ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में किसानों की असंतोष। | Read this article in Hindi to learn about the discontentment of farmers in India during British rule.
1857 के बाद के भारत में हमें सबसे पहले तो उपनिवेशी शासन के विभिन्न उत्पीड़क पक्षों के विरुद्ध प्रतिरोध के कुछ पिछले रूपों की निरंतरता दिखाई देती है । आदिवासी और किसान आंदोलन इनमें सबसे प्रमुख थे ।
लेकिन इन बाद के आंदोलनों ने कुछ नई विशेषताएँ भी ग्रहण कीं । पहले तो हमें इस काल में आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों तरह के किसानों, में उपनिवेशी नीतियों संस्थाओं और कानूनों की अधिक समझ दिखाई देती है । इससे भी अहम बात यह है कि इनमें से कुछ ने अपने क्रोध को व्यक्त करने या मौजूदा अन्यायों का प्रतिकार करने के लिए एक विस्तृत और वैध क्षेत्र के रूप में उन्हीं संस्थाओं को अपनाया जैसे अदालतों को ।
दूसरी अहम विशेषता दुखी किसान वर्ग के प्रवक्ताओं के रूप में शिक्षित मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की बढ़ती भूमिका थी; इनसे उनके प्रतिरोधों को नए आयाम मिले और उनके आंदोलन उपनिवेशी शासन के कुछ अवांछित पक्षों के विरुद्ध जारी एक वृहत्तर हलचल के अंग बने ।
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किसान आंदोलनों में इस बाहरी हस्तक्षेप की प्रकृति एक तीखी बहस का विषय रही है । एक ओर रवींदर कुमार का मानना यह है कि जिन दिनों परंपरागत माध्यम और तरीके अप्रभावी सिद्ध हो चुके थे उन दिनों ”ग्रामीण समाज और प्रशासन के बीच संवाद के एक माध्यम के रूप में” इन मध्यवर्गीय नेताओं ने एक अहम और कारगर भूमिका निभाई ।
दूसरी ओर उन्नीसवीं सदी में किसानों के प्रति मध्यवर्ग के रवैये को रणजीत गुहा ने ”एक विरासत में मिली भारतीय तर्ज की संरक्षक-वृत्ति और एक अर्जित पश्चिमी तर्ज के मानववाद का अजीबोगरीब घालमेल” कहा है ।
हर चरण में उनके कामों ने उनकी अंतर्जात सहयोगमूलक सोच का पता दिया और ”निरंकुशता के अवरोधक के रूप में उदारवाद की व्यर्थता” को उद्घाटित किया । लेकिन इस मध्यवर्गीय मध्यस्थता की प्रकृति या प्रभाव चाहे जो हो यह फिर भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के लगभग सभी किसान आंदोलनों की एक नई विशेषता थी ।
बंगाल में 1859-60 का नील विद्रोह उन प्रमुख घटनाओं में एक था जिनमें किसान आंदोलनों की पुरानी और नई विशेषताएँ एक समान नजर आती थीं । मध्य और पूर्वी बंगाल में नील की खेती के उत्पीड़क पक्ष लंबे समय से किसान प्रतिरोध के निशाना रहे ।
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बाड़ासात में 1832 में तीतू मीर के अनुयायियों ने स्थानीय निलहों को खूब डराया । लगभग उन्हीं दिनों पूर्वी बंगाल में दूधू मियाँ के नेतृत्व में चले फराइजी आंदोलन के चुनिंदा निशानों में ये निलहे भी शामिल थे । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में निलहों का उत्पीड़न और बढ़ गया क्योंकि निर्यात की एक मद के रूप में नील का आर्थिक महत्व जाता रहा और यूनियन बैंक जो निलहों के लिए वित्त का प्रमुख स्रोत था 1847 में बैठ गया ।
उत्पीड़ित किसान कुछ समय तक निलहों के अत्याचार सहते रहे पर उनके रवैये तब बदल गए जब मई 1859 में किसानों से हमदर्दी रखनेवाले जॉन पीटर ग्रांट ने बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर का पद सँभाला और उससे प्रोत्साहन पाकर जिलों के कुछ न कि सब अधिकारियों ने किसानों का पक्ष लेना आरंभ कर दिया; उनकी समझ यह दवे कि निलहों के बलप्रयोग पर आधारित तरीके मुक्त व्यापार की भावना के विरुद्ध थे ।
नील के किसानों की उथल-पुथल 1859 के पतझड़ के मौसम में शुरू हुई जब उन्होंने नदिया, मुर्शिदाबाद और पबना जिलों में एक व्यापक क्षेत्र में निलहों से पेशगी रकमें लेने से मना कर दिया । जैसोर के किसान भी 1860 के वकत ऋतु में बुवाई के समय इस प्रतिरोध में शामिल हो गए; तब तक बंगाल का पूरा डेल्टा क्षेत्र इससे प्रभावित हो चुका था । निलहे साहबों के एजेंटों ने किसानों को नील बोने पर विवश करने की कोशिश की तो उनका कड़ा प्रतिरोध हुआ; उनके भारतीय कारिंदों का कभी-कभी संगठित सामाजिक बहिष्कार भी हुआ ।
स्थानीय जमींदार इन निलहों से चिढ़ते थे क्योंकि इन्होंने गाँवों में शक्ति के प्रमुख केंद्र के रूप में उनका स्थान हड़प लिया था । ये जमींदार भी अकसर रैयत से सहानुभूति रखते थे कभी-कभी उनका नेतृत्व भी इन्होंने किया पर जल्द ही स्थिति उनके नियंत्रण से बाहर हो गई ।
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कलकत्ता में निलहों के बौखलाए हुए समर्थकों ने मार्च 1860 में एक अस्थायी कानून बनवाया कि किसानों को नील बोने के अनुबंध के पालन पर मजबूर किया जा सके। अदालतों में ऐसे मुकदमों की भरमार हो गई और कुछ अति-उत्साही मजिस्ट्रेटो ने किसानों को इस घूणित फसल की खेती करने पर मजबूर किया ।
लेकिन ग्रांट ने इस कानून की सीमा को छह माह से आगे बढ़ाने संए इनकार कर दिया और मजिस्ट्रेटो को मना कर दिया कि वे नील की खेती के लिए किसानों को पेशगी लेने पर विवश न करें । किसान भी अपने मामले अदालतों में ले गए जो ऐसे मुकदमों से भर गए ।
इस चरण में आंदोलन एक लगानबंदी अभियान बन गया और निलहों ने जब अपने अवज्ञाकारी काश्तकारों को बेदखल करने की कोशिश की तो इन किसानों ने 1859 के लगान कानून दस (Rent Act X) के तहत अपने दखलदार रैयत वाले अधिकार मनवाने के लिए अदालतों की शरण ली ।
