ब्रिटिश शासन के दौरान सामाजिक और धार्मिक सुधार | Social and Religious Reform during British Rule.
आरंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी की नीति भारत के सामाजिक मामलों में अहस्तक्षेप की थी । मौजूदा व्यवस्थाओं को जारी रखने की माँग करनेवाली व्यावहारिकता के साथ-साथ परंपरागत भारतीय संस्कृति के प्रति
सम्मान का एक भाव भी था जो अपने आपको वरन हेस्टिंग्ज की 'प्राच्यवाद' (Orientalism) की नीति में व्यक्त करता था ।
संस्कृत और फारसी भाषाओं के अध्ययन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के बारे में कुछ सीखने का प्रयास करना तथा शासन संबंधी विषयों में उस ज्ञान का उपयोग करना था । बंगाल की एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता मदरसा और बनारस के संस्कृत कॉलेज की स्थापना इसी प्रयास का परिणाम थी ।
प्रजा यानी अधीनस्थ जनता उसके सामाजिक रीति-रिवाजों तौर-तरीकों और संहिताओं संबंधी ज्ञान को शासन की स्थायी संस्थाओं के विकास को अनिवार्य शर्त समझा जाता था । इस तरह हेस्टिंग्ज की विजित जनता पर उसी के ढंग से शासन करने और आग्लीकरण का विरोध करने की नीति प्राच्यवादी वैचारिक प्राथमिकताओं को और राजनीतिक व्यावहारिकता को भी प्रतिबिंबित करती थी ।
हेस्टिंग्ज का कार्यकाल समाप्त होने के बाद भारतीय सामाजिक संस्थाओं में सावधानी के साथ हस्तक्षेप करने की कोशिशें धीरे-धीरे शुरू हुई । जैसा कि हमने देखा इस परिवर्तन में ब्रिटेन के अनेक वैचारिक प्रभावों का योगदान था जैसे-उपयोगितावाद (Utilitarianism) इंजिलवाद (Evangelicalism) और मुक्त व्यापार की सोच ।
जहाँ उपयोगितावादी उपयुक्त सामाजिक अभियांत्रिकी (Social Engineering) और कठोर सुधारवाद की बातें करने लगे वहीं इंजीलवादी भारतवासियों को उनके उन धर्मो से मुक्त कराने के लिए सरकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता बताने लगे जो अंधविश्वासों मूर्तिपूजा और पुरोहित वर्ग की निरंकुशता से भरे हुए थे ।
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मुक्त व्यापार के समर्थक भी व्यापार का मुक्त प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए परंपरा की बेड़ियों से भारतीय अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने की आवश्यकता से सरकार के हस्तक्षेप की माँग कर रहे थे । मगर कंपनी की सरकार प्रतिकूल भारतीय प्रतिक्रिया के डर से हस्तक्षेप के बारे में अभी भी शंकाग्रस्त थी । वह तब तक ऐसा नहीं कर सकती थी जब तक भारतीय समाज का एक भाग सुधारों का समर्थन करने को तैयार न हो ।
एक ऐसा समूह जो भारत में व्यापक सामाजिक सुधारों का समर्थन करे अंग्रेजी शिक्षा के आरंभ के कारण जल्द ही पैदा होनेवाला था । इसलिए यही भारत में कंपनी की राजसत्ता के लिए हस्तक्षेप और प्रवर्तन (Innovation) का पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र बन गया ।
भारत में अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ अठारहवीं सदी में यूरोपीय और आंग्ल-भारतीय बच्चों की शिक्षा के लिए कलकत्ता मद्रास और बंबई में चलाए जा रहे दानार्थ स्कूलों के माध्यम से हुआ । कंपनी ने कई तरह से इन स्कूलों की सहायता की लेकिन मूल जनता की शिक्षा की उसने सीधे-सीधे कोई जिम्मेदारी 1813 तक नहीं ली ।
राजनीतिक असंतोष के भय से 1793 के चार्टर ऐक्ट से पहले तक भारत में अंग्रेजी शिक्षा के आरंभ के बारे में चार्ल्स ग्रांट का समर्थन बहरों के कानों में पड़ता रहा । लेकिन उसकी मुख्य चिंता कंपनी के अधिकारियों के कुशासन को लेकर थी ।
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उसका मानना था कि भारत में अंग्रेजों का वास्तविक वर्चस्व पश्चिम के उन श्रेष्ठतर नैतिक जीवनमूल्यों के प्रयत्न से ही संभव था जो उसकी ईसाई विरासत में व्यक्त हो रहे थे । ईसाइयत की शिक्षा मूल जनता के विद्रोह के विरुद्ध सबसे अच्छी गारंटी होती क्योंकि यह मूल जनता को उसके बहुदेववादी हिंदू धर्म से मुक्त करती और उसको उपनिवेशवाद की आत्मसाती परियोजना का अंग बनाती ।
लेकिन फिर भी अगले बीस वर्षों तक मिशनरियों का भारत प्रवेश प्रतिबंधित रहा । प्रतिबंधों के बावजूद मिशनरी देश में आने के लिए विभिन्न चालाकियों का सहारा लेते रहे और पश्चिमी शिक्षा के प्रसार के लिए काम करते रहे जो उनकी राय में धर्म-परिवर्तन में सहायक होती ।
इस तरह प्रोटेस्टेंट मिशनरियों ने जहाँ अठारहवीं सदी के आरंभिक वर्षों में मद्रास के डेनिश स्टेशन से काम करना आरंभ किया वहीं उस सदी के अंतिम भाग में कलकत्ता के पास श्रीरामपुर की डेनिश बस्ती तीन बैप्टिस्ट मिशनरियों डॉ॰ विलियम कैरी वॉर्ड और जोसुआ मार्शमैन की शरणस्थली बन गई ।
एक छापाखाना चलाने और स्थानीय भाषाओं में बाइबिल के अनुवाद करने के अलावा वे लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए स्कूल भी चलाते थे । कंपनी की सरकार ऐसे मिशनरी कार्यकलापों को तब तक अनदेखा करती रहती थी जब तक वे स्थानीय जनता की धार्मिक भावनाओं को चोट नहीं पहुँचाते थे । लेकिन 1813 से पहले उनकी संख्या बहुत ही कम थी ।
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इसलिए भारत में पश्चिमी शिक्षा का वास्तविक आरंभ बिंदु 1813 के चार्टर ऐक्ट को माना जा सकता है जिसने मिशनरियों को न केवल भारत-यात्रा की अनुमति दी बल्कि दो विशिष्ट उद्देश्यों के लिए उनको एक लाख रुपए वार्षिक के आवंटन का प्रावधान भी किया: पहला, “भारत के शिक्षित देशवासियों को प्रोत्साहन के लिए और साहित्य का पुनरुत्थान और उसमें सुधार के लिए; और दूसरा उनमें” विज्ञानों के ज्ञान को बढ़ावा” देने के लिए ।
यह उस काल के लिए अभूतपूर्व कदम था जब इंग्लैंड तक में शिक्षा के लिए सार्वजनिक धन देने का प्रचलन नहीं था । कंपनी को यह वादा करने के लिए विवश करने के पीछे संसद का तात्कालिक उद्देश्य भी भारत में उसके आरंभिक भारतीय प्रत्युत्तर: सुधार और विद्रोह 141 अधिकारियों का भ्रष्टाचार और पतित आचरण ही था; पर उसके अलावा क्षेत्रीय नियंत्रण में वृद्धि का एक एजेंडा भी कार्यरत था ।
चार्ल्स ग्रांट का तर्क था कि कंपनी के अधिकारी अधीन देश को अपनी अस्थायी संपत्ति मानते थे और इस कारण उसे निर्ममता से लूट रहे थे । इसलिए मूल जनता के विकास की ओर अधिक प्रतिबद्धता जनता में सुरक्षा की और अधिक भावना पैदा करेगी; कर्त्तव्य की भावना या दूसरे शब्दों में जनता के प्रति कर्त्तव्य की भावना सत्ता को और भी अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए एक संदर्भ प्रस्तुत करेगी ।
लेकिन इस निर्णय ने भारतवासियों को दी जानेवाली शिक्षा की प्रकृति का तुरंत कोई निश्चय नहीं किया क्योंकि इस विशेष धारा 43 की भाषा थोड़ी अस्पष्ट थी और उसकी अनेक व्याख्याएं हो सकती थीं । भारत के आधिकारिक चिंतन में प्राच्चवादी अभी भी हावी थे और उनको 1806 से 1813 तक गवर्नर जनरल रहे लॉर्ड मिटो के हाल के एक कार्य-विवरण (Minute) से जबरदस्त समर्थन मिला था ।
नई-नई गठित सामान्य जन शिक्षा समिति (जेनरल कमिटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्यान) में प्राच्यवादियों का दबदबा था जो इस धारा की व्याख्या इस तरह करते थे कि इसका अर्थ भारत के प्राचीन साहित्य और विज्ञानों क्ये बढ़ावा देना है । उन्होंने जो कार्यक्रम बनाया वह था कलकत्ता में एक संस्कृत कॉलेज तथा आगरा और दिल्ली में दो और ओरिएंटल कॉलेजों की स्थापना और देसी शिक्षा की संस्थाओं के रूप में टोलों और मदरसों के लिए संरक्षण ।
