेशिन् को अपने अधीन नहीं कर सका तथा उसने दक्षिण की ओर उसका प्रसार रोक दिया ।

सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि तत्कालीन भारत के इन दो महान् राजाओं के बीच होने वाला यह अकेला अथवा अन्तिम युद्ध नहीं था । उनके संघर्ष बाद में भी जारी रहे तथा 643 ई॰ में हर्ष का कोंगोद पर आक्रमण पुलकेशिन् के विरुद्ध उसकी एक मोर्चावन्दी थी इसे जीतकर हर्ष ने अपनी पुरानी पराजय का बदला चुकाया तथा पुलकेशिन् के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया । हर्ष और पुलकेशिन् के बीच युद्ध की तिथि के विषय में पर्याप्त मतभेद है । फ्लीट जैसे कुछ विद्वान् इस युद्ध की तिथि 612 ईस्वी अथवा इसके कुछ पूर्व मानते हैं ।

उनके तर्क इस प्रकार हैं:

(1) पुलकेशिन् के हैदराबाद के दान-पत्र से पता चलता है कि उसने अनेक युद्धों के विजेता एक शासक को जीतकर ‘परमेश्वर’ नाम धारण किया था । इस लेख की तिथि 613 ईस्वी है । इसमें उसके जिस शत्रु का उल्लेख हुआ है उससे तात्पर्य हर्षवर्द्धन से ही है । अत: यह युद्ध 613 ईस्वी के पहले हुआ होगा ।

(2) हुएनसांग के अनुसार हर्ष 612 ईस्वी तक अपना सारा युद्ध समाप्त कर चुका था । इससे ऐसा प्रतिपादित होता है कि 612 ईस्वी तक वह पुलकेशिन् में भी लड़ चुका था ।

परन्तु ये तर्क निर्बल है तथा इनकी समीक्षा हम इस प्रकार कर सकते हैं:

(i) हैदराबाद दान-पत्र में जिस शत्रु-शासक का उल्लेख है वह हर्ष नहीं हो सकता । यदि उसका तात्पर्य हर्ष से होता तो उसके नाम का उल्लेख अवश्य ही अभिलेख में किया गया होता । पुलकेशिन् का राज्याभिषेक 610 ईस्वी में हुआ था । इसके पूर्व उसे अपने चाचा मंगलेश के साथ उत्तराधिकार का युन्द्व लड़ना पड़ा था । इसके बाद भी दक्षिण की कई प्रबल शक्तियों से उसका युद्ध चलता रहा । उसकी प्रारम्भिक स्थिति सुदृढ़ नहीं थी ।

अत: राजा होने के दो ही वर्षों में वह हर्ष जैसे प्रबल शत्रु का सामना कर सकने में सक्षम नहीं था । पुलकेशिन् की ‘परमेश्वर’ की उपाधि का हर्ष को विजय से कोई सम्बन्ध नहीं है । ऐहोल के लेख में भी उसकी ”परमेश्वर” उपाधि उल्लिखित नहीं मिलती ।

(ii) हुएनसांग के विवरण के आधार पर हर्ष के युद्धों का कालक्रम निश्चित करना तर्कसंगत नहीं है । मा-त्वान्-लिन् के अनुसार हर्ष ने 618 से 627 ईस्वी तक कई युद्ध किये ।

अल्तेकर का विचार है कि हर्ष पुलकेशिन् युद्ध 630 से 634 ईस्वी के बीच कभी हुआ था । इसका पहला कारण तो यह है कि बलभी का युद्ध 630 ईस्वी के पहले नहीं हो सकता और यह युद्ध उसी का परिणाम था । पुनश्च पुलकेशिन् का 630 ईस्वी का लोहनारा से प्राप्त लेख उसके द्वारा पराजित जिन शत्रुओं का उल्लेख करता है उसमें हर्ष का नाम नहीं है । परन्तु 634 ईस्वीं का एहोल अभिलेख इस युद्ध बन उल्लेख करता है । ऐसी स्थिति में हम इस युद्ध की तिथि 630 ईस्वी से 634 ईस्वी के बीच ही रख सकते है ।

त्रिमहाराष्ट्रनों पर अधिकार-ऐहोल लेख के अनुसार उसने त्रिमहाराष्ट्रकों’ पर अधिकार कर लिया था जिसमें  99000 ग्राम थे । लेख के अनुसार उच्चकुलोत्पत्न, गुणों से पूर्ण धर्ममार्ग से प्राप्त प्रभुशक्ति, मत्रशक्ति एवं उत्साहशक्ति से विभूषित इन्द्र के समान पुलकेशिन् ने निन्यानवे हजार गांवों वाले तीन महाराष्ट्रों का आधिपत्य प्राप्त कर लिया ।

तीन महाराष्ट्रकों का समीकरण सुनिश्चित नहीं है । सरकार महोदय के अनुसार इनसे तात्पर्य महाराष्ट्र, कोंकण तथा कर्नाटक के प्रदेशों से हो सकता है । नीलकण्ठ शास्त्री का विचार है कि संभवत: ये ग्राम नर्मटा तथा ताप्ती नदियों के बीच के भूभाग में फैले हुए थे ।

पूर्वी दकन की विजय:

तीन महाराष्ट्रकों पर अधिकार करने के वाद पुलकेशिन् ने अपने छोटे भाई विष्णुवर्धन को ‘युवराज’ बनाया तथा उसके ऊपर अपनी राजधानी का भार सौंपकर वह पूर्वी दक्खिन की विजय के लिये चल पड़ा । सर्वप्रथम दक्षिणी कोशल तथा कलिंग ने उसकी अधीनता स्वीकार की । दक्षिणी कोशल तथा कलिंग के राजाओं के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है ।

पुलकेशिन् के आक्रमण के समय दक्षिणी कोशल का राज्य पाण्ड्यवंश के अधीन था । सरकार ने यही के राजा का नाम बालार्जुन शिवगुप्त बताया है । कलिंग में इस समय गंगवंश की कोई शाखा शासन करती थी । इन दोनों राज्यों के शासकों ने पुलकेशिन् की शक्ति से डरकर उसके सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया था ।

तत्पश्चात् पुलकेशिन् की विजयिनी सेना ने आन्ध्रप्रदेश में स्थित पिप्टपुर पर आक्रमण किया । यह स्थान -देंगी क्षेत्र में पड़ता था । वहाँ विष्णुकुण्डिन वश का शासन था । कुनाल कोलर झील के तट पर एक कड़े मुकाबले के बाद उसने विष्णुकुन्डिनों की शक्ति का विनाश किया ।

यह पुन्द्व इतना भयानक था कि ऐहोल लेख में कहा गया है कि न्दुंद्ध में मारे गये सैनिकों के खून से झील का पानी लाल हो गया था । ‘ विष्णुकुन्डिनों का आध में एक शक्तिशाली राज्य था तथा संभवत: कलिंग और दक्षिणी कोशल के राज्य भी उनकी अधीनता स्वीकार करते थे ।

पुलकेशिन् ने इस राज्य पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया । मारुटूर लेख से पता चलता है कि आन्ध्र प्रदेश को उसने कई भागों में विभाजित कर वहाँ अपने सामन्तों की नियुक्ति की थी । इसके वाद कान्ची के पल्लवों के साथ उसका संघर्ष हुआ ।

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