शिक्षित मध्यवर्गों और कुछ यूरोपीय मिशनरियों का हस्तक्षेप इस पूरे प्रसंग का एक और महत्त्वपूर्ण तत्त्व था । दीनबंधु मित्र ने सितंबर 1860 में अपना बंगला नाटक नील दर्पण प्रकाशित कराया जिसमें यथासंभव साहस के साथ निलहों के अत्याचारों को दिखाया गया था ।
सुप्रसिद्ध बंगला कवि माइकेल मधुसूदन दत्त ने इस नाटक का अंग्रेजी अनुवाद किया जिसे भारत और लंदन के उदारवादी राजनीतिक हलकों की जानकारी में लाने के लिए चर्च मिशनरी सोसायटी के रेवरेंड जेम्स लौंग ने प्रकाशित किया । इस कारण लौंग पर कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट में मानहानि का मुकदमा चला और एक माह की कैद के साथ 1000 रुपए का जुर्माना हुआ ।
उनकी सजा ने कलकत्ता के शिक्षित समुदाय को आगबबूला कर दिया; भारतीय प्रेस और खासकर हिंदू पैट्रियट और सोमप्रकाश ने नील के किसानों की माँगों को उठाया तथा ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन भी उनकी ओर हो गया ।
हालांकि इन लोगों ने साम्राज्यिक नौकरशाहों के उदारवादी राजनीतिक तत्त्वों से गुहार लगाई और इससे ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में उनकी अटूट आस्था का पता चलता था पर फिर भी ये मध्यवर्गीय समर्थक किसानों के मुद्दे को संस्थागत राजनीति के वृहत्तर क्षेत्र में लाने में सफल रहे और इससे निलहों पर सही व्यवहार के लिए दबाव बढ़ा 1863 तक यह आंदोलन समाप्त हो चुका था क्योंकि तब तक नील की खेती भी जो अपने पतन की शुरुआत होने से पहले ही एक सड़ी-गली चीज बन चुकी थी बंगाल में लगभग पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी ।
पर नील की खेती साम्राज्य के पिछवाड़े वाले भाग में जारी रही अर्थात् बिहार के ”अपेक्षाकृत दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्र” में जहाँ उत्पीड़न की यह व्यवस्था सरकार के किसी खास हस्तक्षेप के बिना जारी रही । 1859-60 की नील संबंधी उथल-पुथल के बाद इसमें लगा काफ़ी धन वास्तव में बंगाल से बिहार चला गया और वहाँ तब तक बढ़ता रहा जब तक 1898 में कृत्रिम नील नहीं बना लिया गया ।
मगर यह उद्योग बीसवीं सदी में भी जारी रहा और पहले विश्वयुद्ध के बाद उसका एक संक्षिप्त पुनरूत्थान तक हुआ । 1874 में और फिर 1907-08 में धनी या संपन्न किसानों के नेतृत्व में दरभंगा और चंपारण के नील के खेतिहरों के प्रतिरोध के उदाहरण भी सामने आए हैं । लेकिन निलहों और उनके लठैतों ने इन आंदोलनों को कुचल दिया और सरकार ने बस कभी-कभी मामूली से हस्तक्षेप किए जिनके कारण किसानों को कुछ सीमित रियायतें ही मिल सकीं ।
बंगाल में पूर्वी और मध्यवर्ती जिलों में किसानों की विद्रोह की भावना भड़क चुकी थी और यहाँ खासकर फ्रराइजी आंदोलन ने पहले से अधिक सदाचार के लिए एक नैतिक आधार तैयार कर दिया था । वहाँ उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में विरोध और प्रतिरोध का सिलसिला चलता रहा ।
अगली सबसे महत्त्वपूर्ण घटना पबना जिले के यूसुफशाही परगने में 1873 में एग्रेरियन लीग की स्थापना थी: यहाँ कुछेक नए जमींदारों का अत्याचार किसानों के सहने की सीमा से बाहर जा चुका था । इस क्षेत्र में गैर-कानूनी वसूलियों (अबवाब) के साथ-साथ लगान की दर बराबर चढ़ती आ रही थी ।
लेकिन किसानों की खास शिकायत उनके दखली अधिकारों को समाप्त करने के लिए जमींदारों के जोरदार प्रयासों के विरुद्ध थी; ये जमींदार लगातार बारह साल तक किसानों को एक ही भूखंड का पट्टा नहीं देते थे जिसके कारण वे कानून (1859 के लगान कानून दस) के तहत संरक्षण पाने के अधिकारी बन जाते थे ।
यह आंदोलन जिसे मुख्यत: संपन्न किसानों ने चलाया पर जिसे कमजोर किसानों की मदद भी मिली बड़ी सीमा तक अहिंसक और कानून के दायरे में रहा और ब्रिटिश न्याय व्यवस्था में उसकी गहरी आस्था रही । किसानों की आकांक्षा तो महारानी की सच्ची प्रजा बनना था; उन्होंने एग्रेरियन लीग की स्थापना जमींदारों को अदालतों में घसीटने के लिए पैसा जमा करने के लिए की; अदालतें तब लगान के मुकदमों से पटी पड़ी थीं ।
इससे भी बड़ी बात यह कि पबना का प्रयोग जल्द ही पूर्वी और मध्य बंगाल के दूसरे जिलों में दोहराया गया जहाँ जमींदारों ने अभी हाल में ऐसा कुछ शुरू किया था जिसे बिनय चौधुरी ने ”नशे में धुत जमींदारी” कहा है अर्थात जागीरों के प्रबंध में सभी नियमों का उल्लंघन लगान में मनमानी बढ़ोतरी गैर-कानूनी अबवाब की वसूली और संपन्न किसानों को दखली अधिकारों से वंचित करने के निरंतर प्रयास । ऐसी एग्रेरियन लीगें ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, बाकरगंज, फरीदपुर, बोगरा और राजशाही जिलों में बनीं जहाँ दीवानी अदालतें लगान के मुकदमों से भरी पड़ी थीं ।
हालांकि कुछ नेता हिंदू थे और सांप्रदायिक सद्भाव उल्लेखनीय था पर ऐसे क्षेत्र भी थे जहाँ फ्रराइजी आंदोलन के बहुत से अनुयायी थे और दूधू मियाँ के बेटे नया मियाँ स्वयं भी 1880 में मेहदीगंज में किसानों के संगठन में व्यस्त थे ।
इस आंदोलन के फलस्वरूप बंगाल के कृषि संबंधों का बहुत अधिक ध्रुवीकरण हुआ और बढ़ते तनाव के कारण शीघ्र ही 1885 में बंगाल टेनेंसी ऐक्ट पारित करना पड़ा । इसमें उन संपन्न किसानों के दखली अधिकारों को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षा प्रदान की गई थी जो लगातार बारह साल तक एक ही गाँव में जमीनें पट्टे पर लेते थे ।