इस बीच भारत में जनता का ध्यान देश के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की इस परंपरा से दूर होता जा रहा था । ईसाई मिशनरियों और डेविड हेयर जैसे यूरोपवासियों ने भारत के सभी भागों में स्कूल खोलने आरंभ कर दिए जहाँ अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम बन गई ।
उसके बाद कलकत्ता स्कूल बुक सोसायटी और फिर (1819 में स्थापित) कलकत्ता स्कूल सोसायटी ने प्राथमिक शिक्षा के लिए देसी भाषाओं के स्कूल खोलने आरंभ कर दिए । हवा का रुख निर्णायक रूप से तब दूसरी दिशा में मुड़ गया जब राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में संस्कृत कॉलेज की स्थापना के विरुद्ध विरोध प्रकट करते हुए गवर्नर जनरल को एक ज्ञापन भेजा ।
राय भारतवासियों की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे जो यह मानती थी कि भारत का आधुनिकीकरण अंग्रेजी शिक्षा के कारण और पाश्चात्य विज्ञानों के ज्ञान के प्रसार के कारण ही संभव होगा । पलड़ा अंतत उस समय अतलवादियों के पक्ष में झुक गया जब उपयोगितावादी सुधारक विलियम बेटिक 1828 में गवर्नर जनरल बना और 1834 में उसकी काउंसिल में टॉमस बैबिंग्टन मैकॉले को विधि सदस्य बनाया गया । उसे तुरंत ही सामान्य जन शिक्षा समिति का अध्यक्ष बना दिया गया ।
2 फरवरी, 1835 को उसने भारतीय शिक्षा पर अपना विख्यात कार्य-विवरण जारी किया जो भारत में अंग्रेजी शिक्षा के आरंभ का खाका बन गया । प्राच्च ज्ञान-विज्ञान के प्रति अपमान-भाव से भरे हुए मैकॉले के कार्य-विवरण का दावा था कि, ”यूरोप के एक अच्छे से पुस्तकालय की एक अकेली ताक भारत और अरब के पूरे मुल्की ज्ञान के समान” थी ।
इसलिए उसने भारतवासियों के लिए यूरोपीय साहित्य और विज्ञानों की शिक्षा का समर्थन किया जो अंग्रेजी भाषा के माध्यम से दी जाए । उसका तर्क था कि ऐसी शिक्षा ”हमारे और हमारे द्वारा शासित करोड़ों व्यक्तियों के बीच में ऐसे व्यक्तियों का एक वर्ग पैदा करेगी जो खून और रंग में भारतीय मगर रुचियों और विचारों में नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेज होंगे ।”
बेंटिंक ने 7 मार्च, 1835 के एक कार्यकारी आदेश में तुरंत उसके प्रस्तावों का अनुमोदन किया और प्राच्यवादियों के जोरदार प्रतिरोध के बावजूद अपने पक्ष से पीछे नहीं हटा । इस तरह जैसा कि सव्यसाची भट्टाचार्य ने कहा है भारत में ऐसी नई शिक्षा व्यवस्था का आरंभ हुआ जिसमें ज्ञान के सृजन का काम तो मालिक देश को सौंपा गया जबकि उसके पुनरुत्पादन दोहराव और प्रसार का काम उपनिवेश की जनता को सौंप दिया गया ।
भारत के लिए आधुनिकीकरण की नई परियोजना का आरंभ इसी तरह हुआ । जैसा कि गौरी विश्वनाथन का तर्क है अंग्रेजी शिक्षा भारत में 1835 से पहले अनेक रूपों में मौजूद थी । लेकिन पहले जहाँ अंग्रेजी का अध्ययन शास्त्रीय ढंग से मुख्यत: एक भाषा के रूप में किया जाता था वहीं अब नया परिवर्तन यह आया कि साहित्य का अध्ययन आधुनिक ज्ञान के माध्यम के रूप में किया जाने लगा ।
माना जाता था कि अंग्रेजी साहित्य अंग्रेजियत की पहचान का एक आदर्श प्रतिनिधान है जो अंग्रेजों द्वारा शोषण और दमन के तात्कालिक इतिहास से पवित्र और मुक्त था । इसके अलावा यह भी माना जाता था कि यह सदाचार नैतिकता और सम्यक् आचरण का उपयुक्त प्रशिक्षण देगा और इस तरह भारतवासियों के एक समूह को उपनिवेशी शासन के ढाँचे में समाहित करेगा जो अतलवाद का प्रमुख राजनीतिक एजेंडा
था ।
इस तरह अंग्रेजी शिक्षा की इस नई नीति की प्रमुख विशेषता ”अधोमुखी रिसाव” का सिद्धांत थी । यह शिक्षा जनता के लिए नहीं थी बल्कि, सी.ई. ट्रेवेल्यान के शब्दों में ”धनिकों, विद्वानों, व्यवसायियों” के लिए थी । क्योंकि उनके यहाँ शिक्षा की एक परंपरा थी ज्ञान पाने की उत्सुकता भी थी और उसके लिए साधन भी थे सबसे बड़ी बात यह कि उनके पास इसके लिए पर्याप्त अवकाश था ।
एक बार इन लोगों को प्रशिक्षित कर लिया जाए तो ये ही लोग अध्यापकों का काम करेंगे और फिर उनके द्वारा प्राथमिक शिक्षा क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से नीचे की ओर फैलेगी जिसपर सार्वजनिक व्यय बहुत कम आएगा ।
इस तरह पूरा ऐसी समाज पश्चिमी ज्ञान से तथा सदाचार और नैतिकता क्रे श्रेष्ठतर आदर्शों से लाभान्वित होगा । इसलिए देशी ग्रामीण स्कूलों चेन माध्यम से देशी भाषाओं की शिक्षा में सुधार की सिफ्रारिश करने वाली विलियम एडम की रिपोर्टो को अव्यावहारिक और खर्चीली कहकर अनदेखा कर दिया गया ।
परंपरागत और देशी ज्ञान-विज्ञान की तथा उच्च शिक्षा की कीमत पर अंग्रेजी शिक्षा और उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने का यही मॉडल बंबई और मद्रास प्रेसिडेंसियों में भी लागू किया गया । लेकिन पश्चिमोत्तर प्रांतों में एक उत्साही सिविलियन टॉमसन ने शिक्षा-प्रसार के लिए देशी प्राथमिक स्कूलों का प्रयोग किया और इसमें वह इतना सफल रहा कि बाद में लॉर्ड डलहौजी ने बंगाल और बिहार में इस मॉडल को लागू करने की सिफारिश की ।
1854 में चार्ल्स वुड के ”एजुकेशन डिसपैच” ने भी अधोमुखी रिसाव की इस नीति से ऐसे ही अलगाव का संकेत दिया और उसने देशी प्रारंभिक स्कूलों के विस्तार की सिफारिश की जिसे डलहौजी के प्रशासन ने अनुमोदित किया था ।
लेकिन प्रारंभिक जन-शिक्षा की दिशा में आए इस परिवर्तन में भी समाज के राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रति एक चिंता को देख पाना कठिन नहीं है जो श्रम-विभाजन के विचार पर आधारित था । इस नीति का प्रस्ताव यह था कि जहाँ अत्यधिक शिक्षित भारतवासियों का एक अपेक्षाकृत छोटा समूह प्रशासन के निचले पदों के लिए आवश्यक होगा वहीं व्यापक जनता को भी ऐसे अच्छे श्रमिक बनने के लिए ”उपयोगी और व्यावहारिक ज्ञान” मिलेगा जो साम्राज्य के व्यापक संसाधनों का विकास कर सके और साथ ही बाजार की खोज में लगी ब्रिटिश वस्तुओं की अधिक गुणवत्ता को महत्त्व देनेवाले अच्छे उपभोक्ता भी बनें ।
इसलिए जहाँ जनता के लिए प्राथमिक और तकनीकी शिक्षा का समर्थन किया गया वहीं 1857 में कलकत्ता बंबई और मद्रास में लंदन विश्वविद्यालय की तर्ज पर तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना करके उच्च शिक्षा को भी और बढ़ावा दिया गया ।
इसी मॉडल को उपनिवेशों की दशाओं के लिए सबसे उपयुक्त पाया गया । उदार सहायता-अनुदानों की योजना के अंतर्गत मिशनरियों की पहल और भारतवासियों की निजी पहल पर माध्यमिक स्कूलों का प्रसार हुआ जिनमें शिक्षा का माध्यम अभी भी अंग्रेजी था ।
लेकिन इन स्कूलों से शुल्क वसूल करने की अपेक्षा की जाती थी क्योंकि तर्क यह दिया जाता था कि मुफ्त शिक्षा को कोई महत्त्व नहीं देगा । 1859 में इस योजना की जगह भारत सचिव स्टैनली के शिक्षा-दर के विचार ने ले ली और इसके कारण देशी प्राथमिक शिक्षा को सबसे अधिक हानि उठानी पड़ी ।
1882 के भारतीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा व्यवस्था में द्वैत्व की समस्या को हल करने का असफल प्रयास किया । उसने थोड़े-से लोगों के लिए उच्च अंग्रेजी साहित्यिक शिक्षा और जनता के लिए तकनीकी शिक्षा के बीच नए सिरे से संतुलन बनाने की कोशिश की ।
उसकी (आयोग की) रिपोर्ट में कहा गया था ”वांछित यह है कि भारत की पूरी जनता शिक्षित हो ।” ऐसी सामान्य साक्षरता सुनिश्चित करने के लिए उसने शिक्षा के लिए ”विशेष कोष” अलग किए जाने की सिफारिश की खासकर ”पिछड़े समुदायों” के लिए ।
फिर भी दलित या अछूत समुदायों जैसे बड़े-बड़े समूह सरकारी स्कूलों से बाहर ही रहे क्योंकि उनकी उपस्थिति सवर्ण छात्रों को इन स्कूलों से विमुख कर देती जिनको उपनिवेशी शिक्षा व्यवस्था का प्रमुख लक्ष्य-वर्ग माना गया था ।