(यह आवश्यक न था कि वे एक ही जमीन पट्टे पर लें ।) लेकिन छोटे किसानों के अधिकार पहले की ही तरह अनिरूपित रहे । शिक्षित मध्य वर्गो का द्वैध-भाव पबना के आंदोलन और उसके बाद के काल की एक दिलचस्प विशेषता था । कलकत्ता की देशी प्रेस जिसने यूरोपीय निलहों के विरुद्ध दोटूक रवैया अपनाया था जब देशी जमींदारों के उत्पीड़न पर हमले होने लगे तो विभाजित हो गई ।
तभी हिंदू पैट्रियट ने और साथ में अमृत बाजार पत्रिका ने खुलकर जमींदारों का पक्ष लिया जबकि बंगाली और आंग्ल-भारतीय प्रेस ने तब खुलकर उनका मजाक उड़ाया जब किसानों की हिंसा के बारे में उनकी लंबी-चौड़ी रिपोर्टे मात्र जमींदार समर्थक प्रचार साबित हो गई । यह वह दुविधा थी जिससे मध्यवर्गीय भारतीय राष्ट्रवादी आरंभ से ही ग्रस्त रहे और जिससे वे कभी पूरी तरह मुक्त न हो सके ।
जमींदारों के अत्याचार के विरुद्ध किसानों का प्रतिरोध बंगाल तक ही सीमित नहीं था । मलाबार में जेनमियों के खिलाफ मोपला किसानों की बगावत जारी रही, जबकि अवध के सीतापुर जिले में और मेवाड़ (राजस्थान) में किसानों ने क्रमश 1860 और 1897 में जमींदारों द्वारा लगान में वृद्धि और गैर-कानूनी वसूलियों का प्रतिरोध किया ।
किसान विद्रोहों में पहले की तरह अभी भी धर्म की एक बड़ी भूमिका थी; उदाहरण के लिए पंजाब में सिक्सों के शुद्धीकरण के प्रयासों के कारण 1872 में कूका विद्रोह हुआ । इन सभी क्षेत्रों में किसानों के जुझारूपन की परंपरा बीसवीं सदी के पहले दशक में भी जारी रही और आखिरकार 1921 में जन-आंदोलन की वृहत्तर गांधीवादी परंपरा में समाहित हो गई । मध्यवर्गीय नेतृत्व की स्थायी दुविधाओं के कारण यह विलय भी तनावों से खाली नहीं रहा ।
दूसरी ओर, महाराष्ट्र में किसानों को एक और शत्रु से लड़ना पड़ा यहाँ उनका सीधा टकराव सूदखोरों से हुआ । हालांकि तत्कालीन उपनिवेशी अधिकारियों और हाल के कुछ इतिहासकारों ने 1875 की इन घटनाओं को दकन के दंगे कहा है पर किसान इसे एक विद्रोह समझते थे ।
इस तरह जैसा कि डेविड हार्डिमन का तर्क है उन्होंने ”अपनी उथल-पुथल को महाराष्ट्र में विद्रोह की लंबी परंपरा से एकाकार कर लिया ।” जैसा कि रवींदर कुमार हमें बतलाते हैं यह संभव हुआ ”महाराष्ट्र के गाँवों में सामाजिक शक्ति के पुनर्वितरण” के कारण ।
असंतोष की जड़ें मराठा कुनबी किसानों और साहूकारों के बदलते संबंध में मौजूद थीं । अतीत में साहूकार कुनबी किसानों को कर्जे देते आए थे पर गाँव की अर्थव्यवस्था पर गहरे नियंत्रण से अधिक किसी बात में उनकी कभी रुचि नहीं रही ।
मगर रैयतवारी व्यवस्था के आरंभ ने स्थिति बदल दी क्योंकि अब हर किसान को अपने लिए ऋण की आवश्यकता पड़ने लगी जबकि भूमि में संपत्ति के अधिकार के सृजन और ऐसे अधिकारों के लिए अदालतों के संरक्षण ने एक भूमि बाजार पैदा किया और इसलिए भूमि की माँग अब बढ़ गई ।
साहूकार अब किसानों की जमीनें गिरवी रखकर भारी ब्याज दरों पर कुछ देने लगे और अदायगी न होने पर अदालतों के निर्णयों के आधार पर जमीनों पर कब्जे करने लगे । जातिगत पूर्वाग्रह सूदखोरों को हल छूने से रोकते थे इसलिए अब वही जमीनें भूतपूर्व मालिक-किसानों को पट्टे पर दी जाने लगीं जो अब अपनी ही जमीनों पर काश्तकार बन गए ।
इस काल में महाराष्ट्र में भूमि के हस्तांतरण की संख्याएँ और इसने किस सीमा तक दंगों को जन्म दिया ये बातें निश्चित ही विवाद के विषय हैं । इयान कैटेनक (1993) यह तो मानते है कि भूमि के हस्तांतरण हुए पर रवींदर कुमार के इस कथन को स्वीकार नहीं करते कि यह किसान असंतोष का प्रमुख कारण था ।
दूसरी और नील चार्ल्सवर्थ इस तत्त्व को पूरी तरह अस्वीकार कर देते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि दकन में दंगों के समय तक केवल 5 प्रतिशत खेती-योग्य भूमि मारवाड़ी या गुजराती साहूकारों के हाथों में गई थी । लेकिन यह बात तो माननी ही होगी कि भूमि का यही छोटा भाग पूरे क्षेत्र में सबसे उपजाऊ था और इसलिए उसके हाथ से निकलने पर बहुत चिढ़ पैदा होती थी ।
जल्द ही खुले टकराव की स्थिति आ गई जब सरकार ने 1867 में मालगुजारी की दरें खेती के विस्तार और खेतिहर कीमतों में वृद्धि के आधार पर बढ़ा दीं । इंदापुर तालुका में मालगुजारी की माँग में औसत 50 प्रतिशत वृद्धि की गई लेकिन कुछ गाँवों में यही काफ़ी ऊँची 200 प्रतिशत तक थी ।
चार्ल्सवर्थ समझते हैं कि ये नए कर शायद ही दंगों के कारण रहे होंगे क्योंकि अहमदनगर जिले में जो गाँव उथल-पुथल से सबसे अधिक प्रभावित हुए वहाँ करों में कोई संशोधन किया ही नहीं गया था जबकि संशोधन वाले कुछ तालुके इस पूरे काल में एकदम शांत बने रहे ।
लेकिन फिर भी इस बात की शायद ही अनदेखी की जा सके कि ये नई दरें जब घोषित की गई तो उससे अधिक उपयुक्त समय कोई और नहीं रहा होगा । अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण पैदा कृत्रिम माँग के कारण दकन में जो कपास की खेती में तेजी आई थी वह उस युद्ध के बाद अभी-अभी पस्त हुई थी ।
किसान बदहाल हो चुके थे और उनका घोर कर्जदार बनना अपरिहार्य था । ऐसी स्थिति में मालगुजारी में बढ़ोतरी बौखलाहट तो पैदा करती ही रहती । कुनबियों ने नई दरों में संशोधन करने के लिए प्रार्थनाएं कीं पर उनका परंपरागत नेतृत्व नई संस्थाओं से और उनके कारण संवाद की एक नई बुद्धिसंगत और कानूनी भाषा की नई माँग से एकदम अनभिज्ञ था ।
मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के नए संगठन पूना सार्वजनिक सभा ने अब हस्तक्षेप किया और 1873 में उसने एक ”रिपोर्ट” पेश की अर्थात् मालगुजारी की दरों में संशोधन की माँग की । उसने नई दरों के विरुद्ध कुनबी किसानों को उभारने के लिए गाँवों में स्वयंसेवक भी भेजे ।
जैसा कि रवींदर कुमार कहते हैं इसके दबाव में आकर बंबई सरकार ने अब एक बड़ी रियायत दी: कि मालगुजारी जमा न होने पर पहले किसान की चल संपत्तियाँ जब्त की जाएँगी; उसकी जमीन तभी नीलाम की जाएगी जब चल संपत्तियाँ अपर्याप्त होंगी ।
यह रियायत वास्तव में किसानों और सूदखारों के बीच टकराव का एक स्रोत बन गई क्योंकि 1874 में सूदखोरों ने मालगुजारी की अदायगी के लिए किसानों को कर्ज देने में इस आधार पर मना कर दिया क्योंकि उन्हें लगता था कि जमानत पर्याप्त नहीं थी ।
लेकिन जैसा कि कुमार आगे कहते हैं 1875 के दंगों का यही अकेला कारण नहीं था; ये दंगे अनेक कारणों के संयोग की उपज थे जैसे अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण हमारी अर्थव्यवस्था मैं पैदा अफरातफरी भूमि-कर में एक कुविचारित संशोधन पूना सार्वजनिक सभा द्वारा आरंभ किया गया आंदोलन और अंत मैं कुनबी किसानों और सूदखोरों के बीच पुरानी दुश्मनी ।
ये दंगे 12 मई, 1875 को भीमथड़ि तालुका के गाँव सूपे से शुरू हुए और जल्द ही पूना और अहमदनगर जिलों के दूसरे गाँवों में पहुँच गए । उत्तर-दक्षिण तक लगभग 65 ओर पूरब-पश्चिम में 100 किलोमीटर तक का एक बड़ा क्षेत्र इस उथल-पुथल से प्रभावित हुआ ।
हर जगह गुजराती और मारवाड़ी सूदखोरों पर हमले हुए कैवल इसलिए नहीं कि वे ”बाहरी” थे बल्कि इसलिए भी कि उनको अधिक कजूस समझा जाता था । वे भी गाँवों में रहते थे और इसलिए उन पर ऐसे हमला की संभावना उन ब्राह्मण सूदखोरों से अधिक थी जो आम तौर पर बेहतर सुरक्षा वाले नगरों में रहते थे ।
इससे भी अहम बात यह है कि सूदखोरों के ऊपर शारीरिक हिंसा बहुत कम हुई; केवल उनके ऋणपत्र छीनकर नष्ट कर दिए जाते थे । इसके अलावा हिंसा का सहारा तभी लिया जाता था जब इन कानूनी कागजात को देने के विरुद्ध प्रतिरोध किया जाता था ।
यही विशेषता है जो इन दंगों को गरीबी के मारे किसानों द्वारा आरंभ किए गए ”अनाज दंगों” की औसत श्रेणी से अलग करती थी । दंगाइयों ने अपने लक्ष्य की जो दमन और प्रभुत्व का साधन था स्पष्ट पहचान की थी और इस तरह लगता है कि वे हाल में अपने-आपको शक्ति संबंधों के जिस नए संस्थागत ढाँचे में पा रहे थे उसके बारे में वे अच्छी तरह सजग थे ।
अब अगर अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबाने में तत्परता न दिखाई होती तो बहुत संभव था कि दंगे की भावना पूरे महाराष्ट्र मैं फैल जाती । बंबई सरकार ने ऐसे दंगों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए तरत कदम उठाए; 1879 के दकन खेतिहर राहत कानून (डेक्कन एग्रीकल्चरिस्ट्स रिलीफ ऐक्ट) के द्वारा किसानों को भविष्य में उनकी जमीनों पर ऐसे कब्जे से सुरक्षा प्रदान की गई ।
इससे भी अहम तथ्य यह है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में सूदखोरों के विरुद्ध किसानों के प्रतिरोध की ये घटनाएँ पूरे भारत में आम थीं क्योंकि उपनिवेशी शासन ने गाँवों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में इन दोनों समूहों के संबंध में महत्त्वपूर्ण बदलाव उत्पन्न कर दिया था ।
हर जगह हमें किसानों के व्यवहार का यही रूप दिखाई पड़ता है अर्थात व्यक्तियों के विरुद्ध बहुत कम हिंसा, लेकिन सूदखोरों के ऋणपत्रों का नष्ट किया जाना । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में 1857 में नासिक में 1868 में बंबई और पूना के बीच घाट क्षेत्रों में 1874 में राजस्थान के अजमेर जिले में 1891 में पंजाब में 1914 में और पूर्वी बंगाल में 1930 में यही हुआ ।
ऐसे हंगामे बहुत ही स्पष्ट रूप से ब्रिटिश भूमि व्यवस्था के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध भारत के ग्रामीण समाज की प्रतिक्रिया थे और संपत्ति के अधिकार संबंधी कानूनों और अदालतों के विरुद्ध भी जो ऊपर से लादी गई चीजों के समान थे जो किसानों की दुनिया को उलट-पलट रहे थे ।
किसानों के निशाने केवल ब्रिटिश राज के प्रतीक या उसके द्वारा पैदा किए नए परिवर्तन ही नहीं थे अंग्रेजों के विरुद्ध खुले किसान आंदोलन भी चले, खासकर रैयतवारी क्षेत्रों में । सूदखोरों पर हमले के अलावा बंबई सरकार द्वारा 1860 और 1870 के दशकों में मालगुजारी में की गई वृद्धि के जवाब में महाराष्ट्र दकन के एक बड़े क्षेत्र में 1873-74 में लगानबंदी के अभियान भी चले ।
हालाँकि सरकार ने इस अवसर पर कुछ रियायतें भी दीं पर उसने अपनी कर व्यवस्था में अंतर्निर्मित अनम्यता में ढील देने से इनकार कर दिया । इसलिए जब 1896-97 में दोबारा फसल बरबाद हुई और फलस्वरूप एक भयानक अकाल पड़ा मगर मालगुजारी में कोई कटौती नहीं हुई तब एक व्यापक लगानबंदी अभियान चला खासकर ठाणे और कोलाबा के तटीय जिलों में ।
खानदेश और धारवाड़ जिलों में साहूकारों ने भूमि कर देने से इनकार कर दिया क्योंकि फसल नष्ट हो गई थी और किसानों ने भी सभी करों की अदायगी रोक दी । जैसा कि हार्डिमन कहते हैं इस आंदोलन की प्रमुख विशेषता यह थी कि यह अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध उन क्षेत्रों में काफ़ी मजबूत था जो अकाल से सबसे कम प्रभावित हुए थे ।