इस अलगाव को उपनिवेशी नौकरशाही का सक्रिय समर्थन प्राप्त था जिसने व्यावहारिकता के नाम पर भारतीय कुलीनवर्ग के रूढ़िवादी हिस्सों के दबाव के आगे घुटने टेक दिए; इनमें से अनेक व्यक्ति तो अब साम्राज्य के आधार-स्तरीय कार्मिक बन चुके थे ।
इस तरह ब्रिटिश शिक्षा नीति ने भारतीय समाज में विभेदीकरण का अनुमोदन और समर्थन किया । 1885 तक बी. टी. मैककली की एक गणना के अनुसार भारत में ”लगभग पचपन हजार देशवासियों का अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त वर्ग मौजूद था” लेकिन 1881-82 में 19.5 करोड़ की कुल आबादी में 20 लाख से कुछ ही अधिक लोगों ने प्राथमिक स्कूलों का मुँह देखा था । भारत के सामाजिक और राजनीतिक विकास पर इस विभेदीकरण का सचमुच दूरगामी प्रभाव पड़ा ।
भारत में अनेक कारणों से अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ किया गया और उसके निरंतर प्रसार को बढ़ावा दिया गया । मिशनरी मानते थे कि इससे भारतवासियों के धर्म-परिवर्तन के रास्ते खुलेंगे । उपयोगितावादी इसे ब्रिटेन के साम्राज्यिक लक्ष्य कीं अंतिम पूर्ति समझते थे; 1815 में लॉर्ड मोरिया ने कहा था कि ”मूल जनता को शिक्षा प्रदान करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य है ।”
दूसरी ओर उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो से ही ईस्ट इंडिया कंपनी प्रशासन के ढाँचे के निचले पदों का भारतीयकरण करके भारत पर शासन की लागत कम करने की कोशिश करती आ रही थी । पूरी तरह अंग्रेजों की सहायता से प्रशासन चलाना अब वित्तीय दृष्टि से व्यावहारिक नहीं रह गया था न ही यह राजनीतिक दृष्टि से उपयुक्त था ।
इसलिए अंग्रेजी में-मैकॉले के शब्दों में ”शासक वर्ग द्वारा बोली जानेवाली भाषा” में-समुचित शिक्षा निचले स्तर की लोकसेवाओं के लिए उनको प्रशिक्षित करने का साधन थी । फिर भी अंग्रेजों की तरह बोलना ही पर्याप्त नहीं था; उनके लिए अंग्रेजों की तरह सोचना और व्यवहार करना भी आवश्यक था ।
इस तरह साम्राज्यवाद के इस शैक्षिक उद्यम का उद्देश्य भारतीय प्रजा में उपनिवेशी शासन के लिए निष्ठा की भावना पैदा करना था कि वे उसकी प्रभु द्वारा निर्धारित प्रकृति में और उसके सभ्यता-प्रसार के ध्येय में विश्वास करें ।
गौरी विश्वनाथन का तर्क यह है कि उपनिवेशी शिक्षा व्यवस्था ने अपनी पाठ्यचर्या में अंग्रेजी साहित्यिक अध्ययनों को जगह ”देशी प्रजा में उद्यमशीलता दक्षता विश्वसनीयता और आज्ञापालन सुनिश्चित करने के साधन के रूप में ” दी । लेकिन एक नैतिक शिक्षा के रूप में भारत में इसका कार्यकलाप इतना उपयुक्त न था जितना इंग्लैंड में था ।
इसका कारण सर्वप्रथम तो यह था कि भारत में उदार शिक्षा को पर्याप्त प्रतिफल नहीं मिल पाते थे । लेकिन इससे भी गंभीर कारण यह था कि शिक्षित भारतवासियों ने इस ज्ञान को चुनिंदा ढंग से अपनाया और स्वयं उपनिवेशी शासन को चुनौती देने के लिए इसका उपयोग किया ।
इस कारण उपनिवेशी शासन ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए बलप्रयोग की नीति का कभी नहीं त्याग किया और इसके लिए उसने इस पूरे काल में पुलिस और सेना के लंबे-चौड़े प्रतिष्ठान कायम रखे । लेकिन जैसा कि के.एन. पणिक्कर का भी तर्क है उसके सामाजिक नियंत्रण को ”वैचारिक प्रभावों की पैदा की हुई एक भ्रांति ।” निश्चित ही बल मिला; ये प्रभाव हमेशा साम्राज्यिक शैक्षिक उद्यमों के केंद्रीय सरोकार रहे ।
जो भारतवासी अंग्रेजी शिक्षा की ओर आकर्षित हुए वे मुख्यत मध्य और निम्न आय-वर्गो के हिंदू सवर्ण पुरुष थे जो उस काल के परिवर्तनों के कारण आर्थिक दृष्टि से बहुत तंगहाल थे । इनमें से अधिकांश के लिए शिक्षा की एक कार्यकारी उपयोगिता थी यह कठिन समय में जीवन-रक्षा का साधन आर्थिक समृद्धि और शक्ति पाने का आरंभिक भारतीय प्रत्युतर: सुधार और विद्रोह 145 साधन थी और केवल बौद्धिक ज्ञान का मार्ग भर नहीं थी ।
लेकिन जब वह भौतिक आशा पूरी न हुई तो इन्हीं लोगों का ज्ञान एक कठोर उपनिवेशी राजसत्ता का सामना करने का सबसे अच्छा शस्त्र बन गया । बी.टी. मैककली जैसे अंग्रेजी शिक्षा के समर्थकों ने बहुत पहले ही तर्क दिया था कि ”अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय युवकों को विचारों की ऐसी समष्टि के संपर्क में ला दिया जो खुलकर ऐसी अनेक-बुनियादी मान्यताओं को चुनौती देती थी जिन पर परंपरागत जीवनमूल्यों का ताना-बाना टिका हुआ था ।”
और भी सटीक ढंग से कहें तो हम इस ”विचारों की समष्टि” की पहचान ज्ञानोदय (Enlightenment) के बाद के उस बुद्धिवाद के रूप में कर सकते हैं जिसने शिक्षित भारतवासियों के एक चुनिंदा समूह के लिए ! ”आधुनिकता” का निरूपण किया । वे अब अपने ही समाज को ऐसे चश्मे से देखने लगे जो वैचारिक दृष्टि से बुद्धि उपयोगिता प्रगति और न्याय जैसी अवधारणाओं से बना हुआ था ।
1893 में रवींद्रनाथ ठाकुर ने भारत में ऐसी ”जनता” को जन्म लेते देखा जो अभी भी परिपक्व न थी पर अपने समाचारपत्रों और स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से अपने समाज के कल्याण को प्रभावित करनेवाले विभिन्न मुद्दों पर सार्वजनिक बहस करने में दिलचस्पी रखती थी । दूसरे शब्दों में एक ऐसा नागरिक समाज जन्म ले चुका था जो था तो बहुत सीमित लेकिन अपनी पहचान को एक भारतीय परंपरा के दायरे में स्थापित करते हुए अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति बहुत मुखर था ।
मगर यह महसूस भी किया गया कि इस परंपरा मैं सुधार की आवश्यकता थी क्योंकि उस विशिष्ट उपनिवेशी वैचारिक संदर्भ में सभी प्रचलित सामाजिक रीति-रिवाज और धार्मिक विचार ऐसे पतनशील सामंती समाज की पहचान लगते थे जिसको एक पूँजीवादी समाज-व्यवस्था के जीवनमूल्यों के आधार पर पुनर्गठित करने की आवश्यकता थी ।
दूसरे शब्दों में ‘ज्ञानोदय’ को उन सभी बुराइयों और पिछड़ेपन की ”रामबाण दवा” बतलाया जा रहा था जिनके लिए भारतवासियों को दोषी ठहराया जाता था । इस नए कुलीनवर्ग के लिए जो अपने लिए उपनिवेशवाद द्वारा बौद्धिक स्तर पर निरूपित एक नई विश्व-व्यवस्था में आगे बढ़ने के प्रयास कर रहा था ”अब विज्ञान आधुनिकता और प्रगति का एक सार्वभौम चिह्न” बन गया और जैसा कि ज्ञानप्रकाश का सुझाव है एक प्रामाणिक ”सुधार की भाषा” बन गया ।
हालांकि उपनिवेशी राजसत्ता भारतीय जनता को वैज्ञानिक शिक्षा नहीं देती थी फिर भी राममोहन राय जैसे बुद्धिजीवियों ने अपने देशवासियों के लिए ऐसी शिक्षा-व्यवस्था का प्रस्ताव रखा जो पश्चिमी विज्ञानों पर ध्यान केंद्रित करे । कलकत्ता में 1825 में यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान के अनुवाद के लिए एक सोसायटी स्थापित की गई और उसके बाद 1838 में सामान्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए एक सोसायटी बनी ।
इस आंदोलन ने जो वैज्ञानिक शिक्षा के विकास को राष्ट्रीय सुधार की कुंजी समझता था तब एक मील का पत्थर पार किया जब बंगाली बुद्धिजीवी महेंद्रलाल सरकार ने 1876 में इंडियन एसोसिएशन फर द कल्टीवेशन ऑफ़ साईंस की नींव रखी । और अगर इस संवाद का आरंभ कलकत्ता के प्रबुद्ध कुलीनों के एक छोटे से समूह ने किया तो शीघ्र ही यह सार्वभौम बन गया क्योंकि एक नई मुद्रण संस्कृति के विकास के कारण यह दूसरे प्रांतों में भी फैला ।
उदाहरण के लिए उत्तर भारत में 1861 में बनारस डिबेटिंग क्लब की 1864 में सैयद अहमद खाँ द्वारा अलीगढ़ साइंटिफिक सोसायटी की और 1868 में बिहार साइंटिफिक सोसायटी की स्थापना ने विज्ञान की शक्ति संबंधी इस संवाद को आगे बढ़ाया जो उसके बाद हिंदी के साहित्यिक आंदोलनों और हिंदू पुनरूत्थानवादी अभियानों के नए-नए क्षेत्रों में व्याप्त होने लगा ।