यह ”जमींदारों और धनी किसानों का आंदोलन” था जिसमें बंबई और पूना के शहरी नेताओं की मध्यस्थता ने भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई; सरकार ने इसका जवाब कठोर सैन्य चालों से दिया । 1897 के अंत तक सब कुछ समाप्त हो चुका था ।
लेकिन कृषक असंतोष 1899-1900 में गुजरात में फिर फूटा जो तब एक खराब फ्रसल और अकाल से ग्रस्त था । एक बार फिर अपेक्षाकृत धनी किसानों के नेतृत्व में खेड़ा सूरत और भड़ौच जिलों में लगभग हर जगह भूमि-करों की अदायगी करने से इनकार कर दिया गया लेकिन यहाँ बाहरी शहरी नेतृत्व कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा नहीं सका ।
यहाँ भी सरकार ने बलप्रयोग द्वारा और कर न देनेवालों की संपत्ति जब्द करने की धमकियाँ देकर आंदोलन को कुचला । किसानों और उपनिवेशी राजसत्ता के बीच एक अधिक सीधा और कारगर टकराव 1907 में पंजाब में हुआ जहाँ चिनाब नहरी कॉलोनी में स्थानीय शासन ने एक नए कानून का प्रस्ताव किया जो उपनिवेशियों (Settlers) के जीवन को अधिक प्रभावी ढंग से नियंत्रित करता ।
उसने नहरी बस्तियों में भूमि के उत्तराधिकार को नियंत्रित करने, नहरी बस्ती के नियम-कानून तोड़नेवाले सभी व्यक्तियों पर जुर्माना करने और जल-कर बढ़ाने के प्रस्ताव किए । इस कठोर कानून के विरुद्ध किसानों को उन्हीं के अधिक शिक्षित सदस्यों ने संगठित किया विशाल आम सभाएँ हुई और प्रार्थनापत्र भेजे गए ।
इस चरण में लाहौर इंडियन एसोसिएशन के दो नेताओं लाजपत राय और अजित सिंह की भागीदारी ने और सिंहसभा व आर्यसमाज के समर्थन ने ऊर्ध्व और क्षैतिज, दोनों दिशाओं में आदोलन के दायरे को और विस्तृत किया ।
किसानों ने बड़े-बड़े प्रदर्शन किए तथा सभी करों की अदायगी बंद कर दी; अमृतसर, लाहौर और रावलपिंडी जैसे बड़े नगरों में दंगे फूट पड़े । पंजाब सरकार ने आरंभ में तनाव की तीव्रता को गलत का और उसे पूरी तरह बाहरी तत्त्वों द्वारा प्रेरित माना ।
इसलिए उसने राय और सिंह को निर्वासित कर दिया तथा सभी आम सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया । लेकिन इससे असंतोष किसी भी तरह कम नहीं हुआ बल्कि अब उसने सेना को भी प्रभावित किया क्योंकि पंजाब सेना में भरती के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था । इसलिए आखिरकार 26 मई को वायसरॉय मिंटो ने नए कानून को वीटो कर दिया और इस कदम का किसानों पर एक चमत्कारी प्रभाव पड़ा जिन्होंने इसे ”ब्रिटिश न्याय का मूर्त रूप” करार दिया ।
किसानों की चेतना में दूर बैठा राजा (ब्रिटिश सम्राट) अभी भी उनका रक्षक था जबकि पास में मौजूद भ्रष्टाचारी अधिकारी उनका शत्रु था । ऐसी अस्पष्टता के बावजूद जिन बातों को वे अन्यायपूर्ण कर या उनकी परंपरागत जीवन शैली में अवांछित हस्तक्षेप समझते थे उनके विरुद्ध वे लड़ते ही रहे ।
पंजाब इस बारे में कोई अपवाद नहीं था । इस काल में भारत के विभिन्न भागों से लगानबंदी आंदोलन की खबरें आई-उत्तर में स्थित अवध से 1879 में पश्चिम में गुजरात की कैंबे रियासत से 1890 में दक्षिण में तंजावुर जिले से 1892-93 में और पूर्वोत्तर में असम से 1893-94 में उपनिवेशी किसानों के असंतोष के अलावा आदिवासी किसानों के बीच सहस्राब्दिक (Millenarian) आंदोलनों की पिछली परंपरा 1857 के बाद के काल में भी जारी रही ।
इस परंपरा का एक प्रमुख उदाहरण 1899-1900 का मुंडा उल्गुलन था जो एक करिश्माई धार्मिक नेता बिरसा मुंडा के मार्गदर्शन में चला । मुंडाओं की जमीन का हस्तांतरण और डिकुओं के आगमन के कारण 1890-95 में मुंडा नेताओं के मार्गदर्शन में एक आंदोलन उठ खड़ा हुआ ।
यह आंदोलन धीरे-धीरे बिरसा के नेतृत्व में आ गया जिसने छोटानागपुर (बिहार) के एक बड़े क्षेत्र में दो वर्षा तक मुंडा आदिवासी किसानों को उनको भावी आपदा से बचाने का वादा करके लामबंद किया । उसकी जादुई शक्तियों रोगों के उपचार की योग्यता और चमत्कार दिखाने की योग्यता के बारे में अफवाहें फैलने लगीं । आदिवासियों की कल्पना में वह ऐसा मसीहा था जो अंग्रेजों की गोलियों को पिघलाकर पानी की तरह बहा सकता था ।
उसने उनको मुंडा तीर्थों की यात्राएँ कराई और रास्ते में बड़ी-बड़ी आम सभाएँ कीं । इसमें वह बीते हुए एक स्वर्णकाल या सतजुग की और उन पर टूटे कलजुग की बातें करता था जब मुंडा देश अर्थात डिसुम पर राक्षस राजा रावण की पत्नी महारानी मंदोदरी राज कर रही थी यह संभवत: महारानी विक्टोरिया के राज का एक रूपक थी ।
जो चीज इन सभाओं में खास तौर पर उभरी वह थी बाहरी तत्त्वों के डिकुओं के प्रति आदिवासी किसानों की शत्रुता-जमींदारों सूदखोरों और उनके संरक्षक साहबों (यूरोपवालों) के विरुद्ध-जिनमें अफसर और ईसाई मिशनरी दोनों शामिल थे ।
एक विशाल उपनिवेशवाद विरोधी आदिवासी विद्रोह के लिए इसी तरह जमीन तैयार हुई और यह विद्रोह 1899 में क्रिसमस के दौरान शुरू हुआ । इसने गिरजाघरों, मंदिरों, पुलिसवालों और नए शासन के दूसरे प्रतीकों को निशाना बनाया और अंत में सरकारी बलों द्वारा कुचल दिया गया ।
लेकिन मुंडा उल्गुलन के बारे में जो बात महत्त्वपूर्ण थी वह उपनिवेशी राजसत्ता की व्यापकतर राजनीतिक वास्तविकताओं के बारे में उनकी दूसरों से अधिक समझ थी । कबीलों की क्षेत्रबंदी के बावजूद बिरसा की महत्वाकांक्षाएं अब स्थानबद्ध नहीं थी ।