समस्या वस्तुत: एक कुलीनवर्ग की इस वैज्ञानिक बुद्धिवादी मानसिकता को सामाजिक सुधार के एक कारगर एजेंडा का रूप देने की थी जो वृहत्तर जनता को प्रभावित और सम्मिलित करे । सबसे पहले यह नई मानसिकता हेनरी विवियन देरोजियो के छात्रों में सबसे स्पष्ट देखी गई; देरोजियो कलकत्ता के हिंदू कॉलेज के एक ‘यूरेशियाई’ अध्यापक थे जिन्होंने अपने छात्रों में स्वतंत्र चिंतन की भावना का विकास किया ।
यंग बंगाल नाम का यह विवादास्पद दल अपने व्यक्तिवादी सामाजिक विद्रोह के कारण अपने ही समय में बदनाम हो गया; यह विद्रोह मद्यपान और निषिद्ध मांस के भक्षण में व्यक्त हो रहा था । लेकिन उनके बारे में इससे भी अहम बात यह थी कि उन्होंने हिंदू धर्म के सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवाद को एक बौद्धिक चुनौती दी ।
उन्होंने ही 1838 में सामान्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए उपरोक्त सोसायटी की स्थापना की थी जिसमें वे पश्चिमी विज्ञान से संबंधित विभिन्न पक्षों पर बहस करते थे तथा अनेक सामाजिक सुधारों का समर्थन करते थे जैसे जातिगत विधानों (Caste taboos) पर बाल-विवाहों पर कुलीनों के बहुपत्नीवाद पर प्रतिबंध लगाने का तथा विधवाओं के पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबध हटाए जाने का ।
फिर भी वे वांछित सुधारों के युग में प्रवेश न कर सके ब्रिटिश और अंग्रेजी शिक्षा में उनकी पूरी आस्था ने उनके पश्चिम से प्राप्त बुद्धिवाद और विज्ञान-प्रेम ने उनको भारतीय जनसमूहों से अलग कर दिया और वे अपने प्रस्तावित सुधारों के समर्थन में कभी कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर सके ।
उनकी घोषित ”नास्तिकता” जो आरंभ में बहुत स्पष्ट थी जल्द ही अपनी धार खोने लगी और उनकी जब आयु बड़ी और वे समाज में स्थापित हुए तो उनकी क्रांतिकारिता भी मंद पड़ने लगी । इस तरह जैसा कि सुमित सरकार का निष्कर्ष है देरोजियो के अनुयायियों के यंग बंगाल ने उन्नीसवीं सदी के भारत में ”धर्म और दर्शन की सतह पर बहुत कम ही स्पष्ट या स्थायी प्रभाव छोड़ा ।”
इस काल के दूसरे भारतीय सुधारको के लिए चुनौती थी अपनी ही सभ्यता में बुद्धि और विज्ञान का फिर से पता लगाने की तथा भारतीय परपरा द्वारा निरूपित सांस्कृतिक समष्टि के अंदर आधुनिकीकरण की परियोजना को नए सिरे से स्थित करने की ।
इस नई बौद्धिक हलचल ने सुधार की ऐसी मानसिकता पैदा की जो भारतीय परंपरा को अस्वीकार नहीं करती थी बल्कि हिंदू समाज के कुछ ‘अबुद्धिसंगत’ पक्षों को बदलना चाहती थी जो उनकी भारत के शानदार अतीत संबंधी नई ‘बुद्धिवादी’ छवि के अनुरूप न थे ।
इस चीज ने विलियम बेंटिंक जैसे उपयोगितावादी सुधारकों के सुधार के एजेंडे को वैधता प्रदान की । पर चूंकि यह सोच अभी भी अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त कुलीनवर्ग के छोटे-से दायरे तक सीमित थी सुधार के कार्यक्रम के सफल होने की आशा शायद ही की जा सकती थी ।
वास्तव में उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में ऐसे समाजसुधारों की एक संखला ही सामने आई जो मुख्यत सरकार द्वारा ऊपर से आरोपित सुधार थे । लेकिन जैसीकि आशा थी ये सुधार अधिकतर कागज पर ही रहे क्योंकि नीचे से एक आधुनिक सामाजिक चेतना के विकास की कभी कोई कोशिश नहीं की गई ।
उदाहरण के लिए 1803 में लॉर्ड वेलेजली ने बंगाल की खाड़ी के सागर द्वीप में शिशु-बलि की धार्मिक प्रथा पर रोक लगा दी । लेकिन यह अनुष्ठान भले ही रुक गया पश्चिमी और उत्तरी भारत में नन्हीं बालिकाओं की हत्या की अल्पगोचर सामाजिक प्रथा अबाध गति से जारी रही इन क्षेत्रों में अनुलोम विवाह के नियम का पालन करने वाले सवर्ण भूस्वामी परिवारों को अपनी बेटियों के लिए अच्छे वर पाना या उनके लिए भारी दहेज दे पाना कठिन लगता था और वे जन्म के समय ही बेटियों की हत्या कर दिया करते थे ।
अंग्रेज अधिकारियों ने उनको इस प्रथा से दूर रहने के लिए कभी समझाने की और 1830 के बाद बलप्रयोग करने की कोशिश की पर कोई विशेष परिणाम सामने नहीं आया । एक कानूनी प्रतिबंध की बात 1857 के विद्रोह के कारण रुक गई और इसे 1870 तक टाले रखा गया जब अंतत वायसरॉय की काउंसिल ने बालिका-हत्या-पर एक कानून पारित किया ।
लेकिन उसके बाद भी जनगणना अधिकारी बालिकाओं की घोर उपेक्षा की खबरें देते रहे । इसका परिणाम उनकी ऊँची मृत्युदर था जिसे न कानून पकड़ सकता था न रोक सकता था । लॉर्ड बेंटिंक को जिस सबसे बड़ी उपलब्धि के लिए याद किया जाता है वह था सतीप्रथा पर प्रतिबंध अर्थात् अपने स्वर्गीय पति की चिता पर एक विधवा के जिंदा जल जाने पर प्रतिबंध ।
यह प्रथा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही थी पर जैसी कि एक आधुनिक शोधकर्त्ता ने पुष्टि की है यह ”हमेशा ही हिंदू जीवन के नियम की अपेक्षा एक अपवाद” ही रही मुगलकाल में केवल मध्य भारत और राजस्थान के राजपूत राजघराने इस प्रथा का पालन करते थे दक्षिण भारत में विजयनगर राज्य में इसका पालन होता था ।
ब्रिटिश काल में अठारहवीं सदी के अंतिम और उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में बड़े पैमाने पर इस प्रथा को उन क्षेत्रों में फिर से आरंभ किया गया जहाँ ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत विकास की दर सबसे अधिक थी अर्थात् राजधानी कलकत्ता और आसपास के जिलों में ।
यहाँ यह प्रथा सवर्ण जातियों में ही नहीं बल्कि निचली और मंझोली जातियों के उन किसान परिवारों में भी लोकप्रिय हुई जो सामाजिक गतिशीलता प्राप्त कर चुके थे और फिर श्रेष्ठतर जातियों की नकल करके अपनी नई स्थिति को वैध बनाना चाहते थे ।
समाजशास्त्रीय कारण के अलावा तथा एक आदर्श पत्नी को जीवन-मृत्यु दोनों में अपने पति की सहचरी माननेवाली धार्मिक धारणा के अलावा एक और कारण रिश्तेदारों का लोभ था जो संभवत: इन परिवारों की नई-नई समृद्धि की उपज था ।
यह प्रथा उन क्षेत्रों में सबसे अधिक प्रचलित थी जहाँ हिंदू पारिवारिक विधान के दायभाग संप्रदाय का प्रचलन था । इसमें मिताक्षरा संप्रदाय की अपेक्षा विधवा को स्वर्गीय पति की संपत्ति पाने का अपेक्षाकृत अधिक अधिकार दिया गया था । वैसे तो इस संस्था पर सबसे पहले ईसाई मिशनरियों ने हमले किए पर इस आंदोलन को वास्तविक गति राजा राममोहन राय के नेतृत्व में एक जोरदार उन्यूलनवादी अभियान ने दी ।
अंतत गवर्नर जनरल बेंटिंक ने एक सरकारी आदेश के द्वारा 1829 में सतीप्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जिसे उम्बूलन-विरोधी धर्मसभा द्वारा 1830 में प्रिवी काउंसिल में दायर एक हिंदू याचिका भी रह नहीं करा
सकी । लेकिन इस प्रतिबंध के बाद सतीप्रथा की घटनाओं में जहाँ धीरे-धीरे कमी आई वहीं पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त मध्य वर्गो की आधुनिकतावादी समालोचना और उपनिवेशी प्रशासन के सुधार के उत्साह के बावजूद लोक-मानस में सती के विचार और मिथक की जगह बनी रही ।
काव्यों लोकगीतों और लोककथाओं के कारण इस विचार को लगातार बल मिलता रहा और आखिरकार सार्वजनिक जीवन में यह बहुत आगे चलकर 1987 में राजस्थान के देवराला गाँव में रूपकुंवर के बहुचर्चित सती कांड के रूप में फिर एक बार सामने आया ।
इससे भी अधिक असफल उन्नीसवीं सदी के मध्य का वह सुधार आंदोलन रहा जो विधवाओं के पुनर्विवाह को बढ़ावा देना चाहता था । इसके प्रमुख प्रचारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने अग्रगामी राममोहन राय की ही तरह एक कानून बनवाने के लिए उपनिवेशी राजसत्ता का मुँह निहारते रहे ।
पर 1856 का हिंदू विधवा पुनर्विवाह कानून (हिंदू विडोज रिमैरिज ऐक्ट) जिसने ऐसे विवाहों को कानून-सम्मत बनाया इस प्रथा को सामाजिक स्वीकृति नहीं दिला सका । इसके विपरीत जैसा कि लूसी कैराल का तर्क है यह कानून बुनियादी तौर पर रूढ़िवादी था क्योंकि पुनर्विवाह के बाद एक विधवा अपने स्वर्गीय पति की संपत्ति में भागीदार नहीं रहती थी इस तरह इस कानून ने केवल ”पवित्र साध्वी विधवा” को पुरस्कृत करने के ब्राह्मणवादी नियम का अनुमोदन किया ।
इस आंदोलन का अंत उस चीज पर हुआ जिसे विद्यासागर के जीवनी-लेखक अशोक सेन ने एक वे अनेक विधवाओं का पुनर्विवाह होते नहीं देख सके क्योंकि इसके लिए सामाजिक सहमति की आवश्यकता थी जिसे उपनिवेशी राजसत्ता पैदा नहीं कर सकी ।
इसके कारण बंगाल के शिक्षित वर्गो में न केवल विधवा-पुनर्विवाह की प्रथा दुर्लभ रही बल्कि अगले कुछ दशकों में प्रतिबंध और भी सार्वभौम हो गया तथा निम्न वर्गो में भी इस पर प्रतिबंध लग गया । स्थिति पश्चिमी भारत में भी कुछ खास भिन्न नहीं थी जहाँ बहुत पहले 1841 में एक अज्ञात मराठी ब्राह्मण सुधारक ने बाल-विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन उनकी यौन-वासना को नियंत्रित करने और उनकी संतानोत्पत्ति की क्षमता को सामाजिक दृष्टि से उपयोगी बनाने के एक कदम के रूप में किया ।
पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त मध्य वर्गो में विधवा-पुनर्विवाह का आंदोलन 1860 के दशक में फैला तथा सुधारकों और अनेक निंदकों की आपसी बहस भी और अधिक तेज और कड़वी हुई । 1866 में विष्णुशास्त्री पंडित ने विधवा-पुनर्विवाह को बढ़ावा देने के लिए एक संगठन बनाया मगर उनके विरोधियों ने भी एक संगठन बना लिया । 1870 में सुधारवादियों को एक धक्का तब लगा जब पूना की एक सार्वजनिक बहस में काविरमठ के शंकराचार्य ने उनको दोषी पाया तथा उनमें से अनेक ने पश्चाताप किया ।
हालांकि कुछ यशस्वी विधवाएं भी हुई जैसे महाराष्ट्र के सार्वजनिक जीवन पर छाप छोड़नेवाली पंडिता रामाबाई थीं पर विधवा-पुनर्विवाह आंदोलन का हास्यास्पद अंत हुआ । इसका कारण था सदी के अंत तक केवल अड़तीस विधवाओं ने पुर्नार्वेवाह किया था और इनमें भी दंपतियों को असीमित सामाजिक दबाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ा ।
अब विधवा-पुनर्विवाह पर प्रतिबंध और भी व्यापक हो गया क्योंकि यह निचली जातियों में भी प्रतिबंधित हो गया इसके बावजूद कि जब्री सती समान वैधव्य पर एक अब्राह्मण समाजसुधारक ज्योतिराव फूले ने जमकर हमले किए ।
मद्रास प्रेसिडेंसी के तेलुगु भाषी क्षेत्रों में विधवा-पुनर्विवाह के समर्थन में आंदोलन का आरंभ वीरेशलिंगम पांटुलू ने किया था जिन्होंने इसके लिए 1878 में एक समाजसुधार संगठन की स्थापना की । इस क्षेत्र में पहला विधवा पुनर्विवाह घोर विरोध के बीच उन्हीं के नगर राजमुंदरी में 1881 में हुआ जिसकी अगुवाई उन्होंने ही की ।
धीरे-धीरे सुधार के लिए समर्थन बढ़ता गया और 1891 में नगर के गण्यमान्य नागरिकों के संरक्षण में एक विधवा-पुनर्विवाह संगठन विडो रिमैरिज एसोसिएशन की स्थापना हुई । लेकिन इस उत्साह के बावजूद सुधारक तब तक केवल तीन ऐसे विवाहों का आयोजन कर सके थे ।
अलग-अलग क्षेत्रों में स्थितियों में बहुत भिन्नता थी क्योंकि हरियाणा में जहाँ विधवाओं के पुनर्विवाह की प्रथा पहले ही बड़े पैमाने पर प्रचलित थी इस नए कानून ने ऐसे विवाहों को वैधता प्रदान की तथा उन्हें और भी सामाजिक स्वीकृति दिलाई दूसरे शब्दों में भारतीय समाज पर उपनिवेशी सुधार कानूनों का बहुत ही असमान प्रभाव पड़ा ।
बंगाल में विद्यासागर ने अपना सुधार आंदोलन जारी रखा उसे बहुपत्नी-प्रथा और फिर बाल-विवाह के विरुद्ध मोड़ा और अंत में 1860 में विवाह की आयु संबंधी एक कानून पारित कराया जिसमें स्त्रियों के लिए विवाह की परिणति की आयु 10 वर्ष तय की गई थी ।
1891 में एक अन्य कानून के द्वारा इसे बढ़ाकर 12 वर्ष किया गया लेकिन जैसा कि जनगणना के आकड़ों से पता चलता है ऊँची और निचली दोनों जातियों में बीसवीं सदी में भी बहुत बाद तक बाल-विवाह की प्रथा व्यापक स्तर पर प्रचलित रही ।
ऊपर से और खासकर कानूनों के माध्यम से लागू किए गए सुधार दूसरे क्षेत्रों में भी अप्रभावी रहे जहाँ उनकी धार विशेष या संगठित धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं के विरुद्ध रही । उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक दकन और मध्य भारत पर अंग्रेजों की विजय ने इन अस्थिर क्षेत्रों में पैक्स ब्रिटानिका की स्थापना के पक्ष में एक सुधारवादी आकांक्षा को जन्म दिया ।
लेकिन यह कार्य इसलिए कठिन हो गया कि भारतीय राजाओं की सेनाओं के भंग किए जाने और रोजगार के अवसर सामान्यत सिकुड़ने के कारण चलते-फिरते हथियारबंद गिरोहों के हाथों अपराध की और खासकर डकैती की दर बड़ी ।
इसी के साथ उन घुमक्कड़ श्रमणों के संघों के प्रति सरकार का अविश्वास बढ़ा जो एक स्थानबद्ध करदाता कृषक समुदाय के ब्रिटिश आदर्श के लिए ही चुनौती थे । इसलिए इन सभी अलग-अलग प्रकार के घुमक्कड़ समूहों को एक ही उपनिवेशी धारणा में रूढ़ कर दिया गया अर्थात् ठगों की धारणा में जिनको परंपरागत ढंग से डकैती में और धर्म के नाम पर हत्या में शामिल एक ”बिरादरी” (Fraternity) के सदस्य माना जाता
था । ठगी विरोधी अभियान का आरंभ 1830 के दशक में ब्रिटेन की सर्वोच्चता के उसी मानववादी ध्येय के दावे के साथ किया गया जिसका प्रचारक लॉर्ड बेंटिंक था ।
जैसा कि राधिका सिंघा का तर्क है इस अभियान का उद्देश्य देशी समाज की शिक्षा या पुनर्जन्म के द्वारा ठगी का उन्यूलन करना नहीं था; 1836 के ”ठगी” ऐक्ट (xxx) और ठगी विभाग का उद्देश्य केवल उन गिरोहों को पकड़ना और सजा दिलाना था जिनको धर्म के नाम पर अपराध में लिप्त माना जाता था । पर यह काम मुश्किल साबित हुआ ।
1839 में इस अभियान के प्रणेता सर विलियम स्लीमन ने दावा किया कि एक संगठित व्यवस्था के रूप में ठगी का उमूलन किया जा चुका है । वास्तव में उसे ठगी के आरोप में घुमक्कड साधुओं के विभिन्न समूहों को दंड दिलाने की कठिनाई का पता चल गया ।
इसलिए उसने ऐसे समुदायों की निगरानी के लिए और भी लोचदार रणनीतियों को अपनाना बेहतर माना । जो कमोबेश संगठित प्रथाएँ सदियों से जनता की दैनिक संस्कृति का हिस्सा थीं उनके विरुद्ध सुधार के कानून और भी अधिक अप्रभावी रहे । 1843 में दासप्रथा का उन्यूलन इसका एक आदर्श उदाहरण है ।
ब्रिटेन में दासप्रथा का उन्तुलन 1820 में किया जा चुका था और भारत में उपनिवेशी प्रशासकों को विभिन्न रूपों में इसके अस्तित्व का पता चलता ही रहा । भारत में खेतिहर संबंध जटिल थे और श्रम की निर्भरता के अनेक ढाँचे उसकी विशेषता थे; ज्ञानोदय के बाद के स्वतंत्रता-अस्वतंत्रता के द्वैत्व के चश्मे से देखने पर इनमें से अनेक ढाँचे अंग्रेजों को दासता के समान लगते थे ।
इसलिए 1833 के चार्टर ऐक्ट ने भारत सरकार को दासप्रथा के उन्तुलन का निर्देश दिया और कानूनी रूप से उसका उन्यूलन लागू होने तक संसद का दबाव बढ़ता ही रहा । लेकिन जहाँ तक सवाल खेतिहर दासप्रथा का था कूँक दासता के वास्तविक रूप अलग-अलग थे इसलिए कानूनी प्रतिबंध का प्रभाव भी बहुत सीमित रहा ।
जाति-प्रथा रीति-रिवाजों और कर्जदारी ने खेत मजदूरों को विभिन्न प्रकार से अपने भूस्वामियों से आगे भी एक लंबे समय तक बाँधकर रखा । दिलचस्प बात यह है कि स्त्रियों की स्थिति उपनिवेशी राजसत्ता और शिक्षित भारतवासियों के लिए सुधार के कार्यो का प्रमुख केंद्र बन गई ।