उसके आंदोलन का उद्देश्य केवल डिकुओं को भगाना नहीं बल्कि ”अपने शत्रुओं को नष्ट करना और अंग्रेजी राज को समाप्त करना” था और उसकी जगह ”एक बिरसा राज और एक बिरसाई धर्म की” स्थापना करना था ।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में आदिवासी आंदोलनों में नई बात यही राजनीतिक चेतना और व्यापक स्थिति से अपना संबंध जोड़ने की यही योग्यता थी । इस काल में आदिवासी किसानों के जीवन की एक और नई विशेषता ”अशांत जंगल” (Unquiet Woods) जिसे रामचंद्र गुहा (1991) ने वर्णित किया था ।
ये वनवासी इसलिए अशांत हुए कि सरकारी नियम-कानून उनको वन-संसाधनों पर उनके परंपरागत अधिकारों से वंचित करने के खतरे पैदा कर रहे थे । भारत के विशाल वन-क्षेत्र की ओर अंग्रेजों का ध्यान 1806 में गया; उसका प्रमुख कारण शाही नौसेना के लिए जहाजों के निर्माण के लिए आवश्यक शाहबलूत (Oak) की लकड़ी की माँग थी ।
उसके बाद उन्नीसवीं सदी के मध्य में तेजी से रेल लाइनें बिछाई जाने लगीं और उसके लिए स्लीपरों की भारी माँग पैदा हुई जिसके फलस्वरूप वनों का संरक्षण उपनिवेशी राजसत्ता के लिए बड़ी चिंता का विषय बन गया ।
1864 में एक वन विभाग स्थापित हुआ और फिर 1865 में एक सरकारी वन कानून पारित किया गया । 1878 के भारतीय वन कानून (इंडियन फरिस्ट्स ऐक्ट) ने इसे और भी कठोर बनाया इसने भारतीय वनों को पूरी तरह सरकार की संपत्ति बना दिया ।
कहने की जरूरत नहीं कि इमारती लकड़ी के व्यापारिक उत्पादन के लिए वनों को आरक्षित करने की यह साम्राज्यिक आवश्यकता उनके उपयोग के बारे में आदिवासी किसानों के पिछले अबाध और परंपरागत अधिकारों के विरुद्ध थी और उनकी जीविका के प्रमुख साधनों को उनसे छीनती थी ।
इस कानून ने भारतीय वनों को तीन श्रेणियों में बाँटा ”आरक्षित”, ”संरक्षित” और ”अवर्गीकृत” । इनमें आरक्षित वनों पर सरकार का पूर्ण अधिकार था और उनमें पेड़ों की कटाई पर पूरा प्रतिबंध था संरक्षित वनों पर सरकार का अधिकार था और उनमें भी पेड़ों की कटाई पर पूरा प्रतिबंध था; ”संरक्षित” वनों से परंपरागत अधिकारों वाले लोग व्यक्तिगत उपयोग के लिए लकड़ी ले सकते थे पर बेचने के लिए नहीं ।
आरंभ में उन्हें इसकी कोई लगान नहीं देना पड़ता था पर धीरे-धीरे सरकार ने उपयोग शुल्क लगाए और फिर बढ़ाए । 1900 तक भारत का लगभग 20 प्रतिशत भू-क्षेत्र सरकार के वन प्रशासन के अंतर्गत आ चुका था । इस बात ने न केवल वहाँ संपत्ति के अधिकारों को नए सिरे से तय किया बल्कि परंपरागत पर्यावरण संतुलन के लिए भी खतरा पैदा कर दिया ।
इस परिवर्तन से आदिवासी किसानों के दो समूह खतरों में घिर गए: आखेटक-संग्राहक जो झूम खेती पर निर्भर थे और वन कानूनों के विरुद्ध उनका प्रतिरोध उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत के लगभग सभी भागों में आम हो गया ।
इसके कुछ उदारहरण हैं: व्यापारिक, वनरोपण और उससे जुड़े शिकार संबंधी कानूनों ने जिनमें निर्वाह के लिए शिकार करने पर रोक थी हैदराबाद के चेंचू आदिवासियों के लिए लगभग पूर्ण विनाश का खतरा पैदा कर दिया और उन्होंने (चेंचू आदिवासियों ने) चोरी-डकैती का रास्ता पकड़ लिया ।
दूसरी ओर मध्य भारत के बैगा, हैदराबाद के पर्वतवासी रेड्डी और बस्तर के बिशन मड़िया आदिवासियों ने कानून का उल्लंघन करके अपने आखेट-अनुष्ठान जारी रखे । सरकार ने झूम खेती बंद कराने के प्रयास किए क्योंकि उसे खेती का आदिम ढंग माना जाता था और वह वनों के व्यवसायीकरण के हितों के विरुद्ध थी पर इन प्रयासों पर तरह-तरह से प्रतिरोध हुए ।
बैगे अकसर पड़ोसी क्षेत्रों में चले जाते थे जिससे सरकार श्रम के एक उपयोगी स्रोत से वंचित हो जाती थी । कभी-कभी वे कर देने से मना कर देते थे या प्रतिबंधित क्षेत्रों में अवज्ञा-भाव से झूम खेती करने लगते थे । दूसरी ओर गंजाम एजेंसी के सावरा आदिवासी झूम के लिए आरक्षित वनों की कटाई करके और कानूनों के हनन के कारण जेल जाकर अकसर राजसत्ता से सीधे-सीधे टकराते रहे ।
वनों पर राज्य के एकाधिकार और उनके व्यापारिक दोहन के कारण आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी घुसपैठिये भी आए; इनमें से अनेक ने तो आदिवासी किसानों के शोषण के लिए काफ़ी कुछ बलप्रयोग किया । फिर इस स्थिति के कारण प्रतिरोध और तीव्र हुआ था जैसा कि आंध्र प्रदेश के गुडेम और रंपा पहाड़ी क्षेत्रों में हुआ जहाँ कोया और कोंडा डोरा आदिवासी रहते थे ।
इस क्षेत्र में पहले कुछ विद्रोह (फितूरियाँ) 1839 और 1862 के बीच हुए जो स्थानीय मुट्टादारों (Estate Holders) के शुरू किए हुए थे इन नए बाहरी तत्त्वों की इस घुसपैठ के कारण उनको अपनी शकि कम होती महसूस हुई और अपने अधिकार छिनते लगे ।
लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में कुछ परिवर्तन भी हुए जिन्होंने आदिवासी किसान जनसमूहों को 1879 के रंपा विद्रोह की ओर धकेला । जब वनों का व्यापारिक उपयोग आरंभ हुआ और सड़कों के निर्माण के कारण पहाड़ों में व्यावसायिक घुसपैठ होने लगी तो मैदानों के व्यापारी और साहूकार पहाड़ी क्षेत्रों में पहुँचे तथा धीरे-धीरे कर्जदार किसानों और मुट्टादारों की संपत्तियों को जन्त कराकर आदिवासी जमीनों पर कब्जा कर लिया ।
झूम (पोडू) पर प्रतिबंध वन-संसाधनों के उपयोग पर लगी रोक और ताड़ी पर एक नए कर ने किसानों को सहने की अंतिम सीमा तक पहुँचा दिया और वे नेतृत्व के लिए फादारों की ओर देखने लगे । फितूरी का आरंभ पहले-पहल रंपा में मार्च 1879 में हुआ और फिर यह गुडेम के पड़ोसी क्षेत्रों में फैली ।
हमलों के खास निशाने मनसबदार, अंग्रेज, उनके पुलिस थाने और मैदानों के व्यापारी-ठेकेदार थे । नेतृत्व खादारों ने किया लेकिन अनेक मामलों में कुलीनों की यह भागीदारी जनता के दबाव और धमकियों के कारण संभव हुई ।
ग्रामीणों ने अनेक प्रकार से विद्रोहियों को समर्थन दिया, क्योंकि वे आम तौर पर सरकार के विरोधी थे । लेकिन जैसा कि डेविड आर्नल्ड का तर्क है 1879-80 की फितूरी कभी ”एक जनविद्रोह या जाक-वृत्ति (Jacquerie) का रूप” न ले सकी ।
कारण कि बड़े पैमाने पर भागीदारी न माँगी गई न आवश्यक थी विद्रोहियों का उद्देश्य विद्रोह को अपने निर्धारित क्षेत्र से बाहर ले जाना नहीं केवल पहाड़ों को बाहरी तत्वों से मुक्त करना था । अंग्रेजों का सशस्त्र हस्तक्षेप दिसंबर 1880 तक इस क्षेत्र में व्यवस्था बहाल कर चुका था लेकिन छह साल बाद, 1886 में, गुडेम में विद्रोह फिर से शुरू हुआ जिसमें धर्म ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसे एक सहस्राब्दिक (Messianic or Millenarian) आंदोलन का रूप दे दिया ।
गुडेम और रंपा के पहाड़ों में फितूरी की परंपरा बनी रही लेकिन 1920 के दशक तक वह अपने आप को गांधी के जन-आंदोलनों से जोड़कर बाहरी दुनिया तक फैलने के प्रयास करने लगी थी । रजवाड़ों में भी जब स्थानीय शासकों ने झूम संबंधी प्रतिबंधों को लागू करने के प्रयास किए तो आदिवासी किसानों ने उनके प्रयासों का विरोध किया । 1910 में बस्तर के मड़ियों और मुड़ियों ने खुलकर पुलिस थानों पर हमले किए बाहरी तत्त्वों को मारा और तभी वश में किए जा सके जब अंग्रेज सेना का एक दस्ता बुलाया गया ।
आबाद खेतिहर क्षेत्रों की सीमा पर रहनेवाले आदिवासी किसान भी वन कानूनों से इसी प्रकार प्रभावित हुए । यह बात पहाड़ी क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से सच थी जहाँ सीढ़ीदार खेती की जाती थी और आय के वैकल्पिक स्रोत के रूप में पशु पाले जाते थे । इस तरह वंचित किए जाने पर स्पष्ट है कि अनेक रूपों में प्रतिरोध हुए ।
उदाहरण के लिए मद्रास प्रेसिडेंसी में वन संबंधी अपराध कई गुना बढ़ गए; त्रावणकोर में किसानों ने वन विभाग के अधिकारियों से सहयोग करने से इनकार कर दिया । तटीय महाराष्ट्र के ठाणे जिले में प्रतिरोध ने हिंसक रूप ले लिया 48 जबकि बंगाल के मेदिनीपुर जिले के जंगल महल में संथाल किसानों ने गाँवों की हाटों को और तालाबों में पाली गई मछलियों को लूट लिया ।
टेहरी गढ़वाल (उत्तर प्रदेश) के हिमालयी वन क्षेत्रों में जो एक रजवाड़े का हिस्सा था और कुमायूँ में, जो ब्रिटिश प्रशासन वाला क्षेत्र था वन कानूनों के विरुद्ध स्थानीय किसानों का क्रोध अनेक दिलचस्प ढंगों से व्यक्त हुआ ।
टेहरी गढ़वाल में किसानों ने ठंडक की पुरानी परंपरा का पालन किया इसमें अधिकारियों की निरंकुशता का विरोध किया जाता था और राजा से न्याय की गुहार की जाती थी । स्थानीय राजा ने जब और भी कठोर वन संरक्षण कानूनों को लागू करने के प्रयास किए तो किसानों ने 1886 में और फिर 1904 में प्रतिरोध किया ।
राजा से मिली कुछ रियायतें किसानों को संतुष्ट न कर सकीं और दिसंबर 1906 में स्थानीय संरक्षक (Conservator) के विरुद्ध उनके प्रतिरोध ने हिंसक रूप ले लिया, तब राजा को सहायता के लिए अंग्रेजों से गुहार लगानी पड़ी ।
कुमायूँ में प्रतिरोध सीधे अंग्रेजों के विरुद्ध हुए क्योंकि किसानों ने उतार (बेगार) की व्यवस्था और निरंकुश वन प्रबंधकों का विरोध किया । इस टकराव की प्रकृति अधिकतर टकराव से खाली रही जैसे कानून का उल्लंघन इमारती लकड़ी की चोरी आगजनी (Incendiarism) और अंत में आरक्षित वनों में जानबूझकर आगजनी ।
मध्य भारत के जंगलों में भी जहाँ भीलों जैसे वनवासी आदिवासियों को उपनिवेशी खेतिहरों में या एक गुलामों जैसी श्रमशक्ति में बदलना उपनिवेशकों की सुसंगत नीति थी आदिवासियों ने अनेक चालाकीभरे उपायों से इन प्रयासों का विरोध किया ।
पश्चिमी भारत के डांग जिले के आदिवासियों ने 1840 के दशक के आसपास से अंग्रेजों के दबाव के कारण खानदेश के मैदानों में बसे गाँवों पर धावे बोलना बंद कर दिया था जिनके माध्यम से वे अपनी प्रभुसत्ता में हिस्सेदारी के तौर पर अपने पारंपरिक गीरास (खिराज) वसूल किया करते थे ।
इसकी बजाय अंग्रेज अब उन्हें सीधे रकमें देने लगे लेकिन इस प्रक्रिया में वनों पर उनका नियंत्रण समाप्त हो गया । हालांकि जमकर खुला प्रतिरोध कम ही हुआ और लगता था कि भीलों ने अपने दैनिक जीवन में राज की केंद्रीयता को स्वीकार कर लिया है पर फिर भी वे इस हानि और अधीनता से पूरी तरह अपना तालमेल नहीं बिठा सके और उनके मन में एक भील राज की याद बाकी रहीं ।
ऐसी यादें समय-समय पर प्रतिरोध आंदोलनों में व्यक्त होती रहीं जैसे 1860-1907 और 1914 के आंदोलनों में जब उन्होंने राज्य के स्थानीय प्रतिनिधियों की अवज्ञा की उनके दस्तावेजों को नष्ट कर दिया वन विभाग के दफ्तरों में लूटपाट की और वनों को आग लगा दी ।
प्रतिरोध के ऐसे रूप पंजाब के वन क्षेत्रों में भी देखे गए जहाँ किसानों ने अनधिकृत कटाइयाँ कीं जानवर चराए जानबूझकर आगजनी की और नए वन प्रबंध के वनरक्षकों या सीमा रेखाओं जैसे प्रतीकों पर हमले किए । जब कभी खुला प्रतिरोध नहीं भी हुआ वहाँ किसानों के इतिहास में प्रतिरोध के ऐसे साधनों का प्रयोग असामान्य नहीं था जिनको जेम्स सी स्कॉट (1985) ने ”कमजोरों का हथियार” कहा है ।