यह एक बड़ी सीमा तक उपनिवेशी काल के एक सभ्यता संबंधी तुलनात्मक संवाद का परिणाम था । दूसरे शब्दों में सभ्यताओं के श्रेणीकरण में प्रमुख मानदंडों में एक मानदंड समाज में स्त्रियों की स्थिति थी और यही मुद्दा था जिसे लेकर भारतवासी पश्चिमी प्रेक्षकों मिशनरियों से लेकर सिविलियन कर्मचारियों तक के हमलों के अधिकाधिक निशाने बनते रहे ।
दूसरे ढंग से कहें, तो भारतीय सभ्यता को इसलिए हीन बताया गया कि उसमें स्त्रियों की स्थिति हीन रखी गई थी । यह लैंगिक प्रश्न जेम्स मिल के लिए एक बुनियादी मुद्दा था जिसने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ्रॅ ब्रिटिश इंडिया (The History Of British India) में भारतीय सभ्यता की निंदा की ।
इसलिए पढ़े-लिखे भारतवासियों ने भी भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में सुधार की पैरवी और समर्थन करके इस सभ्यता संबंधी समालोचना का प्रत्युत्तर दिया । जैसा कि हमने देखा ऐसे सुधारों ने उनके अपने वर्गों की कुछेक स्त्रियों को ही प्रभावित किया और वह भी बहुत सीमित पैमाने पर क्योंकि ये स्त्रियाँ भी पुरुषों का संरक्षण पाती रहीं और अपनै ही इतिहास सजग विषयवस्तु के रूप में इन सुधारवादी परियोजनाओं से कभी नहीं जुड़ी ।
इस तरह सुधार के बारे में उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो में इस सार्वजनिक संवाद का न केवल भारतीय समाज पर सीमित प्रभाव पड़ा बल्कि यह संवाद स्त्रियों के लिए आरक्षित निजी क्षेत्र या घरेलू क्षेत्र पर भी शिक्षित भारतीय पुरुषों के नियंत्रण का सूचक था ।
यह कहना सरलीकरण होगा कि उन्नीसवीं सदी के महान सुधारक स्त्रियों के कल्याण के प्रति चिंतित नहीं थे । लेकिन ये सुधार केवल स्त्रियों के लिए नहीं थे इस विषय की ओर हम थोड़ी देर बाद लौटेंगे । ऐसी सभ्यता संबंधी समालोचनाओं पर शिक्षित भारतीय कुलीनों का एक और प्रत्युत्तर प्रबोधकाल के बाद के बुद्धिवाद की रोशनी में हिंदू धर्म का अंदर से सुधार करना था । पुराने इतिहास-लेखन में इस संवृत्ति (Phenomenon) का अकसर ”बंगाल का पुनर्जागरण” या उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण कहकर इसका गुणगान किया जाता रहा है ।
हालांकि ”पुनर्जागरण” (Renaissance) शब्द का प्रयोग समस्यामूलक है फिर भी इस सांस्कृतिक आंदोलन में मूल रूप से भारत के अतीत में बुद्धिवाद की खोज की जाती रही है और इस तरह उसकी धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं को बुद्धि के आलोचना-जगत में पुनर्स्थापित किया जाता रहा है ।
बंगाल में इस आंदोलन का आरंभ राजा राममोहन राय ने किया जिनकी अकसर आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है । वे उन सवर्ण कुलीनों में से थे, जिनकी शक्ति और स्थिति को स्थायी बंदोबस्त ने और उपनिवेशी शासन द्वारा किए गए दूसरे अवसरों ने और मजबूत बनाया ।
राममोहन राय ने अठारहवीं सदी के फारसी-अरबी साहित्य के अध्ययन से इस बुद्धिवाद को ग्रहण किया था । उन्होंने आगे चलकर वेदांती एकेश्वरवाद (Vodantic Monism) का अध्ययन किया और 1815 में कलकत्ता आकर बसने के बाद ईसाई एकसत्तावाद (Christian unitarianism) से उनका परिचय हुआ ।
ऐसे बौद्धिक प्रभावों ने उनको ईसाईयत की श्रेष्ठता के मिशनरी दावों को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया; उनका उत्तर बुद्धि की रोशनी में हिंदू धर्म का सुधार करना था और इसके लिए उन्होंने उसके उस शुद्ध रूप का सहारा लिया जो वेदांत ग्रंथों में पाया जाता था ।
उन्होंने मूर्ति-पूजा की पुरोहिती और बहुदेववाद की निंदा की और बंगला में उपनिषदों का अनुवाद यह दिखाने के लिए किया कि प्राचीन हिंदू ग्रंथ स्वयं भी एकेश्वरवाद के प्रचारक थे । राममोहन राय का पहला संगठन कलकत्ता में 1815 में स्थापित आत्मीय सभा थी जिसने अंतत: 1828 में ब्रह्मसमाज का रूप ले लिया । वह शिक्षित मध्यवर्गीय बंगालियों का प्रमुख धार्मिक आंदोलन बनकर उभरा और एकेश्वरवाद के मूल सिद्धांत पर आधारित था ।
1833 में राय की मृत्यु के बाद ब्रह्मसमाज आंदोलन का नेतृत्व देवेंद्रनाथ ठाकुर ने सँभाल लिया जिन्होंने उसे एक बेहतर सांगठनिक ढाँचे और वैचारिक सुसंगति से लैस किया । लेकिन इस आंदोलन को कलकत्ता के पढ़े-लिखे लोगों के सीमित कुलीन वर्गो से बाहर निकाल कर वास्तव में उसे पूर्वी बंगाल के कस्बों तक लै जाने का काम 1860 के दशक में विजयकृष्ण गोस्वामी और केशवचंद्र सेन ने किया ।
गोस्वामी ने ब्रह्म-सिद्धांत और वैष्णववाद की लोकप्रिय धार्मिक परंपरा की खाई को पाटा जबकि सेन ने अपना ध्यान मुख्यत: गंगा के पूर्वी मैदानों के पश्चिमी रंग में न रंगे बंगालियों की और भी बड़ी संख्या तक पहुँचने तथा आंदोलन को बंगाल से बाहर दूसरे भारतीय प्रांतों तक ले जाने पर केंद्रित किया ।
यदि मिशनरी कार्यकलाप ब्रह्म आंदोलन को केशव सेन का एक प्रमुख योगदान था तो दूसरा योगदान समाजसुधारों पर नए सिरे से ध्यान देना था । जाति-प्रथा पर आक्रमण करके स्त्रियों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करके विधवा-पुनर्विवाहों और अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ावा देकर और ब्रह्म प्रचारकों की जातिगत स्थिति का प्रश्न उठाकर उन्होंने आंदोलन को एक सीमा तक अतिवादी भी बनाया; प्रचारक का पद तब तक केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित था ।
जैसा कि मेरेडिथ बोर्थविक ने दिखाया है बुनियादी तौर पर यह केशव और देवेंद्रनाथ के अनुयायियों के बीच एक विभाजन था केशव के अनुयायी अगर सामाजिक प्रगति और सुधार को किसी भी अन्य बात से अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे तो देवेंद्रनाथ के अनुयायी हिंदू समाज के साथ अपने जुड़ाव को बनाए रखना चाहते थे ।
केशव सेन के अनुयायियों ने 1866 में अपना ब्रह्मसमाज ऑफ इंडिया बना लिया जबकि देवेंद्रनाथ के अनुयायियों ने आदि (मूल) ब्रह्म-समाज के नाम से अपनी पहचान बनाए रखने की कोशिश की । ये विकासक्रम भारत के उस आधुनिकीकरण की शाश्वत दुविधाओं के संकेत थे जो भारतीय परंपरा में लगातार अपनी जड़ें ढूँढने का प्रयास करता रहता था ।
जैसा कि जल्द ही स्पष्ट हो गया यह विभाजन विचारधारा के किसी बुनियादी मतभेद से अधिक पहचान का एक संकट था; जहाँ कुछ ब्रह्मसमाजी अपने आपको हिंदुओं से अलग दिखाना चाहते थे वहीं दूसरों ने हिंदू धर्म की वृहत परंपरा के अंदर एक स्थिति पाने का प्रयास किया ।
यह संकट तब और गहराया और विभाजन तब और बढ़ गया जब 1872 में ब्रह्म विवाह कानून ब्रह्मो मैरिज ऐक्ट पारित हुआ; उसने ब्रह्म विवाहों को वैध ठहराया जिनमें अंतर्जातीय और विधवा विवाह भी शामिल थे शर्त केवल यह थी कि विवाह करनेवाले अपने आपको गैर-हिंदू घोषित करें ।
फलस्वरूप यह कानून कभी जनप्रिय नहीं बन सका । आगे चलकर खुद सेन अपने अतिवादी रवैये से पीछे हट गए ”दैवविमुख विवाहों” (Godless marriages) की निंदा की तथा और भी आगे चलकर हिंदू संन्यासी रामकृष्ण परमहंस के और निकट आ गए ।
इसके कारण धीरे-धीरे 1878 में ब्रह्मसमाज फिर विभाजित हो गया । सेन ने कूचबिहार के महाराजा से जब अपनी नाबालिग बेटी का विवाह तय किया तो उनके अनुयायियों ने अलग होकर साधारण ब्रह्मसमाज बना लिया ।
1881 में सेन ने अपना ‘नबो बिधान’ (नया विधान) बनाया और एक नए सार्वभौम धर्म की ओर बढ़ने लगे । लेकिन उस समय तक उत्तरोत्तर वैचारिक विभाजन और सांगठनिक अलगाव ब्रह्म आंदोलन को कमजोर कर चुके थे और वह एक छोटे से कुलीन समूह तक सीमित होकर रह गया ।
फिर उसके बाद वह पश्चिम के मुकाबले हिंदू पहचान के साहसिक ऐलान के रूप में ”सुधारवाद” की बजाय ”पुनरुत्थानवाद” के एक नव्य-हिंदू आक्रामक अभियान के आगे हथियार डाल बैठा । पश्चिमी भारत में सुधारों की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षा में दो अलग-अलग तरीकों से हुई ।
एक तरीका तो प्राचीन संस्कृत ग्रंथों की छानबीन व अनुवाद का और उनमें भारतीय सभ्यता की गरिमा की तलाश का प्राच्यवादी का था । इस कार्य में लगे सबसे यशस्वी विद्वान-सुधारक के.टी. तेलंग, वी.एन. मांडलिक और सबसे बढ्कर प्रोफेसर आर.जी. भंडारकर थे ।
दूसरा तरीका समाजसुधार की और अधिक प्रत्यक्ष विधिवाला था जो जाति-प्रथा जैसी सामाजिक संस्थाओं पर विधवा-पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबन्ध पर हमले करता था । यह कार्य मेहताजी दुर्गाराम मंचाराम करसनदास मूलजी या दादोबा पांडुरंग जैसे अनेक व्यक्तियों ने किए जो 1844 में स्थापित मानव धर्म सभा या 1849 में स्थापित परमहंस मंडली जैसे संगठनों से जुड़े हुए थे ।
परमहंस मंडली बंगाल के देरोजियोवादियों की मूर्तिभंजक क्रांतिकारी परंपरा का अनुसरण करता था पर व्यापकतर समुदाय से सीधा टकराव बचाने के लिए एक गुप्त सभा की तरह काम करता था । इसलिए 1860 में उसके सदस्यों का भांडा फूट जाने पर वह जल्द ही समाप्त हो गया और उसकी उपलब्धियाँ बहुत कम रहीं । लेकिन महाराष्ट्र-गुजरात क्षेत्र में पश्चिमी शिक्षा का इस बीच बहुत प्रसार हो चुका था और सुधारों का इच्छुक एक समूह पैदा हो चुका था ।
ऐसे संदर्भ में जब बंगाल के ब्रह्म मिशनरी केशवचंद्र सेन ने 1864 और 1867 में बंबई की यात्राएँ कीं तो उसका गहरा प्रभाव पड़ा । वास्तव में इसी का प्रत्यक्ष परिणाम था कि 1867 में बंबई में प्रार्थना समाज की स्थापना हुई । हालांकि इसके संस्थापक अध्यक्ष आत्माराम पांडुरंग थे पर उसके पीछे वास्तविक प्रेरणा महादेव गोविंद रानाडे की थी जिनके योग्य सहायक भंडारकर और एन.जी. चंदावरकर थे ।
के.टी. तेलंग जो नियमित रूप से समाज की बैठकों में आते थे कभी उसके सदस्य नहीं बने । इस नए संगठन के सभी अग्रणी व्यक्ति पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे । जहाँ तक दर्शन का सवाल है तो ब्रह्म आंदोलन की तरह प्रार्थना समाज भी एकेश्वरवाद का प्रचार करता था तथा मूर्ति-पूजा पुरोहितों के प्रभुत्व और जाति-भेदों की निंदा करता था । बाद में उसने समन्वयवाद का विकास किया और खुद को महाराष्ट्र की भक्ति परंपरा से जोड़ा ।
प्रार्थना समाज ने बंगाल के ब्रह्म आंदोलन से एक अंतर बनाए रखा । सबसे उल्लेखनीय अंतर बंगाल के ब्रह्मवादियों के अपेक्षाकृत अधिक टकराववादी रवैयों के विपरीत उसका सावधानी भरा दृष्टिकोण था । रानाडे ने कहा कि ”(बंबई) प्रेसिडेसी में आंदोलन का प्रमुख तत्त्व” उसका यह लक्ष्य था कि ”अतीत से नाता न तोड़ा जाए और हमारे समाज से सारे संबंध भंग न हों ।”
वह सुधारों को समाज के ढाँचे को तोड़ ने वाली उथल-पुथल के रूप में नहीं बल्कि क्रमिक ढंग से लाना चाहता था । दूसरे शब्दों में यह कि किसी स्पष्ट विच्छेद का संकेत दिए बिना आधुनिकीकरण परंपरा के सांस्कृतिक क्षेत्र में खप जाए ।
इसी कमिकवादी दृष्टिकोण ने प्रार्थना समाज को वृहत्तर समाज के लिए अधिक स्वीकार्य बनाया । पूना सूरत अहमदाबाद कराची किरकी कोल्हापुर और सतारा में उसकी शाखाएँ स्थापित हुई । उसके कार्यकलाप दक्षिण भारत में भी फैले जहाँ आंदोलन का नेतृत्व तेलुगू सुधारक वीरेशलिंगम कर रहे थे । बीसवीं सदी के आरंभ तक मद्रास प्रेसिडेंसी में इसकी अठारह शाखाएँ थीं ।
लेकिन दूसरी ओर सावधानी के इस दृष्टिकोण ने भी प्रार्थना समाज के लिए उसका पहला संकट खड़ा कर दिया । 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती ने गुजरात और महाराष्ट्र का दौरा किया तथा एक अधिक अतिवादी और स्वघोषी धार्मिक आंदोलन की संभावनाएँ सामने रखीं ।
एस.पी. केलकर के नेतृत्व में समाज के सदस्यों का एक समूह स्वामी दयानंद की आर्य विचारधारा की ओर खिंचा और अलग हो गया । हालांकि यह विरोधी गुट फिर प्रार्थना समाज में वापस लौट आया पर यहाँ से पश्चिमी भारत में एक अलग प्रकार की धार्मिक राजनीति का आरंभ हुआ जिसकी पहचान सुधारवाद से अधिक सांस्कृतिक श्रेष्ठतावाद था ।
सुधार की परंपरा में यह फूट स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आरंभ किए गए धार्मिक आदोलन ने डाली जिन्होंने 1875 में आर्यसमाज की स्थापना की । दयानंद ने सबसे प्रामाणिक भारतीय धार्मिक ग्रंथों के रूप में वेदों की सत्ता का उल्लेख किया और हिंदू धर्म को सभी वेद-पश्चात प्रक्षेपों (Accretions) से मुक्त कराने का प्रयास किया ।
उनके संवाद (Discourse) पर पश्चिमी प्राच्यवादी छाप को अनदेखा करना कठिन है; इसने (आर्यसमाज ने) भी हिंदू धर्म को ईसाईयत और इस्लाम की तरह एक ” ग्रंथकेंद्रित धर्म” के रूप में पेश करने की कोशिश
की ।” पर इससे भी अहम बात यह है कि पश्चिम का आक्रमक प्रत्युत्तर देते हुए उन्होंने बुद्धि और विज्ञान के पश्चिमी बौद्धिक संवाद को पूरी तरह आत्मसात किया और उनका उपयोग अपने विरोधियों के विरुद्ध किया ।
उनका दावा था कि ”वैज्ञानिक सत्य” केवल वेदों में थे और इसलिए इन ग्रंथों पर आधारित धर्म ईसाइयत और इस्लाम से श्रेष्ठ था । वेदों की सत्ता के आधार पर उन्होंने मूर्ति-पूजा बहुदेववाद ब्राह्मण पुरोहितों के आधिपत्य वाले कर्मकांडी धर्म पर हमले किए बाल-विवाह की भर्त्सना की तथा विधवा-विवाह अंतर्जातीय विवाहों और स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया ।
दिलचस्प बात यह है कि पश्चिमी सुधारक इन्हीं सुधारों का तो समर्थन कर रहे थे । उन्होंने छुआछूत की निंदा की और जाति-प्रथा का निषेध किया पर साथ ही चार वर्णो की व्यवस्था का समर्थन किया और इस तरह भारतीय सामाजिक संगठन की बुनियाद को यथावत रखा ।
उनका आक्रामक सुधारवाद रूढ़िवादी हिंदुओं को यहाँ तक कि ब्रह्मवादियों को भी आकर्षित न कर सका तथा पूर्वी और पश्चिमी भारत में हाशिये पर ही रहा पर पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रति में उसका गर्मजोशी से स्वागत हुआ । 1883 में उनकी मृत्यु के समय तक इस पूरे क्षेत्र में आर्यसमाज की शाखाएँ मौजूद थीं तथा इसी समय के बाद यह आदोलन अधिकाधिक लोकप्रिय साथ ही अधिकाधिक आक्रामक होता चला गया ।
उनके शिष्यों में जो नरमपंथी थे तथा शिक्षा और समुदाय-कार्य पर ध्यान केंद्रित करते थे वे धीरे-धीरे 1893 के बाद हाशिये पर पहुँच गए जब वेदों के धर्म का प्रचार करने मुसलमानों पर हमले करने तथा ईसाईयत सिक्स और इस्लाम जैसे तीन धर्म-परिवर्तन करानेवाले धर्मो को अपनानेवाले हिंदुओं की शुद्धि का आंदोलन चलाकर खोई हुई जमीन दोबारा पाने के लिए पंडित गुरुदत्त और पंडित लेखराम के नेतृत्व एक जुझारू गुट ने एक जुझारू अभियान आरंभ किया ।
उसके बाद 1890 के दशक में तो आर्यसमाज जोरों से गो-रक्षा आदोलन में लग गया और इस तरह सुधारवाद से निर्णायक सीमा तक हटकर पुनरुत्थानवाद पर पहुँच गया । फिर भी यहाँ आवश्यकता है उन्नीसवीं सदी के इन सामाजिक और धार्मिक सुधार आदोलनों के कुछ विशेष पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने की जिनके कारण ऐसा रूपातरंण संभव हुआ ।
ये आंदोलन सबसे पहले तो एक संकीर्ण सामाजिक क्षेत्र तक सीमित थे क्योंकि सुधार की भावना एक छोटे-से कुलीन समूह को ही प्रभावित करती थी जो मुख्यत: उपनिवेशी शासन के आर्थिक और सामाजिक लाभार्थियों का समूह था ।