इस कारण प्रत्यक्ष हिंसक प्रतिरोध के अभाव का अर्थ हमेशा ही एक अवांछित विश्व व्यवस्था का उपाय स्वीकार कर लेना नहीं होता था । जब प्रतिरोध आंदोलन हुए भी तो उपनिवेशी सरकार ने ‘जंगली’ कबीलों के प्रति एक संरक्षक का रवैया अपनाया, इनको ‘शरीफ़ जंगली’ (Noble Savage) कहा जाता था तथा ईमानदार सच्चे बहादुर मगर सीधे-सादे लोग माना जाता था जिनको मैदानों के धोखेबाज लोग सरलता से मूर्ख बना सकते थे ।
इसलिए जब पहाड़ों में विद्रोह हुए तो अकसर उन्हें बाहरी तत्त्वों का भड़काया हुआ समझा गया और विद्रोहियों को कभी-कभी ऐसे ”नटखट लड़के” माना गया जो ”जब भी समझते हैं कि स्कूल मास्टर का ध्यान बँटा हुआ है कक्षा में शरारतें किया करते हैं ।”
लेकिन विद्रोहों को फिर भी निर्ममता से कुचला गया क्योंकि वे उपनिवेशकों के स्वामित्व को चुनौती देते थे और उनका लाभ राष्ट्रवादी उठा सकते थे । आदिवासी प्रतिरोध की परंपरा उदाहरण के लिए संयुक्त प्रति के पहाड़ों में जारी रही और आगे चलकर 1920 के दशक में गांधीवादी लोक-राजनीति की व्यापकतर धारा में समा गई जैसा कि मेदिनीपुर (बंगाल) और आंध्र प्रदेश के गुडेम-रंपा क्षेत्र में भी हुआ ।
1857 के बाद के भारत में देश के सभी भागों में किसान और आदिवासी विद्रोह हुए पर वे असंबद्ध या अलग-थलग और स्थानबद्ध आंदोलन ही बने रहे । इसका कारणं एक बड़ी सीमा तक भारत के खेतिहर समाज का जटिल वर्गीय ढाँचा था जिनमें भारी क्षेत्रीय अंतर पाए जाते थे ।
जैसा कि पहले भी स्पष्ट किया गया है आर्थिक श्रेणियाँ धर्म और जाति जैसी सांस्कृतिक श्रेणियों से कभी मेल खाती थीं और कभी उनको काटती थीं । किसान वर्ग जैसी आर्थिक श्रेणी की अपेक्षा अपने आपको अपने सांस्कृतिक समूहों से अधिक जोड़ते थे ।
कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि किसानों के मानस-जगत का केंद्रीय तत्त्व वर्ग नहीं ‘समुदाय’ था । दुनिया में उनकी स्थिति उनके धार्मिक या जातिगत पहचान से होती थी और इसलिए इनके आधार पर किसानों को लामबंद करना अधिक आसान था ।
ग्रामीण समाज में कभी-कभी वर्गीय और सामुदायिक संगठन परस्पर जुड़ जाते थे खास तौर पर जब धार्मिक या उपजातीय सीमाएँ वर्गीय विभाजनों से लगभग एकाकार होती थीं । ऐसी स्थितियों में किसानों की लामबंदी अधिक सरल होती थी; लेकिन समस्या तब आती थी जब वर्गीय और सांस्कृतिक सीमारेखाएँ एक-दूसरे को काटती थीं ।
उत्पीड़क और उत्पीड़ितों के बीच जातिगत या धार्मिक एकता कभी-कभी टकराव की समस्या को समाप्त कर देती थी; दूसरे मामले में एक समूह की जातिगत या धार्मिक पहचान विद्रोह से दूसरे संभावित भागीदारों को दूर करती थी ।
लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि सामुदायिक संगठन अकसर किसानों की लामबंदी के उपयोगी साधन साबित होते थे ऐसे अवसरों पर ये कमजोरी की बजाय शक्ति के स्रोत होते थे । पूरी उन्नीसवीं सदी में और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में किसान विद्रोहों ने उपनिवेशी राज्य के वर्चस्व को गंभीरता से चुनौती दी ।
गांधी के आगमन के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने ब्रिटिश राज विरोधी संघर्ष में इस शक्ति को समेटने के प्रयास किए । लेकिन रणजीत गुहा का तर्क यह है कि आरंभिक काल के किसान आंदोलनों को ”स्वाधीनता के आंदोलन का प्रागैतिहास” नहीं मानना चाहिए; उनका अपना एक अलग इतिहास है ।”
जैसा कि हमने पहले कहा है विवाद नेतृत्व के प्रश्न को लेकर या राजनीति के दोनों स्तरों अर्थात कुलीनों के स्तर और निम्नवर्गीय जनता के स्तर के संबंधों को लेकर हैं । उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त मध्यवर्ग का एक भाग अपने आपको राष्ट्र के ऐसे नेताओं के रूप में पेश करने के प्रयास कर रहा था जो किसानों समेत भारतीय जनता के सभी भागों के दुखों और हितों का प्रतिनिधित्व करते हों ।
और अन्य ऐसे इतिहासकारों का तर्क यह है कि किसान अपने आपको संगठित करने में समर्थ थे और अपने दुखों को व्यक्त कर सकते थे बाहरी कुलीन नेताओं के हस्तक्षेप का उद्देश्य इन आंदोलनों को अपने राजनीतिक लाभ के लिए प्रयोग करना मात्र था ।
ऐसे मध्यवर्गीय नेताओं ने किसानों जैसी अतिवादी वृत्ति का परिचय कभी-कभार ही दिया । एक प्रमुख अपवाद वासुदेव बलवंत फड़के का था जिन्होंने 1879 में पूना के दक्षिण-पश्चिम के गाँवों में किसानों के एक हथियारबंद विद्रोह का नेतृत्व किया ।
लेकिन दूसरी सभी जगहों पर जैसा कि हार्डिमन ने जोर देकर कहा है उनका ”उद्यम समझौते की भावना और दजूपन के साथ चला । लेकिन इस कथित कमजोरी के बावजूद इन मध्यवर्गीय शहरी नेताओं ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई; उन्होंने स्थानबद्ध और अलग-थलग किसान-आदिवासी आंदोलनों को उपनिवेशी शासन के अवांछित पक्षों के विरुद्ध एक व्यापकतर संघर्ष में गूँथने का प्रयास किया ।
उन्होंने किसानों और उपनिवेशी राज्य के बीच संवाद के अहम माध्यमों की भूमिका निभाई-एक ऐसी भूमिका जिसे परंपरागत किसान नेतृत्व प्रभावी रूप देने में समर्थ नहीं था पर उनकी भी अपनी दुविधाएं थी हालांकि वे दुख झेल रहे किसानों से भावनात्मक धरातल पर एकाकार होना चाहते थे पर अपनी जानी-पहचानी दुनिया को तितर-बितर होते भी नहीं देखना चाहते थे ।