बंगाल का सुधार आंदोलन पश्चिमी शिक्षा से लैस कुलीनों की छोटी-सी संख्या तक ही सीमित था जिनको सामान्य नाम भद्रलोक से जाना जाता था । ये वे ”नए मानव” थे जिन्होंने अंग्रेज अफ़सरों और मुक्त व्यापार करनेवालों के कनिष्ठ सहभागियों के रूप में पैसा बनाया था स्थायी बंदोबस्त के तहत छोटे भूस्वामियों के रूप में अपनी स्थिति मजबूत बनाई थी और बाद में अंग्रेजी शिक्षा से लाभ उठाकर विभिन्न नए पेशों में और प्रशासन के निचले पदों पर जगह बनाई थी ।
सामाजिक दृष्टि से वे अधिकतर हिंदू थे और भले ही जाति इस कुलीन समूह की सदस्यता का कोई प्रमुख आधार न थी फिर भी वे अधिकतर तीन ऊँची जातियों के सदस्य अर्थात् ब्राह्मण कायस्थ और वैश्य थे । ब्रह्म आंदोलन को लगभग पूरी तरह इन्हीं समूहों का संरक्षण प्राप्त था और भले ही यह कलकत्ता से छोटे कस्बों और दूसरे प्रांतों तक फैला फिर भी यह जनता से कटा ही रहा ।
सुधारकों ने सुधार को कभी जनता तक ले जाने की कोशिश भी नहीं की तथा सुधार की भाषा जैसे राममोहन राय के गद्य की ठेठ संस्कृतमय बंगला अशिक्षित किसानों और दस्तकारों की समझ से परे ही रही । इसी तरह पश्चिमी भारत में प्रार्थना समाज के सदस्य पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त चितपावन और सारस्वत ब्राह्मण कुछ गुजराती सौदागर और पारसी समुदाय के कुछ लोग थे 1872 में इस समाज के केवल अड़सठ सदस्य और लगभग 150-200 समर्थक थे मद्रास प्रेसिडेंसी में जहाँ अंग्रेजी शिक्षा की प्रगति बहुत धीमी रही और ब्राह्मणों का जातिगत वर्चस्व अप्रभावित रहा सुधार के विचार और भी देर से सामने आए ।
वास्तव में उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षो के सुधार आदोलनों का सामान्यत: सवर्ण चरित्र ही जाति के प्रश्न पर अपनी सापेक्ष चुप्पी की एक बड़ी हद तक व्याख्या करता है । समाजसुधार के एक मुद्दे के रूप में छुआछूत का प्रश्न बीसवीं सदी में पहले विश्वयुद्ध के बाद भारत के सार्वजनिक जीवन में महात्मा गांधी के उदय के बाद ही उठाया गया ।
एक व्यापक सामाजिक आधार के अभाव में उन्नीसवीं सदी के आरंभ के सुधारकों ने इसी कारण उपनिवेशी शासन की कृपाकारी प्रकृति में एक सहज विश्वास का परिचय दिया और ऊपर से सुधारों के आरोपण के लिए कानूनों पर भरोसा किया ।
आधारभूत स्तर पर एक सुधारवादी सामाजिक चेतना पैदा करने की कोई कोशिश या कोई खास कोशिश नहीं की गई; आगे चलकर धार्मिक पुनरुत्थानवाद को एक उपजाऊ जमीन इसी स्तर पर मिली । उतना ही महत्त्वपूर्ण सुधारों का यह उपनिवेशी चरित्र था क्योंकि भारतीय सुधार के रवैये एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में उपनिवेशी सोच को और इस तरह उपनिवेशी नीति-निर्माताओं के द्वैध भाव को प्रतिबिंबित करते थे ।
उन दिनों की एक अहम उपनिवेशी मान्यता यह थी कि धर्म भारतीय समाज का आधार है और यह धर्म ग्रंथों में सूत्रबद्ध है । इस उपनिवेशी सोच ने यह मान लिया कि देशी समाज ग्रंथों के आदेशों के आगे पूरी तरह सर झुका लेता है ।
सामाजिक बुराइयों को स्वार्थी व्यक्तियों के हाथों ग्रंथों की विकृति के परिणाम माना गया इस उदाहरण में स्वार्थी लोग थे धूर्त ब्राह्मण पुरोहित जिनका इन ग्रंथों के ज्ञान पर एकाधिकार था । इस तरह उपनिवेशी शासन के सभ्यताकारी लक्ष्य को इस बात में निहित माना गया कि उसने देशी लोगों को उनके अपने शास्त्रों की सच्चाइयाँ वापस लौटाईं जिनको कम ही पढ़ा और उससे भी कम समझा जाता था ।
लता मणि (1998) का तर्क है कि सती संबंधी पूरी बहस का आधार शास्त्रों में था: उपनिवेशी शासन ने उस पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय तभी किया जब उसे विश्वास हो गया कि यह प्रथा शास्त्रसम्मत नहीं थी । चूंकि उपनिवेशी शासक सबसे अधिक महत्त्व ग्रंथों को देते थे इसलिए भारतीय सुधारकों ने और उनके निंदकों ने भी अपने-अपने पक्ष के समर्थन में प्राचीन धार्मिक ग्रंथों का ही उल्लेख किया ।
इस प्रथा की निर्ममता या अनौचित्य या सुधार जिनके लिए थे उन्हीं स्त्रियों की दशा जैसे प्रश्न उस विवाद के लिए कम महत्त्वपूर्ण थे जो परंपरा के निरूपण पर अधिक केंद्रित था । मणि के शब्दों में ”स्त्रियाँ न विषयी (Subjects) थीं न विषय (Objects) थीं, बल्कि सती संबंधी संवाद के आधार थीं स्वयं स्त्रियाँ इस विवाद के लिए अप्रासंगिक हैं । यह बात विधवा-पुनर्विवाह संबंधी बहस के और आगे चलकर बालिका-हत्या पर लगे प्रतिबंध संबंधी बहस के बारे में कही जा सकती है ।
इस तरह ग्रंथों ने जिनको हाल में प्राच्यवादियों ने उछाला था सामाजिक सुधारों को वैधता प्रदान की और स्त्रियों को अपनी स्वयं की मुक्ति में भी निमित्त कारण नहीं माना गया । इसके साथ हम पहुँचते हैं उपनिवेशी मानसिकता के अंदरूनी तनावों पर क्योंकि यह कहना सही नहीं है कि भारतीय सुधारवादी संवाद कुछेक उपनिवेशी प्रस्तुतियों (Formulations) को ही प्रतिबिंबित करते थे ।
सच तो यह है कि राममोहन राय की आरंभिक रचनाएँ भारतीय स्त्रियों की दशा में सुधार के ”मानववादी आग्रहों” से भरी हुई हैं । सतीप्रथा के उन्यूलन का समर्थन करने के लिए उन्होंने ग्रंथों की बात की क्योंकि एक सजग उपनिवेशी सरकार को और परिवर्तन को स्वीकार करने में हिचक रहे एक अक्खड़ हिंदू समाज से अपना सुधार वे इसी तरह मनवा सकते थे ।
लेकिन इस परंपरावाद के बावजूद जैसा कि तपन रायचौधुरी का तर्क है उनके (राय के) निर्णायक तर्क (समकालीन नारीवाद) के मुहावरों और रवैयों के पूर्वगामी थे । राय का बुद्धिवाद वास्तव में उपनिवेश-पूर्व विचार था ।
अपनी आरंभिक फारसी रचनाओं में उन्होंने धर्म के प्रति पूरी तरह बुद्धिवादी रुख अपनाया था जो स्वयं धर्म के निषेध के लगभग बराबर था । लेकिन कलकत्ता में ईसाईयत और पश्चिमी मुक्त व्यापारवादी सोच के संपर्क में आने के बाद वे कुछ और भी नरम या संभवत अधिक दुविधाग्रस्त हो गए ।
यह बात हमें माननी ही होगी कि परंपरा और आधुनिकीकरण का एक तीखा विभाजन बौद्धिक स्तर पर उन्नीसवीं सदी के भारत में सुधारों की प्रक्रिया की समझ में सहायक नहीं होगा । सुधारकों के रुख में नजर आनेवाला द्वैध-भाव स्पष्टत: एक उपनिवेशी संदर्भ की उपज था ।
उपनिवेशी संवादों के एक सर्वसमावेशी प्रभाव के दावों के विपरीत कोई यह भी कह सकता है कि कोई भी वर्चस्व कभी इतना निरपेक्ष नहीं होता कि स्वतंत्रता के लिए कुछ जगह ही न बचे । भारत के आधुनिकतावादी हालांकि समर्थन और मार्गदर्शन के लिए उपनिवेशी राजसत्ता की ओर: देखते थे और उनकी सोच ज्ञानोदय काल के बाद के बुद्धिवाद से निर्धारित हुई फिर भी न तो वे अपनी परंपरा को छोड़ सकते थे न अपनी भारतीय पहचान भूल सकते थे ।
इसलिए भारत में आधुनिकीकरण की परियोजना हमेशा ऐसी आधुनिकता के निर्माण की विवशता अनुभव करती रही जिसकी जड़ें भारतीय संस्कृति में हों । क्रिस्तोफ जेफ्रीलॉ के शब्दों में उनके रुख को सामने रखें तो उन्होंने “अपने समाज और उसके धार्मिक तौर-तरीकों के सुधार का काम हिंदू परंपरा के मूल को सुरक्षित रखते हुए उनको पश्चिमी आधुनिकता के अनुसार ढालने के लिए हाथ में लिया ।”
भारतीय बुद्धिजीवियों ने भारतीय राष्ट्रीयता के सांस्कृतिक उत्स की उपनिवेशवादी पश्चिम से उसके अंतर की कल्पना धीरे-धीरे इसी परियोजना के माध्यम से की । लेकिन इस सांस्कृतिक उद्यम में निहित द्वैध-भाव या तनावों ने ही उसे आगे चलकर कमजोर बनाया और उसे उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षा में परंपरा के और भी आक्रामक घोषणा के आगे असहाय बना दिया ।
जैसा कि हम देखेंगे बाद के ये सांस्कृतिक आंदोलन भी एक ही समय में भारतीय परंपरा की उपनिवेशी प्रस्तुतियों पर संदेह करने और उनसे तालमेल बिठाने की एक पेचीदा बौद्धिक परियोजना मैं शामिल थे ।